Monday, October 31, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर : अन्तरिक्ष में पुल


टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक कविता...










हिमपात  : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

आती रहती हैं अंत्येष्टियाँ 
अधिकाधिक संख्या में 
जैसे बढ़ती जाती है संख्या यातायात संकेतों की 
ज्यों-ज्यों हम करीब पहुँचते जाते हैं किसी शहर के.

टकटकी लगाए हुए हजारों लोग 
लम्बी परछाइयों के देश में.

धीरे-धीरे 
एक पुल निर्माण करता है स्वयं का 
सीधा अन्तरिक्ष में.
                    :: :: :: 
Manoj Patel Translation, Manoj Patel Blog 

मरम अल-मसरी : इल्जाम बेवफाई का

मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ...









मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मेरी गंध 
घेर लेगी तुमको 
और जब तुम उतारोगे अपने कपड़े 
वह फैलती जाएगी 
तुम पर इल्जाम लगाते हुए 
बेवफाई का.
:: :: :: 

जरूर तुम 
भूल गए होगे कुछ कागजात 
और लौट गए होगे 
उन्हें ले आने के लिए. 

या 
तुम्हारे निकलने के वक़्त ही  
कर दिया होगा फोन किसी दोस्त ने 
और शुरू कर दी होगी बतकही. 

या 
तुम इंतज़ार कर रहे होगे मेरा 
किसी और काफीघर में. 
:: :: :: 

मुझे लगा 
वह तुम्हारे क़दमों की आवाज़ है 
मेरे दिल में हो रही 
जोरों की धुकधुकी. 
:: :: :: 
Manoj Patel Translation 

Sunday, October 30, 2011

निज़ार कब्बानी : कोई हल

सौ प्रेम पत्र' से निज़ार कब्बानी की कुछ और कविताएँ...



निज़ार कब्बानी की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

क्या हमारी इस समस्या का 
कोई हल है तुम्हारे पास, 
है इस जर्जर जहाज का कोई समाधान 
जो न तो तैरने लायक है न डूबने लायक ?
               :: :: ::

मुझे मानना पड़ेगा 
तुम्हारे सारे फैसलों को 
क्योंकि बहुत पी चुका हूँ मैं 
समुन्दर का खारा पानी 
बहुत झुलसा चुका है 
सूरज मेरी चमड़ी को 
और नाराज मछलियाँ 
बहुत नोच चुकीं हैं मेरा मांस. 
               :: :: :: 

ऊब चुका हूँ मैं सफ़र करते-करते 
ऊब चुका हूँ मैं ऊब से 
क्या कोई हल है तुम्हारे पास 
इस खंजर का 
जो धंसता तो है मगर मारता नहीं ?
है कोई हल तुम्हारे पास इस अफीम का 
जो हम लेते तो हैं 
मगर जो चढ़ती नहीं कमबख्त ?
               :: :: :: 

मैं सुस्ताना चाहता हूँ 
किसी भी पत्थर, या 
किसी भी कंधे पर,
थक चुका हूँ 
बिना पाल वाली नावों से 
बिना फुटपाथ वाली सड़कों से उकता चुका हूँ. 
तुम्हीं कोई हल सुझाओ मेरी प्रिय 
वादा करता हूँ उसे मानने का 
ताकि सो सकूं मैं पूरी नींद. 
               :: :: :: 
Manoj Patel Padhte Padhte 

Saturday, October 29, 2011

एर्नेस्तो कार्देनाल की कविताएँ

एर्नेस्तो कार्देनाल की 'सुभाषित' श्रृंखला से कुछ और कविताएँ...



एर्नेस्तो कार्देनाल की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब तुम होती हो न्यूयार्क में 
न्यूयार्क में कोई और नहीं होता 
और जब तुम नहीं होती हो न्यूयार्क में 
न्यूयार्क में कोई भी नहीं होता 
               :: :: :: 

अगर अप्रैल बगावत के दौरान 
औरों के साथ मार दिया गया होता मैं भी 
तो जान नहीं पाया होता तुम्हें :
और अगर अब हुई होती अप्रैल बगावत 
मार ही दिया गया होता मैं औरों के साथ 
               :: :: ::  

बारिश की भारी बूँदें जैसे 
सीढ़ियाँ चढ़ रहे क़दमों की आहट
और दरवाजे से टकराती हवा 
जैसे अन्दर आने वाली हो कोई स्त्री 
               :: :: ::  
Manoj Patel Padhte Padhte अर्नेस्तो कार्देनाल 

Friday, October 28, 2011

रोक डाल्टन : बहुत शानदार मौत होगी मेरी

रोक डाल्टन की कविता...











अकड़ : रोक डाल्टन 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

बहुत शानदार मौत होगी मेरी 

मेरे पाप चमकेंगे पुराने नगों की तरह 
विष की सुखद आभा के साथ 

हर तरह की सुगंध खिलेगी मेरी कब्र से 
मेरी सबसे बड़ी खुशियों के किशोरवय संस्करण 
और दुख की मेरी गुप्त बातें 

शायद कोई कहे कि मैं सच्चा था या फिर भला 
मगर सिर्फ तुम याद करोगी 
कैसे मैं झांकता था तुम्हारी आँखों में 
                    :: :: :: 
Manoj Patel Padhte Padhte 

Thursday, October 27, 2011

रोक डाल्टन : बारूद का स्वाद

क्रांतिकारी कवि रोक डाल्टन की कविता...















भयानक बात : रोक डाल्टन 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मेरे आंसू तक 
सूख चुके हैं अब तो 

मैं, जिसे भरोसा था हर एक चीज में 
हर किसी पर 

मैं, जिसने बस थोड़ी सी नर्म-दिली चाही थी 
जिसमें और कुछ नहीं लगता 
सिवाय दिल के 

मगर अब देर हो चुकी है 
और अब नर्म-दिली ही काफी नहीं रही 

स्वाद लग गया है मुझे बारूद का 
                    :: :: :: 
Manoj Patel Padhte Padhte 

Wednesday, October 26, 2011

तुम्हारी रोशनी मेरे आस-पास रहती है

पढ़ते-पढ़ते के सभी मित्रों, शुभचिंतकों और पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं. इस अवसर पर आज रोक डाल्टन की यह कविता... 


कविता से : रोक डाल्टन 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ कविता 
बहुत शुक्रगुजार हूँ आज तुमसे मुलाक़ात के लिए 
(ज़िंदगी और किताबों में)
तुम्हारा वजूद सिर्फ उदासी के चकाचौंध कर देने वाले 
भव्य अलंकरण के लिए ही नहीं है

इसके अलावा हमारी जनता के इस लम्बे और कठिन संघर्ष के  
काम में मेरी मदद करके 
तुम आज मुझे बेहतर कर सकती हो  

तुम अब अपने मूल में हो :
अब वह भड़कीला विकल्प नहीं रही तुम 
जिसने मुझे अपनी ही जगह से काट दिया था 

और तुम खूबसूरत होती जाती हो 
कामरेड कविता 
कड़ी धूप में जलती हुई सच्ची खूबसूरत बाहों के बीच 
मेरे हाथों के बीच और मेरे कन्धों पर 

तुम्हारी रोशनी मेरे आस-पास रहती है 
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Tuesday, October 25, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर : घर की ओर

टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक कविता...


घर की ओर : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

फोन की एक बातचीत छलक गई रात में 
और जगमगाने लगी शहर और देहात के बीच 
होटल के बिस्तर पर करवटें ही बदलता रहा उसके बाद 
सूई की तरह हो गया मैं किसी दिशा सूचक यंत्र की 
जिसे लिए जंगलों से होकर भाग रहा हो कोई दौड़ाक  
धड़धड़ाते हुए दिल के साथ 
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Monday, October 24, 2011

मरम अल-मसरी : इंतज़ार

मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ...


मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब तुम 
उतार देते हो अपने जूते 
और दरवाजे पर 
या बेड के नीचे 
छोड़ देते हो उन्हें 
अकेला 
वे भर जाते हैं 
ऊब, और 
इंतज़ार के ठन्डे पैरों से.
:: :: ::

अपने झूठ मुझे सौंप दो 
मैं उन्हें धुलकर 
सहेज लूंगी 
अपने निश्छल दिल में 
सच बनाने के लिए. 
:: :: :: 

मुझे और मेरी खुशी को 
इंतज़ार है 
तुम्हारे क़दमों की आवाज़ का.
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Saturday, October 22, 2011

ताहा मुहम्मद अली : खेतिहर

फिलिस्तीनी कवि ताहा मुहम्मद अली की एक और कविता...


खेतिहर : ताहा मुहम्मद अली 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक खेतिहर...
एक किसान का बेटा :
मेरे भीतर बसती है 
एक माँ की ईमानदारी 
और एक मछली बेचने वाले का फरेब.  
मैं बंद नहीं करूंगा 
पीसना 
जब तक बाक़ी है 
मेरी चक्की के भीतर 
चुटकी भर अनाज भी --
और मैं जोतता रहूँगा खेत 
जब तक बोरे में रहेंगे 
मेरे हाथों के लिए बोने भर को बीज.   
                                                  25.06.2000   
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Friday, October 21, 2011

रॉबर्ट ब्लाय : लाशों की गिनती

आज रॉबर्ट ब्लाय की एक अत्यंत चर्चित कविता जो उन्होंने मृत वियतनामी सैनिकों की लाशों की संख्या के बारे में उस दौरान रोजाना की जा रही घोषणाओं पर लिखी थी. कविता का आखिरी हिस्सा उसी दौर के एक प्रचलित विज्ञापन के स्लोगन से लिया गया था. इस कविता के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ उपलब्ध है. 

















छोटी काठी की लाशों की गिनती : रॉबर्ट ब्लाय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

चलो फिर से गिनते हैं लाशों को.

अगर हम थोड़ा और छोटी कर सकते लाशों को,   
खोपड़ी की नाप के बराबर, 
हम खोपड़ियों से सफ़ेद कर सकते थे एक पूरे मैदान को चांदनी रात में !

अगर हम थोड़ा और छोटी कर सकते लाशों को, 
क्या पता हम बटोर लेते 
साल भर की हत्याओं को अपने सामने एक मेज पर !

अगर हम थोड़ा और छोटी कर सकते लाशों को,
हम सजा लेते 
एक लाश को एक अंगूठी में, हमेशा के लिए यादगार के तौर पर.
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Thursday, October 20, 2011

अभी और बर्बाद करूंगा अपना वक़्त

रॉबर्ट ब्लाय की एक और कविता... 














चिठ्ठी भेजने के लिए देर से शहर जाते हुए  : रॉबर्ट ब्लाय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सर्द और बर्फीली है आज की रात 
वीरान पड़ा है मुख्य मार्ग 
सिर्फ बहती हुई बर्फ ही कर रही है कुछ हरकत 
डाक पेटी के दरवाजे को उठाते हुए छूता हूँ उसका ठंडा लोहा
एक प्यारी सी निजता है इस बर्फीली रात में  
अभी और इधर-उधर घूमूंगा गाड़ी में 
अभी और बर्बाद करूंगा अपना वक़्त 
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Wednesday, October 19, 2011

रॉबर्ट ब्लाय की दो कविताएँ

रॉबर्ट ब्लाय की कविताएँ... 




रॉबर्ट ब्लाय की दो कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

घोड़े को भिगोना 

कितना अजीब है सोचना 
सारी महात्वाकांक्षाओं को छोड़ देने के बारे में !
अचानक मैं देखता हूँ साफ़-साफ़ आँखों से 
बर्फ की एक सफ़ेद पपड़ी 
जो अभी-अभी गिरी है घोड़े के अयाल पर !
                    :: :: :: 

लम्बी व्यस्तता के बाद 

हफ़्तों मेज पर बिताने के बाद 
आखिर निकल पड़ता हूँ टहलते हुए.
छिप गया है चंद्रमा, पैरों के नीचे मुलायम मिट्टी जुते हुए खेत की 
न तो सितारे न ही रोशनी का कोई सुराग !
सोचो इस खुले मैदान में अगर कोई घोड़ा 
सरपट दौड़ता आ रहा होता मेरी तरफ ?
वे सारे दिन बेकार गए 
जो मैनें नहीं बिताए एकांत में.  
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Tuesday, October 18, 2011

रॉबर्ट ब्लॉय : हाथों में हाथ

रॉबर्ट ब्लॉय की एक और कविता... 



हाथों में हाथ : रॉबर्ट ब्लॉय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

हाथों में हाथ थामना किसी प्रिय का 
आप पाते हैं कि वे नाजुक पिंजरे हैं... 
गा रहे होते हैं नन्हे पंछी 
हाथ के निर्जन मैदानों 
और गहरी घाटियों में  
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रॉबर्ट ब्लॉय : कुछ लोग

अमेरिकी कवि रॉबर्ट ब्लॉय की एक कविता...


कुछ लोग : रॉबर्ट ब्लॉय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

कुछ लोग 
निकल जाते हैं हमारी ज़िंदगी से बाहर 
कुछ लोग दाखिल होते हैं हमारी ज़िंदगी में बिन बुलाए 
और बैठ जाते हैं 
कुछ लोग गुजर जाते हैं धीरे से
कुछ लोग आपको थमाते हैं एक गुलाब
या खरीदते हैं एक कार आपकी खातिर कुछ लोग
कुछ लोग आपके बहुत पास खड़े रहते हैं 
कुछ लोग एकदम भुला दिए जाते हैं आपसे 
कुछ लोग दरअसल आप ही होते हैं 
कुछ लोग जिन्हें आपने कभी देखा भी नहीं होता 
कुछ लोग साग खाते हैं 
कुछ लोग बच्चे होते हैं 
कुछ लोग चढ़ जाते हैं छत पर 
बैठ जाते हैं मेज पर कुछ लोग 
पड़े रहते हैं खाट पर 
टहलते हैं अपनी लाल छतरी के साथ 
कुछ लोग देखते हैं आपको 
कुछ लोग कभी ध्यान भी नहीं देते आप पर 
कुछ लोग अपने हाथों में लेना चाहते हैं आपका हाथ 
कुछ लोग मर जाते हैं रात में 
कुछ लोग दूसरे लोग होते हैं 
कुछ लोग आप होते हैं 
कुछ लोग नहीं होते अस्तित्व में 
कुछ लोग होते हैं 
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Monday, October 17, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर : उदासी के महीनों में

टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक कविता...



आग की लिखाई : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

उदासी के महीनों में 
केवल तुमसे प्यार करते समय ही 
खुशी झिलमिलाई जीवन में 
जैसे जुगनू जलता है और बुझता है, जलता है और बुझता है 
और इन झलकियों में 
अँधेरे में भी हमें पता चल जाता है 
जैतून के पेड़ों के बीच उसकी उड़ान का 

उदासी के महीनों में आत्मा सिमटी पड़ी रही, बेजान 
मगर देह गई सीधे तुम्हारे पास 
गरजता रहा रात में आकाश 
चोरी-चोरी हमने दुह लिया ब्रह्माण्ड को 
और बचे रहे 
                    :: :: :: 
तामस त्रांसत्रोमर, Manoj Patel Translation  

Sunday, October 16, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर : हाइकू


टॉमस ट्रांसट्रोमर के कुछ हाइकू... 

 

बीस हाइकू : टॉमस ट्रांसट्रोमर
(अनुवाद : मनोज पटेल)

रात - बारह पहियों वाली गाड़ी 
गुजरती है लोगों के स्वप्नों को 
कंपकंपाते हुए. 
* * * 

कुहरे में गुनगुनाहट.
स्थल से दूर मछली पकड़ने की एक नाव 
-- लहरों पर ट्राफी.
* * *

बाल्कनी पर 
खड़ा हुआ हूँ सूर्यकिरणों के एक पिंजरे में 
इन्द्रधनुष की तरह.
* * * 

सूर्य उतर आया है नीचे 
हमारी परछाईयाँ गोलियथ हैं 
शीघ्र ही सब कुछ परछाईं होगा.
* * *

अन्धकार से जन्मा.
मैं मिला एक बहुत बड़ी परछाईं से 
एक जोड़ी आँखों में.
* * * 

जाओ, वर्षा की तरह शांत  
मिलो सरसराती हुई पत्तियों से 
सुनो क्रेम्लिन की घंटियों को !
* * * 

जगमगाते शहर :
गीत, गल्प, गणित --
मगर अलग तरह से.
* * * 

जड़वत विचार, मानो 
रंगीन पत्थरों की पच्चीकारी 
राजमहल के प्रांगण में.
* * * 

निराशा की दीवार...
इधर-उधर मंडराते कबूतर 
बिना चेहरों वाले.
* * * 

झूलते बगीचों वाला 
एक लामा मठ.
युद्ध-दृश्यों के कुछ चित्र.
* * *

नवम्बर का सूरज --
तैरती हुई मेरी विशाल छाया 
मरीचिका बनती हुई.
* * *

वे मील के पत्थर, हमेशा 
कहीं जाते हुए. सुनो 
-- एक कबूतर की पुकार. 
* * *

मृत्यु झपट्टा मारती है मुझपर.
मैं एक समस्या हूँ शतरंज में. 
उसके पास समाधान है.
* * *

मूर्खों के पुस्तकालय की
आलमारी में पड़े हुए
अनछुए धर्मोपदेश. 
* * *

देखो मैं कैसे बैठा हुआ 
जैसे जमीन पर खींच लाई गई डोंगी.
मैं प्रसन्न हूँ यहाँ. 
* * *

वीथियाँ चलती हुईं दुलकी चाल 
सूर्यकिरणों की लगाम से 
किसी ने पुकारा क्या ?
* * *

कुछ घटित हुआ.
चंद्रमा ने प्रकाश से भर दिया कमरा.
ईश्वर जानता था इस बारे में.
* * *

छत टूट गई 
और मृत लोग देख सकते हैं मुझे 
देख सकते हैं मुझे. वह चेहरा.
* * *

वर्षा की सनसनाहट सुनो.
ठीक उसके भीतर पहुँचने के लिए 
मैं बुदबुदाता हूँ एक राज.
* * *

स्टेशन के प्लेटफार्म का दृश्य.
कितनी अप्रत्याशित शान्ति -- 
यह भीतर की आवाज है. 
                    :: :: :: 
तामस त्रांसत्रोमर, विश्व कविता के हिन्दी अनुवाद  

Saturday, October 15, 2011

मरम अल-मसरी : तुम्हारे हाशिए पर रहते हुए

मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ...











मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

ऊब गई हूँ मैं 
तुम्हारे हाशिए पर रहते हुए,
रहते हुए तुम्हारी कापियों 
और तुम्हारे छोटे से हिस्से में,
तुम्हारे दरवाजे के बाहर खड़ी-खड़ी 
आजिज आ चुकी हूँ मैं.
कहाँ है 
कहाँ है तुम्हारे स्वर्ग का खुला-खुला विस्तार?
:: :: :: 

तुम कितने अलग हो उन सबसे...
तुम्हारी खासियत है 
तुम्हारे होठों पर धरा 
मेरा चुम्बन.
:: :: ::

तुम्हारी कोई गलती नहीं थी.
कोई गलती नहीं थी मेरी भी.
यह तो हवा थी कमबख्त 
जिसने गिरा दिया 
मेरी कामनाओं का 
पका हुआ फल. 
:: :: ::
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Friday, October 14, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर की कविता

टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक कविता...



मार्च 1979 : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

ऊब कर उन सबसे जो मिलते हैं तमाम शब्दों के साथ 
शब्द, मगर कोई भाषा नहीं, 
चला जाता हूँ मैं बर्फ से ढंके हुए द्वीप पर 
कोई शब्द नहीं होते आदिम लोगों के पास 
सादे कागज़ फैले हुए हर तरफ !
अचानक बर्फ में दिखते हैं हिरन के खुरों के निशान 
भाषा, मगर कोई शब्द नहीं. 
                    :: :: :: 

Thursday, October 13, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर का संस्मरण : झाड़-फूंक

टॉमस ट्रांसट्रोमर के गद्य संस्मरण 'मेमोरीज लुक ऐट मी' से एक अंश...












झाड़-फूंक : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सर्दियों के दौरान पंद्रह साल की उम्र में मैं बेचैनी की एक गंभीर तरह की बीमारी से ग्रसित हुआ. मैं एक ऎसी सर्चलाईट के जाल में फंस गया था जिससे प्रकाश नहीं अँधेरा फूटता था. हर रोज दोपहर के बाद शाम ढलते ही मैं उसमें फंस जाता और उस भयावह चपेट से अगली सुबह तक नहीं निकल पाता था. मैं बहुत कम सो पाता और अक्सर बिस्तर पर एक मोटी सी पोथी लिए बैठा रहता. उस दौरान मैनें कई मोटी-मोटी पोथियाँ पढ़ डालीं मगर मैं ठीक-ठीक यह नहीं कह सकता कि मैनें सचमुच उन्हें पढ़ा था क्योंकि उन पुस्तकों ने मेरी स्मृति में कोई चिह्न न छोड़ा था. 

इसकी शुरूआत शरद बीतते-बीतते हुई. एक शाम मैं 'स्क्वैनडर्ड डेज' नाम की फिल्म देखने गया था जो एक पियक्कड़ के बारे में थी. उसका अंत उन्माद की एक अवस्था में होता है -- वह एक खौफनाक दृश्य था जो शायद आज मुझे बचकाना लगे. मगर उस समय ऐसा नहीं लगा था.

जब मैं सोने के लिए लेटा तो मैं अपने दिमाग में फिर वही फिल्म चलाने लगा जैसा कि आप अक्सर फिल्म देखकर लौटने के बाद किया करते हैं. 

अचानक कमरे का माहौल तनावपूर्ण और डरावना हो गया. किसी चीज ने मुझे पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया. एकाएक मेरा बदन कांपने लगा, खासतौर से मेरे पैर. मैं चाभी भरे जाने वाले ऐसे खिलौने की तरह हो गया जिसे पूरी चाभी भरकर छोड़ दिया गया हो और अब वह बजने के साथ-साथ, लाचार उछल-कूद रहा हो. मांसपेशियों की ऐंठन मेरी नियंत्रण-शक्ति के बिलकुल बाहर हो गई थी. ऐसा एहसास मुझे पहले कभी नहीं हुआ था. मैं मदद के लिए चिल्लाया जिसे सुनकर मेरी माँ दौड़ी हुई आईं. धीरे-धीरे ऐंठन समाप्त हो गई और दुबारा नहीं लौटी. मगर मेरा डर और बढ़ गया जो कि शाम से लेकर सुबह तक मुझे जकड़े रहता. जो एहसास मेरी रातों पर हावी रहते थे वे उसी तरह के आतंक के थे जिनकी जकड़ के नजदीक फ्रिट्ज़ लैंग 'डाक्टर मबुसे'ज टेस्टामेंट' के कुछ दृश्यों में दिखाई देता है, खासकर शुरूआती दृश्य में -- जिसमें एक छापाखाना है जहां कोई छिपा होता है जबकि मशीनें और बाक़ी सब कुछ कंपन करते रहते हैं. इस दृश्य में मैनें तत्काल खुद को पहचान लिया था, हालांकि मेरी रातें अपेक्षाकृत शांत हुआ करती थीं. 

मेरे अस्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण तत्व बीमारी थी. दुनिया एक बड़ा सा अस्पताल थी. मैनें अपने सामने मनुष्य को देंह और आत्मा में विरूपित होते देखा. दिया जलता रहता और भयावह चेहरों को थामने की कोशिश करता मगर कभी-कभी मेरी आँख लग जाती. मेरी पलकें बंद हो जातीं और अचानक वही भयानक चेहरे चारो ओर से मेरे पास आने लगते. 

यह सबकुछ खामोशी में घटित होता, फिर भी खामोशी के भीतर आवाजें लगातार व्यस्त रहतीं. वालपेपर की डिजाइन चेहरे बनाया करती. जब-तब दीवार में किसी टिक की आवाज़ से चुप्पी टूट जाती. यह आवाज़ कहाँ से आई? किसके द्वारा? क्या, मेरे? दीवारें चिटकती थीं क्योंकि मेरे रुग्ण विचार उनसे ऐसा ही चाहते थे. फिर तो यह और भी बुरा था... क्या मैं पागल हो गया था? हाँ, लगभग.  

मैं पागलपन में बह जाने से डरता जरूर था पर सामान्यतः मुझे किसी तरह की बीमारी का डर नहीं महसूस होता था. यह शायद ही रोगभ्रम का मामला रहा हो, बल्कि यह बीमारी की कुल ताकत थी जो डर पैदा करती थी. जैसा कि एक फिल्म में दिखाया गया था कि अपशकुनी संगीत सुनते ही एक सीधे-साधे अपार्टमेन्ट की आंतरिक साज-सज्जा अपना चरित्र पूरी तरह बदल लेती थी. अब मैं बाहरी दुनिया को बिल्कुल अलग तरीके से महसूस करता था क्योंकि इसमें बीमारी से व्यवस्थित होने वाले वर्चस्व का मेरा ज्ञान भी समाहित था. कुछ साल पहले तक मैं एक अन्वेषक बनना चाहता था. अब मैनें ऐसे अनजाने देश में रास्ता बना लिया था जहां मैं कभी नहीं आना चाहता था. मैनें एक शैतानी शक्ति खोज ली थी. बल्कि यों कहिए कि शैतानी शक्ति ने मुझे खोज लिया था. 

हाल ही में मैनें कुछ ऐसे किशोरों के बारे में पढ़ा जो जीवन का सारा सुख ही खो बैठे क्योंकि वे इस विचार से आसक्त हो गए कि एड्स ने दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया है. वे मुझे समझ पाए होते.

मेरी माँ शरद ऋतु की उस शाम को घटित हुई मेरी ऐंठन की साक्षी थीं जब इस संकट की शुरूआत हुई थी. मगर उसके बाद उसे इन सब चीजों से बाहर ही रखा गया. सभी लोगों को बाहर कर दिया गया था क्योंकि जो कुछ चल रहा था वह इतना भयानक था कि उसके बारे में बात भी नहीं की जा सकती थी. मैं प्रेतों से घिरा हुआ था. मैं खुद भी एक प्रेत ही था. एक ऐसा प्रेत जो हर सुबह स्कूल जाता और बिना अपना राज खोले पूरे सबक के दौरान बैठा रहता. स्कूल दम लेने की एक जगह बन गया. वहां मेरा डर हूबहू पहले जैसा ही नहीं होता था. केवल मेरा निजी जीवन ही प्रेतबाधा से ग्रस्त था. सारी चीजें सर के बल खड़ी थीं. 

उस समय मैं धर्म के सभी स्वरूपों के प्रति संशयी था और कभी प्रार्थना वगैरह नहीं किया करता था. यदि संकट कुछ सालों के बाद पैदा हुआ होता तो मैं इसका अनुभव एक ईश्वरोक्ति के रूप में करने में समर्थ होता. एक ऎसी चीज के रूप में जिसने मुझे सिद्धार्थ की चार मुलाकातों (बूढ़े, बीमार, मृत व्यक्तियों और भीख मांगने वाले साधू के साथ) की तरह प्रेरित किया होता. मैं विकलांगों और बीमारों के प्रति थोड़ी और सहानुभूति, और थोड़े कम डर  का अनुभव करने का उपाय कर पाया होता जिन्होनें मेरी रात्रिकालीन चेतना पर कब्जा जमाया हुआ था. मगर फिर मैं अपने डर में जकड़ा हुआ था जिसे धार्मिक रूप से रंजित व्याख्याएं उपलब्ध नहीं थीं. बिना किसी प्रार्थना या मंत्र के संगीत द्वारा झाड़-फूंक के प्रयास शुरू हुए. इसी समय मैनें गंभीरता से पियानो पर हाथ आजमाना शुरू किया.   

और इस सारे घटनाक्रम के दौरान मैं बढ़ता ही जा रहा था. उस शरद सत्र की शुरूआत में मैं अपनी कक्षा में सबसे छोटा था, मगर उस सत्र का अंत होते-होते मैं सबसे लंबा हो चुका था. मानो जिस भय में मैं रह रहा था वह किसी तरह का उर्वरक हो जो कि पौधे को तेजी से बढ़ने में मदद कर रहा हो.   

सर्दियां अपनी समाप्ति की ओर पहुंची और दिन लम्बे होने लगे. अब चमत्कारिक ढंग से मेरी अपनी ज़िंदगी से अँधेरा छंटने लगा. यह बहुत धीरे-धीरे हुआ और मुझे भी देर से ही यह एहसास हो पाया कि क्या घटित हो रहा है. बसंत ऋतु की एक शाम मैंने यह पाया कि मेरे सारे डर अब अत्यंत कम रह गए हैं. उस शाम मैनें अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठकर दर्शन बघारा और सिगार के कश लगाए. बसंत की पीली रात से होते हुए घर लौटने का समय हो गया था और मेरा यह एहसास ख़त्म हो चुका था कि घर पर डर मेरा इंतज़ार कर रहा होगा. 

फिर भी यह ऎसी चीज है जिसमें मैनें हिस्सा लिया है. शायद मेरा सबसे महत्वपूर्ण अनुभव. मगर इसका अंत हो गया. मुझे वह नरक लगता था मगर वह शुद्ध करने वाला अग्निकुंड था.  
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