Wednesday, November 30, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर : दो शहर


नोबेल पुरस्कार विजेता टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक कविता...  


दो शहर : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक जलडमरूमध्य के दोनों तरफ, दो शहर  
एक दुश्मनों के कब्जे में, अँधेरे में डूबा हुआ 
और दूसरे में जल रही हैं बत्तियां. 
रोशन किनारा सम्मोहित करता है अँधेरे किनारे को. 

बेखुदी की हालत में तैरता हूँ 
झिलमिलाते काले समुद्र में. 
मंद-मंद गूंजती है एक तुरही. 
वह एक दोस्त की आवाज़ है, अपनी कब्र उठाओ और निकलो.  
                    :: :: :: 
Manoj Patel 

Tuesday, November 29, 2011

अब्बास कियारोस्तामी : दुविधा में मधुमक्खी

मशहूर इरानी फिल्मकार अब्बास कियारोस्तामी की कुछ कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं, आज प्रस्तुत हैं कुछ और कविताएँ...











अब्बास कियारोस्तामी की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

हजारों खिले फूलों के बीच 
दुविधा में है 
मधुमक्खी. 
:: :: :: 

धूसर आसमान की दरार से 
रोशनी का एक कतरा 
गिरता है 
बसंत के पहले फूल पर.
:: :: :: 

अंकुरित हुआ  
खिला 
मुरझाया  
और जमीन पर गिर पड़ा. 
किसी ने देखा भी नहीं उसे. 
:: :: :: 

सींचा जा रहा है 
एक काक-भगौड़ा 
खेत के बीचोबीच
:: :: :: 
Manoj Patel 

Monday, November 28, 2011

रॉबर्ट ब्लाय : हम क्यों नहीं मरते

रॉबर्ट ब्लाय की एक कविता...



हम क्यों नहीं मरते : रॉबर्ट ब्लाय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सितम्बर बीतते-बीतते तमाम आवाजें 
बताने लगती हैं आपको कि आप मर जाएंगे.
वह पत्ती, वह सर्दी कहती है यह बात.
सच कहती हैं वे सब. 

हमारी तमाम आत्माएं - वे क्या 
कर सकती हैं इस बारे में ?
कुछ भी नहीं. वे तो हैं ही अंश 
अदृश्य-अगोचर की. 

हमारी आत्माएं तो 
उत्सुक रही हैं घर जाने के लिए.
"देर हो गई है," वे बोलती हैं 
"दरवाजा बंद कर दो और चलो." 

देह राजी नहीं होती. वह कहती है,
"वहां उस पेड़ के नीचे 
हमने गाड़े थे कुछ लोहे के छर्रे.
चलो निकालते हैं उन्हें." 
                    :: :: :: 
Manoj Patel  

Sunday, November 27, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर : दस्तखत


टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक कविता...  


दस्तखत : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मुझे पार करनी पड़ती है 
अँधेरे में डूबी चौखट.
एक हाल.
चमकता हुआ सफ़ेद दस्तावेज.
चलती-फिरती कई परछाइयां.
हर कोई दस्तखत करना चाहता है उस पर.

तब तक मुझसे आगे निकल जाता है प्रकाश 
और तह कर देता है समय को.  
                    :: :: :: 
तोमस त्रांसत्रोमर Manoj Patel 

Saturday, November 26, 2011

नाओमी शिहाब न्ये : निगाहों की जांच


नाओमी शिहाब न्ये की कविता...

















निगाहों की जांच : नाओमी शिहाब न्ये 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

D है हताश. 
और B चाहता है छुट्टी 
रहना चाहता है किसी विज्ञापन-पट पर,
होकर बड़ा और बहादुर. 
E नाराज है R से कि उसने धकेल दिया है उसे मंच से पीछे. 
छोटा c बनना चाहता है बड़ा C मुमकिन हो अगर, 
और P खोया हुआ है ख़यालों में. 

कहानी, कितना बेहतर है कहानी होना. 
क्या तुम पढ़ सकती हो मुझे ? 

हमें रहना पड़ता है इस सफ़ेद पट पर 
साथ-साथ एक -दूसरे के पड़ोस में. 
जबकि होना चाहते थे हम किसी बादल की दुम
जहाँ एक हर्फ़ तब्दील होता दूसरे में, 
या चाहते थे गुम हो जाना किसी लड़के की जेब में 
फाहे की तरह बेडौल, 
वही लड़का जो भैंगी आँखों से पढ़ा करता है हमें 
लगता है उसे कि हम में छिपा है कोई गूढ़ सन्देश. 
काश कि उसके दोस्त बन पाते हम. 
आजिज आ चुके हैं इस बेमतलबपन से. 
                    :: :: :: 
(नई बात से साभार) Manoj Patel 

Friday, November 25, 2011

वादी सादेह : ज़िंदगी

वादी सादेह की एक कविता... 


ज़िंदगी : वादी सादेह 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यूं ही वक़्त बिताते हुए 
उसने एक गुलदस्ते की तस्वीर बनाई 
और एक फूल बना दिया गुलदस्ते में,
खुशबू उठने लगी कागज़ से. 
उसने एक सुराही की तस्वीर बनाई 
और थोड़ा सा पानी पीकर सुराही से 
कुछ पानी डाल दिया फूल में भी. 
पलंग के साथ 
एक कमरे का खाका खींचा उसने 
और फिर सो गया. 
जागने के बाद 
उसने एक समुद्र उकेरा, 
एक अथाह समुद्र, 
जो बहा ले गया उसे 
               :: :: :: 
Manoj Patel   

Thursday, November 24, 2011

प्राइमो लेवी : इंसान भी होता है एक दुखी प्राणी

प्राइमो लेवी (1919 -- 1987) ने दो उपन्यास, कई कहानी संग्रह, निबंध और कविताएँ लिखी हैं. वे अपनी संस्मरणात्मक किताब 'इफ दिस इज ए मैन' के लिए जाने जाते हैं जिसमें आश्विट्ज यातना शिविर में बिताए गए दिनों का ब्योरा है. 

Primo Levi

सोमवार : प्राइमो लेवी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

क्या कोई हो सकता है ट्रेन से भी ज्यादा दुखी 
जो चली जाती है अपने निर्धारित समय पर 
जिसके पास सिर्फ एक तरह की आवाज़ होती है, 
और एक ही रास्ता ? 
कोई भी नहीं होता उससे ज्यादा उदास. 

सिवाय शायद इक्के में जुते घोड़े के 
दो डंडों से घिरा हुआ 
जो देख नहीं सकता अगल-बगल भी.
उसकी ज़िंदगी का मतलब ही है सिर्फ दौड़ते जाना. 

और एक इंसान ? क्या एक इंसान नहीं होता दुखी ?
अगर लम्बे समय से वह रह रहा हो एकांत में, 
अगर उसे लगता हो कि ख़त्म हो चला है वक़्त,
इंसान भी होता है एक दुखी प्राणी.   
                    :: :: :: 
Manoj Patel 

Wednesday, November 23, 2011

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : तुम्हारी उंगलियाँ

बहुत खुशी की बात है कि 'माडर्न पोएट्री इन ट्रांसलेशन' के ताजा अंक 'द डायलेक्ट आफ द ट्राइब' में पाकिस्तान के मशहूर कवि अफ़ज़ाल अहमद सैयद की पांच कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुए हैं. उर्दू से अंग्रेजी अनुवाद कोलकाता में रहने वाले कवि और पत्रकार नीलांजन हजरा ने किए हैं. प्रस्तुत है इन्हीं पांच कविताओं में से एक कविता जो उनके संग्रह 'दो ज़ुबानों में सजाए मौत' ( دو زبانوں ميں سزاۓ موت) से ली गई है. 














तुम्हारी उंगलियाँ : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)

तुम्हारी उँगलियों ने 
दलदल में डूबते हुए शख्स को 
अलामती बोसा नहीं दिया 
मर जाने वाले आदमी की 
आँखें नहीं बंद कीं 

जो गिरहें 
तुम्हारी उंगलियाँ खोल सकती थीं 
तुमने उन्हें 
उन खंजरों से काट दिया 
जो इंसानी कुर्बानी के लिए इस्तेमाल किए गए 

जहां से तुम्हारी उंगलियाँ गुजरती हैं 
एक छाँव है 
जो कभी एक दरख़्त थी 

तुम्हारी उंगलियाँ 
छाँव में खूबसूरत लगती हैं 
और तुम 
तारीकी में 

तारीकी में 
जहां एक जख्मी परिंदा है 
जिसके पिंजरे का दरवाजा 
तुम्हारी उंगलियाँ कभी नहीं खोलेंगी 
                    :: :: :: 
अलामती बोसा  :  फ़्लाइंग किस 
गिरहें  :  गांठें 
तारीकी  :  अन्धेरा  
AFZAL AHMED SYED - افضال احمد سيد Death Sentence in Two Languages

Tuesday, November 22, 2011

लेमोनी स्निकेट : आक्युपाई आन्दोलन पर कुछ टिप्पणियाँ


'आक्युपाई वाल स्ट्रीट' आन्दोलन के समर्थन में अमेरिकी लेखक लेमोनी स्निकेट ने कुछ टिप्पणियाँ पेश की हैं...  

Lemony Snicket

आक्युपाई वाल स्ट्रीट आन्दोलन को थोड़ा दूरी से देखते हुए कुछ विचार : लेमोनी स्निकेट 
(अनुवाद : मनोज पटेल

1. यदि आप कड़ी मेहनत करके सफल हो जाते हैं तो कोई जरूरी नहीं है कि आप अपनी मेहनत की वजह से सफल हुए हों, ठीक वैसे ही जैसे यदि आप लम्बे बालों वाले एक लम्बे व्यक्ति हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि यदि आप गंजे होते तो आप बौने होते. 

2. "ऐश्वर्य" शब्द का तात्पर्य है ढेर सारा पैसा होना और ढेर सारी तकदीर होना, मगर इसका यह मतलब नहीं कि इस शब्द के दो अर्थ हैं. 

3. जो लोग यह कहते हैं कि पैसे का कोई महत्व नहीं वे दरअसल उन लोगों की तरह होते हैं जो यह कहते पाए जाते हैं कि केक का कोई महत्व नहीं - शायद इसलिए क्योंकि उनके पास पहले से ही उसके कुछ टुकड़े होते हैं. 

4. हो सकता है कि आपके पास अपना केक दूसरों के साथ बांटने की कोई वजह न हो. आखिरकार यह आपका ही है. शायद इसे आपने खुद ही बेक किया है, एक ऐसे ओवन में बेक किया है जिसे आपने खुद अपने कारखाने में बनाया था, ऎसी सामग्री से जिसे आपने खुद अपने खेतों में पैदा किया था. मुमकिन है कि आप अपना पूरा केक अपने पास रखें और अगल-बगल के भूखे लोगों को यह समझा सकें कि आप कितने न्यायप्रिय हैं. 

5. जिसे यह महसूस हो रहा हो कि उसके साथ कुछ गलत हुआ है, उसी व्यक्ति की तरह होता है जिसे प्यास महसूस हो रही हो. उन्हें यह मत बताइए कि उन्हें गलत महसूस हो रहा है. उनके साथ बैठिए और गला तर करिए. 

6. अपने आप से मत पूछिए कि कोई चीज न्यायपूर्ण है या नहीं. यह बात किसी और से पूछिए, मसलन सड़क पर जा रहे किसी अजनबी से. 

7. अपने साथ नाइंसाफी होने को महसूस कर रहे सड़क पर उतर आए लोगों में जोर-जोर से चिल्लाने की प्रवृत्ति होती है क्योंकि एक आलीशान इमारत के भीतर अपनी आवाज पहुंचाना बहुत मुश्किल होता है.  

8. समस्याएँ सुलझाने का काम हमेशा आलीशान इमारतों के बाहर खड़े होकर चिल्ला रहे लोगों का ही नहीं होता. बहुधा यह काम इमारत के भीतर के लोगों का होता है जिनके पास कागज़, कलम, मेज और एक भव्य नजारा होता है. 

9. ऐतिहासिक रूप से ऎसी कहानी दुखांत कहानी साबित हुई है जिसमें आलीशान इमारतों के भीतर बैठे लोगों ने इमारत के बाहर खड़े उनपर चिल्ला रहे लोगों को नजरअंदाज किया है या उनपर तंज किया है. 

10. 99% एक बहुत बड़ा हिस्सा होता है. उदाहरण के लिए, 99% लोगों को निस्संदेह अपने सर के ऊपर एक छत की जरूरत हो सकती है, उन्हें अपनी मेज पर खाना और कभी-कभार केक का एक टुकड़ा चाहिए हो सकता है. इस बात से असहमत उन थोड़े से 1% लोगों के साथ निश्चित रूप से कोई व्यवस्था बनाई जा सकती है. 
                                                               :: :: ::  
Manoj Patel 

Monday, November 21, 2011

रचनाओं के कागज़ से ठोंगे

अलफांसो क्विजादा यूरिअस का जन्म दिसंबर १९४० में अल-सल्वाडोर में हुआ था. उनका अधिकतर जीवन निर्वासन में ही बीता है, पहले निकारागुआ में और फिर मेक्सिको और कनाडा में. स्पेनी भाषा में उनके तीन कविता संग्रह और चार कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.











सन्देश : अलफांसो क्विजादा यूरिअस 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मुझे खुशी है कि किसी दिन 
इस छोटी सी किराने की दूकान का मालिक 
ठोंगे बनाएगा 
मेरी रचनाओं के कागज़ से  
भविष्य के लोगों के लिए 
अपनी चीनी और काफी बाँधने की खातिर   
जो अभी तमाम वजहों से 
स्वाद नहीं ले पा रहे उसकी चीनी या काफी का.
                    :: :: :: 
Manoj Patel Translations 

Sunday, November 20, 2011

आक्युपाई आन्दोलन : कार्टूनिस्टों की नजर से


'आक्युपाई वाल स्ट्रीट' आन्दोलन से सम्बंधित कुछ कार्टून...


























जोनाथन लेथम : आक्युपाई वाल स्ट्रीट के समर्थन में चुटकुले

'आक्युपाई वाल स्ट्रीट' आन्दोलन के समर्थन में अमेरिकी लेखक जोनाथन लेथम ने कुछ मौजूं लघुकथाएं/ चुटकुले लिखे हैं और और उन्हें अमेरिकी सन्दर्भों से जोड़ते हुए विश्लेषित किया है. चुटकुले प्रस्तुत हैं जो हमारे लिए भी कम मौजूं नहीं हैं...











लाश को गुदगुदी : जोनाथन लेथम 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक आदमी एक डाक्टर के पास गया और अपनी तकलीफ बताई कि वह मर चुका है. डाक्टर ने उससे कहा कि यह बिलकुल गलत है क्योंकि वह तो ज़िंदा है और एक छोटी सी प्रस्तुति से वह इसे साबित भी कर सकता है. डाक्टर ने पूछा, "क्या किसी लाश को गुदगुदी लग सकती है?" "आप भी कैसी बात करते हैं" उस आदमी ने कहा, "किसी लाश को गुदगुदी कैसे लग सकती है?" डाक्टर ने मरीज की कमीज उठाकर उसके पेट में गुदगुदी करना शुरू कर दिया. वह आदमी हँसते-हँसते पस्त हो गया. जब उसकी साँसें सामान्य हो गईं तो वह डाक्टर से बोला, "डाक्टर साहब, आप ठीक कह रहे थे, मुझे तो पता ही नहीं था! लाश को भी गुदगुदी लगती है!"
:: :: ::

अंधेरी गली से गुजर रहे एक सिपाही ने देखा कि बिजली के खम्भे के नीचे एक शराबी घुटनों के बल रेंग सा रहा है. पूछने पर शराबी ने बताया कि वह अपनी खोई हुई चाभियाँ खोज रहा है. सिपाही ने भी तुरंत नीचे झुककर चाभियाँ खोजना शुरू कर दिया. कई बार फुटपाथ और नाली को छान चुकने के बाद सिपाही को पूछने की सुध आई, "तुम्हें पक्का है न कि तुम्हारी चाभियाँ यहीं खोई थीं?" शराबी ने अपने पीछे अंधेरी गली की तरफ इशारा करते हुए जवाब दिया, "अरे नहीं, चाभियाँ तो कोई पचास गज पीछे वहां गुम हुईं थीं." "अच्छी बात है, तो फिर तुम यहाँ क्यों खोज रहे हो?" सिपाही ने पूछा. शराबी ने जवाब दिया, "यहाँ कितना बेहतर उजाला है." 
:: :: :: 

एक परेशान हाल परिवार भ्रम के शिकार अपने बच्चे को लेकर मनोचिकित्सक के पास पहुंचा और बताया कि इस बच्चे को लगता है कि वह मुर्गी है. डाक्टर ने उसकी जांच की और पाया कि सचमुच उसे यही लगता है कि वह  बाड़े में रहने वाली और परों वाली एक मुर्गी है. वह पिता को एक किनारे ले गया और मनोरोग दूर करने वाली कुछ हल्की दवाइयों का नुस्खा दिया. यह भी बताया कि इन दवाओं से कोई अंदरूनी गड़बड़ी भले ही न ठीक हो मगर यह रोग के लक्षणों को कम जरूर कर देगी और बच्चा अपने आप को मुर्गी नहीं समझेगा. "मगर हम ऐसा नहीं कर सकते." बच्चे के पिता ने कहा. "क्यों भला?" डाक्टर ने पूछा. पिता का जवाब था, "क्योंकि वह इतना बड़ा हो चुका है कि अब नाकाम नहीं हो सकता -- मेरा मतलब कि हमें अण्डों की भी तो जरूरत है." 
:: :: :: 
Manoj Patel  

Saturday, November 19, 2011

एलिस वाकर : आने वाली है वह दुनिया अरुंधती

आक्युपाई वाल स्ट्रीट आन्दोलन ने दुनिया भर के साहित्यकारों/बुद्धिजीवियों को उद्वेलित किया है. इस ब्लॉग पर आप आन्दोलन से सम्बंधित स्लावोज ज़िज़ेक, राबर्ट रीच और अरुंधती राय के भाषण पहले ही पढ़ चुके हैं. अपने उपन्यास 'द कलर पर्पल' के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त लेखिका/कवियत्री एलिस वाकर ने इस आन्दोलन के समर्थन में यह कविता लिखी है... 













हम ही हैं दुनिया अपनी चाहतों की : एलिस वाकर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जोश से भर उठता है मेरा दिल 
आपके उत्साहित चेहरों को देखकर 
वे "आहा!" निगाहें 
आखिरकार चमकती हुईं 
इतनी सारी खुली आँखों में. 
हाँ, 99% हैं हम 
हम सभी 
इनकार करते हुए 
एक-दूसरे को भूलने से 
चाहे जो टुकड़े डाले जा रहे हों 
हमारी भूख में 
1% द्वारा.
आने वाली है वह दुनिया, अरुंधती  
और अब हम सुन सकते हैं 
उसकी आहट. 
हम ही हैं दुनिया अपनी चाहतों की, एकजुट 
और दाखिल होते हुए उसमें.   
                    :: :: :: 
Manoj Patel 

Friday, November 18, 2011

अरुंधती राय : हम सभी आन्दोलनकारी हैं


अरुंधती राय ने आकुपाई आन्दोलन के समर्थन में यह भाषण न्यूयार्क के वाशिंगटन स्क्वायर पार्क में दिया था. इस भाषण को गार्जियन ने प्रकाशित किया है. 









हम सभी आन्दोलनकारी हैं : अरुंधती राय 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

मंगलवार की सुबह पुलिस ने जुकोटी पार्क खाली करा लिया मगर आज लोग वापस आ गए हैं. पुलिस को जानना चाहिए कि यह प्रतिरोध जमीन या किसी इलाके के लिए लड़ी जा रही कोई जंग नहीं है. हम इधर-उधर किसी पार्क पर कब्जा जमाने के अधिकार के लिए संघर्ष नहीं कर रहे हैं. हम न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं. न्याय, सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों के लिए ही नहीं बल्कि सभी लोगों के लिए.   

17 सितम्बर के बाद से, जब अमेरिका में इस आकुपाई आन्दोलन की शुरूआत हुई, साम्राज्य के दिलो दिमाग में एक नई कल्पना, एक नई राजनीतिक भाषा को रोपना आपकी उपलब्धि है. आपने ऎसी व्यवस्था को फिर से सपने देखने के अधिकार से परिचित करा दिया है जो सभी लोगों को विचारहीन उपभोक्तावाद को ही खुशी और संतुष्टि समझने वाले मंत्रमुग्ध प्रेतों में बदलने की कोशिश कर रही थी.   

एक लेखिका के रूप में मैं आपको बताना चाहूंगी कि यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है. इसके लिए मैं आपको कैसे धन्यवाद दूं. 

हम न्याय के बारे में बात कर रहे थे. इस समय जबकि हम यह बात कर रहे हैं अमेरिका की सेना ईराक और अफगानिस्तान में कब्जे के लिए युद्ध कर रही है. पाकिस्तान और उसके बाहर अमेरिका के ड्रोन विमान नागरिकों का क़त्ल कर रहे हैं. अमेरिका की दसियों हजार सेना और मौत के जत्थे अफ्रीका में घूम रहे हैं. और मानो आपके ट्रीलियनों डालर खर्च करके ईराक और अफगानिस्तान में कब्जे का बंदोबस्त ही काफी न रहा हो, ईरान के खिलाफ एक युद्ध की बातचीत भी चल रही है. 

महान मंदी के समय से ही हथियारों का निर्माण और युद्ध का निर्यात वे प्रमुख तरीके रहे हैं जिनके द्वारा अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया है. अभी हाल ही में राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका ने सऊदी अरब के साथ 60 बिलियन डालर के हथियारों का सौदा किया है. वह संयुक्त अरब अमीरात को हजारों बंकर वेधक बेचने की उम्मीद लगाए बैठा है. इसने मेरे देश भारत को 5 बिलियन डालर कीमत के सैन्य हवाई जहाज बेंचे हैं. मेरा देश भारत ऐसा देश है जहां ग़रीबों की संख्या पूरे अफ्रीका महाद्वीप के निर्धमतम देशों के कुल ग़रीबों से ज्यादा है. हिरोशिमा और नागासाकी पर बमबारी से लेकर वियतनाम, कोरिया, लैटिन अमेरिका के इन सभी युद्धों ने लाखों लोगों की बलि ली है -- ये सभी युद्ध ''अमेरिकी जीवन शैली'' को सुरक्षित रखने के लिए लड़े गए थे. 

आज हम जानते हैं कि "अमेरिकी जीवन शैली" --यानी वह माडल जिसकी तरफ बाक़ी की दुनिया हसरत भरी निगाह से देखती है-- का नतीजा यह निकला है कि आज 400 लोगों के पास अमेरिका की आधी जनसंख्या की दौलत है. इसका नतीजा हजारों लोगों के बेघर और बेरोजगार हो जाने के रूप में सामने आया है जबकि अमेरिकी सरकार बैंकों और कारपोरेशनों को बेल आउट पैकेज देती है, अकेले अमेरिकन इंटरनेशनल ग्रुप (ए आई जी) को ही 182 बिलियन डालर दिए गए.  

भारत सरकार तो अमेरिकी आर्थिक नीतियों की पूजा करती है. 20 साल की मुक्त बाजार व्यवस्था के नतीजे के रूप में आज भारत के 100 सबसे अमीर लोगों के पास देश के एक चौथाई सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बराबर की संपत्ति है जबकि 80 प्रतिशत से अधिक लोग 50 सेंट प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं; 250000 किसान मौत के चक्रव्यूह में धकेले जाने के बाद आत्महत्या कर चुके हैं. हम इसे प्रगति कहते हैं, और अब अपने आप को एक महाशक्ति समझते हैं. आपकी ही तरह हम लोग भी सुशिक्षित हैं, हमारे पास परमाणु बम और अत्यंत अश्लील असमानता है. 

अच्छी खबर यह है कि लोग ऊब चुके हैं और अब अधिक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं. आकुपाई आन्दोलन पूरी दुनिया के हजारों अन्य प्रतिरोध आन्दोलनों के साथ आ खड़ा हुआ है जिसमें निर्धमतम लोग सबसे अमीर कारपोरेशनों के खिलाफ खड़े होकर उनका रास्ता रोक दे रहे हैं. हममें से कुछ लोगों ने सपना देखा था कि हम आप लोगों को, संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों को अपनी तरफ पाएंगे और वही सब साम्राज्य के ह्रदय स्थल पर करते हुए देखेंगे. मुझे नहीं पता कि आपको कैसे बताऊँ इसका कितना बड़ा मतलब है. 

उनका (1 % लोगों का) यह कहना है कि हमारी कोई मांगें नहीं हैं... शायद उन्हें पता नहीं कि सिर्फ हमारा गुस्सा ही उन्हें बर्बाद करने के लिए काफी होगा. मगर लीजिए कुछ चीजें पेश हैं, मेरे कुछ "पूर्व-क्रांतिकारी ख्याल" हमारे मिल-बैठकर इन पर विचार करने के लिए :

हम असमानता का उत्पादन करने वाली इस व्यवस्था के मुंह पर ढक्कन लगाना चाहते हैं. हम व्यक्तियों और कारपोरेशनों दोनों के पास धन एवं संपत्ति के मुक्त जमाव की कोई सीमा तय करना चाहते हैं. "सीमा-वादी" और "ढक्कन-वादी" के रूप में हम मांग करते हैं कि :

          व्यापार में प्रतिकूल-स्वामित्व (क्रास-ओनरशिप) को ख़त्म किया जाए. उदाहरण के लिए शस्त्र-निर्माता के पास टेलीविजन स्टेशन का स्वामित्व नहीं हो सकता; खनन कम्पनियां अखबार नहीं चला सकतीं; औद्योगिक     घराने विश्वविद्यालयों में पैसे नहीं लगा सकते; दवा कम्पनियां सार्वजनिक स्वास्थ्य निधियों को नियंत्रित नहीं कर सकतीं.
          प्राकृतिक संसाधन एवं आधारभूत ढाँचे --जल एवं विद्युत् आपूर्ति, स्वास्थ्य एवं शिक्षा-- का निजीकरण नहीं किया जा सकता. 
          सभी लोगों को आवास, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा का अधिकार अवश्य मिलना चाहिए.          
          अमीरों के बच्चे माता-पिता की संपत्ति विरासत में नहीं प्राप्त कर सकते. 

इस संघर्ष ने हमारी कल्पना शक्ति को फिर से जगा दिया है. पूंजीवाद ने बीच रास्ते में कहीं न्याय के विचार को सिर्फ "मानवाधिकार" तक सीमित कर दिया था, और समानता के सपने देखने का विचार कुफ्र हो चला था. हम ऎसी व्यवस्था की मरम्मत करके उसे सुधारने के लिए नहीं लड़ रहे हैं जिसे बदले जाने की जरूरत है. 

एक "सीमा-वादी" और "ढक्कन-वादी" के रूप में मैं आपके संघर्ष को सलाम करती हूँ. 

सलाम और जिंदाबाद. 
                                                             :: :: :: 
(गार्जियन से साभार)   Manoj Patel 
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