Sunday, March 31, 2013

यासूनारी कावाबाता की कहानी


नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जापान के लेखक यासूनारी कावाबाता की यह कहानी मुझे बहुत पसंद है. 'नई बात' ब्लॉग पर पूर्व-प्रकाशित यह कहानी आज यहाँ साझा कर रहा हूँ... 

छाता : यासूनारी कावाबाता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

बसंत ऋतु की बारिश चीजों को भिगोने के लिए काफी नहीं थी. झीसी इतनी हलकी थी कि बस त्वचा थोड़ा नम हो जाए. लड़की दौड़ते हुए बाहर निकली और लड़के के हाथों में छाता देखा. "अरे क्या बारिश हो रही है?"

जब लड़का दुकान के सामने से गुजरा था तो खुद को बारिश से बचाने के लिए नहीं बल्कि अपनी शर्म को छिपाने के मकसद से, उसने अपना छाता खोल लिया था.

फिर भी, वह चुपचाप छाते को लड़की की तरफ बढ़ाए रहा. लड़की ने अपना एक कंधा भर छाते के नीचे रखा. लड़का अब भीग रहा था लेकिन वह खुद को लड़की के और नजदीक ले जाकर उससे यह नहीं पूछ पा रहा था कि क्या वह उसके साथ छाते के नीचे आना चाहेगी. हालांकि लड़की अपना हाथ लड़के के हाथ के साथ ही छाते की मुठिया पर रखना चाहती थी, उसे देख कर यूं लग रहा था मानो वह अभी भाग निकलेगी.

दोनों एक फोटोग्राफर के स्टूडियो में पहुंचे. लड़के के पिता का सिविल सेवा में तबादला हो गया था. बिछड़ने के पहले दोनों एक फोटो उतरवाना चाहते थे.

"आप दोनों यहाँ साथ-साथ बैठेंगे, प्लीज?" फोटोग्राफर ने सोफे की तरफ इशारा करते हुए कहा, लेकिन वह लड़की के बगल नहीं बैठ सका. वह लड़की के पीछे खड़ा हो गया और इस एहसास के लिए कि उनकी देह किसी न किसी तरह जुड़ी है, सोफे की पुश्त पर धरे अपने हाथ से उसके गाउन का स्पर्श करता रहा. उसने पहली बार उसे छुआ था. अपनी उँगलियों के पोरों से महसूस होने वाली उसकी देह की गरमी से उसे उस एहसास का अंदाजा मिला जो तब मिलता जब वह उसे नंगी अपने आगोश में ले पाता.

अपनी बाक़ी की ज़िंदगी जब-जब वह यह फोटो देखता, उसे उसकी देंह की यह गरमी याद आनी थी. 

"क्या एक और हो जाए? मैं आप लोगों को अगल-बगल खड़ा करके नजदीक से एक तस्वीर लेना चाहता हूँ."

लड़के ने बस गर्दन हिला दी.

"तुम्हारे बाल?" लड़का उसके कानों में फुसफुसाया. लड़की ने लड़के की तरफ देखा और शर्मा गई. उसकी आँखें खुशी से चमक रही थीं. घबराई हुई वह गुसलखाने की और भागी.

पहले, लड़की ने जब लड़के को दुकान से गुजरते हुए देखा था तो बाल वगैरह संवारने में वक्त जाया किए बिना वह झट निकल आई थी. अब उसे अपने बिखरे बालों की फ़िक्र हो रही थी जो यूं लग रहे थे मानो उसने अभी-अभी नहाने की टोपी उतारी हो. लड़की इतनी शर्मीली थी कि वह किसी मर्द के सामने अपनी चोटी भी नहीं गूंथ सकती थी, लेकिन लड़के को लगा था कि यदि उस वक्त उसने फिर उससे अपने बाल ठीक करने के लिए कहा होता तो वह और शर्मा जाती.

गुसलखाने की ओर जाते वक्त लड़की की खुशी ने लड़के की घबराहट को भी कम कर दिया. जब वह वापस आई तो दोनों सोफे पर अगल-बगल यूं बैठे गोया यह दुनिया की सबसे स्वाभाविक बात हो.

जब वे स्टूडियो से जाने वाले थे तो लड़के ने छाते की तलाश में इधर-उधर नजरें दौड़ाईं. तब उसने ध्यान दिया कि लड़की उसके पहले ही बाहर निकल गई है और छाता पकड़े हुए है. लड़की ने जब गौर किया कि लड़का उसे देख रहा है तो अचानक उसने पाया कि उसका छाता उसने ले रखा है. इस ख्याल ने उसे चौंका दिया. क्या बेपरवाही में किए गए उसके इस काम से लड़के को यह पता चल गया होगा कि उसके ख्याल से तो वह भी उसी की है ?

लड़का छाता पकड़ने की पेशकश न कर सका, और लड़की भी उसे छाता सौंपने का साहस न जुटा सकी. पता नहीं कैसे अब यह सड़क उस सड़क से अलग हो चली थी जो उन्हें फोटोग्राफर की दुकान तक लाई थी. वे दोनों अचानक बालिग़ हो गए थे. बस छाते से जुड़े इस वाकए के लिए ही सही, दोनों किसी शादीशुदा जोड़े की तरह महसूस करते हुए घर वापस लौटे. 
                                                                                :: :: :: 

Friday, March 29, 2013

मार्क स्ट्रैंड की कविता

मार्क स्ट्रैंड की एक और कविता... 

ओस्लो में हवा नहीं है : मार्क स्ट्रैंड 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

"क्या बताऊँ यार," सैलानी ने युवती से कहा, "ज़िंदगी मेरे प्रति मेहरबान नहीं रही है; मैं अलास्का के प्रसिद्ध ठिगने कुत्ते को देखने के लिए उत्तर की तरफ गया मगर एक भी नहीं देख पाया; मैं लंबी पूंछ वाले नीले-हरे अफ्रीकी गैंडे को देखने के लिए दक्षिण की ओर गया और फिर से नाकामयाब रहा. दुखी होकर मैंने खुद को महान कविताओं के उदास वैभव के प्रति समर्पित कर दिया और यहाँ आ पहुंचा, तेज हवाओं वाले इस शहर की सबसे तूफानी जगह पर." "ओस्लो चले जाओ," युवती ने कहा, "ओस्लो में हवा नहीं है." 
                                                             :: :: :: 

Monday, March 25, 2013

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : मैं हार जाता हूँ

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   

मैं हार जाता हूँ : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यन्तरण : मनोज पटेल) 

स्याह लिबास 
सफ़ेद जिस्म 
रंगीन हड्डियां 

मैं दांव लगाता हूँ 
घूमता हुआ तैफ़ रुक जाता है 
गलत रंग पर 

मैं हार जाता हूँ 
अपना लिबास 
अपना जिस्म 
अपनी हड्डियां 

आज़ाद होने के लिए 
मुझे बूझनी है 
तुम्हारी पहेली 

"सबसे नायाब शिकार" 
"जो किसी जाल में नहीं आता -- ख़ुदा" 
"नहीं मेरा जिस्म" 
तुम आ जाती हो 
अपने लिबास से बाहर 
मैं हार जाता हूँ 
अपना ख़ुदा 

"सबसे तेज़ परिंदा" 
"तुम्हारी रूह" 
"नहीं मेरा जिस्म" 
तुम उड़ जाती हो 
बहुत तेज़ 
मैं हार जाता हूँ 
अपनी रूह 

मैं हार जाता हूँ 
सब कुछ 
जबकि घूमते हुए तैफ़ के हर खाने में 
एक ही रंग है 
               :: :: :: 

तैफ़  :  राउलेट नामक जुए के खेल का व्हील 

Friday, March 22, 2013

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की कविताएँ

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की दो गद्य कविताएँ... 
ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की दो गद्य कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

चाँद 
मैं समझ नहीं पाता कि तुम चाँद के बारे में कविताएँ कैसे लिख लेते हो. वह मोटा और फूहड़ है. वह चिमनियों की नाक खोदता रहता है. उसका पसंदीदा काम है पलंग के नीचे घुसकर तुम्हारे जूते सूँघना. 
                                                            :: :: :: 

दीवार 
हम दीवार के सामने खड़े हैं. हमारी जवानी किसी मुजरिम की कमीज़ की तरह हमसे छीन ली गई है. हम इंतज़ार करते हैं. स्थूलकाय गोली के हमारी गर्दन में पैबस्त होने के पहले दस या बीस साल गुजर जाते हैं. दीवार ऊंची और मजबूत है. दीवार के पीछे एक पेड़ और एक सितारा है. पेड़ अपनी जड़ों से दीवार को खोद रहा है. सितारा किसी चूहे की तरह पत्थर को कुतर रहा है. सौ-दो सौ सालों में वहां एक छोटी सी खिड़की बन जाएगी. 
                                                            :: :: ::

Wednesday, March 20, 2013

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट : दो गद्य कविताएँ

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की दो गद्य कविताएँ... 
ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की दो कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कप्तान की दूरबीन 
मैंने इसे नेपल्स के एक बिसाती से खरीदा. बताते हैं कि यह दूरबीन मारिया  के कप्तान की थी जो एक साफ़ चमकीले दिन गोल्ड कोस्ट के बिल्कुल पास रहस्यमय परिस्थितियों में डूब गया था. 

एक अजीब सा औजार. इसे मैं चाहे जिस चीज पर केंद्रित करूँ, मुझे बस दो नीली पट्टियां ही दिखती हैं --एक गहरे नीले रंग की और दूसरी आसमानी नीले रंग की. 
                                                            :: :: :: 

वायलिन 
एक वायलिन नंगी होती है. उसकी दुबली-पतली नन्ही-नन्ही बाहें होती हैं. उनसे वह आधे-अधूरे ढंग से खुद को ढंकने की कोशिश करती है. शर्म और ठंड की वजह से वह रोती है. इस कारण से, न कि जैसा संगीत समीक्षक कहते हैं उसे और खूबसूरत बनाने के लिए. यह सच नहीं है. 
                                                            :: :: :: 

Monday, March 18, 2013

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : शायर का दिल


अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...    

शायर का दिल : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यान्तरण : मनोज पटेल) 

जहां मोहब्बत की हुदूद पर ख़त्म लिख दिया गया 
वहाँ बंद दरवाज़े के ऊपर 
मैंने पूरा चाँद देखकर 
नए चाँद के देखने पर मांगी जाने वाली दुआ मांग ली 

तुमने मेरे दिल को ज़ंजीर से बाँध दिया 
और मैंने भौंकना शुरू कर दिया 

अगर तुम चाहो 
तो इतनी नाज़ुक ज़ंजीर से 
एक टूटी हुई शाख 
एक निशान लगे दरख़्त से बाँध सकती हो 
जिसको ठेकेदार 
इस मौसम में काट ले जाएगा 

ज़ंजीर से बंधे हुए दिल ने 
तुम्हारे क़दमों को चाटना शुरू कर दिया 
और तुमने कहा 
यह कुत्ता पागल हो गया है 
जैसा कि एक कहानी में 
एक अंधे आदमी ने अपनी बीनाई पाने के बाद 
अपने कुत्ते को दुत्कार दिया था 

अगर तुम चाहो 
तो मैं तुम्हें एक नज्म सुनाऊँ 
जो मैंने उस वक़्त पढ़ी थी 
जब मैं बातें किया करता था 
और नहीं जानता था 
मेरे दांत पीसने की आवाज़ 
कितने दरवाज़े पार कर सकती है 

शायर ने कहा था : 
"मेरा दिल एक शिकारी कुत्ता है 
जिसे मैं तुम्हारे कपड़ों की बू सुंघा रहा हूँ 
तुम मुझसे बेवफ़ाई करके 
एक और मर्द के साथ भाग गई हो 
मेरा दिल उस मर्द के तनासुल के आज़ा झिंझोड़ डालेगा 
और तुम्हें 
तुम्हारी पिंडलियों में दांत गाड़कर 
मेरे पास घसीट लाएगा"  

शायर का दिल शिकारी कुत्ता होता है 
और ज़ंजीर में बंधे हुए आदमी का दिल 
ज़ंजीर में बंधा हुआ कुत्ता 

यह कुत्ता पागल हो गया है 
इसने अपनी ज़ंजीर निगल ली है 
और शायद तुम्हारी उंगलियाँ भी 
जो लोहे की तरह संगदिल हैं 
और उस ज़ंजीर की तरह बेवफ़ा  
जिससे कोई भी कुत्ता बाँधा जा सकता है 

तुमने जानवरों का इलाज करने वाले को बुलाया 
और उसकी आँखों में मुस्कराकर 
मेरी क़िस्मत का फैसला कर दिया 

शायद मोहब्बत की हुदूद पर ख़त्म 
तुमने नहीं 
किसी और ने लिखा था 
जिसका तर्ज़े तहरीर 
उस राज़ की तरह 
मेरे दिल में महफ़ूज है 
जिस पर मैंने पहली बार 
भौंकना सीखा था  
                :: :: :: 

हुदूद  :  सीमाएँ, हद का बहुवचन  
बीनाई  :  आँखों की रोशनी, दृष्टि 
तनासुल के आज़ा  :  संतानोत्पत्ति के अंग 
तर्ज़े तहरीर  :  लेखन शैली, लिखने का ढंग  
महफ़ूज  :  सुरक्षित 

Saturday, March 16, 2013

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट : कंकड़

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता... 
कंकड़ : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कंकड़ 
एक पूर्ण प्राणी है 

अपने बराबर 
अपनी सीमाओं के प्रति सचेत 

पूरा भरा हुआ 
एक कंकड़ीले अर्थ से 

एक ऐसी गंध से भरा जो किसी को कुछ भी याद नहीं दिलाती 
वह किसी को डराकर नहीं भगाता और न कोई इच्छा ही जगाता है 

उसका उत्साह और ठंडापन 
सच्चे और गरिमा से भरे हैं 

मैं भारी पछतावे से भर उठता हूँ 
जब उसे पकड़ता हूँ अपने हाथों में 
और उसका शानदार शरीर 
झूठी गर्माहट से ओत-प्रोत हो जाता है 

-- कंकड़ों को वश में नहीं किया जा सकता 
अंत तक वे देखते रहेंगे हमारी तरफ 
शांत और बिल्कुल साफ़ नज़र से 
                  :: :: :: 

Thursday, March 14, 2013

माइकल आगस्तीन के कुछ हाइकू


माइकल आगस्तीन के कुछ हाइकू... 

माइकल आगस्तीन के कुछ हाइकू  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम हाइकू नहीं हो! कहती है 
हाइकू पुलिस. मैं जो हूँ 
सो हूँ, कहता है हाइकू. 
:: :: :: 

बेस्टसेलिंग लेखक 
टहल रहा है जंगल में. 
रोको उसे--पेड़ों को बचाओ! 
:: :: :: 

बहुत सुबह जागकर 
ईर्ष्यापूर्वक मैं देखता हूँ 
खर्राटे मार रही अपनी तकिया को 
:: :: :: 

हमेशा के लिए मिट चुके हैं 
दोनों टावर -- मगर गिद्ध 
अब भी मंडराते हैं उनके इर्द-गिर्द. 
:: :: :: 

डालियों में 
अटक जाने की वजह से, सूरज को 
चमकना पड़ा सारी रात. 
:: :: :: 

सोफे पर अलसाया बैठा 
वह कहता है अपने जूतों से 
थोड़ा टहल आने के लिए. 
:: :: :: 

Monday, March 11, 2013

थॉमस बर्न्हार्ड : पागलपन

थॉमस बर्न्हार्ड (1931 -- 1989) की एक लघुकथा...   
पागलपन : थॉमस बर्न्हार्ड 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

लेंड शहर में एक डाकिये को इसलिए मुअत्तल कर दिया गया क्योंकि वह न तो ऐसी चिट्ठियों को बांटता था जिनमें उसे लगता था कि बुरी ख़बरें होंगी और न ही अपने हाथ लगने वाले किसी शोक-संदेश पत्र को ही, बल्कि ऎसी सारी चिट्ठियों को वह अपने घर ला कर जला दिया करता था. आखिरकार डाकखाने ने उसे शेरेन्बर्ग के पागलखाने में भर्ती करा दिया जहां वह डाकिये की वर्दी पहने घूमा करता है और पागलखाने की एक दीवाल पर खासतौर से लगवाई गई एक डाक-पेटी में वहां के प्रशासन द्वारा डाली गई उन चिट्ठियों को बांटा करता है जो उसके साथी मरीजों के नाम आई होती हैं. ख़बरों के मुताबिक़ डाकिये ने शेरेन्बर्ग के उस पागलखाने में आते ही अपनी वर्दी की मांग की कि कहीं वह पागल न हो जाए. 
                                                               :: :: ::

Thursday, March 7, 2013

मारीन सोरेस्कू : रेतघड़ी

रोमानियाई कवि मारीन सोरेस्कू की एक कविता...     









रेतघड़ी : मारीन सोरेस्कू 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

धीमे-धीमे मैं खाली करता हूँ 
या भरता जाता हूँ खुद को? 

वही प्रवाह रेत का, 
चाहे जिस तरफ 
तुम पलट दो इसे. 
          :: :: :: 
मारीन सोरेस्कू, मैरिन सोरेसक्यू 

Wednesday, March 6, 2013

ली-यंग ली की कविता


निर्वासित चीनी माता-पिता की संतान ली-यंग ली का जन्म 19 अगस्त 1957 को जकार्ता में हुआ था. उनके नाना चीन के राष्ट्रपति थे. उनके पिता कभी माओ के निजी चिकित्सक हुआ करते थे, जिन्हें निर्वासन के बाद इंडोनेशिया में उन्नीस महीने जेल में बिताने पड़े. 1964 में उनका परिवार अमेरिका चला गया जहां ली फिलहाल शिकागो में रहते हैं. 












एक कहानी : ली-यंग ली 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

उदास है वह व्यक्ति जिससे कहा गया एक कहानी सुनाने के लिए 
और उसे सूझ नहीं रही एक भी. 

उसका पांच साल का बेटा इंतज़ार कर रहा है उसकी गोद में 
वही वाली कहानी नहीं, बाबा. कोई नई कहानी. 
अपनी दाढ़ी खुजलाता है वह व्यक्ति, अपने कान खोदता है. 

कहानियों की दुनिया के किताबों से भरे एक कमरे में  
उसे सूझ नहीं रही कोई भी कहानी, 
और उसे लगता है कि जल्द ही बच्चा  
उम्मीद करना छोड़ देगा अपने पिता से. 

बहुत आगे की सोचने लगता है वह व्यक्ति, 
उसे दिखता है वह दिन जब चला जाएगा वह बच्चा. मत जाओ ! 
यह घड़ियाल वाली कहानी सुन लो ! फिर से सुन लो परी वाली कहानी !  
तुम्हें पसंद थी मकड़े वाली कहानी. मकड़े पर हँसते थे तुम. 
मुझे सुना लेने दो उसे ! 

मगर लड़का बाँध रहा है अपना सामान, 
वह ढूँढ़ रहा है अपनी चाभियाँ. क्या तुम भगवान हो, 
चीखता है वह व्यक्ति, जो गूंगा बना मैं बैठा रहूँ तुम्हारे सामने? 
क्या कोई भगवान हूँ मैं जो कभी निराश नहीं करना चाहिए मुझे? 

लेकिन फ़िलहाल तो यहाँ है बच्चा. बाबा, प्लीज, एक कहानी? 
तार्किक नहीं भावनात्मक समीकरण है यह, 
उस दुनिया का नहीं, इस दुनिया का एक समीकरण, 
जो साबित करता है कि 
एक बच्चे की चिरौरियों और एक पिता के प्रेम का योग 
खामोशी होती है. 
                         :: :: :: 

Monday, March 4, 2013

जैक एग्यूरो की कविता

जैक एग्यूरो की एक और कविता... 









सानेट - युद्ध का चेहरा : जैक एग्यूरो 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

युद्ध का चेहरा तुम्हारा चेहरा है. आईने में यह तुम्हारा चेहरा है एक तख्ती लगाए हुए  
जिसपर लिखा है, "मैनें उन्हें ऐसा करने दिया, अपनी खामोश के साथ मैंने अपनी 
सहमति व्यक्त की, अपनी निष्क्रियता के साथ उसे अपना समर्थन दिया, एक तरह से 
उसे अपना अनुमोदन प्रदान किया क्योंकि सड़कों पर मैं यह चिल्लाते हुए 
नहीं निकल पड़ा, 'बंद करो यह सब, यह सच नहीं है, यह टेलीविजन है.' " 

युद्ध का चेहरा देखने के लिए अपने आईने को देखो, टेलीविजन को नहीं. 
यह तुम्हारा चेहरा है, यूँ ही चढ़ावा चढ़ाता हुआ तुम्हारे बेटों और मेरी बेटियों का, 
तुम्हारा अपना चेहरा वाहवाही करता रंगीन परदे पर अरेबियन सैंडबाक्स गेमों का. 

तुम्हारा चेहरा है युद्ध, उन लोगों का समर्थन करता जो पीते हैं कच्चा तेल या 
शोधित कर बैरलों से निकाल चुस्कियां लेते हैं बर्फ के साथ, या नशे में चूर, उसकी 
उल्टी कर देते हैं समुद्र में, और फिर भी बटोरते हैं अपना फायदा और मुनाफ़ा. 
ज्वाय स्टिक्स से नहीं लड़ा जाता युद्ध, निनटेंडो या सुपर मारियो की तरह 
और इसमें मरने वाले बच्चे ठोकर नहीं मार सकते, न ही कभी खड़े हो सकते हैं दुबारा. 

चेहरे, अपना पक्ष चुन लो: तुम्हारे बच्चे या तेल अल्पतंत्र? 
                                 :: :: :: 

Saturday, March 2, 2013

एमिली डिकिन्सन की कविता

अमेरिकी कवयित्री एमिली डिकिन्सन की एक और कविता... 



एमिली डिकिन्सन की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कुछ लोग कहते हैं 
कि बोलते ही 
मर जाता है एक शब्द. 
मैं कहती हूँ 
कि उसी दिन से 
जीना शुरू करता है वह. 
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