Saturday, June 30, 2012

अन्ना कमिएन्स्का : एक अस्पताल में

अन्ना कमिएन्स्का की एक कविता...   

 
एक अस्पताल में : अन्ना कमिएन्स्का 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कोई नहीं खड़ा है 
उस बूढ़ी औरत के बगल 
जो मर रही है एक गलियारे में 

बहुत दिनों से 
छत को ताकती वह 
उँगलियों से कुछ लिखती है हवा में 

कोई आंसू नहीं, कोई मातम नहीं 
हाथों का मसलना नहीं 
पर्याप्त फ़रिश्ते नहीं निकले हैं काम पर 

कुछ मौतें विनम्र होती हैं और शांत 
जैसे किसी ने छोड़ दी हो अपनी जगह 
एक भीड़ भरी ट्राम में. 
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अन्ना कमिएन्स्का की नोटबुक के चुनिंदा अंश यहाँ पढ़िए. 

Friday, June 29, 2012

बिली कालिन्स : कुत्ते को तौलना

बिली कालिंस की एक और कविता...   

 
कुत्ते को तौलना : बिली कालिन्स 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यह अजीब है मेरे लिए और उसके लिए हैरत भरा 
जबकि मैं छोटे से बाथरूम में उसे थामे हुए हूँ अपने हाथों में, 
अपना संतुलन बनाता एक डगमगाती नीली तराजू पर.  

पर यही तरीका है किसी कुत्ते को तौलने का और आसान भी 
उसे एक जगह पर कायदे से बैठना सिखाने की बजाय 
अपनी जीभ बाहर निकाले, बिस्कुट का इंतज़ार करते हुए. 

पेन्सिल और कागज़ लेकर मैं अपना वजन घटाता हूँ 
हमारे कुल योग में से, बाक़ी बचा उसका वजन निकालने के लिए, 
और सोचने लगता हूँ कि क्या कोई समानता है यहाँ. 

इसका सम्बन्ध मेरे तुम्हें छोड़ने से तो नहीं हो सकता 
गोकि मैं कभी नहीं जान पाया कि क्या कुछ थी तुम, 
जब तक हमारे संयोजन में से खुद को घटा नहीं लिया मैंने.  

मेरे तुम्हें थामने की अपेक्षा तुमने ज्यादा थामा था मुझे अपनी बाहों में
उन अजीब और हैरत भरे महीनों के दौरान, और अब हम दोनों ही 
गुम हो चुके हैं अपरिचित और दूर की बस्तियों में. 
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Thursday, June 28, 2012

हाल सिरोविट्ज़ : कार का सम्बन्ध

हाल सिरोविट्ज़ की एक और कविता...   

 
कार का सम्बन्ध : हाल सिरोविट्ज़ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

लोग कहते हैं कि कार की बजाय सायकिल से देखने पर 
अलग से लगते हैं प्राकृतिक दृश्य. मोटर इतनी तेज भागती 

है कि आप देख नहीं सकते कुछ ख़ास. जब तक आप 
दर्ज कर पाए अपने दिमाग में कि वह एक पेड़ था बड़ा सा, 

आप पीछे छोड़ चुके थे उसे. मगर सायकिल पर आप रुक 
सकते थे. बहाना कर सकते थे कि हांफ रहे हैं आप,  

और निहार सकते थे डालियों को, शायद वहां दौड़ लगाती 
किसी गिलहरी को देखते हुए. एक दुनिया के भीतर 

एक दुनिया शामिल थी हर पेड़ में. यही किया मैंने अपने 
संबंधों के दौरान -- उस तरह से देखने की कोशिश की इसे 

जैसे कि सायकिल पर होऊँ मैं. पर जब कभी 
तुम्हें बेहतर देख पाने के लिए धीमे होने की कोशिश की मैंने, 

तुम कभी नहीं चली उस रफ़्तार से, बल्कि भागती ही गई आगे 
जैसे कि तुम नाराज थी कार में न होने से.  
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Wednesday, June 27, 2012

हाल सिरोविट्ज़ : किताबें देना

हाल सिरोविट्ज़ की एक और कविता...   

 
किताबें देना : हाल सिरोविट्ज़ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम हमेशा देते ही रहते हो, मेरे डाक्टर ने कहा. 
तुम्हें सीखना होगा कि लिया जाता है कैसे. जब भी 
तुम मिलते हो किसी स्त्री से तो पहला काम करते हो 
उसे पढ़ने के लिए अपनी किताबें देने का. तुम सोचते हो 
कि उन्हें लौटाने के लिए उसे दुबारा मिलना होगा तुमसे. 
मगर होता यह है कि उसके पास समय नहीं होता 
उन्हें पढ़ने का, और वह डरती है कि यदि वह तुमसे दुबारा मिली 
तो तुम उससे अपेक्षा करोगे किताबों के बारे में बात करने की, 
और कुछ और किताबें देना चाहोगे उसे. इसलिए वह 
रद्द कर देती है मुलाक़ात. तो हुआ यह है कि काफी किताबें गँवा 
चुके हो तुम. तुम्हें मांगनी चाहिए उसकी किताबें. 
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Tuesday, June 26, 2012

हाल सिरोविट्ज़ की कविता

अमेरिकी कवि हाल सिरोविट्ज़ (जन्म १९४९) की एक कविता...   

 
फच्चर : हाल सिरोविट्ज़ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम्हीं थे जो मेरे पीछे-पीछे
चले आए थे लिफ्ट में 
और मेरा फोन नंबर माँगा था, उसने कहा. 
तुम्हें बहकाया नहीं था मैंने. असल में तो 
मैंने रोकने की ही कोशिश की थी तुम्हें. 
बता भी दिया था कि बड़ी दिक्कतें हैं मेरे साथ. 
अकेले रहने की आदी थी मैं. पर जब 
तुमने अपना फच्चर फंसा ही दिया है मेरी ज़िंदगी में, 
मत समझना कि आसान होगा मुझे छोड़ना 
लिफ्ट की हमारी पहली सवारी की तरह. 
सीढ़ियों पर चढ़ने जैसा होगा वह. 
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Monday, June 25, 2012

ऊलाव हाउगे की कविता

नार्वेजियन कवि ऊलाव हाउगे की एक और कविता...   

 
कटाई वाला कुंदा : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मुश्किल होता है 
कुल्हाड़ी के नीचे का कुंदा होना, 
महसूस किया है मैंने. 
मगर मैंने सीखा 
जब वे चुन लें  
सिर्फ मुझे: 
निश्चल और खामोश रहो! 

ऊपर ढलान पर मेरे सहोदर ठूंठ 
निकाल रहे हैं नई पत्तियाँ. 
उन्हें चीरने दो 
यहाँ आँगन में! 
मैं ऐंठता हूँ, इठलाता हूँ 
अपने खपचीदार ताज में. 
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Sunday, June 24, 2012

मार्क स्ट्रैंड की कविता

मार्क स्ट्रैंड की एक कविता...   

 
तुम ऐसा कहते हो : मार्क स्ट्रैंड 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यह सब दिमाग में होता है, तुम कहते हो. और इसका 
कोई लेना-देना नहीं सुख से. सर्दी का आना, 
गर्मी का आना, दुनिया के सारे मौसम होते हैं दिमाग के पास. 
मेरा हाथ थामकर तुम कहते हो कुछ होगा, 
कुछ अनोखा जिसकी खातिर तैयार थे हम हमेशा से ही, 
जैसे एशिया में एक दिन बाद आना सूरज का, 
जैसे चले जाना चाँद का एक रात बिताकर हमारे साथ.  
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Saturday, June 23, 2012

दुन्या मिखाइल : चाँद और बच्चा

दुन्या मिखाइल की एक और कविता...   

 
चाँद और बच्चे का रूपांतरण : दुन्या मिखाइल 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

पहला चित्र 

इमारत के पीछे 
छिपे चाँद को देखने के लिए 
बच्चे ने ऊपर उठाया अपना सर. 
उनकी छायाओं ने पीछा किया एक-दूसरे का. 
इमारत नहीं जान पाई 
पहले कौन कूदा 
बच्चे के पैरों तले 
एक लाल तालाब बनाने के लिए. 

दूसरा चित्र 

बच्चा नदी की तरफ गया, 
और जैसे एक आईने के प्रतिरूप की तरह 
उतर गया बच्चा 
नदी के डूबते हुए चाँद में. 

तीसरा चित्र   

आसमान की गिरती हुई गेंद के पीछे 
बच्चा भागा समुद्र-तट पर, 
जबकि रेत ने गिने 
बच्चे को स्वर्ग ले जाते 
चाँद के पैरों के निशान. 
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Friday, June 22, 2012

राबर्तो हुआरोज : गुलाब, प्यार और कविता

राबर्तो हुआरोज की एक और कविता...   

 
राबर्तो हुआरोज की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यदि यह एक है, 
तो दो क्या होगा? 

महज एक धन एक ही नहीं है यह.  
कभी-कभी यह दो होता है 
एक बने रहते हुए भी. 
वैसे ही जैसे कभी-कभी एक 
बंद नहीं करता दो होना. 

साफ़ नहीं है यथार्थ का लेखा-जोखा 
या कम से कम परिणामों का 
हमारा वाचन. 
इसलिए हमसे छूट जाता है 
जो बीच में रहता है एक और एक के, 
जो बस भीतर होता है एक के 
छूट जाता है हमसे, 
जो होता है ऋण एक में 
छूट जाता हमसे, 
शून्य छूट जाता है हमसे 
जो हमेशा बाहर निकल जाता है या 
साथ रहता है किसी एक और किसी दो के. 

गुलाब -- क्या यह एक है? 
प्यार -- क्या यह दो है? 
कविता -- क्या यह कुछ है दोनों में से? 
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Thursday, June 21, 2012

ऊलाव हाउगे की कविता

ऊलाव हाउगे की एक और कविता...  

आज मैंने : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

आज मैंने 
दो चाँद देखे, 
एक नया 
और एक पुराना. 
नए चाँद पर बहुत भरोसा है मुझे 
मगर शायद है यह वही पुराना. 
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ओलाव होगे 

Wednesday, June 20, 2012

मात्सु बाशो की कविता

जापानी कवि मात्सु बाशो (१८६२ - १९४२) की एक कविता...   

 
मात्सु बाशो की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

समय-समय पर आते रहते हैं बादल 
और मौक़ा मिल जाता है मुझे 
चाँद को ताकते रहने से सुस्ताने का. 
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जैक एग्यूरो : यह भी कोई प्रार्थना है प्रभु?

जैक एग्यूरो की 'प्रार्थनाएं' आप इस ब्लॉग पर पढ़ते रहे हैं. ये सभी कविताएँ उनके संग्रह  'Lord, Is This a Psalm?' से अनूदित हैं. आज प्रस्तुत है इस संग्रह की पहली कविता...  

 
यह भी कोई प्रार्थना है प्रभु? : जैक एग्यूरो 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

प्रभु, 
यह भी कोई प्रार्थना है भला? 

जो मैं ठीक से नहीं गाता इसे, 
या बेसुरा हो जाता हूँ, 
क्या तुम सुनते हो?

प्रभु, 
वीणा बजाना तो मुझे आता नहीं 
न ही कोई और वाद्ययंत्र. 
ज्यादा से ज्यादा सीटी बजा सकता हूँ मैं,  
मगर बोल या गा नहीं सकता सीटी बजाते समय. 

और प्रभु, 
क्या तुम तब भी सुनोगे जब यह 
प्रशंसा न करती हो तुम्हारी? क्या थोड़ी सी 
छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकते तुम? 
तुम कुछ मजाकपसंद तो जरूर होगे; 
नहीं तो और कैसे जवाब दे सकते हो 
पृथ्वी की सारी बेहूदगियों का?  

इसलिए भगवन, 
मैं कहता हूँ कि ये प्रार्थनाएं हैं, 
मैं कहता हूँ कि तुम्हें सुनना चाहिए इन्हें, 
और अगर ये पसंद न आएं तुम्हें 
फ़िक्र मत करना -- 
मैं दूसरी लिख रहा हूँ, 
और भी लिख रहा हूँ मैं. 
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Tuesday, June 19, 2012

यानिस रित्सोस की दो कविताएँ

यानिस रित्सोस की दो कविताएँ...   

 
यानिस रित्सोस की दो कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

रूई के फाहे 
जख्म के लिए नहीं -- 
जबकि 
रोशन होती जा रही शाम -- 
मुंह के लिए 
कानों के लिए 
आँखों के लिए. 
                     एथेंस, १८ जनवरी १९७८ 
     :: :: ::  

संगमरमर 
जो रचता है बुत को 
और जो 
बुत नहीं है 
और जो बचा है 
पहाड़ों में छिपा हुआ दूर तक 
मुझे राय दी गई 
उसे प्रकट न करने की, बस 
उन्होंने मुझे यह नहीं बताया कि कैसे. 
                     एथेंस, १८ जनवरी १९७८ 
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Monday, June 18, 2012

ऊलाव हाउगे : शंख

नार्वे के कवि ऊलाव हाउगे की एक और कविता...  

 
शंख : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम एक घर बनाते हो अपनी आत्मा के लिए 
और सितारों की रोशनी में 
इधर-उधर बहा करते हो शान से 
घर को अपनी पीठ पर लादे 
किसी घोंघे की तरह. 
कोई ख़तरा सामने पड़ने पर 
तुम सरक जाते हो भीतर 
और सुरक्षित हो जाते हो 
अपनी 
सख्त खोल के पीछे. 

और जब तुम नहीं रहोगे, 
तब भी 
घर जिंदा रहेगा तुम्हारा, 
एक वसीयतनामा 
तुम्हारी आत्मा की सुन्दरता का. 
और भीतर 
बहुत गहरे से कहीं 
गाएगा तुम्हारे अकेलेपन का समुन्दर. 
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Saturday, June 16, 2012

फदील अल-अज्ज़वी : प्रलय के बाद नूह

इराकी कवि फदील अल-अज्जवी की एक और कविता...    

 
प्रलय के बाद नूह : फदील अल-अज्ज़वी 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

जब ईश्वर ने प्रलय से बचा लिया नूह को, 
उसने अंगूर की बेलें रोपने का हुक्म दिया उसे अपने खेतों में. 
तब से पिए जा रही है इंसानियत और कर रही है बदसलूकी 
जब तक धरती पट नहीं जाती भ्रष्टाचार और विलासिता से. 

प्रिय ईश्वर, अगर फिर से डुबोने की इच्छा हो इस धरती को, 
मुझे बनने देना अपना नया नूह. 
                    :: :: :: 
नूह : प्रलय के वक़्त नूह ने ईश्वर के आदेश पर बहुत बड़ी कश्ती बनाई और उसमें सृष्टि को बचा लिया. बाद में नूह ने अंगूर का एक बाग़ लगाया और ऎसी मान्यता है कि सबसे पहले नूह ने ही शराब चखी. कहते हैं कि वे ९५० साल ज़िंदा रहे. 

Friday, June 15, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की कविता

पाकिस्तानी कवि अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   

 
मुझे वो सफ़ेद फूल पसंद नहीं : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यांतरण : मनोज पटेल) 

मुझे वो सफ़ेद फूल पसंद नहीं 
जिन्हें तुम चूम कर सुर्ख़ न कर सको 

आसमान में टूटता हुआ सितारा 
या समुंदर में डूबती हुई कश्ती 
मुझे किसके साथ चलना चाहिए 
तुम्हारी आँखें 
और तुम्हारा दिल 
मुझे कुछ नहीं बताता 

तुमने शहर के शोर 
और मेरे दिल की ख़ामोशी को मिलाकर 
अपनी मौसिक़ी क्यों बनाई 

तुमने आग पर 
अपना नाम लिखने की कोशिश क्यों की 
जब तुम्हारी उंगलियाँ हीरे की नहीं 

जब आग लग जाती है 
तो पता चलता है 
बारिश कितनी अजनबी है 
और समुंदर कितनी दूर 
और यह ख़्वाब देखना मुश्किल हो जाता है 
कि बहुत दूर 
हमारे घर के पास 
बर्फ़ बारी हो रही होगी 

मुझे वो ख़्वाब पसंद नहीं 
जो करवट बदलने में टूट जाते हैं 

मुझे वो बर्फ़ पसंद नहीं 
जिसे हम नंगे पाँव नाचते नाचते 
सुर्ख़ न कर सकें 
            :: :: :: 

सुर्ख़ : लाल 
मौसीक़ी : संगीत 

Thursday, June 14, 2012

फदील अल-अज्ज़वी की कविता

आज फदील अल-अज्ज़वी की एक कविता...  

 
ईश्वर और शैतान : फदील अल-अज्ज़वी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

पहले अध्याय में हम बात करते हैं 
उस शैतान के बारे में जो चुनौती देता है ईश्वर को. 
दूसरे अध्याय में 
शैतान को स्वर्ग से निकाले जाने के बारे में. 
तीसरे अध्याय में 
आदम की दुविधा  
और चौथे में 
जल-प्रलय के बारे में. 

फिर आखिरकार कोई आ जाता है 
और झपट ले जाता है शैतान को 
और भला ईश्वर राज करने लगता है पूरी दुनिया पर. 

हम किस चीज के बारे में बात करेंगे 
पांचवे अध्याय में 
और छठवें 
और सातवें 
और आठवें अध्याय में? 
                    :: :: :: 

Wednesday, June 13, 2012

ऊलाव हाउगे : नया मेजपोश

ऊलाव हाउगे की एक और कविता...   

 
नया मेजपोश : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

नया पीला मेजपोश मेज पर. 
और कोरे सफ़ेद पन्ने! 
यहाँ आना ही चाहिए शब्दों को, 
इतना उम्दा नया मेजपोश है यहाँ 
और इतना उम्दा कागज़! 
बर्फ जम गई फ्योर्ड पर,  
पंछी आए और उतर गए.  
            :: :: :: 

फ्योर्ड : चट्टानों से घिरी लंबी सँकरी समुद्री खाड़ी 

Tuesday, June 12, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : जितनी देर में एक रोटी पकेगी

अफजाल अहमद सैयद की एक और कविता...   

 
जितनी देर में एक रोटी पकेगी : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

जितनी देर में एक रोटी पकेगी 
मैं तुम्हारे लिए एक गीत लिख चुका हूँगा 
जितनी देर में एक मश्कीज़ा भरेगा 
तुम उसे याद करके गा चुकी होगी 

अजनबी तुम गीत काहे से लिखते हो 
नमक से 
रोटी काहे से खाते हो 
नमक से 
मश्कीज़ा काहे से भरते हो 
नमक से 

लड़की तुम गीत काहे से गाती हो 
पानी से 
रोटी काहे से खाती हो 
पानी से 
मश्कीज़ा काहे से भरती हो 
पानी से 
पानी और नमक मिलकर क्या बनता है 
समुंदर बनता है 

जितनी देर में मेरे घोड़े की नाल ठुक जाएगी 
हम समुंदर से एक लहर तोड़ चुके होंगे 
जितनी देर में घंटी की आवाज़ पर कलई हो चुकी होगी 
हम एक जंगली कश्ती को सधा चुके होंगे 

अजनबी तुम घोड़े की नाल काहे से ठोंकते हो 
टूटे हुए चाँद से मेरी जान 
तुम घंटी की आवाज़ काहे से कलई करते हो 
टूटे हुए चाँद से मेरी जान 
तुम मुझे काहे से तश्बीह दोगे 
टूटे हुए चाँद से मेरी जान 

लड़की तुम समुंदर से लहर काहे से तोड़ती हो 
तुम्हारी तलवार से मेरी जान 
तुम जंगली कश्तियों को काहे से सधाती हो 
तुम्हारी तलवार से मेरी जान 
तुम मुझे काहे से ज्यादा पसंद करती हो 
तुम्हारी तलवार से मेरी जान 

जितनी देर में यह समुंदर तय होगा 
मैं और तुम बिछड़ चुके होंगे 
जितनी देर में तुम मुझे भूल चुकी होगी 
मैं मर चुका हूँगा 

अजनबी तुम समुंदर काहे से तय करोगे 
अपनी ज़िद से 
मैं तुम्हें काहे से भूल चुकी हूंगी 
अपनी ज़िद से 
अजनबी तुम काहे से मर चुके होगे 
अपनी ज़िद से 

लड़की हम काहे से बिछड़ चुके होंगे 
मुझे नहीं मालूम 
मैं काहे से मर चुका हूँगा 
मुझे नहीं मालूम 
रोटी कितनी देर में पक चुकी होगी 
मुझे नहीं मालूम 
               :: :: :: 

मश्कीज़ा : छोटी मश्क (पानी भरने की चमड़े की थैली) 
तश्बीह : उपमा 

Monday, June 11, 2012

जैक एग्यूरो : आस्था के लिए प्रार्थना

जैक एग्यूरो की एक और कविता...   

 
अपनी आस्था के लिए प्रार्थना : जैक एग्यूरो 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

प्रभु, 
यह सच नहीं है कि 
ठंडी पड़ रही है मेरी आस्था. 
बात बस इतनी है 
लोग कह रहे हैं कि मोमबत्ती के धुंए की वजह से 
कैंसर हो गया गिरजाघर के चूहे को. 
और मुझे यह भी फ़िक्र है कि 
इतनी कमजोर होती है मोमबत्ती की रोशनी 
कि वह पहुँच नहीं पाती होगी तुम्हारे बादल तक. 

क्या मुझे एक हायड्रोजन मोमबत्ती की जरूरत है? 
क्या फरिश्तों को लेजर रोशनियाँ भाती हैं? 

भगवन, जब सोचता हूँ इस बारे में 
पाता हूँ कि इधर ऐसा कुछ ख़ास नहीं मेरे पास 
तुम्हारा शुक्रगुजार होने के लिए. 

क्या छुट्टी पर हो तुम? 
               :: :: :: 

Sunday, June 10, 2012

ऊलाव हाउगे की दो कविताएँ

ऊलाव हाउगे की दो कविताएँ...  

 
ऊलाव हाउगे की दो कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

युद्ध-काल से 

एक गोली उछली मेरे फर्श पर. 
मैंने तौला उसे अपने हाथ में. 
वह आई थी खिड़की और 
लकड़ी की दो दीवारों से होते हुए. 
मैंने शक नहीं किया कि जान ले सकती थी वह. 
               :: :: :: 

तीर और गोली 

तीर आया गोली से पहले. 
इसलिए मुझे पसंद है तीर. 
मीलों तक जाती है गोली. 
किन्तु भयानक होता है उसका धमाका. 
उस समय मुस्कराता है तीर. 
               :: :: :: 

Saturday, June 9, 2012

ऊलाव हाउगे : बीज

उलाव हाउगे की एक और कविता...   

 
बीज : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कोई जगह नहीं उगाने के लिए इसे. 
जड़ें मत निकालना, 
मत खिलाना फूल! 
यदि बचाना चाहते हो अपनी ज़िंदगी 
सख्त बने रहना और साबुत! 
            :: :: :: 

Friday, June 8, 2012

ऊलाव हाउगे : समुद्र तट पर

ऊलाव हाउगे की एक और कविता...  

 
समुद्र तट पर : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

उसने कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि अपनी पीठ फेर ली तुम्हारी ओर -- और 
चली गई. 
और हवा ने और बादलों ने, हाँ समुद्र तक ने फेर ली 
अपनी काली पड़ती पीठ; डुबकी लगा लिया तट पर पड़े पत्थरों ने, 
हरेक लहर, हरेक तिनका निकल भागा  
किसी और तट के लिए. 
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Thursday, June 7, 2012

डब्लू. एस. मर्विन : गवाह

डब्लू एस मर्विन की एक और कविता...   

 
गवाह : डब्लू. एस. मर्विन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मैं बताना चाहता हूँ 
कि किस तरह के होते थे जंगल. 

मुझे बोलना होगा 
एक विस्मृत भाषा में. 
          :: :: :: 

चार्ल्स सिमिक : एक गुमशुदा चीज का ब्यौरा

चार्ल्स सिमिक की एक और कविता...  

 
एक गुमशुदा चीज का ब्यौरा : चार्ल्स सिमिक 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

कभी कोई नाम नहीं रहा उसका, 
न ही मुझे याद है कि वह मुझे कैसे मिली. 
खोई हुई बटन की तरह 
मैं उसे लिए रहता था अपनी जेब में 
गो कि बटन नहीं थी वह. 
डरावनी फ़िल्में, 
पूरी रात खुले रहने वाले जलपानघर, 
अँधेरे बार, 
और बारिश से चिकनी हुई सड़कों पर बने 
पूलहाल. 
एक सादी और मामूली मौजूदगी थी उसकी 
जैसे कोई परछाई सपने में, 
सुई पर कोई फ़रिश्ता, 
और फिर वह गायब हो गई. 
गुजरते रहे 
बेनाम स्टेशनों के साल दर साल, 
जब किसी ने बताया मुझे कि यही है वह!
और कितना नासमझ था मैं, 
कि उतर पड़ा एक उजाड़ प्लेटफार्म पर  
जहां दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था किसी कस्बे का.     
                    :: :: :: 

Wednesday, June 6, 2012

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट : दो बूँदें

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...    

 
दो बूँदें : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

          जब जंगल जल रहे हों, तो गुलाबों के लिए शोक करने का वक़्त कहाँ. 
                                                                                 - जूलियस स्वेवस्की 

जंगलों में आग लगी थी -- 
फिर भी उन्होंने 
बाहों में भर लिया था अपनी गरदनों को 
गुलदस्तों की तरह 

लोग भागे पनाहगाह की तरफ -- 
उसने कहा ऐसे हैं मेरी पत्नी के बाल 
कि छिपा जा सकता है उनकी गहराइयों में 

एक कम्बल के नीचे 
वे फुसफुसाते रहे निर्लज्ज शब्द 
वही प्रेमियों का कीर्तन 

जब स्थिति ज्यादा बिगड़ गई 
वे कूद पड़े एक-दूसरे की आँखों में 
और मूँद लिया उन्हें जोर से 

इतनी जोर से कि उन्हें एहसास भी न हुआ लपटों का 
जब वे पहुँचने लगीं उनकी बरौनियों तक 

वे अंत तक रहे बहादुर 
वे अंत तक रहे वफादार 
अंत तक रहे वे वैसे ही 
एक चेहरे के कगार पर ठहरी 
दो बूंदों की तरह 
                    :: :: :: 
कविता के पूर्व स्वेवस्की का उद्धरण अनुवादकों चेश्वाव मिवोश एवं पीटर डेल स्काट की तरफ से. 
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