Friday, August 31, 2012

अन्ना स्विर : अजन्मी स्त्री

अन्ना स्विर की एक और कविता...   

 
अजन्मी स्त्री : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अभी जन्मी नहीं हूँ मैं,  
अपनी पैदाइश के पांच मिनट पहले तक. 
अभी भी जा सकती हूँ वापस 
अपने अजन्म में. 
अब दस मिनट पहले, 
अब, एक घंटे पहले अपनी पैदाइश से.  
वापस जाती हूँ मैं, 
दौड़ती हूँ 
अपने ऋणात्मक जीवन में. 

अपने अजन्म में चलती हूँ जैसे अनोखे दृश्यों वाली 
सुरंग में किसी. 
दस साल पहले, 
डेढ़ सौ साल पहले, 
चलती जाती हूँ मैं, धमधमाते हुए मेरे कदम 
एक शानदार यात्रा उन युगों से होते हुए 
जिनमें अस्तित्व नहीं था मेरा. 

कितना लंबा है मेरा ऋणात्मक जीवन, 
कितना अमरत्व जैसा होता है अनस्तित्व. 

यह रहा रोमैन्टसिजम, जहां कोई चिर कुमारी हो सकती थी मैं, 
यह रहा पुनर्जागरण, जहां किसी दुष्ट पति की 
बदसूरत और अनचाही पत्नी हो सकती थी मैं, 
मध्य युग, जहां पानी ढोया होता मैंने किसी शराबघर में. 

और आगे बढ़ती हूँ मैं, 
कितनी शानदार गूँज, 
धमधमाते हुए मेरे कदम 
मेरे ऋणात्मक जीवन से होते हुए.    
होते हुए मेरे जीवन के विपरीत से. 
आदम और हव्वा तक पहुँच जाती हूँ मैं 
अब और कुछ नहीं दिखता, अंधेरा है यहाँ. 
मृत्यु हो चुकी है मेरे अनस्तित्व की अब 
गणितीय गल्प की घिसी-पिटी मृत्यु के साथ. 
उतनी ही घिसी-पिटी जितनी कि रही होती मेरे अस्तित्व की मृत्यु 
गर हकीकत में जन्म लिया होता मैंने. 
                    :: :: :: 

Wednesday, August 29, 2012

येहूदा आमिखाई : परिचारिका

येहूदा आमिखाई की एक कविता...   

 
परिचारिका : येहूदा आमिखाई 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक परिचारिका ने हमसे धूम्रपान की सभी चीजें बुझा देने के लिए कहा 
और तफसील से नहीं बताया सिगरेट, सिगार, या पाइप. 
मैंने मन ही मन उसे जवाब दिया: खूबसूरत प्यारी चीजें हैं तुम्हारे पास, 
और मैंने भी नहीं बताया तफसील से. 

और उसने मुझसे पेटी बाँध लेने के लिए कहा, कस लेने के लिए खुद को 
कुर्सी से, और मैंने उसे जवाब दिया: 
मैं चाहता हूँ कि मेरी ज़िंदगी की सारी पेटियां तुम्हारे मुंह के आकार की हो जाएं. 

और उसने कहा: आप काफी अभी लेंगे या कुछ देर बाद, 
या लेंगे ही नहीं. और आसमान जितनी ऊंची वह 
गुजर गई मेरे पास से.  

उसकी बांह के ऊपरी हिस्से के एक दाग ने गवाही दी 
कि चेचक कभी छुएगी भी नहीं उसे 
और उसकी आँखों ने गवाही दी कि दुबारा कभी प्रेम में नहीं पड़ेगी वह: 
कि अपनी ज़िंदगी में सिर्फ एक अच्छे प्रेम को पसंद करने वालों के 
रूढ़िवादी दल से ताल्लुक रखती है वह.  
                    :: :: :: 

Monday, August 27, 2012

अन्ना स्विर : वे तीसरी मंजिल से नहीं कूदे

अन्ना स्विर की एक और कविता...   

 
वे तीसरी मंजिल से नहीं कूदे : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

दूसरा विश्व युद्ध 
वारसा. 
आज रात उन्होंने बम गिराए 
थिएटर चौराहे पर. 

थिएटर चौराहे पर 
वर्कशाप थी मेरे पिता की. 
सारी पेंटिंग, मेहनत 
चालीस सालों की.   

अगली सुबह पिताजी गए 
थिएटर चौराहे की ओर. 
उन्होंने देखा. 

छत नहीं है उनकी वर्कशाप की, 
नहीं हैं दीवारें 
फर्श भी नहीं. 

पिताजी कूदे नहीं 
तीसरी मंजिल से. 
उन्होंने फिर से शुरू किया 
बिल्कुल शुरूआत से. 
            :: :: :: 

Friday, August 24, 2012

नींद की भाषा

आज प्रस्तुत है राल्फ जैकबसन की एक कविता...   

 
जब वे सोते हैं : राल्फ जैकबसन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

बच्चे हो जाते हैं सभी लोग सोते समय. 
उस दौरान कोई युद्ध नहीं होता उनके भीतर. 
अपने हाथ फैलाए सांस ले रहे होते हैं वे 
उस शांत लय में जो परलोक से मिली है उन्हें. 

अपने होंठ सिकोड़ते हैं वे छोटे बच्चों की तरह 
और आधा फैलाए रहते हैं अपना हाथ, 
सैनिक और राजनीतिज्ञ, मालिक और नौकर.   
चौकसी करते हैं सितारे 
और एक धुंध ढँक लेती हैं आसमान को, 
ऐसे कुछ घंटे जब कोई किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएगा. 

काश कि हम बात कर पाते उस समय एक-दूसरे से 
जब अधखिले फूल की मानिंद होते हैं हमारे दिल. 
उड़ती आतीं हम तक 
बातें, सोन चिरैया जैसी.
-- ईश्वर, सिखा दो मुझे नींद की भाषा. 
                    :: :: :: 

Wednesday, August 22, 2012

अन्ना स्विर : समुद्र तट पर शरीर और आत्मा

पोलिश कवियत्री अन्ना स्विर की एक कविता...   

Anna Swir 
समुद्र तट पर शरीर और आत्मा : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

समुद्र तट पर आत्मा 
एक किताब पढ़ती है दर्शनशास्त्र की. 
शरीर से पूछती है आत्मा: 
वह क्या है जो जोड़ता है हमें? 
शरीर कहता है: 
समय हो गया घुटनों पर धूप सेंकने का. 

आत्मा पूछती है शरीर से: 
क्या यह सच है 
कि असल में हमारा अस्तित्व नहीं होता? 
शरीर कहता है: 
मैं धूप सेंक रहा हूँ घुटनों पर. 

शरीर से पूछती है आत्मा: 
कहाँ होगी मृत्यु की शुरूआत, 
तुम्हारे भीतर या मेरे? 
शरीर हंसा, 
वह धूप सेंकता रहा घुटनों पर. 
            :: :: :: 

Wednesday, August 8, 2012

सेमेजदीन महमदीनोविक की कविता

बोस्नियाई कवि सेमेजदीन महमदीनोविक की एक कविता...   

 
तारीखें : सेमेजदीन महमदीनोविक 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

वह मार दिया गया था १७ जनवरी १९९४ को. 
तबसे हर दिन 
मरा हुआ ही है वह. 

वह मरा हुआ है आज भी -- 
शुक्रवार २४ फरवरी १९९५ को. 

और हर शाम 
कुछ रहस्यमय घटित होता है मेरे साथ 
जब गुसलखाने में जाता हूँ मैं. 

आईने में देखता हूँ 
कैसे मेरे बाएँ कंधे के ऊपर 
उगती है एक परछाईं. 

वह मेरी नहीं होती. और जब 
पलटकर देखता हूँ उस कंधे के ऊपर, 
क्या देखता हूँ मैं? 

एक सपना, लेकिन मेरी आँखें खुली हुईं : 
एक काला कौआ बैठा हुआ है मेरी मेज पर 
जो बोलता भी है, 

वह कहता है: १७ मई को 
चेरियाँ पक जाएंगी सारायेवो में. 

मैं सुन लेता हूँ, और इंतज़ार करता हूँ. 
                 :: :: :: 

Monday, August 6, 2012

ताहा मुहम्मद अली : बदला

फिलिस्तीनी कवि ताहा मुहम्मद अली की एक और कविता...  

 
बदला : ताहा मुहम्मद अली 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कभी-कभी... कामना करता हूँ 
कि किसी द्वंद्व युद्ध में मिल पाता मैं 
उस शख्स से जिसने मारा था मेरे पिता को 
और बर्बाद कर दिया था घर हमारा, 
मुझे निर्वासित करते हुए 
एक संकरे से देश में. 
और अगर वह मार देता है मुझे 
तो मुझे चैन मिलेगा आखिरकार 
और अगर तैयार हुआ मैं 
तो बदला ले लूंगा अपना! 

किन्तु मेरे प्रतिद्वंद्वी के नजर आने पर 
यदि यह पता चला 
कि उसकी एक माँ है 
उसका इंतज़ार करती हुई, 
या एक पिता 
जो अपना दाहिना हाथ 
रख लेते हैं अपने सीने पर दिल की जगह के ऊपर 
जब कभी देर हो जाती है उनके बेटे को 
मुलाक़ात के तयशुदा वक़्त से
आधे घंटे की देरी पर भी -- 
तो मैं उसे नहीं मारूंगा, 
भले ही मौक़ा रहे मेरे पास.  

इसी तरह... मैं 
तब भी क़त्ल नहीं करूंगा उसका 
यदि समय रहते पता चल गया 
कि उसका एक भाई है और बहनें 
जो प्रेम करते हैं उससे और हमेशा 
उसे देखने की हसरत रहती है उनके दिल में. 
या एक बीबी है उसकी, उसका स्वागत करने के लिए 
और बच्चे, जो 
सह नहीं सकते उसकी जुदाई 
और जिन्हें रोमांचित कर देते हैं उसके तोहफे. 

या फिर, उसके 
यार-दोस्त हैं,  
उसके परिचित पड़ोसी 
कैदखाने या किसी अस्पताल के कमरे 
के उसके साथी, 
या स्कूल के उसके सहपाठी... 
उसे पूछने वाले 
या सम्मान देने वाले उसे. 

मगर यदि 
कोई न निकला उसके आगे-पीछे -- 
पेड़ से कटी किसी डाली की तरह -- 
बिना माँ-बाप के, 
न भाई, न बहन,  
बिना बीबी-बच्चों के, 
किसी रिश्तेदार, पड़ोसी या दोस्त 
संगी-सहकर्मी के बिना, 
तो उसके कष्ट में मैं कोई इजाफा नहीं करूंगा 
कुछ नहीं जोड़ूंगा उस अकेलेपन में -- 
न तो मृत्यु का संताप, 
न ही गुजर जाने का गम. 
बल्कि संयत रहूँगा 
उसे नजरअंदाज करते हुए 
जब उसकी बगल से गुजरूँगा सड़क पर -- 
क्योंकि समझा लिया है मैंने खुद को 
कि उसकी तरफ ध्यान न देना 
एक तरह का बदला ही है अपने आप में. 
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