Monday, December 27, 2010

चन्दन पाण्डेय की कहानी : मुहर

( इस कहानी के केंद्र में वही नई पीढ़ी है जिसके बारे में बुजुर्गवार यह राय बना चुके हैं कि वह असंवेदनशील, मनुष्य विरोधी वगैरह है. कहानी में एक लड़की है, एक नौकरी की तलाश है और कुछ लम्हे हैं जो बताते हैं कि संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुण लुप्त नहीं हुए हैं. कहानी चन्दन पाण्डेय की है - पढ़ते पढ़ते ) 



मुहर
      रोली के जिद्दी और अकड़ू होने की खबर आजकल जैसे सबको हो गई है. अभी अभी पारिजात सर ने भी जिद्दीपने के खातिर उसे डांट लगाई है.
      रोली की नौकरी छूटे तीन महीने हो रहे हैं. नौकरी की तलाश में मित्रों की मदद उसे ‘अच्छी’ नहीं लगती. यह भी सच है कि सीधे रास्ते सारे बन्द हैं. उसके मित्र समझदार हैं. किसी जगह उसके रोजगार की बात चलाने से पूर्व रोली की सहमति लेने का काम सलीके से करतें हैं. इस तरह कि कहीं रोली को ‘फील’ ना हो जाये.
      भोपाल के इस दफ्तर में रोली के लिये नौकरी की बात पारिजात सर ने चला रखी है. इस दफ्तर में उनका मित्र मुकुन्द पांडेय बड़ी पदवी पर है और सक्षम है. मुकुन्द पांडेय, पारिजात का सहपाठी रहा है और दो वर्षों के पाठ्यक्रम के दौरान पारिजात ने मुकुन्द से कभी जो बातचीत की हो. पर समय समय की बात. तुक्के और अपनी बीवी की मदद से मुकुन्द ने दफ्तर की दुनिया में अच्छा स्थान बना लिया है. वैसे, इस दफ्तर में रोली की नौकरी की बात चलाने से पहले पारिजात ने दो बार सोचा था. या शायद तीन बार.
      नौकरी पारिजात की भी नहीं है पर उन्होने छोड़ रखी है. यह उनका तरीका है. छ: महीने की नौकरी करते हैं, धुआँधार काम करतें हैं इतना शानदार कि चाहकर भी बॉस डांट नहीं पाता.. फिर नौकरी छोड़ देते हैं. थोड़ा दुनिया घूमा, कुछ किताबें पढ़ी, कुछ लेख लिखे और फिर छ: महीने के लिये नौकरी कर लेते हैं. इस अखबार की छवि उनके मन में अच्छी है इसलिये चाहते हैं कि रोली यहीं काम करे.
      भोपाल तक का रेल टिकट लेने के लिये रोली कतार में थी और मुम्बई के अपने मित्र से बात कर रही थी. आकाश था. यहाँ टिकट कतार से कम ही मिल रहे थे. ऐसे में बुकिंग क्लर्क पर उपजी झल्लाहट रोली ने आकाश पर उतार दी. थोड़ी बेरुखी से कहा: अभी फोन रखो, बाद में बात होती है. इसी बात पर उस मित्र ने कहा था: रोली, तुम ‘एरोगेंट’ हो गई हो.
      उसी शाम की बात है, पारिजात सर का फोन था. रोली उन्हें अपने भोपाल के टिकट हो जाने की बात बता रही थी. सर ने पूछा: टिकट कन्फर्म तो नहीं होगा? उनके सवाल में तंज था. रोली ने कहा: बिल्कुल सही, कंफर्म नहीं है. सर डाँटने लगे. उनका कहना वाजिब था. जाना, जब दो दिन पहले ही तय हो चुका था तो टिकट भी पहले ले लेना था. आलसी नम्बर एक से नम्बर दस तक, सारा यही जो ठहरीं. और तो और, रोली मैडम, सर की डाँट का बुरा भी मान गईं. कह दिया : अब मैं भोपाल नहीं आ रही हूँ. सर ने दुनिया की सारी उपेक्षा बटोर कर कहा: महारानी, ऐसी अकड़ नहीं चलेगी. समझी.
      जब वो अपने लिये चाय बना रही थी तो पाया कि चीनी नहीं है और साथ ही उसे सुबह का वह समय याद आया जब आकाश ने उसे एरोगेंट कहा था. रोली को यह छोटे मोटे आविष्कार की तरह लगा. शाम को पारिजात सर ने भी उसे अकड़ू कहा था. शाम की यह याद आते ही वो चाय लेकर हॉस्टल की छत पर चली आई.
      उसे हँसी और एक पुरानी याद साथ साथ आई. पत्रकारिता की पढ़ाई के आखिरी साल की बात है, जब एक दिन उसने ‘एवरीथिंग इज एल्यूमिनेटेड’ के बारे में सुना. अंकित था या कोई और जो इस फिल्म की तारीफ में कई सारे पुल बान्धे जा रहा था. बाइत्तिफाकन रोली ने अगले ही दिन किसी पत्रिका में इस फिल्म का जिक्र देखा. उसे यह संयोग अच्छा लगा. दोनों घटनायें अगर दिनों के अंतराल पर घटती तब वो शायद इस फिल्म का ध्यान नहीं धर पाती. पर अनोखी बात तो इसके भी बाद घटी.
      उसी दोपहर कैसेट्स की किसी अचर्चित दुकान में टहलते हुए रोली को इस फिल्म की सी.डी. मिल गई. उसे खूब आश्चर्य हुआ. उसे लगा हो ना हो सारे समीकरण ऐसे बन रहे हैं जिससे रोली को यह फिल्म दिखाई जा सके. उसने वो फिल्म खरीद ली वरना वो सी.डी. खरीदकर सिनेमा देखने वालों में से नहीं है.
      रोली ने उस फिल्म को याद किया और उस घटना की इस बेअन्दाज पुनरावृति को भी. उसके चेहरे पर इस ख्याल की कसैली मुस्कुराहट फैल गई कि आज कहीं कोई तीसरा ना मिल जाये जो उसके जिद्दी और अकड़ू होने की बात बताने लगे.

      जिस दिन वो भोपाल पहुंची उससे पांच दिन पूर्व से ही पारिजात सर अपना डेरा डंडा भोपाल में जमाये हुए थे. सर रोली से दो साल सीनियर हैं पर उनका ज्ञान तगड़ा है, जिसे वो गाहे ब-गाहे बघारते भी खूब रहते हैं. रोली को बहुत मानते हैं. चाहतें हैं दुनिया की सारी समझ, सारा ज्ञान, सारा कुछ रोली के पास रहे. रोली, भले ही, ऐसा नहीं चाहती हो. दोनों के झगड़े मशहूर हैं.
      कल साक्षात्कार है.
      जब से वो आई है, पारिजात सर उसे कुछ ना कुछ समझाये जा रहे हैं. पहला घंटा शेयर बाजार के बारे में धाराप्रवाह बताते हुए बिताया. अभी अर्थशास्त्रीय सूत्र समझा रहें है. पर रोली यह सब सुनना नहीं चाहती है. उसे बार बार समझाये जाने की कोशिश भली नहीं लग रही है. जैसे वो बहुत बड़ी हो गई है या जैसे कोई उसे याद दिला रहा है कि वो बेरोजगार है. समझाईशों के बीच एक बार वो टोकती भी है: इससे पहले मुझे नौकरी नहीं मिली है क्या?
      साक्षात्कार के लिये जाते हुए उसने पीपल के गिरे हुए पत्तों के रंग का सूट पहन रखा था. रास्ते भर, जैसा कि आप सब अवगत हो चुके होंगे, सर रोली को समझाते रहे. दफ्तर के बाहर ही मुकुन्द से मिलना तय हुआ था. वो मिले और मिलते ही पारिजात सर से शेयर बाजार के उतार चढ़ाव की बात शुरु कर दी. पारिजात बात जरूर कर रहे थे पर साथ के साथ यह भी सोच रहे थे कि कहीं रोली के साक्षात्कार में विलम्ब ना हो जाये. उनका यह सोचना साफ दिख रहा था जिसे देख रोली मन ही मन हँस रही थी.
      साक्षात्कार के वक्त एच.आर.(मानव सन्साधन) की टीम के साथ मुकुन्द पाण्डेय भी बैठे रहे. औपचारिक सवाल पूछे जा रहे थे जिनके औपचारिक ही जबाव रोली दे रही थी. एच.आर. के बन्दे सवाल पूछ कर एक बार मुकुन्द की तरफ देख लेते थे; कहीं सवाल वजनी तो नहीं हो गया? बीच बीच में मुकुन्द अपने संघर्षों की कहानी, अपनी ही जबानी शुरू कर दे रहे थे. वो सीनियर थे इस नाते सब उन्हें सुन भी रहे थे – कि कैसे बचपन में पचास मीटर पैदल चल कर विद्यालय जाया करते थे, कि बचपन में विद्यालय की फीस जमा करने में उन्हे कितनी मुश्किल आती थी; इसलिये नहीं कि उनके पास पैसे नहीं होते थे बल्कि इसलिये कि उन्हें फीस जमा करने के लिये लम्बी कतार में खड़ा होना पड़ता था.
      वो सीनियर थे इसलिये आते आते प्रवचन पर उतर आये. यह सब बताने लगे कि दुनिया माया है, सब मिथ्या है..... और कहते कहते तैश खा गये. कहना शुरु किया: लोगों को अहंकार नहीं पालना चाहिये. जब मैं कॉलेज में था तब कुछ लोग मुझसे बात करना भी गवारा नहीं करते थे. वो मुझे देख कर रास्ता बदल लेते थे. उन्हे लगता था कि कॉलेज से निकलते ही किसी अखबार के सम्पादक की कुर्सी पर जा बैठेंगे... और इतना सब कह कर मुकुन्द ने रोली की तरफ देखा. रोली ने बड़े गौर से देखा, मुकुन्द उसकी तरफ देख रहे हैं. एच.आर. के सद्स्यों ने देखा: मुकुन्द अभ्यर्थी की ओर देख रहे हैं और यह जो अभ्यर्थी है वह भी कम नहीं है जो मुकुन्द की तरफ देखे जा रही है.
      रोली को देखने के बाद भी मुकुन्द ने अपनी बात जारी रखा. कहते रहे: ये जो महान पढ़ाकू लोग थे और जो हमें किसी लायक नहीं समझते थे आज खुद सड़क पर हैं. इनका सारा ज्ञान जाने कहाँ खो गया कि आजकल बेकार बेरोजगार घूम रहे हैं.
      रोली ने दूर की सोची और पाया कि वो जब तक यहाँ रहेगी यह पाजी पंडित ऐसी ही बातें करता रहेगा. रोली समझ रही थी कि मुकुन्द यह सब किसके बारे में कह रहे हैं. यह सारी गलतियाँ पारिजात सर में है. वो अपने कॉलेज में शायद ही किसी से मेलजोल रखते हों. खुद उससे भी वे केवल पत्रकारिता सम्बन्धित बातें ही करते हैं. दरअसल पारिजात सर अपने आप में इतना गुम रहते हैं कि उन्हें पत्रकारिता के अलावा किसी भी दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रहता है. अपने बैच में सबसे पहली नौकरी उन्होने ही पाई थी. सर्वाधिक इंक्रीमेंट्स भी उन्हीं के लगे. ये जरूर है कि आज उनके पास नौकरी नहीं है पर उन्होने नौकरी छोड़ रखी है, उन्हें निकाला नहीं गया है.
      इतना लम्बा सोचते ना सोचते रोली की साँस फूल गई. पारिजात सर के बारे में आजतक उसने इतनी अच्छी बातें एक साथ कभी नहीं सोची होगी. इसी खातिर उसने मुकुन्द पाण्डेय से कहा: पारिजात सर जब चाहें उन्हें नौकरी मिल जाये. कितने अखबार वाले जो उनके काम को जानते हैं, उन्हें बुला रहे हैं.
      मुकुन्द पाण्डेय झटका खा गये. किसी से कुछ भी सुनने की उनकी आदत छूट गई. फिर भी खीसें या दाँत जैसा कुछ निपोरते हुए कहा: मैं पारिजात जी की बात नहीं कर रहा हूँ. यह तो एक आम चलन होता जा रहा है.
      एच.आर. के सदस्यों की समझ में ज्यादातर बातें नहीं आ रही थीं कि यहाँ क्या चल रहा है और यह भी कि यह, पारिजात, आखिर है कौन?
      कुछ देर ठहर कर रोली को सुनाते हुए मुकुन्द ने एच.आर. हेड से पूछा: अब?
      एच.आर. हेड ने कहा: जरूरी कागजात इन्हें मेल द्वारा भेज दिया जायेगा. उसने मुस्कुराते हुए रोली को बधाई दी और इस अखबार को नियमित तौर पर देखने की सलाह भी दी ताकि जब काम पर रोली आने लगे तो इस अखबार की नीतियों को समझनें पर ज्यादा समय ना खर्च हो. ठीक इसी बिन्दु पर मुकुन्द ने रोली का ध्यान अपनी तरफ खींचा, कहा: पारिजात जी से कहियेगा, शाम को मिल लें.
अखबार के दफ्तर से निकलते ही रोली ने पारिजात सर को फोन कर दिया.


रोली उस पूरे दिन भोपाल घूमती रही. एक छोटे से दिन में जहाँ जा सकती थी, गई. जहाँ नहीं जा सकती थी, जैसे भीमबैठका, वहाँ मन ही मन गई. भीमबैठका पर जो कछुये के आकार वाला पत्थर था, उस पर मन ही मन बैठी रही. भोपाल ने उसकी स्मृतियों का अच्छा खासा हिस्सा छेंक रखा है.
शाम को पारिजात सर मिले. मिलते ही डॉटना शुरु कर दिया. कहने लगे, “ मुकुन्द कह रहा था कि मन्दी के कारण नई नियुक्तियाँ पाँच छ: महीने के लिये टाल दी गई हैं. वो झूठ बोल रहा था. पर हँसते हुए ही उसने एक बात कही कि रोली थोड़ी ‘एरोगेंट’ है. ..बताओ, मुकुन्द की हरेक बात का जबाव देना जरूरी था?” पारिजात रोली को पिछले कुछ दिनों की हर वो घटना याद दिलाते रहे जिससे साबित होता था कि रोली जिद्दी और अकड़ू है.
इधर रोली को पहले तो बेहद तकलीफ हुई पर अपनी तकलीफ को उसने गुस्से में बदलने  दिया, सोचती रही – दो दिन पहले भी तो यही मन्दी रही होगी जब उसे साक्षत्कार के लिये बुलाया गया. एक बार को ही, पर रोली को यह ख्याल आया कि पारिजात सर को बता दे, मुकुन्द की कौन सी बात पर उसने ‘जबाव’ दिया था. पर नहीं बताया क्योंकि उसी वक्त हबीबगंज स्टेशन से एक रेल खुली थी.  रोली उसके डब्बे गिनने लगी थी. उसने गौर किया तो पाया कि इधर कुछ रेलगाड़ियों के डब्बे हरे रंग के भी होने लगे हैं.
                              * * *

चन्दन पाण्डेय, 28 वर्ष की उम्र,एक कथा संग्रह 'भूलना' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित, दूसरा कथा संग्रह 'जंक्शन' शीघ्र प्रकाश्य. नई बात नाम से एक ब्लॉग लिखते हैं. 
संपर्क : मोबाइल : 09996027953, ई-मेल : chandanpandey1@gmail.com    

chandan pandey 

Saturday, December 25, 2010

नाजिम हिकमत की कविता बिनायक सेन के लिए


नाजिम हिकमत ने यह कविता बिनायक सेन जैसे लोगों के लिए ही लिखी थी. यह पोस्ट बिनायक सेन के लिए.......  

जेल काटने वालों के लिए कुछ सलाह 



अगर फांसी पर लटकाने की बजाए 
आपको डाल दिया जाता है जेल में 
सिर्फ इसलिए कि आपने 
अपनी दुनिया, अपने वतन और अपने लोगों की खातिर 
नहीं छोड़ा है उम्मीद का दामन,
अगर काटना पड़े आपको दस या पंद्रह साल की कैद 
उस वक्त के अलावा जो बचा है अभी काटने को,
आप नहीं कहेंगे कि 
- "इससे तो बेहतर था झूल जाना फांसी के फंदे से  
किसी परचम की तरह" -
आप धरेंगे अपने पाँव जमीन पर और ज़िंदा रहेंगे. 
ठीक है कोई लुत्फ़ नहीं होगा इसमें 
लेकिन अजीम फ़र्ज़ होगा यह आपका
एक दिन और रहना ज़िंदा 
अपने दुश्मन को मुंह चिढाते हुए. 
हो सकता है आपका एक हिस्सा 
अकेला रहे भीतर, जैसे कुँए के तल पर 
पड़ी हो आवाज़ कोई. 
लेकिन दूसरा हिस्सा आपका 
इतना तल्लीन होगा दुनिया की हलचलों में 
कि जब बाहर चालीस दिनों की दूरी पर 
एक पत्ती हिलेगी ज़रा सा 
आप सिहर उठेंगे वहां भीतर. 
भीतर इंतज़ार करना खतों का, 
गाना दर्द भरे नग्मे,
या फिर जागना सारी-सारी रात ताकते हुए छत को 
भला लेकिन खतरनाक होता है. 
देखो अपना चेहरा हजामत दर हजामत, 
भूल जाओ अपनी उम्र, 
खबरदार रहो जुओं और बसंत की रातों से,
और रोटी के आखिरी टुकड़े को भी खाने का 
हमेशा रखो ख्याल -
और हाँ ठहाके लगाना मत भूल जाना. 
क्या पता तुमसे प्रेम न रह जाए उस औरत को 
जिससे तुम करते हो बेतरह प्यार.
ऐसा न कहो कि यह कोई ख़ास बात नहीं :
जेल काट रहे किसी शख्स की खातिर 
यह एक हरी डाल के टूटने जैसा है. 
गुलाबों और बगीचों के बारे में सोचना भी बुरा है भीतर.
बेहतर है समुन्दर और पहाड़ों के बारे में सोचना. 
बिना सुस्ताए पढ़ना और लिखना,
और मैं तो बुनाई और आईने बनाने 
की सलाह भी दूंगा. 
मेरा मतलब है कि ऐसा नहीं 
कि आप दस या पंद्रह साल या इससे भी ज्यादा 
जेल नहीं काट सकते --
काट सकते हैं आप,
जब तक अपनी चमक खो नहीं देता वह हीरा  
जो आपके सीने की बाईं तरफ धड़कता है.       

(अनुवाद : मनोज पटेल)
Nazim Hikmet 

Friday, December 24, 2010

वेरा पावलोवा की कविताएँ

( 1963 में मास्को में जन्मी वेरा पावलोवा समकालीन रूसी कविता की महत्वपूर्ण हस्ती हैं. संगीत की शिक्षा प्राप्त वेरा ने बीस वर्ष की उम्र में पहली पुत्री को जन्म देने के बाद से कविताएँ लिखना शुरू किया. अब तक उनके पंद्रह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और दुनिया की कई भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद हो चुका है. इसके पहले आप नई बात पर वेरा की आठ कविताओं से रू-ब-रू हो चुके हैं. आज उनकी पांच कविताएँ - Padhte Padhte ) 
                         1
एक लड़की सोती है 
गोया हो वह किसी के ख्वाबों में ;
एक औरत सोती है ऐसे 
गोया कल ही छिड़ने वाली हो कोई जंग ; 
और उम्रदराज औरत तो सोती है यूं 
मानो काफी हो पड़े रहना मौत का बहाना बनाए 
कि मौत गुजर जाए शायद 
उसकी नींद की सरहदों को छूते हुए. 
                         * *
                         2
खुदा की नज़रों में 
बढ़िया था यह 
और आदम की निगाहों में 
यह था बहुत शानदार 
हौआ की नज़रों में 
था यह कामचलाऊ. 
                         * *
                         3
आँखें मेरी,
इतनी उदास क्यों ?
क्या हंसमुख नहीं मैं ?
शब्द मेरे,
इतने रूखे क्यों ?
क्या विनम्र नहीं मैं ?
काम मेरे, 
इतने अहमक क्यों ?
क्या अक्लमंद नहीं मैं ?
दोस्त मेरे,
इतने बेजान क्यों ?
क्या मजबूत नहीं मैं ?
                         * *
                         4
नींद में ही हो जाना प्यार,
और जागना डबडबाई आँखें लिए : 
कभी नहीं किया किसी को इतना प्यार, 
कभी किसी ने नहीं किया इतना प्यार मुझे भी. 
वक़्त नहीं मिला एक चुम्बन का भी,
न ही पूछने का उसका नाम.
अब उसके ख्वाबों में 
आँखों ही आँखों में 
गुजरती है रातें मेरी. 
                         * *
                         5
दिल तोड़कर तुम्हारा 
नंगे पाँव चल रही हूँ 
किरचों पर. 
                         * *
(अनुवाद : Manoj Patel) 
Vera Pavlova 

Thursday, December 23, 2010

नाओमी शिहाब न्ये की कविताएँ

गलियाँ 
एक इंसान छोड़ जाता है दुनिया 
और कुछ छोटी हो जाती हैं वो गलियाँ 
जहां रहा करता था वह.

एक और अंधेरी खिड़की इस शहर में,
मुलायम पड़ जाएंगे उसकी डालियों पर फले अंजीर 
परिंदों के लिए.

अगर हम काफी शामें बिताएं खड़े-खड़े चुपचाप 
एक टोली बन जाती है हमारी 
साथ-साथ खड़े चुपचाप लोगों की.
चहचहाहट चिड़ियों की सर के ऊपर 
दावा जतातीं अपने दरख्तों पर 
और आसमान जो सी रहा है 
सिए जा रहा है बिना थके 
गिराने लगता है अपना जामुनी दामन. 
हर चीज यथासमय, यथास्थान 
बेहतर होगा ऐसा सोचना लोगों के बारे में भी. 

होते हैं कुछ लोग. सोते भरपूर नींद,
जागते तरोताजा. बाक़ी रहते दो संसारों में, 
गुम और याद किए जाते.
दो बार सोते हैं वे, एक बार उसके लिए जो जा चुका है,
और एक बार अपने लिए. वे सपने देखते हैं लगातार, 
देखते हैं दुगने सपने, एक सपने से जागते दूसरे सपने में, 
लोगों का नाम पुकारते गुजरते हैं वे गलियों से, 
और फिर जवाब देते खुद ही.     
                           * *

मुठ्ठी बाँधना 
पहली बार टाम्पिको के उत्तर तरफ सड़क पर,
अपनी जान निकलते हुए महसूस की मैनें, 
मानो रेगिस्तान में बज रहा हो कोई नगाड़ा 
और कठिन से कठिनतर होता जा रहा हो सुनना उसे. 
सात साल की थी मैं, लेटी हुई कार में   
देखती हुई शीशे के परे चीड़ के पेड़ों को 
भागते हुए पीछे अरुचिकर नमूना बनाते.
पेट मेरा किसी खरबूजे की तरह फटा पडा था मेरे भीतर.

"कैसे पता चलता है कि आप मरने वाले हैं ?"
मैनें जानना चाहा था अपनी माँ से. 
कई दिनों से हम सफ़र में थे साथ-साथ. 
एक अजीब आत्मविश्वास से जवाब दिया था उसने,
"जब तुम मुठ्ठी बाँधने लायक नहीं रह जाते."

सालों बाद मुस्कराती हूँ उस सफ़र के बारे में सोचकर, 
सरहदें जिन्हें हर हालत में पार करना है हमें अलग-अलग 
छाप लिए अपने लाजवाब दुखों की. 
मैं जो मरी नहीं, जो ज़िंदा हूँ अभी तक  
अभी भी लेटी हुई पिछली सीट पर 
अपने सभी सवालों के पीछे 
बांधती-खोलती एक छोटा सा हाथ. 

(अनुवाद : Manoj Patel)  
Naomi Shihab Nye 

Tuesday, December 21, 2010

ओसवाल्डो साव्मा की तीन कविताएँ

( पढ़ते पढ़ते पर आज अशोक कुमार पाण्डेय जी के सौजन्य से ओसवाल्डो साव्मा की कविताएँ. 1949  में कोस्टा रिका में जन्मे ओसवाल्डो साव्मा कवि और साहित्य शिक्षक हैं. अस्सी के दशक की शुरूआत से इनकी कवितायेँ प्रकाशित होना शुरू हुईं, अब तक 6 कविता संग्रहों के अतिरिक्त कविता की 6 किताबों का सम्पादन भी. 1985 में फेमिली पोर्ट्रेट किताब के लिए EDUCA पुरस्कार. कई अंतर्राष्ट्रीय कविता महोत्सवों में शिरकत. अनुवादक अशोक कुमार पाण्डेय की दो किताबों के अतिरिक्त अनुवाद की भी एक किताब- 'प्रेम' प्रकाशित, एक कविता संग्रह 'लगभग अनामंत्रित' शीघ्र प्रकाश्य - पढ़ते पढ़ते ) 


युद्ध की चेतावनी

प्रेम
किस काम का है तुम्हारे कवि
केवल शब्द हैं उसके पास
एक दयालु मुहावरा
तमाम काग़ज़ी भ्रम

किस काम का है तुम्हारे लिये आदमी
जो नहीं जानता अपनी सीमायें
जो बनाता है छायाओं की एक दीवार
जहाँ रख देता है छिपाकर अपने सपनों की चमक

बहुत कम जानता है कवि ख़ुशियों के बारे में
दुर्भाग्य का व्यापारी अधिक है वह
एक उदास पक्षी उजाड़ मैदान में
दूर के अंधेरे तारों से करता है वह बात
सपने में चलने वालों को बेचते हैं रात की सेनाओं के स्वप्न
अनिद्रा से पीड़ित लोगों को स्वप्न यात्राओं को
पेड़ों पर उगाता है वह फूल
भरता है रौशनी मछलियों के सीने में
जुगनुओं में चमक
वह बिखेर देता है बादल उद्धत सूर्य के नीचे

सच कह रहा हूँ, प्रेम
त्याग दो उसे
प्लेटो भी नहीं चाहता था उन्हें अपने गणराज्य में
वह पहला था जिसे किया गया उत्पीड़ित अक्लमंदी के लिये
पहला था वह जिसे गिरफ़्तार किया गया उड़ान भरने के जुर्म में 
सबसे पहले उसे ही मारा गया स्मार्ट होने के लिये
और क्या होगा इससे बुरा
कि वे लेते हैं उससे अतिरिक्त बिल बिजली जलाने के लिये भी


नज़रअंदाज़ करो उसे
कभी नहीं दे सकता वह तुम्हें सुरक्षा
अपने आलस्य के सूरज तले
जो उत्सव मनाता है अपनी ग़रीबी का 
और किसी बच्चे की तरह
होता है आश्चर्यचकित देखकर कुछ भी

मैं चेतावनी देता हूँ तुम्हें प्रेम
मत उलझो उससे
सिर्फ़ मुक्त रास्तों वाली धूसर ज़मीन
दे सकता है वह तुम्हें।
               * *

जन्म

पहले ज़रूरत की वज़ह से होता है यह
फिर कोई और चीज़ नहीं आती काम
इसलिये फेंकते रहते हो तुम
संदेशों की बोतलें
जिन्हें कोई नहीं उठाता गली के कचरे से
फिर से और कुछ बनाने के लिये

कभी
मैं बनना चाहता था
मान लीजिये एक बढ़ई
जो बना सके ज़रूरत की चीज़ें
कुर्सियाँ- मेज़ें- आल्मारियाँ- ताबूत – बिस्तर
चीज़ें जो काम आती हैं आपके रोज़-ब-रोज़
आलमारियाँ पुरस्कारों के लिये
क़िस्तों पर ख़रीदी
इन्साक्लोपीडिया के लिये
और उन मढ़ी हुई नेशनल ज्योग्राफिकल्स के लिये

या वे बिस्तर
जो केन्द्र हैं संसार के
जहाँ से शुरु होती है ज़िंदगी और फिर ख़त्म हो जाती है
या वे मेजें जहाँ हम खाते हैं
भूख की रोटियाँ
या वे बक्से
जिनमें होती है धूल से मिलने जा रही धूल


लेकिन कारीगर नहीं हूँ मैं
मैं बस एक अंगूठा हूँ
मुझे अच्छे लगते हैं पेड़ यूँ ही तने हुए
मेरी असल दीवानगी है आराम

जहाँ मैं गढ़ता हूँ कविता
जो कर देती है आज़ाद ज़िंदगी को
जाँचती है और प्रतिस्थापित कर देती है ज़िंदगी को
आत्मतुष्टि के उसे बेकार से भ्रम से
हमारे आत्मनिर्वासन में निवास करता है जो

सच है यह
कि सिर्फ़ समाहित होकर
दूसरों की धरती में
और बनकर मिट्टी उनकी मिट्टी की
मैं हो सकता हूँ उसकी आवाज़
केवल शब्द
करेंगे मुझे मुक्त इस दुनिया से
               * *

दबी आवाज़ में


मैं वह हूँ
जो तुम थे हव्वा के पहले
आदम 
शायद एक यक्ष
पहली बार
नाम देता हुआ चीज़ों को
फूलों और ऊंटो के बीच
भागता उन्मुक्त
अंजान आलिंगन की ज़रूरत से
तुम नहीं जानते थे वर्जित फलों के बारे में
और आदिमानवों के बीच रहते थे प्रसन्न

या वह अलग सा प्रकाश
जब तुमने पहले से ही रखा संवेदित
अपनी पसलियों को
स्वर्ग में उसके आकर्षण से
और चुपचाप चलते रहे
विशाल पक्षियों के पंखो
और जंगली जानवरों की प्रशांत संगत में
और महासागर प्रतिध्वनि था उसकी अनुपस्थिति का 
तुम्हारे अकेलेपन का विशाल अनुस्मारक


(दो)

किसकी तरह था ईश्वर

आदम
किस रंग की थीं उसकी आँखें
और कैसी थी उसकी आवाज़

क्या चुंधियां गयीं थीं तुम्हारी आँखें
उसके प्रकाश से
क्या परियाँ रक्षकों की तरह
मंडराती थीं उसके चतुर्दिक
पीते हुए रस उसकी रौशनी का
या अपने हाथों में लिये
चपल तलवारें रौशनी की
बस यूँ ही लटकी रहती थीं चुपचाप

और क्या नाचते थे
पेड़-चिड़ियाँ-जानवर
या लगभग झुक जाते थे
किसी हवा के झोंके से
उस पवित्र गोद में

मेरा मतलब
जीवन वृक्ष के निर्माण से पहले
क्या तुम आनन्द कर रहे थे हव्वा के साथ
जब वह आया बगीचे में
उस शाम
बताओ मुझे

तब
पिता मेरे
भाई मेरे
कैसे रह सकता है कोई उसके बिना
स्वर्ग के बाहर
इन ईश्वरहीन जगहों पर


(अनुवाद : अशोक कुमार पाण्डेय) 
Osvaldo Sauma 

Monday, December 20, 2010

निकानोर पार्रा की कविताएँ

( निकानोर पार्रा की गिनती लैटिन अमेरिका के बड़े कवियों में होती है. 1914 में जन्मे पार्रा के पिता एक शिक्षक, संगीतकार और पार्रा के शब्दों में 'बोहेमियन' थे. घर-परिवार की सारी देखभाल उनकी माँ कार्ला सैन्डोवल के ही जिम्मे थी. पार्रा के पाठकों के लिए यह नाम इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उनकी कविताओं में कई बार इस नाम का हवाला मिलता है. उनकी माँ एक बहुत कम पढी-लिखी महिला थीं लेकिन पार्रा की समस्त जानकारी का स्रोत वही थीं. पार्रा अपनी कविताओं को एंटी पोयम्स और अपने अनुवादों को एंटी ट्रांसलेशन नाम देते हैं. उनके अनुसार अनुवाद एक नामुमकिन बात है. उनकी एंटी पोयम्स को समझने का  'दूसरा' सबसे अच्छा तरीका यही है कि अनुवाद के इस नामुमकिनपन को स्वीकार कर लिया जाए. और सबसे अच्छा तरीका बकौल पार्रा स्पेनिश सीख लिया जाए. 
पार्रा कहते हैं कि, " Real seriousness rests in the comic." इस बात की रोशनी में पेश हैं उनकी गंभीर कवितायेँ   - Padhte Padhte )

किसी राष्ट्रपति की प्रतिमा बच नहीं पाती 
उन अचूक कबूतरों से 
कार्ला सैन्डोवल हमसे बताया करती थी :

ठीक-ठीक जानते हैं कबूतर क्या कर रहे हैं वे 
                    * *

नोबल पुरस्कार 
पढ़ने के लिए नोबल पुरस्कार 
दिया जाना चाहिए मुझे 
आदर्श पाठक हूँ मैं,
चाट जाता हूँ जो कुछ भी हाथ लगता है मेरे :

सड़कों के नाम पढ़ता हूँ मैं 
और रोशन साइनबोर्ड 
गुसलखाने की दीवारें 
और नई मूल्य-सूचियाँ पढ़ता हूँ 

पुलिस की ख़बरें,
और घुड़दौड़ के अनुमान 

और गाड़ियों के नंबर प्लेट 

मेरे जैसे इंसान के लिए 
शब्द ही हैं सबसे पवित्र 

जूरी के मेम्बरान 
झूठ बोलने से क्या मिलना है मुझे 
बतौर एक पाठक बहुत सख्त हूँ मैं 

चाट जाता हूँ सबकुछ - नहीं छोड़ता 
वर्गीकृत विज्ञापनों को भी 

ठीक है बहुत नहीं पढ़ता आजकल 
सीधी सी बात है कि वक़्त नहीं रहता मेरे पास 
लेकिन - ओह - यह क्या पढ़ डाला मैनें 

इसीलिए तो कह रहा हूँ आपसे 
दे ही दीजिए 
 मुझे
 पढ़ने का नोबल पुरस्कार 
जल्दी से जल्दी 
                    * *

कितना सही था उल्लू जब उसने कहा 
न तो मुहम्मद और न ही बुश :

हैमलेट ! 
सुव्यवस्थित संदेह का सूरमा : 

मैं संदेह करता हूँ इसलिए मैं हूँ 
                    * *

एक गुंजायमान शून्य 
कुछ नहीं तक सिमट आया यह पूरा का पूरा 
और इस कुछ नहीं में बहुत कम बाक़ी है 
                    * *

हँ ज्जी !
बीसवीं सदी के महानतम सच 
किताबों में नहीं मिलेंगे 

आप उन्हें पढ़ सकते हैं 
सार्वजनिक शौचालय की दीवारों पर 

बहुमत की इच्छा                                      प्रभु की इच्छा 

हाँ बिल्कुल, एक किताब में पढ़ा मैनें इसे 
                    * *

अपने हित का पक्षसमर्थक 
पहुंचता है महानगरीय कब्रिस्तान में  
"X" नाम की कब्र पर 
गुलनार के लाल फूलों का 
छोटा गुलदस्ता लिए हुए 
बड़ी गंभीरता से छूता है अपना हैट 
और किसी गुलदस्ते के अभाव में 
अपने फूल समर्पित करता है एक साधारण से कैन में 
जिसे निकाला है उसने बगल की कब्र से 
                    * *

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Nicanor Parra 

निकानोर पार्रा की कविताएँ

ताकीद 
अगर यह चुप्पी को पुरस्कृत करने का मामला है 
जैसा कि यहाँ मुझे लग रहा है 
तो किसी और ने नहीं बनाया है खुद को इतना काबिल 
सबसे कम फलदायी रहा हूँ मैं 
सालों साल छपाया नहीं कुछ भी 

आदी मानता हूँ खुद को 
कोरे कागजों का 
उसी जान रुल्फो की तरह 
जिसने लिखा नहीं उससे ज्यादा एक भी लफ्ज़ 
जितना कि था बहुत जरूरी.
                   * *

शांतिपूर्ण रास्ते पर आस्था नहीं मेरी 
हिंसक रास्ते पर आस्था नहीं है मेरी 
होना चाहता हूँ किसी चीज पर आस्थावान 
लेकिन नहीं होता 
आस्थावान होने का मतलब है आस्था ईश्वर में 
ज्यादा से ज्यादा 
झटक सकता हूँ अपने कंधे 
माफ़ करें मुझे इतना रूखा होने की खातिर 
मुझे तो भरोसा नहीं आकाशगंगा में भी. 
                        * *

पखाने पर मक्खियाँ 
इन कृपालु सज्जन से - पर्यटक से - क्रांतिकारी से 
करना चाहता हूँ एक सवाल : 
क्या देखी है कभी आपने मक्खियों की एक सेना 
पखाने के ढेर पर चक्कर लगाती 
उतरती फिर काम को जाती पखाने पर ? 
क्या देखी हैं आपने पखाने पर मक्खियाँ आज तक कभी ? 

क्योंकि मैं पैदा और बड़ा हुआ 
पखाने से घिरे घर में मक्खियों के साथ. 
                       * *

ईश्वर से प्रार्थना 
परमपिता जो विराजते हैं स्वर्ग में 
हैं तरह-तरह की मुश्किलों में 
त्योरी से तो लगता है उनकी 
कि हैं वो भी एक आम इंसान.
ज्यादा फ़िक्र न करें आप हमारी प्रभु.

हमें पता है कि हैं आप कष्ट में 
क्योंकि घर अपना व्यवस्थित नहीं कर पा रहे आप.

पता है हमें कि शैतान नहीं रहने देता आपको चैन से 
बरबाद कर देता है आपकी हर रचना को.

वो हंसता है आप पर 
मगर रोते हैं हम आपके साथ.

परमपिता आप जहां हैं वहां हैं
गद्दार फरिश्तों से घिरे.
सचमुच 
हमारे लिए कष्ट मत उठाइए ज्यादा.
आखिर समझना चाहिए आपको 
कि अचूक नहीं होते ईश्वर 
और हम माफ़ कर देते हैं सबकुछ. 
                       * *
(भाषासेतु पर पूर्वप्रकाशित
(अनुवाद : Manoj Patel)
Nicanor Parra 

Friday, December 17, 2010

निकानोर पार्रा : कलातथ्य

1914 में जन्मे निकानोर पार्रा पाब्लो नेरुदा के साथ चिली के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में शुमार किए जाते हैं. इस गणितज्ञ कवि को कई बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया जा चुका है. पार्रा खुद को 'एंटी-पोएट'  कहते हैं और कविता में ही कह चुके हैं कि, "मैं अपना कहा हुआ सबकुछ वापस लेता हूँ....." 

 1967 से पार्रा ने छोटी कवितायेँ लिखना शुरू किया जिन्हें बाद में उन्होंने पोस्टकार्डों के संग्रह के रूप में Artefactos के नाम से प्रकाशित कराया. यह प्रकाशन एक तरह से उनके हालिया कामों की पूर्वसूचना था. इन्हें उनकी एंटीपोयम  की तार्किक परिणति कहा जाता है. ये "दृश्य कलातथ्य " एम टी वी पीढी के लिए हाईकू जैसे हैं, विज्ञापनी कला से प्रभावित चित्रों और शब्दों को मिलाकर तैयार किए गए एक पंक्तीय नारों जैसे. पार्रा का घर तमाम घरेलू साजोसामान के साथ लगे हुए हस्तलिखित साइनबोर्डों  से तैयार ऎसी 'कलाकृतियों' से भरा पड़ा है.पेश हैं उनके कुछ कलातथ्य  : Padhte Padhte 
                           बस अभी लौटा 


* * *
दृश्य कविता 


* * *
एडीसन कीट 


* * *
द्वंद्वात्मक प्रक्रिया 
                               थीसिस !, एंटीथीसिस ?, संश्लेषण 


* * *
अपने कला सम्बन्धी काम यहाँ जमा करें 


* * *
स्वचालित ताबूत 
            पुनर्जीवन के समय इसे उलटा करके सीधी दिशा में घुमाएं 


* * *
पाश्चात्य दार्शनिकों की सिगरेट 
                                         इस उत्पाद से कैंसर नहीं होता 
                                         और अगर होता भी हो तो.........से 

* * *
Nicanor Parra 


Wednesday, December 15, 2010

लैंग्स्टन ह्यूज की कविताएँ

( 1902 में जन्मे  लैंग्स्टन ह्यूज अमेरिका के प्रसिद्द कवि, उपन्यासकार, स्तंभकार, नाटककार रहे हैं. इन्होनें आठवीं कक्षा से ही कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था. 1967 में कैंसर से अपनी मृत्यु के पहले इनके सोलह कविता संग्रह, दो उपन्यास, तीन कहानी संग्रहों के अतिरिक्त भी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं. प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ  - Padhte Padhte )   


सपने 
सपने देखो जमकर 
क्योंकि गर नहीं रहे सपने 
बिना पंखों वाली किसी चिड़िया सी 
रह जाएगी जिन्दगी 
जो नहीं भर सकती उड़ान.
सपने देखो जमकर 
क्योंकि गर नहीं रहे सपने 
बंजर धरती सी रह जाएगी ज़िंदगी
जमी हुई बर्फ में.

इकरार 
बहुत बुद्धिमान नहीं बनाया मुझे 
ईश्वर ने अपने असीम विवेक से 
इसलिए जब काम रहे मेरे मूर्खतापूर्ण 
आश्चर्य हुआ हो उसे शायद ही.

ऊब 
कितना उबाऊ है 
कंगाल रहना 
हमेशा.

मातमपुर्सी 
कह दो मेरी मातमपुर्सी करने वालों से 
लाल कपड़े पहनकर रोएँ मेरे लिए 
गो कि कोई मतलब नहीं है 
मेरे मुर्दा होने का.

आर्टिना के लिए 
मैं ले लूंगा दिल तुम्हारा 
निकाल लूंगा आत्मा तुम्हारे शरीर से 
जैसे कि भगवान होऊँ मैं.
संतुष्ट नहीं होऊंगा 
केवल तुम्हारे हाथों के स्पर्श से 
या तुम्हारे होंठों के माधुर्य भर से.
ले लूंगा दिल तुम्हारा अपने दिल के लिए.
ले लूंगा तुम्हारी आत्मा.
भगवान हो जाऊंगा तुम्हारी बात आई तो.

स्वप्न रक्षक   
स्वप्नद्रष्टा 
अपने सारे सपने ले आओ मेरे पास,
सारी धुनें अपने दिल की 
ले आओ मेरे पास,
ताकि लपेट सकूं मैं उन्हें 
नीले बादल के एक टुकड़े में 
इस दुनिया की 
कठोर उँगलियों से बहुत दूर.

सांप  
इतनी तेजी से निकल जाता है वह 
घास में वापस 
मुझे रास्ता देने की खातिर 
सड़क छोड़ने का शिष्टाचार निभाते हुए 
कि थोड़ा शर्मिन्दा होता हूँ 
उसे मारने के वास्ते
एक पत्थर तलाशते हुए.

सवाल 
2 और 2 होते हैं 4.
4 और 4 मिलकर होते हैं 8.

लेकिन क्या होगा अगर 
बाद वाले 4 को हो जाए थोड़ी देर ?

और क्या नतीजा निकलेगा जो 
एक 2 मैं होऊँ ?

या होते पहला 4 तुम 
विभाजित 2 से ?

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Langston Hughes 

Monday, December 13, 2010

एलिस वाकर की कविताएँ

(1944 में जन्मीं एलिस वाकर के कई कविता संग्रह, कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. अपने उपन्यास 'द कलर पर्पल' के लिए उन्हें पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त हो चुका है. यह एक अश्वेत युवती की कहानी है जिसे श्वेतों के नस्ली भेदभाव के साथ-साथ अश्वेतों की पितृसत्तात्मक व्यवस्था से भी संघर्ष करना पड़ता है. 2003 में ईराक युद्ध के ठीक पहले व्हाईट हाउस के सामने एक युद्ध विरोधी प्रदर्शन के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. 2009 में एक युद्ध विरोधी समूह के साथ वाकर ने गाजा की यात्रा की थी. इनकी एक कविता की पंक्तियाँ यूँ हैं -"Though War is Old / it has not / Become Wise"  प्रस्तुत हैं उनकी तीन कविताएँ - Padhte Padhte )  


वंचित नहीं करूंगी 
अपने होंठों को 
वंचित नहीं करूंगी मैं 
उनकी मुस्कान से 
अपने दिल को वंचित नहीं करूंगी 
उसके ग़म से 
आंसुओं से वंचित नहीं करूंगी 
अपनी आँखों को 
अपनी उम्र की क्रूरता से 
वंचित नहीं करूंगी 
अपने बालों को 

हद दर्जे की 
खुदगर्जी है यह 

खुद को वंचित नहीं करूंगी 
अपनी किसी भी चीज से.
              * *
मिलना 
तुमसे मिलते हुए 
टकरा जाती हूँ मैं 
एक दीवाल से : 
लगता है 
तुम्हें पता भी नहीं 
कि छुपे हुए हो तुम 
इसके पीछे.

कविता में
अप्रेषित सन्देश नहीं हैं यह 
किसी बहरे शख्स के लिए.
              * *
कीड़ों को मीनू की जरूरत नहीं 
खुश हूँ कि 
दुनिया भर में तुम 
कभी नहीं पाओगी 
ऐसे मीनू 
जिन पर 
छपी हो तुम्हारी देह 
तरह-तरह की 
कामोत्तेजक मुद्राओं में.

दिलासा देती हूँ खुद को : 
कीड़ों को नहीं पड़ती जरूरत 
मीनू की 
अपनी आदमखोर दावत के लिए.
फिर भी 
अच्छा लगता है अंदाजा लगाना 
सतर्क बैठे मेज पर 
अपनी सरसता को पढ़ते हुए. 

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Alice Walker
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...