Thursday, November 5, 2015

अरुंधति रॉय: मैं अपना पुरस्कार क्यों लौटा रही हूँ

अरुंधति रॉय का यह लेख आज इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ है. 



अरुंधति रॉय: मैं अपना पुरस्कार क्यों लौटा रही हूँ 

(अनुवाद: मनोज पटेल) 


हालांकि मैं यह नहीं मानती कि पुरस्कार हमारे काम को मापने का कोई पैमाना होते हैं, मैं लौटाए गए पुरस्कारों के बढ़ते ढेर में 1989 में सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए जीता गया अपना राष्ट्रीय पुरस्कार जोड़ना चाहूंगी. इसके अलावा, मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं यह पुरस्कार इसलिए नहीं लौटा रही हूँ क्योंकि मैं मौजूदा सरकार द्वारा पोसी जा रही उस चीज को देखकर "हैरान" हूँ जिसे "बढ़ती असहिष्णुता" कहा जा रहा है. सबसे पहले तो यह कि इंसानों की पीट-पीट कर हत्या, उन्हें गोली मारने, जलाकर मारने और उनकी सामूहिक हत्या के लिए "असहिष्णुता" गलत शब्द है. दूसरे, भविष्य में क्या होने वाला है इसके कई संकेत हमें पहले ही मिल चुके थे, इसलिए इस सरकार के भारी बहुमत से सत्ता में आने के बाद जो कुछ हुआ उसके लिए मैं हैरान होने का दावा नहीं कर सकती. तीसरे, ये भयावह हत्याएँ एक गंभीर बीमारी का लक्षण भर हैं. जीते-जागते लोगों की ज़िंदगी नर्क बनकर रह गई है. करोड़ों दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और ईसाइयों की पूरी-पूरी आबादी दहशत में जीने के लिए मजबूर है कि क्या पता कब और किस तरफ से उनपर हमला बोल दिया जाए. 

आज हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसमें नई व्यवस्था के ठग और गिरोहबाज जब "अवैध वध" की बात करते हैं तो उनका मतलब क़त्ल कर दिए गए जीते जागते इंसान से नहीं, मारी गई एक काल्पनिक गाय से होता है. जब वे घटनास्थल से "फॉरेंसिक जांच के लिए सबूत" उठाने की बात करते हैं तो उनका मतलब मार डाले गए आदमी की लाश से नहीं, फ्रिज में मौजूद भोजन से होता है. हम कहते हैं कि हमने "प्रगति" की है लेकिन जब दलितों की हत्या होती है और उनके बच्चों को ज़िंदा जला दिया जाता है तो हमला झेले, मारे जाने, गोली खाए या जेल जाए बिना आज कौन सा लेखक बाबासाहब अम्बेडकर की तरह खुलकर कह सकता है कि, "अछूतों के लिए हिंदुत्व संत्रासों की एक वास्तविक कोठरी है"? कौन लेखक वह सब कुछ लिख सकता है जो सआदत हसन मंटो ने "अंकल सैम के लिए पत्र" में लिखा? इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि हम कही जा रही बात से सहमत हैं या असहमत. यदि हमें स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं होगा तो हम बौद्धिक कुपोषण से पीड़ित एक समाज में, मूर्खों के एक देश में बदलकर रह जाएंगे. पूरे उपमहाद्वीप में पतन की एक दौड़ चल रही है जिसमें नया भारत भी जोशो खरोश से शामिल हो गया है. यहां भी अब सेंसरशिप भीड़ को आउटसोर्स कर दी गई है. 

मुझे बहुत खुशी है कि मुझे (काफी पहले के अपने अतीत से कहीं) एक राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया है जिसे मैं लौटा सकती हूँ क्योंकि इससे मुझे देश के लेखकों, फिल्मकारों और शिक्षाविदों द्वारा शुरू किए गए एक राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा होने का मौका मिल रहा है. वे एक प्रकार की वैचारिक क्रूरता और हमारी सामूहिक बौद्धिकता पर हमले के विरुद्ध उठ खड़े हुए हैं. यदि इसका मुकाबला हमने अभी नहीं किया तो यह हमें टुकड़े-टुकड़े कर बहुत गहरे दफ़न कर देगा. मेरा मानना है कि कलाकार और बुद्धिजीवी इस समय जो कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है जिसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं है. यह अलग साधनों से की जा रही राजनीति है. इसका हिस्सा होना मेरे लिए गर्व की बात है. और आज इस देश में जो हो रहा है, उसपर मैं बहुत शर्मिंदा भी हूँ.  

पुनश्च: रिकार्ड के लिए यह भी बता दूँ कि 2005 में कांग्रेस की सत्ता के दौरान मैंने साहित्य अकादमी सम्मान ठुकरा दिया था. इसलिए कृपया कांग्रेस बनाम भाजपा वाली पुरानी बहस से मुझे बख्शे रहें. अब बात इस सबसे काफी आगे निकल गई है. धन्यवाद!  

Friday, January 30, 2015

पर्स में रखा एक खत

(पिछले सप्ताह मिस्र के तहरीर चौक पर पुलिस की गोली से सोशलिस्ट एक्टिविस्ट शाइमा अल-सबा की मृत्यु हो गई. वे एक कवयित्री भी थीं. प्रस्तुत है उनकी एक कविता…)  


पर्स में रखा एक खत : शाइमा अल-सबा 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

पूरे यकीन से तो नहीं कह सकती, सचमुच 
वह एक पर्स ही तो था 
मगर खो जाने के बाद एक दिक्कत खड़ी हो गई 
कि बिना उसके कैसे करूँ दुनिया का सामना 
इसलिए 
क्योंकि सड़कें हम दोनों को साथ-साथ ही पहचानती थीं 
दुकानें उसे जानती थीं मुझसे भी ज्यादा 
आखिर वही तो देता था पैसे 
पहचानता था मेरे पसीने की गंध और पसंद करता था उसे 
जानता था तमाम बसों को 
और उनके ड्राइवरों से अपने अलग ताल्लुक थे उसके 
याद रहते थे उसे टिकट के दाम 
और हमेशा पूरे छुट्टे पैसे होते थे उसके पास 
जब एक बार मैंने वह परफ्यूम खरीदा जो उसे नहीं था पसंद 
तो उसने गिरा दिया सारा का सारा 
और मुझे नहीं करने दिया उसका इस्तेमाल 
और हाँ 
मेरे घर के सारे लोगों को वह करता था प्यार 
और हमेशा साथ रखता था उन सबकी एक तस्वीर 
जिन्हें प्यार करता था वह 

कैसा लग रहा होगा उसे इस वक़्त 
शायद डर? 
या नाराज़ किसी अनजान शख्स के पसीने की बू से  
नई-नई सड़कों से चिढ़ा हुआ? 
और गर वह गया होगा किसी ऐसे स्टोर में 
जहाँ हम जाया करते थे साथ-साथ 
क्या उन्हीं चीजों को पसंद किया होगा उसने? 
बहरहाल, घर की चाभियाँ हैं उसके पास 
और मुझे इंतज़ार है उसका 
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Tuesday, January 27, 2015

ट्विटर पर ईश्वर

(दोस्तों, Twitter भी क्या मजेदार जगह है. यहाँ भगवान भी Tweet करते हैं. जी हाँ, God नाम के ट्विटर हैंडल (@TheTweetOfGod) से खूब मजेदार ट्वीट किए जाते हैं. मैंने आपके लिए कुछ चुनिंदा Tweets का अनुवाद किया है.)


















God के ट्वीट 
(अनुवाद: मनोज पटेल)
 
मुझे पढ़ना चर्च जाने के बराबर है, रीट्वीट करना मिशनरी काम करने के बराबर, और मुझे ऐसे सवाल ट्वीट करना जिनका मैं जवाब नहीं देता बराबर है प्रार्थना करने के.
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इसे रीट्वीट करने पर आप अपनी मर्जी का पाप कर सकते हैं.
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सऊदी अरब के शाह अब्दुल्ला का निधन हो गया. 50 मिलियन सालों में वे तेल हो जाएंगे. 
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मैं ईश्वर हूँ, तुम्हारा भगवान, ब्रह्माण्ड का स्वामी, सर्वशक्तिमान, दिक एवं काल का रचयिता. और हाँ, हँसी-मजाक बर्दाश्त कर सकता हूँ मैं. 
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आज #मैंशार्लीहूँ के समर्थन में मेरी इज्जत का कचरा कर डालो लोगों. 
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ऐसे ही वक्तों पर मैं सोचता हूँ कि काश मैं सचमुच होता.
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अमेरिका की नई संसद में 80% श्वेत हैं, 80% पुरुष, 92% ईसाई और 99% 1%. 
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यदि मेरा अस्तित्व है तो इसे रीट्वीट मत करना.
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अत्यधिक ताकत के साथ अत्यधिक गैर-जिम्मेदारी आती है. 
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"बाल यौन शोषण के सजायाफ्ता अपराधी ने 30 लाख की फ्लोरिडा लॉटरी जीती." लेकिन मेरा अस्तित्व है, कसम से. 
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अगली बार मैं बिना चमड़ी वाले इंसान बनाऊंगा. न नस्लभेद रह जाएगा, न मुंहासे. 
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बता दूँ, ताकि सनद रहे कि मैं हजारों साल से हंगर गेम्स चला रहा हूँ. 
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अगली बार कोई किताब लिखूं तो शायद मैं नॉन-फिक्शन पर हाथ आजमाऊँ. 
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मजेदार बात यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग को मनगढ़ंत मानने वाले तकरीबन सभी लोग मुझे मनगढ़ंत नहीं मानते.  
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यदि इस पर विश्वास करना बेतुका है कि मैं ट्विटर के 140 कैरेक्टर्स के माध्यम से दुनिया से संवाद स्थापित करता हूँ तो इस पर विश्वास करना बेतुका क्यों नहीं कि मैंने छह दिन में दुनिया बना डाली.
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इसे रीट्वीट करने पर आपको जन्नत मिलेगी. जी हाँ, अब स्टैण्डर्ड इतना ही गिर गया है. 
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अपने भीतर कहीं गहरे मुझे भी पता है कि मैं नहीं हूँ. 
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Friday, January 23, 2015

पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी

(IBN 7 के एसोसिएट एडिटर पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी पर कुछ चुनिंदा फेसबुक प्रतिक्रियाएँ.)  




पंकज श्रीवास्तव :
और मैं आईबीएन 7 के एसो.एडिटर पद से बर्खास्त हुआ !!! सात साल बाद अचानक सच बोलना गुनाह हो गया !!!!
कल शाम आईबीएन 7 के डिप्टी मैनेजिंग एडिटर सुमित अवस्थी को दो मोबाइल संदेश भेजे। इरादा उन्हें बताना था कि चैनल केजरीवाल के खिलाफ पक्षपाती खबरें दिखा रहा है, जो पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है। बतौर एसो.एडिटर संपादकीय बैठकों में भी यह बात उठाता रहता था, लेकिन हर तरफ से 'किरन का करिश्मा' दिखाने का निर्देश था।दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष सतीश उपाध्याय पर बिजली मीटर लगाने को लेकर लगे आरोपों और उनकी कंपनी में उनके भाई उमेश उपाध्याय की भागीदारी के खुलासे के बाद हालात और खराब हो गये।उमेश उपाध्याय आईबीएन 7 के संपादकीय प्रमुख हैं। मेरी बेचैनी बढ़ रही थी। मैंने सुमित को यह सोचकर एसएमएस किया कि वे पहले इस कंपनी में रिपोर्टर बतौर काम कर चुके हैं, मेरी पीड़ा समझेंगे। लेकिन इसके डेढ़ घंटे मुझे तुरंत प्रभाव से बर्खास्त कर दिया गया। नियमत: ऐसे मामलों में एक महीने का नोटिस और 'शो काॅज़' देना जरूरी है।
पिछले साल मुकेश अंबानी की कंपनी के नेटवर्क 18 के मालिक बनने के बाद 7 जुलाई को 'टाउन हाॅल' आयोजित किया गया था (आईबीएन 7 और सीएनएन आईबीएन के सभी कर्मचरियों की आम सभा ) तो मैंने कामकाज में आजादी का सवाल उठाया था। तब सार्वजनिक आश्वासन दिया गया था कि पत्रकारिता के पेशेगत मूल्यों को बरकरार रखा जाएगा। दुर्भाग्य से मैने इस पर यकीन कर लिया था।
बहरहाल मेरे सामने इस्तीफा देकर चुपचाप निकल जाने का विकल्प भी रखा गया था।यह भी कहा गया कि दूसरी जगह नौकरी दिलाने में मदद की जाएगी। लेकिन मैंने कानूनी लड़ाई का मन बनाया ताकि तय हो जाये कि मीडिया कंपनियाँ मनमाने तरीके से पत्रकारों को नहीं निकाल सकतीं ।
इस लड़ाई में मुझे आप सबका साथ चाहिये। नैतिक भी और भौतिक भी।बहुत दिनों बाद 'मुक्ति' को महसूस कर रहा हूं। लग रहा है कि इलाहाबाद विश्वविदयालय की युनिवर्सिटी रोड पर फिर मुठ्ठी ताने खड़ा हूँ।
मुझसे संपर्क का नंबर रहेगा----09873014510
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Ibn7 ने पंकज श्रीवास्तव को अपनी बात उसी बेख़ौफ़ अंदाज़ में जिसके दावे चैनल अपनी प्रोमो में लगातार करता रहा है, रखने पर न केवल बिना किसी नोटिस के बर्खास्त कर दिया बल्कि उनका लॉकर तोड़कर तलाशी ली गयी...इन सबके पीछे चैनल के मैनेजिंग एडिटर सुमित अवस्थी का हाथ बताया जा रहा है..वही सुमित अवस्थी जो आपको रोज लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का पाठ पढ़ाते हैं.
ऐसा करना किसी की निजता का,उसके आत्मसम्मान के साथ क्या करना है और ऐसा करके क्या साबित करना चाहते हैं, ये आप बेहतर समझ सकते हैं. मीडिया ऐसी शक्ल ले चुका है जिसमे मीडियाकर्मी को अलग से दुश्मन खोजने की ज़रुरत नहीं रह गयी है.
[ विनीत कुमार ]
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पंकज श्रीवास्तव कोई खलिहर पत्रकार नहीं थे. जब से अम्बानी ने नेटवर्क 18 ख़रीदा तब से उन्हें कई तरह के प्रोजेक्ट संभालने के लिए दिए. फिलहाल वे ई -टीवी के कुल ग्यारह क्षेत्रीय चैनलों की फीड देखते थे. वे यह तय करते थे की कौन सा कार्यक्रम आईबीएन के लायक है और कौन सा नहीं.
दूसरी बात अगर पंकज श्रीवास्तव को आम आदमी पार्टी या किसी और सियासी दल में शामिल होना होता तो वे दिल्ली चुनाव में नामांकन से पहले आईबीएन से इस्तीफा दे देते. गौर करने वाली बात ये है की उन्हें बर्खास्त किया गया है क्योंकि वे लगातार अम्बानी के बड़े दलालों की आँख की किरकिरी बन गए थे.
बकौल पंकज , वे अब फ्री लांसिंग करेंगे किसी चैनल में नौकरी नहीं.
साथी, अभी पंकज ने तय किया है की वे अदालत में इस पूरे मामले को ले जायेंगे. मुझे पता है हम जैसे रोज़ कमाने खाने वाले लोग दो दिन बाद इस मामले को भूल जायेंगे लेकिन फिर भी इस बार पंकज के सहारे प्रेस में कारपोरेट दलालों के हस्तक्षेप के खिलाफ मुहीम ,छोटी मुहीम ही सही. शुरू तो करनी ही होगी.
[ मो. अनस ]
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IBN 7 के सीनियर मीडियाकर्मी Pankaj श्रीवास्तव को कल रात कंपनी ने बिना वजह बताये बाहर कर दिया. जैसे कोई आपको सिर्फ इसीलिए गोली मार दे कि बंदूक उसके पास है.बात इतनी थी कि वो न्यूज़रूम में अपने साथियों को अक्सर ये कहते थे कि हमारी ख़बरों.में BJP के मुकाबले AAP का पक्ष बिल्कुल नहीं चलता जो ethics के खिलाफ है. 18 साल मीडिया मे रहने के बाद किसी पत्रकार को अपने 'दलाल' साथियों के बीच अपनी बात रखने तक की आज़ादी न हो, उस मीडिया पर भरोसा करने वालों नॉन-मीडिया साथियों को भी ठीक तरह से ये कंपनीराज समझना चाहिए. आप सब मीडिया की नौकरी में लगातार हो रही छंटनी, आत्महत्याएं और कोशिशों से वाकिफ ही होंगे.
अब ज़रूरत है इन पत्रकारों की असलियत पहचानने की और खुलकर सामने आने की.
याद रखिए, जो आज अपनी नौकरी बचा रहे हैं वो भी इसे बचाये नहीं रख पायेंगे. आइए एकजुट हों और मोटी सैलरी वाले 'हत्यारे' मालिकों से खुलकर विरोध जताएं.
नोट- इस फोटो में वो termination letter है जो कंपनी ने पंकज को मेल किया है. आप चाहें तो इसकी एक कॉपी करवाकर इकट्ठा हो सकते हैं ताकि कंपनी के दफ्तर के बाहर आग जलाई तापी जाए.

[ निखिल आनंद गिरि ] 
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पंकज श्रीवास्तव को हटाये जाने के मामले में मुझे इतना ही कहना है कि पत्रकारिता की दुनिया में श्रम कानूनों का पूरी तरह पालन नहीं हो रहा है .चैनलों में तो और भी नहीं .इसलिए पत्रकारों की आलोचना करने की जगह प्रबंधन की आलोचना करनी चाहिए .प्रबंधन अपने कर्मचारियों पर काहिली का आरोप लगाता है .दस बीस साल कम करने के बाद किसी को कामचोर कहना ठीक नहीं.
[ विमल कुमार ] 
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एक ज़माना था जब धर्मवीर भारती ने अपने सहकर्मियों के वेतन के मसले पर प्रबंधन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। आज यह हाल है कि संपादक को भी यह नहीं पता होता कि अगले दिन उसे ऑफ़िस आने दिया जाएगा या नहीं। तमाम वरिष्ठ मीडियाकर्मियों से अनुरोध है कि वे अपने गिरेबान में कम से कम एक बार ज़रूर झाँकें।
[ सुयश सुप्रभ ] 
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भाई Pankaj Srivastava जैसे सम्‍वेदनशील एव समर्थ पत्रकार को बेबाकी से सच बोलने की कीमत नौकरी से बर्खास्‍त होकर चुकानी पड़ रही है। आज जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नारे चारों ओर गूंज रहे हैं ऐसे में इस तरह के फैसले त्रासदी की तरह दिखते हैं। खैर, इस रेंगवादी काल में पंकज भाई ने बताया कि हम सबकी रीढ़ में हड़डी जैसा भी कुछ होता है।
[ हिमांशु पाण्डेय ] 
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चुन-चुनकर ऐसे पत्रकारों को नौकरियों से निकाला जा रहा है जो सरकार या मोदी की जरा भी आलोचना करते हों। चर्चा है कि भाजपा का मीडिया सेल ऐसे पत्रकारों की सुपारी दे रहा है।  
[ अमलेन्दु उपाध्याय ] 
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मित्र पंकज श्रीवास्तव ने इस्तीफ़ा देने का प्रस्ताव ठुकराते हुए बर्ख़ास्त होने की जोखिम मोल ली. इसमें एक विद्रोही वक्तव्य छिपा हुआ है, जो व्यवस्था की बुनियाद पर चोट करता है :
मीडिया चैनल शेयर खरीदकर बने मालिकों के नहीं हैं. हम पत्रकारों ने इन्हें अपने ख़ून से सींचा है. हमारा भी इन पर बराबर हक़ है.
[ उज्जवल भट्टाचार्य ] 
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सभी नौकरी करनेवाले खुद्दार और सच्चे लोग बारूद के ढेर पर सदा बैठे हैं।सब को एक न एक दिन बाहर का रास्ता दिखाया जाना है।जो जितने ज्यादा दिन संघर्ष और कोम्प्रोमाईज़ के बीच तालमेल बैठा पाया वो ज्यादा दिन टिक गया।इस हालात में ज्यादा लोग दूर तक आपका साथ नहीं देंगें।लोगों के सपोर्ट से आपकी पीड़ा पर तात्कालिक मरहम जरूर लगेगा।लेकिन लंबे संघर्ष के लिए खुद आप को अपने बूते आगे बढ़ने की तैयारी करनी होगी।आपको तत्काल तय भी कर लेना है इस अंतहीन लड़ाई की कमान संभालेंगे या अपने शानदार कर्रिएर को कुछ सच्चे या कम भ्रष्ट बनिए के सहारे आगे ले जायेंगे।क्योंकि सिर्फ पत्रकारों का ही एक इकलौता समुदाय है जहाँ एक पत्रकार की पीड़ा में खड़े होने की बजाय आपका समूचा सहकर्मी मालिक के पक्ष में खड़े होने को विवश या आतुर है।सबसे बड़ी निराश की बात तो ये है की पत्रकार यूनियन जिनकी जिम्मेवारी है आपके लिए झंडा उठाने की वो नदारद हैं और नदारद है इतनी बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ भी ।आपके प्रेस कांफ्रेंस की कवरेज होगी भी की नहीं मुझे संदेह है।......मित्र रहा हूँ सदैव रहूंगा,जब चाहें पुकार लीजियेगा ।आपके आसपास ही हूँ।
[ एसके यादव ] 
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हम सब आपके साथ है.यह घटना हमें बताती है कि किस तरह मीडिया सरकार के कब्जें में है.
[ स्वप्निल श्रीवास्तव ] 
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धनपशुओं की टीवी ऐड वाली मोती सरकार के पालतू मीडिया ने सत्य कहने के कारण हमारे मित्र Pankaj Srivastava को IBN7 के एसोसियेट एडिटर के पद से बर्खास्त किया! पंकज भाई आपके साहस को नमन! आज के समय में जबकि मीडिया पूरी तरह से बिक चुकी है लोकतंत्र और इस देश को आपके जैसे पत्रकारों की आवश्यकता है! हम सभी आपके संघर्ष में साथ हैं!
[ बालेन्दु गोस्वामी ] 
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क़रीब ग्यारह घंटे पहले अपडेट किये गए पंकज के स्टेटस को अब तक 8,402 लोग शेयर कर चुके हैं. ये कौन लोग हैं और पंकज से क्या चाहते हैं. जहां तक पंकज का सवाल है, वो इस वक़्त क़ानूनी लड़ाई लड़ना चाहते हैं. और मज़ाक-मज़ाक में आज शाम यह भी कह चुके हैं कि सुबह से उनके पास अमरीका, योरप और मिडिल ईस्ट समेत पूरे देश से शुभचिंतकों के संदेश मिल रहे हैं और वो इन सब से अपने लिए 100 रुपये प्रति व्यक्ति की लेवी लगाने वाले हैं. यारों की अटकलें हैं कि वो चुनाव भी लड़ सकते हैं. 
मैं पंकज की सलाहियतों से किसी हद तक वाक़िफ़ हूं और उनके इस फैसले की इज़्ज़त करता हूं कि वो लीगल बैटल में जाना चाहते हैं. लेकिन क्या ये ठीक न होगा कि वो अपने इन फेसबुक शेयरकर्ताओं की इच्छाओं को समझें। फेसबुक पर उनकी लिखी पोस्टों से न्यायप्रियता, तर्कशीलता और जनप्रतिबद्धता की जो ज़िद बरामद होती है उसकी बुनियाद पर शायद कुछ नया अपने निर्माण की राह तक रहा है. अरविंद केजरीवाल को तो आखिरकार अवसर मिलते ही काल-कवलित हो जाना है जबकि भारत को एक समतामूलक-वैज्ञानिक चेतनावाला समाज बनाने का ख़्वाब अब भी अधूरा है. ज़रा देखो गुरु कि ये 8-10 हज़ार लोग खाली थपड़ी पीट रहे हैं क़ि किसी नयी शुरुआत के लिए अंटी भी ढीली करेंगे !
मतलब जनसहयोग पर खड़ी की जा सकने वाली पत्रकारिता।

[ सैयद मोहम्मद इरफ़ान ] 
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पंकज श्रीवास्तव एक गंभीर और कर्मठ पत्रकार हैं. लेकिन पाखंड और आत्ममुग्धता के इस दौर में जो लोग कारपोरेट पत्रकारिता के साथ कदम मिलाकर नहीं चलेंगे, उन्हें इसी तरह निकाल फेंका जायेगा. लेकिन पंकज का मामला शायद इतना आसान नहीं ख़त्म होने वाला. उनके समर्थन में उठे हजारों हाथ शायद पत्रकारिता और समाज को नयी दिशा देने वाली किसी निर्णायक लड़ाई की बुनियाद रख रहे हों. कौन जाने भविष्य के गर्त में क्या है. Well Done Pankaj Bhai
[ विष्णु राजगडिया ] 
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भाई पंकज परवेज Pankaj Srivastava को बेईज्जत कर निकाले जाने पर खुशी जिनको जतानी चाहिए वो तो मायूस ही दिखे पर कई हमख्याल (शायद आभासी), सुर्ख लाल चढ्ढी वाले तो लगभग जश्न मनाते दिख रहे हैं।
एक साहेब ने...नही... दो तीन ने..उन्हें आईबीएन की छंटनी से जोड़ते हुए कह दिए कि तब की चुप्पी के बाद अब काहे का स्यापा...
एलानिया नाम लेता हूं हिन्दी, अंग्रेजी के नामी सरवराहकारों चाहे वो शौरी, पडगांवकर, प्रभाष जोशी हों या कि राजेंद्र माथुर सबके जमाने में ये करम किया है मैनेजमेंट ने और सब चुप्पी ही साधे रहे।
अब किसी मुंहलगे, चमचे की नौकरी बचाने का किस्सा सुना इसे हल्का न कर देना ( कि फलां संपादक ने इसकी या उसकी नौकरी बचा ली थी)
छंटनी और बर्खस्तगी में फर्क होता है। और बर्खस्तगी बिना नोटिस, आरोप पत्र, जवाब के नही हो सकती।
पंकज छंटनी नही बर्खस्तागी के शिकार हुए हैं।
और हां पंकज ( जिन से मेरी मतभिन्नता रहती है, कमोबेश हर हफ्ते लड़ाई रहती है), बेईमान नही है, रिश्वतखोर नही, निर्मम नही, एय्याश नही और वामपंथी (मैं नही हूं इसका प्रमाण पत्र और लोग देंगे) हो न हो पर हमेशा जनपक्षधर रहा।
कुछ दिन ही पहले भाई दीपक शर्मा Deepak Sharma के आज तक छोड़ने पर गौर फरमा रहा था तो लगा कि वक्त मुश्किल है। आज तो उन्हें आप के साथ शाना ब शाना देखा..खुशी हुई..
मुसलसल दुश्मन- ए- जाँ की निगेहबानी में रहना है
जहाँ घड़ियाल रहते हैं उसी पानी में रहना है|
अभी है सब्र मुझमे जितना जी चाहे सता ले तू,
फिर उसके बाद तुझको ही परेशानी में रहना है|
[ सिद्धार्थ कलहंस ] 
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नये हिंदुस्तान को खड़ा करने में दो संस्थाओं का सक्रिय योगदान रहा है. राजनीति में कांग्रेस और व्यापर में रिलायंस.लेकिन योगदान से कहीं ज्यादा दोनों ने देश का नुक्सान भी किया है.
कांग्रेस ने राजनीति को इतना महंगा किया कि समाजवादियों और संघियों को भी कारपोरेट के आगे झुकना पड़ा.
रिलायंस ने क्रोनी कैपिटलिज्म कि ऐसी बुनियाद रखी कि दिल्ली दलालों से भर गयी. धीरुभाई और उनके बेटों ने दलालों की यहाँ ऐसी जमात खडी करी कि नेता और पत्रकार उनकी इंडस्ट्री का हिस्सा हो गये.
आज देश की सबसे बड़ी रिफाइनरी से लेकर सबसे बड़ा न्यूज़ नेटवर्क रिलायंस के पास है. रिलायंस से बड़ी ताकत भारत में कोई नही है.
रिलायंस सवा अरब के देश में सरकार और न्याय व्यवस्था से ऊपर है. इसलिए मेरा मानना है की मर्द इस देश में वही है जो रिलायंस के मुखालिफ खड़ा हो जाय.
पत्रकारों में इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका को मै मर्द मानता हूँ. संपादकों में अरुण शोरी जी को जिन्होंने अम्बानियों को बताया कि कुछ कलम वो कभी नही खरीद पाएंगे.
नेताओं में जसवंत सिंह, अडवाणी, अटल, वीपी सिंह, शरद यादव और जार्ज फर्नांडिस जिन्होंने संसद में धीरुभाई और राजीव गाँधी के कपडे उतार दिए थे.
उद्योगपतियों में नस्ली वाडिया को प्रणाम है जिन्होंने धीरुभाई के भ्रष्ट तरीकों से खड़े किये गये साम्राज्य को बेनकाब किया. और नौकरशाहों में भूरे लाल को नमन जिन्होंने साबित किया की देश में एक ऐसा आईएएस अधिकारी भी है जिसको खरीदने के लिए धीरुभाई को दुबारा जनम लेना होगा.
आज की युवी पीढ़ी रिलायंस के कारनामों से वाकिफ नही है. उनसे आग्रह है कि वो नेट पर उपलब्ध AMBANI AND SONS पढ़े. आपको मुंबई की दलाल स्ट्रीट से लेकर दिल्ली के राष्ट्रपति भवन का सच मालूम हो जायेगा. फिर आप मुझसे अनायास बहस नही करेंगे.
बहरहाल मित्रों से फिर कहना चाहूँगा ...कि मर्द वही है जो रिलायंस को एक्स्पोज़ करे. वो चाहे IBN -7 का एक रिपोर्टर ही क्यूँ न हो.? जनाब पूर्वाग्रह त्याग दें. इस रिपोर्टर का कुछ पल के लिए साथ तो दे दें. इस रिपोर्टर को बर्खास्त करने की वजह जो भी हो, पर ये तो सच है उसने हिम्मत तो कि कम से कम दो लाइन अम्बानी पर बोलने की. दो लाइन पर दो पल का साथ देना तो बनता है. ऐसा भी डरना क्या ? क्या मुकेश खा जायेगा ?
[ दीपक शर्मा ] 
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पंकज श्रीवास्तव जैसे तमाम लोगों की मीडिया में बहुत बहुत जरूरत है. लेकिन समस्या यह है कि पत्रकारिता संस्थानों में पत्रकार सबसे बेचारा है. कल आइबीएन के चार सौ पत्रकार निकाले गए थे और वे अकेले थे, आज पंकज श्रीवास्तव निकाले गए और वे अकेले हैं. क्योंकि पत्रकार अपने श्रम बेचने के मामले में मजदूरों से भी गए गुजरे हैं. वे आज तक एक संगठन तक नहीं बना सके हैं. 
पत्रकारिता संस्थानों में मार्केटिंग और विज्ञापन के लोग जो कहते हैं वह संपादक को सिरोधार्य करना होता है. कई संपादक सिर्फ अपने जूनियर कर्मियों का खून पीने की तनख्वाहें पाते हैं. संपादक मैनेजरों के कहे के मुताबिक पत्रकारों से काले उजले काम करवाते हैं. हिंदी पत्रकारिता में यह प्रवृत्ति सबसे ज्यादा है. इसका नतीजा यह है कि आपको याद नहीं होगा कि कभी किसी हिंदी अखबार ने कोई कायदे की रिपोर्ट की हो, जिससे सरकारों को कोई फर्क पड़े. अंग्रेजी के दो एक अखबार अपवाद हैं.
दरअसल, हमारे जितने संस्थान हैं वे हमारे समाज का आईना हैं. कोई एक चैनल या अखबार एक नेता का टूटकर गुणगान करता है लेकिन जनता उसपर ऐतराज तो करती नहीं, वह उसका कहा मान भी लेती है. जनता यह सवाल नहीं करती कि सारे चैनलों पर नेता और बड़े व्यापारी क्यों कब्जा किए ले रहे हैं? इसके पीछे उनकी मंशा और इससे होने वाले नुकसान पर हम आप सवाल नहीं करते. इसीलिए जमीन अधिग्रहण जैसे किसान विरोधी बिल पर मीडिया कोई चर्चा नहीं करता. मीडिया सिर्फ नेताओं और व्यापारियों के निजी हित के लिए काम करता है, लेकिन आपको यह भ्रम रहता है कि वह आपको सच दिखा रहा है.
पत्रकारिता में तमाम लिजबिज किस्म के नौकरिहा भर गए हैं जो हर जायज—नाजायज बात पर सिर्फ यस सर, जी सर करने वाले लोग हैं. इनकी लगातार कुटाई होती है लेकिन ये भाई लोग उस कुटाई का विरोध करने की जगह अपनी चमड़ी मोटी करने में लगे रहते हैं. मीडिया सुधार की कोई बात हो, इनको बुरी लग जाती है. पत्रकारिता संस्थानों में सबसे ज्यादा शोषण है. यहां तमाम काले सफेद धंधे चलते हैं, लेकिन मीडिया की बिचौलिया भूमिका के चलते नेता इसके गोरखधंधों पर चुप रहते हैं. मीडिया और राजनीति का अदभुत गठजोड़ है. मीडिया की क्या ताकत है, यह पिछले चुनावों में आपने बेहतर देखा. वह एक दिन में गधे को पहलवान बना देता है. वह एक झूठ को सौ बार दोहराता है और वह सच हो जाता है. यह हालत तब तक नहीं सुधरेगी जब तक जनता निष्पक्ष मीडिया की मांग नहीं करती. एकतरफा खबरें चलाने वालों का कभी आजतक विरोध या बहिष्कार नहीं हुआ.
आपको कैसा नेता मिले, आपके संस्थान कैसे हों, उनके मूल्य कैसे हों, यह सब आप तय करते हैं. अब तक का सबसे दागी मंत्रिमंडल हम आपने चुना है. आदर्श व्यवस्था की आकांक्षाएं तभी पूरी हो सकती हैं जब जनता के निजी जीवन में भी आदर्श हों. एक ही पार्टी या नेता के लिए चारणगान करने वाले चैनल को जिस दिन आप देखना बंद कर देंगेे, वह गुणगान करना बंद कर देगा. जिस दिन आप पंकज श्रीवास्तव के साथ खड़े होंगे उस दिन ऐसे लोगों को हौसला मिलेगा और आपको निष्पक्ष पत्रकार मिलेंगे, वरना आपको सपने के सौदागरों के दलाल मिलेंगे. आपको क्या चाहिए यह आपको तय करना है.

[ कृष्ण कान्त ] 
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पंकज श्रीवास्तव को आई बी एन सेवन से निकाला जाना मीडिया की विश्वसनीयता की ताबूत पर लगी एक और क़ील है। एक वरिष्ठ पत्रकार अब यह भी नहीं पूछ सकता कि भाई उस दल को हमारा चैनल क्यों बायकाट कर रहा है जो चुनाव में बराबरी की टक्कर दे रहा है? अभिव्यक्ति के होठों पर इस क़दर तालों के साथ कोई क्या पत्रकारिता करेगा? फासीवाद और क्या होता है? सत्ताधारी दल का क़लम पर आवाज़ पर ऐसा नियंत्रण अघोषित आपातकाल जैसा है। एक नागरिक के रूप में इस चैनल के रवैये से क्षुब्ध हूँ और अपने स्तर पर इसके बहिष्कार के लिए वचनबद्ध। Pankaj भैया, मैं आपके साथ हूँ। दखल विचार मंच की ओर से हम इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं।
[ अशोक कुमार पाण्डेय ] 

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