Monday, April 30, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : तुम्हारे बदन का तेहवार ख़त्म होने के बाद

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...  

 
तुम्हारे बदन का तेहवार ख़त्म होने के बाद : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

तुम्हारे बदन का तेहवार ख़त्म होने के बाद 
शबीहें और नक़ाबें 
उतार दी गईं 
आराइशी मेहराबें हट गईं 
और क़दमों के निशानात 
कुदाल से बराबर कर दिए गए 

तुम्हारे बदन का तेहवार ख़त्म होने के बाद 
सधाए हुए जानवरों को 
उनके मालिक वापस ले गए 
पेशगोई करने वालों को 
अपनी बात का मुआवज़ा मिल गया 
एक ख़ेमे में आग लग गई 
जिसे आंसुओं से बुझा दिया गया 

तुम्हारे बदन का तेहवार ख़त्म होने के बाद 
आइंदा ज़ियाफ़त का मुक़ाम  
तय किया गया 
एक नए जज़ीरे को जाने के लिए 
कश्तियों के रंग खरीदे गए 
और साहिल से 
मुर्दा आबी परिंदों को हटा दिया गया 
                    :: :: :: 

तेहवार  :  त्यौहार, उत्सव 
शबीहें  :  तस्वीरें 
आराइशी  :  सजावटी 
पेशगोई  : भविष्यवाणी 
आइंदा  :  आने वाला, भविष्य का 
ज़ियाफ़त  :  दावत 
जज़ीरा  :  द्वीप, टापू 
साहिल  :  किनारा, समुद्र तट 
आबी परिंदे  :  समुद्री पक्षी 

Sunday, April 29, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : एक नई ज़बान का सीखना

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...  

 
एक नई ज़बान का सीखना : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

समुन्दर के क़रीब 
एक इमारत में 
जहां मेरे 
और पड़ोस के कुत्ते के सिवा 
कोई तनहा नहीं पहुंचता 
मैं एक नई ज़बान सीख रहा हूँ 
अपने आप से बातें करने के लिए 
               :: :: ::  

Saturday, April 28, 2012

अडोनिस : उसने कहा था


इस ब्लॉग पर आप सीरियाई कवि अडोनिस की कविताएँ पढ़ते रहे हैं. इस ब्लॉग की ५०० पोस्ट पूरी होने के मौके पर आज प्रस्तुत हैं उनकी कविताओं से कुछ कोट्स...

उसने कहा था : अडोनिस 

(अनुवाद एवं प्रस्तुति : मनोज पटेल)

मैं नहीं, यह पृथ्वी है गुमशुदा
जिस पर मैं रहता हूँ. 
               * * *

अगर मैं कोई बादल होता,
चरवाहों के ऊपर से गुजरता बसंत में 
और प्रेमियों के लिए होता एक तम्बू की तरह.
               * * * 

वह पहनता है युद्ध की वर्दी 
और दिखावा करता है विचारधारा का लबादा पहन. 
दरअसल वह एक सौदागार है
कपड़ों का नहीं, लोगों का.  
                 * * *           

कल मर गया वह फूल 
जिसने लालच दिया था हवा को 
अपनी खुशबू फैलाने का.
                 * * *

अब सूरज नहीं उगता.
वह कफ़न ओढ़ लेता है तिनके का 
और गायब हो जाता है.
                 * * *

नाउम्मीदी, मैं तुम्हें 
तुम्हारे असली नाम से पुकारता हूँ.
हम कभी अजनबी नहीं रहे, मगर 
मैं इन्कार करता हूँ तुम्हारे साथ चलने से.
               * * * 

हरी पत्तियों से गूंथ लो अपनी चोटियाँ, मेरे बच्चों,
अब भी कविताएँ हैं हमारे बीच.
हमारे पास समुन्दर है 
और अपने ख्वाब.
               * * *

एक ही जैसी होती है सूरज और मोमबत्ती की रोशनी 
दिल के अँधेरे में.
               * * *

क्या बदसूरती से मुक्त होकर 
दुनिया और खूबसूरत हो जाएगी?
               * * *

क्या मैं यह कहूं कि उसकी ज़िंदगी एक शब्द थी,
मगर सिर्फ उसकी मौत ही उसे कुछ मायने दे सकती थी.
                * * *  

क्या लेखन भी एक रेत घड़ी है?
                * * *

न्यूयार्क एक स्त्री है 
एक हाथ में एक फट्टी थामे हुए 
जिसे इतिहास लिबर्टी कहता है,
और दूसरे हाथ से गला घोंटते हुए पृथ्वी का.
               * * * 

मैनें कहा : "ब्रुकलिन ब्रिज!"
मगर वह तो अब व्हिटमैन और वाल स्ट्रीट को जोड़ता है,
अब वह पुल हो गया है हरी पत्तियों और हरे नोटों के बीच का.
               * * * 

कभी-कभी खेत में उग आती हैं कीलें,
खेत इतना चाहता है पानी को. 
               * * *

सर्दी का अकेलापन 
और गर्मी की क्षणभंगुरता 
जुड़ी है बसंत के पुल से.
               * * * 

खुशी उम्रदराज पैदा होती है 
और मरती है एक बच्चा होकर.
               * * *

जाते हुए 
मैं बंद कर जाता हूँ अपने पीछे 
पृथ्वी का दरवाज़ा.
               * * * 

मैं जा रहा हूँ 
अपने माथे पर निर्वासन का पसीना लिए हुए
और अपनी आँखों में सोती हुई 
एक गुमशुदा कविता के साथ.
               * * * 

कुछ कागज़ लाओ मेरे लिए,
थोड़ी रोशनाई.
... अभी दिल हैं छूने के लिए.
               * * *   

क्या यह कोई ख्वाब है?
क्या वापसी नाम का कोई सफ़र नहीं?
               * * * 

आवाज़ भाषा की सुबह है. 
               * * *

इंसान सतत मृत्यु की एक प्रक्रिया है.
               * * *

मिट्टी एक देंह है 
जो नृत्य करती है 
सिर्फ हवा के साथ. 
               * * * 

एक बार गाया था मैनें : थकता हुआ 
हर गुलाब उसका नाम है 
सफ़र करता हुआ हर गुलाब उसका नाम है. 
          क्या सड़क ख़त्म हो गई? क्या उसने अपना नाम बदल लिया? 
               * * *

कुदरत बूढ़ी नहीं होती.
               * * *

खून सोचता है, देंह लिखती है.
               * * *

धूल एक जंगली घोड़ा है जिसे साधना मुश्किल है.
उसके पैरों के निशान से ढँकी हुईं हैं सड़कें.
               * * * 

रेत को समझने के लिए 
तुम्हें कोई लहर होने की जरूरत नहीं.
               * * *

ऐ रोशनाई की रेल, उसके कागजों पर 
कोई स्टेशन नहीं है.
               * * * 

अपनी बाहें फैला लो.
मैं देखना चाहता हूँ 
उनके बीच 
कांपती हुई अपनी स्मृति. 
               * * * 

कहीं पैठ नहीं है हमारी खामोशी की 
हमारे प्यार की तरह, उस तक भी कोई रास्ता नहीं जाता.  
               * * *

हम घूमते थे अपनी बर्बादी के खंडहरों में, अपनी नादानियों के आईने में 
बेजान कागज़ के शब्दकोषों में  
और कोई निशान नहीं छोड़ते थे हमारे क़दम  
चलो फिर से चलें 
अपने बेहतर दिनों के बगीचे में 
               * * *

कोई पुल नहीं था 
मेरी देह और मेरे ख्वाब के बीच  
इस तरह मैं रहने लगा अपने ख़यालों में 
इस तरह दोस्त बन गए मैं और फ़रेब 
               * * *   

मौत को खूबसूरत बनाना गुनाह है.
               * * *

हम कौन सी जुबान में सूरज को बताएं 
कि उसका उगना एक जख्म है और उसका डूबना एक कब्र.
               * * * 

यह बुढ़ापा नहीं, बचपना है जो तुम्हारे चेहरे को झुर्रियों से भरे हुए है.
               * * *

हवा भी बनना चाहती है 
तितलियों से खींची जाने वाली 
एक गाड़ी.
              * * * 

सूरज जिद करके पहनता है कुहासे का कपड़ा 
मुझसे मिलता है जब वह.
              * * *

ओह, अब मेरी इन्द्रियों को पहले से भी ज्यादा जरूरी है 
पवित्र किताबों को कविता की नजर से पढ़ना.
               * * *

एक सितारा 
अन्तरिक्ष के मैदान में एक पत्थर भी तो है. 
             * * *

"क्या, किधर, कैसे?
बह चुकी हैं सारी हवाएं  
सारी डालियाँ झूम चुकीं उनके साथ,
पर तुम नहीं आई."
              * * *  

तुम्हें पढ़ता है आसमान 
जब मौत तुम्हें लिख देती है. 
              * * *

वर्तमान एक बूचड़खाना है 
और सभ्यता एक नाभिकीय नरक.
               * * * 

ज़िंदगी, मैं तुम्हारी, या तुमसे कोई शिकायत नहीं करना चाहता.
सिर्फ यह कहना चाहता हूँ : मैं अब भी तुमसे प्यार करता हूँ.
               * * * 

इंसान एक देह नहीं बल्कि एक संख्या है.
हर गुजरते दिन के साथ 
कुछ घटता जाता है उसमें. 
               * * *

रेत, मैं तुम्हें मुबारकबाद देता हूँ. 
सिर्फ तुम ही ढाल सकती हो 
पानी और मरीचिका को 
एक ही प्याले में. 
             :: :: :: 

Friday, April 27, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : क्या आग सबसे अच्छी खरीदार है

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...  

 
क्या आग सबसे अच्छी खरीदार है : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

लकड़ी के बने हुए आदमी 
पानी में नहीं डूबते 
और दीवारों से टांगे जा सकते हैं 

शायद उन्हें याद होता है 
कि आरा क्या है 
और दरख़्त किसे कहते हैं 

हर दरख़्त में लकड़ी के आदमी नहीं होते 
जिस तरह हर ज़मीन के टुकड़े में कोई कारआमद चीज़ नहीं होती 

जिस दरख़्त में लकड़ी के आदमी 
या लकड़ी की मेज़ 
या कुर्सी 
या पलंग नहीं होता 
आरा बनाने वाले उसे आग के हाथ बेच देते हैं 

आग सबसे अच्छी खरीदार है 
वह अपना जिस्म मुआवज़े में दे देती है 
मगर 
आग के हाथ गीली लकड़ी नहीं बेचनी चाहिए 
गीली लकड़ी धूप के हाथ बेचनी चाहिए 
चाहे धूप के पास देने को कुछ न हो 
लकड़ी के बने हुए आदमी को 
धूप से मोहब्बत करनी चाहिए 
धूप उसे सीधा खड़ा होना सिखाती है 

मैं जिस आरे से काटा गया 
वह मक्नातीस का था 
उसे लकड़ी के बने हुए आदमी चला रहे थे 
ये आदमी दरख़्त की शाखों से बनाए गए थे 
जबकि मैं दरख़्त के तने से बना 
मैं हर कमज़ोर आग को अपनी तरफ़ खींच सकता था 
मगर एक बार 
एक जहन्नुम मुझसे खिंच गया 

लकड़ी के बने हुए आदमी 
पानी में बहते हुए 
दीवारों पर टंगे हुए 
और कतारों में खड़े हुए अच्छे लगते हैं 
उन्हें किसी आग को अपनी तरफ़ नहीं खींचना चाहिए 

आग 
जो यह भी नहीं पूछती 
कि तुम लकड़ी के आदमी हो 
या मेज़ 
या कुर्सी 
या दियासलाई 
               :: :: :: 

मक्नातीस  :  चुम्बक  

Thursday, April 26, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : फ़लकीयात और शायर


अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   


फ़लकीयात और शायर : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

मोहब्बत के एतिराफ़ में मिर्रीख़ के एक चाँद के आतिशफ़शां का नाम उस शख्स की महबूबा के नाम पर रख दिया गया जिसने वह और एक और चाँद दरियाफ़्त किया था, और जिसे मोहब्बत से कमतर जज़्बे परस्तिश की बिना पर एक असातीरी ख़ुदा से मंसूब किया गया. मगर हम दरगुज़र कर सकते हैं क्योंकि यह ख़ुदा मारा गया था. क़ाबिले इत्मीनान बात यह है कि पहली नाकाम परवाज़ करने वाले के नाम पर मिर्रीख़ के एक सैयारानुमा को बप्तिस्मा दिया गया है, और कायनात को बामानी बनाने के लिए कम अज़ कम एक शायर, एक नाविल निगार, एक मुसव्विर और एक मौसीक़ार के नाम से अतारद के ख़ित्ते मंसूब हुए. खूबसूरती की देवी, अफरोदेती, ज़ोहरा की सरज़मीं से सिर्फ एक ख़ित्ते की हाकिम है, जबकि मुबाशरत का ख़ुदा सैयारा नंबर 433 करार दिया गया, ख़ुदा-ए-हरमस से मंसूब सैयारानुमा, अफ़सोस है कि ज़मीन से हजार मीटर क़रीब आने के बाद कहीं खो गया. जो लोग पैसों से मोहब्बत करते हैं उन्हें यह जानकर ख़ुशी होगी कि रोमी टकसाल की देवी मिर्रीख़ के एक सैयारानुमा की हैसियत से गर्दिश कर रही है. कायनात में तमाम क़ाबिले ज़िक्र खुदा, जिनकी परस्तिश करने वाले ख़त्म हो गए या मार दिए गए, किसी न किसी महूर पर अपने पुरजलाल नामों के साथ हरकत में हैं. एक दिन कोई बहुत दूर दरियाफ़्त होने वाले सैयारानुमा का नाम हमारे ख़ुदा के नाम पर भी रख देगा.   
                                                              :: :: ::     

फ़लकीयात  =  अन्तरिक्ष विज्ञान, खगोल विद्या  
एतिराफ़  =  स्वीकृति 
मिर्रीख़  =  मंगल 
आतिशफ़शां  =  ज्वालामुखी 
दरियाफ़्त  =  खोज, अनुसंधान  
परस्तिश  =  पूजा 
असातीरी  =  मिथकीय 
दरगुज़र  =  अनदेखा 
परवाज़  =  उड़ान 
सैयारानुमा  =  उपग्रह, सेटलाईट  
खित्ते  =  इलाके 
मुसव्विर  =  चित्रकार, पेंटर 
मौसीक़ार  =  संगीतज्ञ 
अतारद   =  बुध 
ज़ोहरा  =  शुक्र  
मुबाशरत  =  काम, सम्भोग 

Tuesday, April 24, 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी


आज प्रस्तुत है कवि-कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी 'खून भरी मांग'. इन दिनों लमही के कहानी विशेषांक में प्रकाशित विमल की कहानी "उत्तर प्रदेश की खिड़की" अपने अनूठे शिल्प, कथ्य और काव्यात्मक भाषा के चलते चर्चा में है. भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके कहानी-संग्रह 'डर' को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार प्राप्त हो चुका है.  




















खून भरी मांग : विमल चन्द्र पाण्डेय 

उनकी आंखों में जो मुझे दिखायी देता था वह फिर मुझे कभी और कहीं नहीं दिखा। उसकी परिभाषा देना मुश्किल है लेकिन उन्हें समझना कतई मुश्किल नहीं था। चीज़ें दिमाग में इतनी स्पष्ट नहीं हैं और मुझे शुरुआत का इतना याद आता है कि इस दुनिया को मैंने उनकी ही नीली आंखों से देखना शुरू किया था। वह हमेशा मुझे अपने पुराने दिनों में बैठी दिखायी देती थींजहां मैं हाफ पैण्ट पहने उनके पीछे-पीछे घूम रहा होंउ और वह मुझे ढेर सारी कहानियों में गुमा दे रही हों। हम उन्हें किरन बुआ कहते थे और जीतेंद्र उनका पसंदीदा हीरो थायह बात पूरे मुहल्ले पर उसी तरह ज़ाहिर थी जिस तरह यह ज़ाहिर था कि मुझे स्कूल जाना एकदम नहीं पसंद। मुझे उस मासूम उम्र में एक अंधेरे हॉल में सैकड़ों जगमगाती रोशनियों के बीच सबसे पहली बार वही लेकर गयी थीं। सभी लोग दम साधे किसी एक चीज़ का इंतज़ार कर रहे थे तो मैं भी करने लगा। वह मेरी उंगली थामे अंदर जाकर दाहिने मुड़ी थीं और एक सीट पर बैठ गयी थीं। मैं उनकी बगल वाली सीट पर बैठा था कि अचानक सामने के परदे पर रंगों के इंद्रधनुष उतर आये। जो संगीत बज रहा था उसकी झनकार मुझे उन रंगों के रथ पर बिठा कर दूसरी दुनिया में ले जा रही थी। मैं सिनेमा हॉल में बैठकर अपनी ज़िंदगी की पहली फिल्म देख रहा था। फिल्म का नाम `आखिरी रास्ता´

किरन बुआ का घर हम लोगों के घर के ठीक बगल में था। उनके पिता जी नहीं थे और मां व भाई मिलकर घर चलाते थे। भाई अंडे का ठेला लगाता था और दोपहर से ही उनकी मां एक बड़े परात में प्याज़ काटना शुरू देती थीं। शाम होने पर उनका भाई अंडे के ठेले पर अंडों की ट्रे सजाता और नदेसर चौराहे की तरफ निकल जाता। उनकी मां का पसंदीदा काम औरतों से बातें करना और अपने रिश्तेदारों को कोसना था। किरण बुआ की उम्र उस समय 17 या 18 रही होगी। मैं दूसरी क्लास में पढ़ता था और किरण बुआ के सबसे करीब था।

फिल्में उनकी जान थीं। वह हमारे घर से अक्सर अचार मांग कर ले जाती थीं और कहती थीं कि उनकी मां को नहीं पता चलना चाहिये नहीं तो वह बहुत मार खायेंगीं।

हमारे घर वाली सड़क के दूसरी तरफ यानि सड़क पार करने पर फिलमिस्तान टॉकीज़ था जिसमें किरण बुआ नियमित रूप से फिल्में देखने जाती थीं। कोई भी नयी फिल्म लगने पर उस दिन बहुत भीड़ होती थी इसलिये बुआ अक्सर शुक्रवार को लगी फिल्म को देखने के लिये सोमवार या मंगलवार का दिन चुनती थीं। मैं हमेशा उनके साथ होता था। मैं एक छोटा बच्चा था और छोटे बच्चे इस बात की अघोषित गारंटी लेते थे कि उनके होते कोई अनैतिक कार्य नहीं किया जा सकेगा। पहली बार के बाद मैंने किरण बुआ के साथ हर हफ्ते एक के हिसाब से एक साल में इतनी फि़ल्में देख लीं कि मेरे दोस्त मुझसे ईर्ष्या करने लगे। कटिंग मेमोरियल के उस बड़े से मैदान में जब आधी छुट्टी में सभी दोस्त पकड़ा-पकड़ी और विषअमृत खेलतेमैं चार-पांच लड़के लड़कियों से घिरा किसी नयी फिल्म की कहानी सुना रहा होगा। फि़ल्मों की कहानियां सुनाने की कला मैंने उनसे ही सीखी थी। फिल्में देखना उनका नशा हैये बात मुहल्ले में सबको पता थी और इससे किसी को ऐतराज़ नहीं था। यह ऐसा समय था जब लोगों को कम ऐतराज़ हुआ करते थे और दिलों में प्यार ज़्यादा हुआ करता था।

मैं धीरे-धीरे उनका राज़दार और साथी बन गया था। `खुदगर्ज´ देखते वक्त जब वह मुझे बिठा कर कुछ देर के लिये गायब हुयीं तो मुझे लगा कि वह बाथरुम गयी होंगीं लेकिन जब वह पंद्रह बीस मिनट बाद आयीं तो थोड़ी घबरायी और अस्त व्यस्त सी लगीं। फिर इसके बाद यह नियम ही हो गया। वह हर फिल्म में मुझे बैठा रहने को कह गायब हो जातीं। उनके जाने और आने के बीच का अंतराल बढ़ता गया। पहले वह पंद्रह बीस मिनटों में वापस आ जाती थीं,फिर एक-एक घंटे तक गायब रहने लगीं। मैं कुछ पूछता तो उदास हो जातीं। जब ऐसा उन्होंने जीतेंद्र और रेखा की एक फिल्म में किया तो मुझे कुछ शक सा हुआ। जीतेंद्र उनका आराध्य था और रेखा उनके लिये धरती पर किसी चमत्कार जैसी थी। उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी इच्छा थी कि जीतेंद्र और रेखा शादी कर लें। मैं उनके उठने के दस मिनट बाद उठा और बाथरुम के पास चला गया। मुझे बाथरुम के पीछे वाली दीवार से कुछ आवाज़ आयी तो मैं उधर ही चला गया। मैंने देखा हमारे मुहल्ले का हसनजो हॉल में टिकट चेक करता थाकिरण बुआ को दीवार पर लगाये उनके होंठों को चूम रहा है। किरण बुआ उसका सिर सहला रही थीं। थोड़ी देर बाद किरन बुआ ने उसे पीछे धकेला तो वह हंसने लगा।

``कहां जाएंगे....?´´ किरन बुआ ने पूछा था।

``कहीं भी....जहां भी सिनेमाहॉल होगा हमारी नौकरी लग जायेगी। जितना पैसा मिलेगा उतने में हम खाना खा लेंगे और तुम पिक्चर देख लोगी।´´ हसन ने बुआ का हाथ पकड़ते हुये कहा। बुआ ने उसकी हथेलियों को अपने चेहरे से सटाते हुये कहा।

``कितना अच्छा लगता है न...? हमको खाना तीन-चार दिन पे भी मिले तो हम काम चला लेंगे बस तुम नौकरी यही करना कि हम लोग खूब पिक्चर देख सकें।´´

हसन ने उन्हें बांहों में भर लिया था और यही पल था जब उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। वह झटके से बुआ को अलग हो गया। ``राजू....चलो पिक्चर देखो यार´´ उसने मुझसे कहा। बुआ की नज़र मुझसे मिली और वह चुपचाप हॉल में घुस गयीं। मुझे अचानक लगा कि मैं बहुत बड़ा हो गया हूं और एकदम अवांछित भी। उसी पल मेरे मन ने तमन्ना की कि मुझे कभी बड़ा नहीं होना है। क्या फायदा ऐसा बड़ा होने का कि लोग आपसे डर जायं  मैं बुआ को खुश देख कर खुश था लेकिन मुझे देखकर उनके चेहरे पर जो डर उभरा था उसने फिल्म देखने का मेरा पूरा मज़ा किरकिरा कर दिया।

रास्ते भर बुआ ने मुझसे कोई बात नहीं की। लौटते वक्त हम फिल्मों के नशे में लौटते थे और गाने और कलाकारों की तारीफें करते हुये घर पहुंचते थे लेकिन उस दिन हम दोनों खामोश रहे। मुझे रात भर नींद नहीं आयी और डर सताता रहा कि अब बुआ मेरे बिना फिल्में देखने चली जाया करेंगी तो मेरा क्या होगा।

अगले दिन बुआ ने मुझे नीचे मैदान से खेलते हुये बुलाया और कहा कि वह उस लड़के से प्यार करती हैं जैसे जीतेंद्र रेखा से करता है और उससे शादी करने के लिये वह किसी भी हद तक जा सकती हैं। वह फिल्मों के संवादों में बात कर रही थीं और ये सुनना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं खुद को अपनी उम्र से बड़ा महसूस कर रहा था। मैंने उनका हाथ पकड़ कर वादा किया कि मैं किसी को कुछ नहीं बताउंगा और मेरी मदद की जो भी जरूरत पड़ें वो मुझे बेझिझक बताएं। मुझे पता नहीं चला कि मैं भी फिल्मी संवादों में बात करने लगा था।

 अगली दो-तीन फिल्में शायद किरन बुआ की ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत फिल्में थीं। मुझे हॉल में बिठा कर वह हसन से मिलने चली जातीं और दोनों एक दूसरे को बांहों में भरे किसी कोने में अपने भविष्य के सपने देखते। बुआ हर फिल्म को दो बार देखतीं क्योंकि एक ही बार वह हॉल में पूरे वक्त मौजूद रहतीं।

जिस दिन हम `तमाचा´ देख कर घर लौटे थे उस दिन मुझे दो और किरन बुआ को अनगिनत तमाचे पड़े थे। यह घटना ऐसी थी कि मुझे ज़िंदगी भर के लिये उस फिल्म का नाम और उसकी कहानी याद हो गयी। किसी ने उनके बारे में उनके भाई को पता नहीं क्या बताया था कि अगली सुबह मेरी भी वहां पेशी हुयी।

``हसनवा को जानते हो देखे हो इसके साथ कभी पिक्चर में से निकलती है कि नहीं बीच में ये एक ही पिक्चर दो-दो बार क्यों जाते हो तुम लोग देखने कितना देर तुम्हारे साथ रहती है ये....?´´ किरन बुआ के भाई के पास अनगिनत सवाल थे। मैंने सबके जवाब में सिर्फ यही कहा कि जो फिल्म मुझे अच्छी लग जाती है उसे दुबारा देखने के लिये मैं ही किरन बुआ से जिद करता हूं और किरन बुआ पूरी फिल्म भर मेरे ही साथ रहती हैं। मेरी बात का विश्वास नहीं किया गया और किरन बुआ ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला ही था कि उनके भैया उन्हें लातों से पीटने लगे।

``साली कटुये के चक्कर में इज्जत डुबायेगी हमारी...हरामजादी।´´ किरन बुआ की मां भी अपने बेटे को किरन बुआ को मारने के लिये उकसा रही थीं। मैं रोने लगा और उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने मुझे धक्का दिया जिससे मेरा सिर वहीं रखी लोहे की कुर्सी से टकराया और मैं रोता हुआ घर आ गया। घर आकर मैंने पापा को सब कुछ बताया और किरन बुआ को बचाने को कहा तो उन्होंने मुझे दो तमाचे मारे और कहा कि मैं अपनी खैर चाहता हूं तो उनके घर की ओर देखूं भी नहीं।

इसके बाद सब कुछ बहुत जल्दी-जल्दी हुआ। एक दिन भोर में हसन की लाश फिलमिस्तान के पीछे पायी गयी। पुलिस ने बताया कि हसन को जुआ खेलने की आदत थी और किसी से उधार लेकर उसने जुआ खेला थाउधार वक्त पर चुकता न कर पाने के कारण उसकी हत्या कर दी गयी। उसी महीने के अंत तक किरन बुआ की शादी तय कर दी गयी।

बुआ सिर्फ बालकनी पर कभी-कभी दिखायी देती थीं। उनकी आंखें हमेशा सूजी रहतीं और वह न जाने कहां देखा करती थीं कि बहुत कोशिश के बावजूद मेरी आंखों से उनकी आंखें मिलती ही नहीं।

उनकी शादी में मैं नयी कमीज़ पहन कर गया था और मैंने छह गुलाबजामुन खाये थे। वह विदाई के समय इतना रोयीं कि पूरा मुहल्ला वीरान लगने लगा। डोली में बैठने से पहले वह मेरे गले लग के भी खूब रोयीं।

उनके जाने के बाद मुहल्ला सूना हो गया। मैं स्कूल से आते वक्त नयी नयी फिल्मों के पोस्टर देखता और उन्हें देखने के लिये तड़पता रहता लेकिन मुझे कौन दिखाता फिल्में। पापा से कहता तो वह कहते कि मैं फिल्में समझने लायक हो जाउं तब वह दिखाने ले चलेंगे।

एक दिन मैं स्कूल से लौट कर आ रहा था। रास्ते में लगे `खून भरी मांग´ के पोस्टर जो मुझे एक हफ्ते से परेशान कर रहे थे। मैं किरन बुआ को याद करता आ रहा था कि रेखा की फिल्म उन्होनें मुझे पहले ही दिन दिखा दी होती। फिल्म मारधाड़ वाली लग रही थी और मुझे किरन बुआ की रोमांटिक फिल्मों की तुलना में ऐसी ही ज्यादा पसंद आती थीं। पोस्टर घर लौटते तक मेरे दिमाग में छा चुका था, -राकेश रोशन की प्रस्तुति खून भरी मांगसंगीत राजेश रोशनगीत इंदीवर। मैं पागलों की तरह सोच रहा था कि कैसे देखूंगा ये फिल्म। मेरे दिमाग में पोस्टर के आधार पर पचासों कहानियां दौड़ रही थीं।

जब मैं घर पहुंचा तो खुशी से मेरी किलकारी फूट पड़ी। किरन बुआ मेरे घर में बैठी मां से बातें कर रही थीं। मैंने अपना बस्ता फेंका और दौड़ कर उनसे लिपट गया। वह मेरे सिर पर हाथ फिराने लगीं।

``कैसे हो राजू ?´´ उनकी आवाज़ सिर्फ दो-ढाई महीनों में ही इतनी बदल गयी थी कि पहचान में नहीं आ रही थी। एकदम टूटी हुयी आवाज़बिखरी सी जैसे रात भर टपकती ओस में भीग कर नम हो गयी और कहीं कोई धूप न हो। मैं उनसे ज़ोर से लिपट गया। वह जाने लगीं तो मेरी आंखें भर आयीं। उन्होंने मेरा माथा सहलाया, ``आदमी होके रो रहे हो?  आदमी बहुत ताकतवर होता है। रोओ मतशाम को बरामदे में मिलेंगे।´´

बरामदा एक तरह से हमारे मोहल्ले की चौपाल था जहां औरतें और बच्चे शाम को बैठ अपनी-अपनी दुखों की गठरी खोल कर आपस में साझा किया करती थीं।

शाम को जब पापा आ गये और मैंने होमवर्क उन्हें दिखा लिया तो बरामदे में जाने के लिये निकलने लगा। मां ने पापा से कुछ कहा जिसमें मुझे इतना ही समझ में आया कि किरन बुआ के ससुराल वाले बजाज चेतक मांग रहे हैं और उन्हें यहां मारपीट कर वापस यह कह कर भेजा गया है कि वापस तभी आयें जब उनका भाई बजाज चेतक खरीद कर वहां पहुंचा आये। मैं इस बात का मतलब ठीक से नहीं समझा और जितना समझा उसमें मुझे यही लगा कि मार खाना कोई बड़़ी बात नहीं और चेतक खरीद कर जितने दिन नहीं दिया जायेगा उतने दिन मैं किरन बुआ के साथ रह सकूंगा।

जब मैं बरामदे में पहुंचा तो बुआ बैठी एक पत्रिका पढ़ रही थीं। मैंने उन दिनों की अपनी सबसे बड़ी समस्या उनसे साझा की। `खून भरी मांग´ जरूर बहुत शानदार पिक्चर होगी और हमें उसे देखना चाहियेमैं उनके आने का कैसे भी फायदा उठा लेना चाहता था। वह एक बिना चीनी की मुस्कराहट मुस्करायीं और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने पास बिठा लिया।

``मैंने तो देख लिया।´´ मेरा चेहरा बुझ सा गया। उन्होंने मेरी ठुड्डी ऊपर उठाते हुये पूछा, ``कहानी सुनोगे ?´´

``हां हां ....सुनाइये।´´ मैं उत्साहित हो गया। उनसे कहानी सुनना किसी फिल्म देखने से कम नहीं था। वह एक-एक डायलॉग बोलकर फिल्मों की कहानियां दो-दो घण्टेफिल्म बहुत अच्छी हुयी तो दो तीन दिन में सुनाती थीं। उनके फिल्म सुनाने की बात सुनकर पास खेल रहे मेरे एकाध दोस्त और खिसक आये। आखिर किरन बुआ बहुत दिन बाद किसी फिल्म की कहानी सुनाने जा रही थीं। इसके पहले जब मैंने उनसे जीतेंद्र की फिल्म `मजाल´ सुनी थी तो उसका असर इतना तगड़ा था कि इत्तेफाकन उसे कुछ महीनों बाद हॉल में देखा तो किरन बुआ की सुनायी हुयी फिल्म ज्यादा अच्छी लगी थी। बुआ की कहानी में जिस तरह से जीतेंद्र ने काम किया था वैसा काम न फिल्म में उसने किया और न ही श्रीदेवी या जया प्रदा उतनी सुंदर लगीं जितनी बुआ की कहानी में लगी थीं।

बुआ की आवाज़ की उदासी बरकरार थी। कहानी में शुरू में वह ऊर्जा महसूस नहीं हुयी लेकिन जैसे ही कहानी ने दस मिनट का सफ़र तय कियाकिरन बुआ की न जाने कहां खो गयी ऊर्जा वापस आने लगी।

``फिर एक दिन सुंदर वाली रेखा अपने पति से कहती है कि मुझे अपनी जायदाद में दूसरा हिस्सेदार नहीं चाहिये।´´यह कहती हुयी बुआ खड़ी हो गयीं। ``टेन टेणान टेन टेन....इसके बाद बेचारी जो गरीब वाली रेखा हैउसको मारने के लिये सुंदर वाली घमंडी रेखा गुंडा भेजती है....डिन डिन डिन डिन..टेन टेणेन..।´´ किरन बुआ पूरी तरह फॉर्म में आ चुकी थीं और जब रेखा को मारने के लिये पहुंचे गुंडे उस पर हमला करने लगे उन्होंने बाकायदा हाथ पांव चलाकर पहले की तरह पूरी फिल्म उपस्थित कर दी। हंसी वाले मौकों पर उनकी आवाज़उनकी आंखें उनका पूरा शरीर हंसने लगता और भावुक पलों पर पूरा मोहल्ला भावुक हो जाता।

कहानी कुछ यूं थी कि एक ही अमीर बाप की दो बेटियां थीं जिनमें एक सुंदर और दूसरी कुरूप थी। सुंदर वाली बहुत घमंडी थी और कुरूप वाली बहुत आज्ञाकारी थी। रेखा का इसमें डबल रोल था। बाप के मरने के बाद सुंदर वाली अपने मन से शादी कर लेती है और कुरूप वाली को अपनी मर्जी से शादी नहीं करने देती। कुरूप रेखा राकेश रोशन से प्यार करती हैसुंदर वाली रेखा उसे मरवा देती है। सुंदर वाली रेखा कुरूप वाली रेखा से घर के सारे काम करवाती है और उसे बहुत मारती है। एक दिन उसे लगता है कि कहीं कुरूप वाली रेखा उसकी जायदाद में से हिस्सा न मांग लेइसलिये वह अपने पति कबीर बेदी से एक ऐसी मांग करती है जिसे सुन कर वह घबरा जाता है। वह उससे मांग करती है कि वह उसकी बहन को मार डाले। उसकी `खून´ से `भरी´ यह `मांग´ सुनकर उसका पति डर जाता है लेकिन उसे अपनी पत्नी की यह `खून भरी मांग´ पूरी करनी पड़ती है। वह उसकी हत्या कर देता है। कहानी के अंत के बारे में किरन बुआ हम बच्चों को संतुष्ट नहीं कर पायीं। उन्होंने बताया कि कुरूप वाली रेखा के मरने के बाद उसका घोड़ा उसी तरह उसकी मौत का बदला लेता है जैसे तेरी मेहरबानियां में कुत्ते ने लिया था। हम बच्चे अंत से बहुत खुश नहीं थे लेकिन फिल्म हमें बहुत पसंद आयी थी। पूरी फिल्म सुनाने में किरन बुआ ने दो घंटे लिये थे और फिल्म खत्म होने के कुछ ही देर बाद जब वह गली में गोलगप्पे वाले को रोककर गोलगप्पे खाने वाली थीं कि उनकी मां ने उन्हें आवाज़ दी और वह चली गयीं।

यह हमारी आखिरी मुलाकात थी। इसके कुछ ही महीनों बाद पापा ने उसी शहर के एक दूसरे मुहल्ले में ज़मीन खरीद कर दो कमरे बनवा लिये और हम लोग किराये का वह कमरा छोड़ कर वहां शिफ्ट हो गये। मैं छठवीं क्लास में आ गया था और अपने दोस्तों के बीच रमने लगा था। मां बीच-बीच में अपने पुराने पड़ोसियों से मिलने पुराने मुहल्ले कभी-कभी जाती रहती थीं। एक दिन उन्होंने वहां से लौट कर बताया कि किरन आयी है और तुझे पूछ रही थी। मैं आठवीं में चला गया था। मां ने पापा से रोते हुये बताया कि बेचारी इतनी हंसमुख लड़की सिर्फ़ हडि्डयों का ढांचा भर रह गयी है। मैंने सोचा कि मैं किसी दिन मिलने ज़रूर जाउंगा।

मैं नवीं क्लास में चला गया था जब मां ने एक दिन लौट कर बताया कि किरन की अपने ससुराल में खाना बनाते समय जलने से मौत हो गयी। मैं सन्न रह गया। मां पापा से बता रही थीं कि स्कूटर देने के बाद से ही उसके ससुराल वाले सोने की चेन की मांग कर रहे थे। पिछली बार किरन ने रोते हुये उन्हें बताया था कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं की गयी तो वे लोग उसे मार डालेंगे। मुझसे और सुना नहीं गया। मैं वहां से हट गया। मुझे रुलाई भी आयी लेकिन मैं उसे दबा ले गया।

जब मैं बारहवीं पास कर चुका था और बी. एससी. के कठिन मैथ और फिजिक्स से जूझने लगा था उन्हीं दिनों एक बदहवास से दिन दूरदर्शन पर शाम को `खून भरी मांग´ आने लगी। मेरा कहीं निकलने का प्लान नहीं था इसलिये मैं फिल्म देखने लगा वरना अब इस तरह की फिल्में मुझे पसंद नहीं आती थीं।

मैं जैसे-जैसे फिल्म देखता गयामेरे भीतर कुछ भरता सा गया और कहीं कुछ खाली सा होता गया। फिल्म खत्म होते तक मैं पूरी तरह से भर कर एकदम खाली हो चुका था। न फिल्म में रेखा का डबल रोल था और न उसमें खून से भरी कोई मांग थी जिसे किसी को पूरा करने के लिये किसी का खून करना पड़े। मैं खुद को जज़्ब करने की कोशिश में अचानक हिचकियां लेने लगा था। मां दूसरे कमरे से आ गयी।

``क्या हुआरो रहे हो क्या ?´´ मां ने पूछा।

``नहींनहीं....।´´ मैंने आंखें पोंछते हुये कहा। ``उसे मार डाला....।´´ मैंने बात संभालने की कोशिश की।

``किसे...?´´ मां घबरा गयीं। उन्होंने टीवी देखा। टीवी पर रेखा अपनी हत्या की कोशिश करने वाले कबीर बेदी को बुरी तरह मार रही थी।

``रेखा को....।´´ मैंने कुछ शर्मिंदा होकर सामान्य होना चाहा।

``बेवकूफ हो क्या...रेखा ज़िंदा है। वही तो बदला ले रही है। पिक्चर का तुम्हारा कीड़ा न...।´´ मां बड़बड़ाती हुयी बाहर चली गयीं।

मैंने छत की ओर देखा और एक लम्बी सांस लेने की कोशिश की। एक छिपकली छत पर थी और एक सीने में आकर फंस गयी थी।
                                  :: :: ::       

संपर्क :  प्लॉट नं. १३०-१३१, मिसिरपुरालहरातारा, वाराणसी-२२१००२ (उ.प्र) मोबाइल : 9451887246, ई-मेल : vimalpandey1981@gmail.com  
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...