Monday, January 31, 2011

नाओमी शिहाब न्ये की कविता

अरबी काफी 
ज्यादा कड़क कभी नहीं लगी यह हमें :
थोड़ा और काली बनाइए न पापा 
तले पर  खूब गाढ़ी,
फिर से बताइए हमें कि कैसे छोटे सफ़ेद कपों में 
जुटते जाएंगे हमारे साल,
कैसे बसती है हमारी तकदीर 
काफी पाउडर के धब्बों में.

स्टोव पर झुके हुए उबलने दिया उन्होंने  इसे एकदम ऊपर तक 
और फिर जाने दिया नीचे. दो बार.
चीनी एकदम नहीं थी उनके बर्तन में.
और वह जगह जहां मर्द और औरतें 
अलग होते हैं एक-दूसरे से 
उस कमरे में नहीं थी मौजूद. 
सैकड़ों नाउम्मीदियाँ,
गोदाम पर आग में स्वाहा होते 
जैतून की लकड़ी से बने मनके, और ख्वाब 
हर दिन में लिपटे हुए रुमालों की तरह,
अपनी-अपनी जगह ली मेज पर इन सबने,
भुट्टे के अधभरे बर्तन के पास.
और कोई भी ज्यादा अहम नहीं था दूजे से,
और सभी मेहमान ही थे वहां.
जब वे लेकर आए ट्रे कमरे में 
संतुलन बनाए उठाए हुए ऊपर अपने हाथों में,
यह एक भेंट थी उन सभी के लिए,
ठहरिए, बैठिए, और सुनिए शुरू हो जाए 
जो भी बतकही. काफी ही केंद्र थी 
फूल का. 
मानो एक कतार के कपड़े कह रहे हों 
काफी लम्बे जिएंगे आप हमें पहनने की खातिर,    
भरोसे का एक कौल. 
और यह, और 
काफी कुछ और. 

(अनुवाद : Manoj Patel)
Naomi Shihab Nye

Thursday, January 27, 2011

एथलबर्ट मिलर की कविताएँ

वाशिंगटन में रहने वाले अफ्रीकी-अमेरिकी कवि एथलबर्ट मिलर (जन्म 20 नवम्बर 1950) की कविता से पहला परिचय उदय प्रकाश जी के एक उत्कृष्ट अनुवाद से हुआ था, तभी से इस कवि की कवितायेँ खोज रहा था. पेशे से शिक्षक, मिलर के नौ कविता संग्रह और दो  संस्मरणों की किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. उन्होंने तीन कविता संकलनों का सम्पादन भी किया है. Poet Lore नामक पत्रिका के सह सम्पादक एथलबर्ट मिलर 1974 से हावर्ड यूनिवर्सिटी के अफ्रीकन अमेरिकन रिसोर्स सेंटर के निदेशक हैं.   


पनामा 
बीस के दशक की शुरूआत में 
एक जलयान ले आया था मेरे पिता को अमेरिका 
उनके बिलकुल पहले विचार 
अभिव्यक्त हुए थे स्पेनी भाषा में 

सालों बाद जब वह भूल गए यह भाषा 
भूल गए वह वो भी जो देखा था उन्होंने.

बड़े होना 
वह दिन जब मेरी माँ ने 
छीनकर फेंक दीं चित्रकथाओं की किताबें मेरी 
और उकसाया मुझे बाइबिल पढने को 
उसी दिन से छोड़ दिया मैनें होना एक सुपरहीरो 
और सोचना शुरू कर दिया चमत्कारों के बारे में 

इस तरह तुमसे प्यार करने लगा मैं 
जैसे मोजेज ने देखा था मुड़कर 
पहाड़ छोड़ने के पहले 

मध्य अमेरिका में घुमक्कड़ी 
अगर कोई 
सैलानी है 
     या अजनबी 
           या दोनों ही 
वह 
हमेशा सतर्क रहता है 
       कारों से
       सूनी सड़कों से 
       सैनिकों  
       बच्चों  
और यहाँ तक की 
अमेरिकी दूतावास से भी.

नदी 
मिलेंगे हम 
नदी के पास 
जहां एक छोटी नाव 
इंतज़ार कर रही होगी 
हमें उस पार ले जाने को 

ज़मीन है 
तुम्हारे दिल के नीचे 
पानी है प्यार तुम्हारा.

कामना के समय में 
कामना के समय में 
रुक जाती है धरती 
कोई कल नहीं होता 
केवल वर्तमान क्षण 
जब पहली बार 
स्पर्श करते हैं हम 

आज का दिन 
शुरू और ख़त्म होता है 
तुम्हारे भीतर.

(अनुवाद : Manoj Patel)
Ethelbert Miller 

Monday, January 24, 2011

येहूदा आमिखाई की कविता

अपने जन्मदिन के लिए 
बत्तीस बार मैं बाहर निकला अपनी ज़िंदगी में,
हर बार कम तकलीफ देता हुआ अपनी माँ को, 
दूसरे लोगों को भी देता हुआ कम तकलीफ 
खुद को ज्यादा.

बत्तीस बार पहना है दुनिया को 
और अभी तक ठीक नहीं हो पाई है नाप. 
दबाए हुए है यह मुझे अपने वजन से, 
उस कोट के विपरीत जो अब शक्ल ले चुका है मेरी देंह की 
और है आरामदायक   
घिस जाएगा धीरे-धीरे. 

बत्तीस बार जांचा है हिसाब 
कोई गलती पाए बगैर,
शुरू की कोई दास्तान 
मगर नहीं मिली इजाजत ख़त्म करने की उसे.

बत्तीस साल से ढोए जा रहा हूँ अपने संग 
अपने पिता के लक्षण 
और गिराता आया हूँ उनमें से ज्यादातर को रास्ते में,
ताकि कुछ कम कर सकूं बोझ.     
मातमी पोशाक विधवा की उग आई है मेरे मुंह में. और चकित हूँ मैं,
और मेरी आँखों से फूट रही किरणें जिन्हें हटा नहीं पाऊंगा मैं, 
खिलने लगी हैं दरख्तों के साथ बहार के वक़्त.
और लगातार छोटे होते जा रहे हैं मेरे अच्छे काम. 

मगर व्याख्यायें बड़ी होती जा रही हैं उनके चारो ओर 
जैसे एक दुरूह अंश ताल्मुड का 
जहां पाठ्य भाग कम से कम हिस्सा लेता है पन्ने का 
और राशि और दीगर टीकाकार 
घेरे आते हैं इसे चारो ओर से.

और अब, बत्तीस बार के बाद, 
अभी तक हूँ एक नजीर 
मायने बनने की कोई संभावना भी नहीं. 
और खड़ा हूँ दुश्मन की आँखों के सामने किसी छद्मावरण के बगैर,
पुराने नक़्शे लिए अपने हाथों में,
ताकत जुटा रहे प्रतिरोध में और बुर्जों के बीच,
और अकेला, इस विस्तीर्ण रेगिस्तान में 
किसी सिफारिश के बगैर.     

(अनुवाद : Manoj Patel)
Yehuda Amichai,   יהודה עמיחי

Friday, January 21, 2011

वेरा पावलोवा की पांच कविताएँ

(वेरा पावलोवा का परिचय और उनकी कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं. आज उनकी पांच और कविताएँ - Padhte Padhte)

                    1
लिखती हूँ कोने में घुसकर, 
तुम तो कहोगे कि 
एक दस्ताना बुनो 
आने वाले बच्चे की खातिर. 
                   * *
                    2
- गीतों का गीत सुनाओ मुझे. 
- याद नहीं हैं बोल.
- तो धुन ही सुनाओ फिर.
- धुन भी नहीं पता. 
- अच्छा गुनगुनाओ ही सिर्फ.
- क्या भूल चुके हो लय भी.
- तो मेरे कान से सटाओ 
अपना कान 
और गा दो वही जो सुनाई दे तुम्हें. 
                   * *
                    3
सुबह के पहले चुम्बन का स्वाद 
होता है पृथ्वी के पहले चुम्बन सा.
निष्पाप होता है मेरा चैतन्य होता मन,
जब लेटी होती हूँ 
अपने सबसे सुन्दर ख़्वाबों के निवासी के साथ. 
जब दुलारती होती हूँ उसे तो पता होता है 
कि भाषा से पहले आता है चुम्बन 
कि शब्द कनिष्ठ है चुम्बन से. 
                   * *
                    
 
कविताएँ लिखते हुए,
हथेली पर चीरा लग गया कागज़ से.
तकरीबन एक-चौथाई बढ़ा दी इस चीरे ने 
मेरी जीवन रेखा.  
                   * *
                    
पत्थर की एक 
दीवार हो तुम प्रिय :
चीखूँ या गाऊँ 
इसके पीछे,
या सर टकराऊँ अपना.   
                   * * 

   
(अनुवाद : Manoj Patel)
Vera Pavlova     

Monday, January 17, 2011

उदय प्रकाश की कहानी : अनावरण

अपने प्रिय कथाकार उदय प्रकाश की कहानी इस ब्लॉग पर लगाते हुए बहुत खुशी हो रही है. हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किए गए कवि, कथाकार, फिल्मकार उदय प्रकाश जी ने अद्भुत कहानियां लिखी हैं.  उनकी कहानी का प्रकाशित होना हिन्दी साहित्य की एक बड़ी घटना होती है. यहाँ प्रस्तुत कहानी अनावरण, 'अहा ज़िंदगी' के अक्टूबर 2004 अंक में प्रकाशित हुई थी और फिलहाल उनके किसी संग्रह में संकलित नहीं है. हम इसे प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिए लेखक के बहुत-बहुत आभारी हैं.  

अनावरण 

वह मूर्ति बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की ही थी, जिसका अनावरण हमारे छोटे-से कस्बे के सबसे आलीशान रेलवे रोड के मुख्य चौराहे पर होना था. पुणे के मूर्तिकार. अनंतराव दत्ताराव पेंढे, जिनकी बनाई गणपति बप्पा मोरया की मूर्तियाँ मुम्बई तक में बिकती थीं और दुर्गापूजा के मौके पर महीना-दो महीना जो खप्पड़-धारिणी, जगत्तारिणी, महिषासुर मर्दिनी, अष्टभुजा मां शेरांवाली की मूर्तियाँ कोलकाता में अपने मौसेरे ससुर के घर डेरा डालकर बनाया करते थे, और जिसे 'आज तक' और 'जी' चैनल ने भी दिखाया था, उन्हीं दत्ताराव पेंढे ने कांसे की यह मूर्ति बनाई थी. 

कमाल की मूर्ति थी. कहते हैं पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बाबा साहब की ऎसी मूर्ति नहीं थी. उन्होंने कोट पहन रखा था, टाई लगा रखी थी, फुलपैंट और भारी-भरकम जूते थे. पैंट और कोट की सिलवटों में उनकी प्रतिभा की दृढ़ता और गरिमा थी. आँखों में गोल फ्रेम का चश्मा था, जिसके पार से उनकी आँखें कोई स्वप्न देख रही थीं. ......और अपनी एक भुजा उन्होंने उठा रखी थी. उठे हुए हाथ की मुट्ठी बंद थी, बस एक उंगली तनी हुई पूरब दिशा की ओर इशारा कर रही थी. उधर, जिधर रेलवे फाटक था, अस्पताल था, साईँ बाबा का मंदिर था, बालिका महाविद्यालय था और इस सबके बाद मुर्गा-मीट बाज़ार, सरकारी दारू का ठेका, मुसलमान बस्ती और झुग्गी-झोपड़ी बस्ती अर्थात आंबेडकर नगर था. 

उधर, जिधर मेकल की पहाड़ियों के पार से सूरज पिछले कई बरसों से बिना किसी ख़ास मकसद के निकलता चला आ रहा था. 

उस रोज, आधीरात जब बसपा के लोकल नेता बुचई प्रसाद, अफवाहों के मुताबिक़ जिनकी पहुँच सीधे लखनऊ और दिल्ली तक थी, उस मूर्ति के नीचे से निकल रहे थे, तो उनके कानों में एक फुसफुसाती हुई रहस्यपूर्ण आवाज़ कहीं से, आकाशवाणी की तरह, उड़ती हुई आई, ' पाछू मत देख.... मत देख पाछू, अगाड़ी देख...! उधर जिधर उंगली तनी है बे ! उधर देख ! पाछू कुच्छछ नहीं !'   

 बुचई प्रसाद असली देशी महुए के ठर्रे के नशे में थे. आजकल किक लगाने के लिए ठेके वाले पाउच में स्पिरिट और लैटीना के पत्ते और अटर-शटर मिलाने लगे थे. खोपड़ी टन्ना जाती थी और कदम ऐसे उठते थे जैसे हवा में देर तक तैर कर धरती पर अपना ठिकाना खोजते उतरते हों. आँखें एक बल्ब को तीन-चार जगमग बल्बों की तरह देखने लगती थीं. 

बुचई प्रसाद का दायाँ पैर, जो हवा में तैर रहा था, इस बार धरती के ठिकाने पर नहीं उतरा. बल्कि इसी बीच दूसरा पाँव भी अब तक के चले आ रहे सुर-ताल को बनाए रखने के लिए ऊपर उठ गया. बुचई प्रसाद, कोलतार की सड़क के बीचोंबीच, बाबा साहब की बारह फुट ऊंची मूर्ति के क़दमों के नीचे, चारों खाने चित्त गिर पड़े. उनकी आँखों से जो पानी अँधेरे में छलक रहा था, वह चोट लगने के कारण और सिर के पीछे गूमड़ निकल आने के फलस्वरूप बहने वाला मर्मान्तक आंसू नहीं था, बल्कि वह गहन, आदर्शवादी भावुकता का सिहरता हुआ जल था. सीधे आत्मा के अदृश्य सोते से निकल कर आँख से बहने वाला नीर. 

बुचई के दिमाग के भीतर कबीर दास का पद गूंज रहा था - 'ग्यान की जड़िया दई....! ग्यान की जड़िया दई.....!! सत्त गुरुजी ने... गियान की जड़िया दई. मेरे को दई !!!!' 

उन्हें उस रात, रेलवे रोड के उस तिराहे पर, बाबा साहेब की मूर्ति के नीचे, सड़क पर चारों खाने चित पड़े हुए, ज्ञान की दुर्लभ जड़ी प्राप्त हो गई थी. 'अगाड़ी देख, अगाड़ी...! पाछू कुच्छ नहीं....! ...कुच्छ भी नहीं...!!' 

ठीक इसी समय उनके बगल से पेट्रोल पंप वाला सेठ तरुण केडिया और उसके पीछे-पीछे उसका सामान उठाए सुदामा निकला. सुदामा कुली का काम करता था. तरुण केडिया उसी रहस्यपूर्ण फुसफुसाती आवाज में बोलता चला जा रहा था - 'अगाड़ी देख...! उधर, जिधर ट्यूब लाईट जल रही है, उसी के पास म्हारा अजन्ता लाज बनेगा !! थ्री स्टार ! समझा कि नहीं ?'         

'बुचई परसाद ने लगता है आज ज्यादा खैंच ली !' सुदामा सिर पर केडिया का सामान लादे उसके पीछे-पीछे चल रहा था. 

लेकिन बुचई जिस तुरीयावस्था में थे, उसमें उनके कान कुछ और सुनना बंद कर चुके थे. उन्होंने उस आधी रात अकस्मात ही मिली दुर्लभ ग्यान की जड़ी को दोनों हाथों की मुट्ठियों में भींचकर अपने सीने से लगा लिया और वहीं सड़क के बीचों-बीच खर्राटे मारने लगे. अगर कोई गौर से सुनता तो जान सकता था कि उनके खर्राटों में एक तरह की संयोजित लय थी. जैसे भप्पी लाहिड़ी या भूपेन हजारिका ने नाक और गले के नैसर्गिक स्वर यंत्रों की संगत से कोई 'सेमी फोक-अर्ध-शास्त्रीय' म्यूजिक कंपोज किया हो. थोड़ा-सा 'इंडी पॉप' का तड़का लगाकर. ..बुचई प्रसाद के खर्राटों की सांगीतिक लय में उस रात सारा कस्बा डूब गया था - 

'...सतगुरु जी... सतगुरु जी...! सत सत्त..गुरर्रर्रर्र्र्रर्र्र्र... गुरर्र्रर्र्र्रर्र्र...!! गुर्र्र्रर्र्ररूऊऊ  जी...S...S...S.. गुर्र्र्रर्र्ररू ऊऊऊ S..S...S.. जी...ई..ई ||  ||S  ||S  ||S  ||' 

दिसंबर का महीना था. कड़ाके की ठण्ड थी. इधर अभी ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की बावजूद जंगल बचे हुए थे, पास में ही बहने वाली छोटी-सी नदी अभी सूखी नहीं थी इसलिए 'एको-बैलेंस' अभी ज्यादा नहीं बिगड़ा था. ठण्ड उतनी ही पड़ती थी, जितनी पूस-माघ के महीने में पड़नी चाहिए.      

तो, दिसंबर की उस कड़कड़ाती रात में दत्ताराव पेंढे द्वारा निर्मित बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जिस कांसे की बारह फुट सवा चार इंच की मूर्ति के नीचे, सड़क पर बुचई प्रसाद ज्ञान की जड़ी को सीने में दबोचे, खर्राटों का संगीत उत्पन्न कर रहे थे, उसी मूर्ति का अनावरण अगले सप्ताह, गुरूवार 25 दिसंबर को, सुबह ग्यारह बजे राज्य के वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सि..श्वर पांडे के हाथों संपन्न होना था.   

    यह सुयोग इसलिए आसानी से बन गया था क्योंकि मंत्री जी जिस ट्रेन के वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे, उससे उतर कर, इसी स्टेशन से उन्हें दूसरी ट्रेन में, उसी श्रेणी के डब्बे पर सवार होना था. दोनों गाड़ियों के बीच डेढ़ घंटे का अंतराल था. यानी, अगर देखें तो इस प्रकार हमारे छोटे से कस्बे लाजिमपुरवा में बाबा साहेब की मूर्ति का भव्य अनावरण समारोह मंत्री जी की राजनीतिक धारावाहिक यात्रा के बीच में आने वाले एक 'कामर्शियल ब्रेक' की तरह था. 

सारे कस्बे में चहल-पहल थी. हर जगह उसी मूर्ति, मंत्री और अनावरण की चर्चा थी. थाने में जिला मुख्यालय से अतिरिक्त फ़ोर्स का बंदोबस्त किया गया. नगरपालिका और लोक निर्माण विभाग सड़क के गड्ढों को ढांपने-मूंदने में लगे हुए थे. गुजरात से यहाँ आकर टिम्बर और क्रेशर का धंधा करने वाले रज्जू भाई शाह के बंगले में झंडे-बैनर का काम चल रहा था. जिस पार्टी के मंत्री जी थे, उसी पार्टी के वे जनपद अध्यक्ष थे. तरुण केडिया के पेट्रोल पंप में भी झंडे-झालर-हाथ जोड़े मुस्कुराते मंत्री जी के पोस्टर लग गए थे. भीड़ लाने के लिए बस, ट्रैक्टर और ट्रक के कोआर्दिनेशन का काम भी वही कर रहा था. बल्कि तरुण केडिया इस जुगाड़ में भी था कि अजंता होटल की साईट के पीछे खाली पड़ी नगरपालिका की जमीन को सस्ती लीज में लेकर वह एक बैंक्वेट हाल और एक अम्यूजमेंट पार्क का शिलान्यास लगे हाथ मंत्री से करा ले. कोल्ड स्टोरेज के मामले में रज्जू शाह पहले ही बाजी मार ले गए थे. नगरपालिका के अध्यक्ष अग्रवाल जी से बात हो गई थी, बस ज़रा 'ऊपर' के इशारे की जरूरत भर थी. मंत्री द्वारा शिलान्यास उस ऊपर के इशारे पर राजकीय प्रामाणिकता की मुहर ही होता. 

अनावरण की तारीख करीब आ रही थी. पूरा कस्बा स्पंदित, आंदोलित, धुकधुकायमान था. हर कोई अपनी-अपनी गोटियों के साथ अपने-अपने जुगाड़ में लगा हुआ था.       

   और आखिर 24 दिसंबर, बुधवार का दिन अवतरित हो गया. कल ठीक दस बजकर पचास मिनट पर गोंडवाना एक्सप्रेस पांच मिनट के लिए स्टेशन पर रुकेगी  और बाजे-गाजे, फूल-मालाओं में घिरे हुए, आधा दर्जन गैरजमानती वारंटों में कानूनी रूप से फरार, डकैती, हत्या, दंगे, ठगी, और आगजनी के बीसियों अपराधों में चार्जशीटेड, वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री सिद्धू भइया प्लेटफार्म पर अपने चरण रखेंगे. 

इसके ठीक दस मिनट बाद रेलवे रोड के चौराहे पर अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा बनाई गई बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की कांसे की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची मूर्ति के ऊपर लपेटा गया कपड़ा हटाया जाएगा और तालियों की गड़गड़ाहट, पटाखों के विस्फोट और आकाश तक को गुंजाते नारों के बीच सिद्धू भइया उर्फ़ सिद्धेश्वर पांडे बाबा साहेब के गले में माला डालेंगे. इसके बाद दोनों हाथों से सबको शांत रहने का इशारा करते हुए डिलाईट इलेक्ट्रिकल्स के माइक पर अपना भाषण बोलेंगे - 'भाइयों और बहनों, बाबा साहेब आंबेडकर हमारे देश के निर्माताओं में से एक थे. हमारे देश का क़ानून उन्हीं का बनाया हुआ है. हमें उन्हीं के बताए रास्ते पर चलना है. दलित भाइयों से मेरी ख़ास गुजारिश है कि वे इस बात को समझें कि आज बाबा साहेब का नाम एक चुंबक के माफिक हो गया है. बड़ा तगड़ा चुंबक. हर पार्टी इस चुंबक को अपने पास रखकर दलित भाइयों का वोट अपनी पेटी में खींचना चाहती है. कोई अपनी जात का वासता देता है कोई अपनी पांत का, लेकिन आप सब तो जानते ही हैं कि हमारी पार्टी ने और आपके इस सेवक सिद्धू भइया ने कभी जात-पांत, ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया है. सारी जनता बराबर है. मैं तो उन सारे नेताओं से पूछना चाहता हूँ, और वे अपनी-अपनी छाती पर हाथ रखकर बताएं कि क्या बाबा साहेब आंबेडकर के आदर्शों पर चलने की ईमानदारी उनमें से किसी में है ? है किसी में ? रही हमारी बात... तो इस पूरे इलाके में, इस पूरे जिले में भाई बुचई प्रसाद से ज्यादा बलिदानी, त्यागी, जुझारू समाजसेवक कोई हुआ है क्या ? उन्हीं के कहने से राज्य सरकार ने आज से आपके नगर की इस सबसे सुन्दर सड़क का नाम 'आंबेडकर मार्ग' कर दिया है और आपके नगर लाजिमपुरवा के युवा समाजकर्मी भाई तरुण केडिया ने, सभी बच्चों और परिवार जनों के मनोरंजन के लिए 'आंबेडकर पार्क' बनाने की पेशकश की है. मुम्बई के एसैल पार्क और दिल्ली के अप्पू घर का मुकाबला करने वाला यह पार्क बाबा साहेब आंबेडकर जी को ही समर्पित होगा. .... आईए.... !!! मैं अनुरोध करता हूँ कि हमारे जिले के गौरव बुचई प्रसाद आगे आएं और माइक पर आपसे दो शब्द कहें.    

बुचई प्रसाद की आँखें कहीं दूर खो गई थीं, तालियों का शोर थिरा गया था और कानों में गूँज रहा था -  'अगाड़ी देख....अगाड़ी ! पाछू कुच्छ नहीं...! कुच्छ भी नहीं !!!! 

वे अकेले तिराहे पर चुपचाप खड़े थे. उनकी उंगलियाँ जेब के भीतर रूपए टटोल रही थीं. कलारी के लिए कहीं कम तो नहीं पड़ेंगे ? 

लेकिन आज तो बुधवार था. मूर्ति का अनावरण तो अगले दिन यानी 25 दिसंबर, बृहस्पतिवार को होना था. 

गुलाबचंद क्लाथ हाउस, जहां 'पीटर इंग्लैण्ड' और 'कलर प्लस' की शर्ट और 'लेविस' जैसे ब्रांडों का डेनिम भी मिलता था, यहीं से 380 रुपया प्रति मीटर के रेट से कीमती पीले-बासंती रंग का उम्दा देशी रेशम का कपड़ा लिया गया, लाल रंग का रिबन और रज्जू शाह, तरुण केडिया, अग्रवाल जी, एस. पी. साहेब, स्थानीय कालेज के प्राचार्य सोनी जी, एस. एच. ओ., नगरपालिका अध्यक्ष एस. एन. सिंह आदि की गणमान्य उपस्थिति में पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं ने कपड़े को मूर्ति पर इस तरह लपेटा कि रिबन की एक गाँठ खींचते या काटते ही सारा आवरण नीचे सरक जाए और बाबा साहेब की मूर्ति धड़ाक से बाहर निकल आए. हालांकि, रेशम के कपड़े के रंग को लेकर बहुत गहरा विचार-विमर्श दो दिनों तक चला. नीले रंग के पक्ष में ज्यादातर गणमान्य थे, लेकिन नीले की हार के पीछे तीन मुख्य कारण थे. पहला तो यही कि इस रंग से एक दूसरी पार्टी के सम्बन्ध का संदेह पैदा होता था. दूसरा यह कि बासंती रंग इन दिनों कस्बे में फैशन में था, क्योंकि एक ही महीने में शहीदे आज़म भगत सिंह के जीवन के बारे में तीन-तीन मुम्बइया फ़िल्में कस्बे के दोनों टाकीजों में दिखाई गई थीं. बड़ा कंपटीशन हुआ था. 'मेरा रंग दे बसंती चोला...'. .....और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण यह कि गुलाब क्लाथ हाउस में रेशमी कपड़े में कोई और दूसरा रंग था ही नहीं.      

सारी तैयारी होते होते रात के एक बज गए. कलारी से लौटते हुए बुचई प्रसाद की नजर जब बाबा साहेब की मूर्ति की ओर उठी तो चंद्रमा की सुनहली किरणें बासंती-पीले रेशम पर छुपम-छुपाई और फिसलगड्डी का कौतुक भरा खेल खेल रही थीं. दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड थी. आकाश बिलकुल साफ़ गहरा नीला था, जिसमें तारे ठिठुरते हुए काँप रहे थे. 'आज, लगता है पाला गिरेगा.' बुचई प्रसाद ने सोचा. उन्होंने अपने कान गुलूबंद से ढांप रखे थे. वैसे महुए का अद्धा तो उन्होंने आज भी सूंट रखा था और जेब से धेला भी नहीं खर्च हुआ था क्योंकि कल अनावरण की तैयारी में जिन लोकल नेताओं को आज ठेकेदार की तरफ से छूट मिली हुई थी, उनमें वे भी शामिल थे. भांग दिमाग पर, गांजा आँख पर और दारू टांगों पर सवारी गाँठती है. लेकिन आज अगर बुचई प्रसाद के पैर लड़खड़ा नहीं रहे थे, तो इसकी वजह यह हो सकती थी कि महुए के ठर्रे में धतूर, स्पिरिट या लेंटीना के पत्तों की मिलावट नहीं थी.   


बुचई ने एक बार चलने के पहले फिर मूर्ति को आँख भर देखा. एक कोई देवदूत, पीताम्बर ओढ़े अनंत की ओर इशारा कर रहा था. बुचई प्रसाद की आँखें उसी दिशा की तरफ घूम गईं...जिधर केडिया का थ्री स्टार अजंता होटल और आंबेडकर पार्क बनना था. अनंत की ओर... लेकिन अनंत से बहुत पहले. 

और ठीक इसी समय वह संगीन आपराधिक वारदात घटित हुई.    

जब बुचई प्रसाद अनंत की ओर देख रहे थे और बाबा साहेब की मूर्ति पर से उनकी नजरें हटी थीं, उस समय ग्यारह बजकर अट्ठावन मिनट चालीस सैकंड हुए थे. क्योंकि बुचई प्रसाद पिछली रात घटी ग्यान की जड़ी वाली घटना के असर से अभी तक मुक्त नहीं हुए थे और उनके कानों में अभी भी कभी कभी वह फुसफुसाहट गूंजने लगती थी - 'अगाड़ी देख ! अगाड़ी...! पाछू कुच्छ्छ नहीं...!!' और क्योंकि उन्होंने आज भी अद्धा खींच रखा था और फिर आधी रात बासंती रेशम के कपड़े पर चंद्रमा की सुनहली किरणों की फिसलगड्डी का खेल वे कुछ पल पहले ही देख चुके थे, इसलिए वे अनंत की ओर लगभग दो मिनट तक देखते ही रह गए. 

और ये दो मिनट बहुत गंभीर, महत्वपूर्ण और हैरतअंगेज सिद्ध हुए. 

इन दो मिनटों में कुछ घटनाएं एक साथ घटीं. सबसे पहले तो यही कि हिन्दुस्तान की सारी घड़ियों और कैलेंडरों में एक साथ तारीख़ बदल गई. 24 की जगह 25 दिसंबर और बुधवार की जगह गुरूवार आ गया. 

और ठीक इन्हीं दो मिनटों के भीतर रेलवे स्टेशन की ओर से एक रहस्यभरी परछाईं बाबा साहेब की मूर्ति की ओर बढ़ी और उसने पता नहीं क्या किया कि अगले ही पल गुलाब क्लाथ सेंटर से 380 रूपए प्रतिमीटर खरीदा गया कीमती रेशम का बासंती कपड़ा बाबा साहेब की मूर्ति से उड़कर उसके पास आ गया और जब बुचई प्रसाद की दृष्टि अनंत से लौटकर वापस आई तो उन्होंने रेलवे रोड पर, पुलिस थाने की दिशा की ओर, दूर, उस पीतांबर को अँधेरे में भागते हुए देखा. 

क्या बाबा साहेब प्रस्थान कर गए ? बुचई प्रसाद ने अपनी आँखें मलीं. अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा निर्मित कांसे की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची वह विलक्षण मूर्ति अपनी जगह पर खड़ी थी. हालांकि बाबा साहेब की भुजा अब भी आगे की ओर उँगलियों से इशारा कर रही थी, लेकिन अनहोनी तो उनके पीछे घटित हुई थी. अब 'अगाड़ी' नहीं 'पिछाडी' देखने का वक़्त था, उधर जिधर पीतांबर भागता-उड़ता चला जा रहा था. 

बुचई प्रसाद ने जोरों से गुहार लगाई. 'पकड़ो...पकड़ो...! चोर... चोर...!!' और वे उसी ओर दौड़े. थाने में कांस्टेबल हरिहर पटेल ने उनकी गुहार सुनी और पीतांबर को सड़क पर जाते हुए देखा तो उसने लम्बी सीटी बजाई और वह भी दौड़ पडा. इंस्पेक्टर मिथलेश कुमार सिंह अपने क्वार्टर में सोए हुए थे, उन्होंने ड्यूटी रिवाल्वर कमर पर बांधा, ड्राइवर भोले को जगाया और जिप्सी में सवार उसी दिशा की ओर रवाना हो गए. 

कस्बे में जाग पड़ गई. रज्जू भाई शाह को किसी ने एक बजे रात फोन पर बताया कि अनावरण का कपड़ा चोरी चला गया है, तो वे भी कोठी के बाहर निकल आए. तरुण केडिया, महाविद्यालय के प्रिंसीपल, पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के मुख्य अभियंता, नगर पालिका अध्यक्ष समेत सभी गणमान्य जाग गए और देश में हुई सूचना टैक्नोलाजी में क्रांति की बदौलत सब एक-दूसरे के संपर्क में आ गए. 

लाजिमपुरवा नामक उस छोटे से कस्बे में आधीरात घटित होती यह एक बड़ी घटना थी. सुबह ग्यारह बजे वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सि..श्वर पांडे के कर कमलों से बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की मूर्ति का अनावरण अब कैसे होगा, जब आवरण ही चला गया ? 

कस्बे से बाहर गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर जीप, कारें, मोटर साइकिल, स्कूटर दौड़ने लगे. लाजिमपुरवा में मौजूद प्रशासन और राजनीति का सारा 'सिस्टम' उस चोर के पीछे लग गया. पुलिस की जिप्सी से जो सर्चलाईट फेंकी जा रही थी, उससे पता चला कि पीतांबर चोर ने सड़क छोड़ कर खेत और जंगल की पगडंडी का रास्ता पकड़ लिया है. उधर गाड़ियां नहीं जा सकती थीं. न दुपहिया न चौपहिया.       

इधर रज्जू भाई शाह ने गुलाब क्लाथ हाउस के मालिक छजलानी को फोन किया तो उसने कहा कि दूकान में अब अनावरण के लायक कोई दूसरा कपड़ा नहीं है. वही छह मीटर का एक थान बचा था. अलबत्ता सफ़ेद रंग का रेशम जरूर है, कहें तो भेज दूं. रज्जू भाई ने तरुण केडिया और अन्य गणमान्यों से इसके बारे में पूछा तो वे सभी अचानक चुप हो गए और धीरे-धीरे सभी के चेहरे पर पीला-सा रंग छाने लगा, जो तेजी से कत्थई में बदलता जा रहा था. रज्जू भाई इस अचानक की चुप्पी से असमंजस में थे, लेकिन तुरंत ही इसका रहस्य उन्हें पता चल गया, जब उनके कानों में भी 'राम नाम सत्य है' की अनुगूंज पैदा होने लगी. 

'नहीं, बिलकुल नहीं. सफ़ेद कपड़ा हम आवरण के लिए नहीं लेंगे.' उन्होंने गुलाब क्लाथ हाउस वाले छजलानी को डांटते हुए कहा. 

सुबह के पांच बजने लगे. तड़के का उजास क्षितिज पर झलकने लगा. पाला जबरदस्त गिरा था. सफेदी की पर्त हर चीज पर छा गई थी. किसी ने बताया कि उसने आवरण चोर को नदी पार करते हुए देखा है. नदी के उस पार दूसरा जिला शुरू हो जाता है. ठण्ड इतनी थी कि चोर को पकड़ने का अभियान भी ठंडा पड़ने लग गया. सिर्फ अकेले बुचई प्रसाद थे, जो गुलूबंद से कान बांध कर, कम्बल ओढ़कर, बीड़ी का सुट्टा मारते हुए, बिना ठण्ड की परवाह किए, खेतों की मेड़ और जंगल के बीच से चले जा रहे थे. बाबा साहेब पर उनकी श्रद्धा अगाध थी. बुचई जब नदी किनारे पहुंचे तो उधर से दीनानाथ, रामसुमर, बुद्धन और गियासू चले आ रहे थे. बुचई को देखकर उन्होंने जोहार किया और ठहाका मार कर हंसने लगे. 

बुचई ने पूछा कि हंस क्यों रहे हो तुम लोग तो बुद्धन ने बताया कि रेशम का कपड़ा चुराने वाला कोई और नहीं, दुबेरा है. जाड़े में मर रहा था, अब मजे में ओढ़ कर सोएगा. बरगदिहा के पार जो ईंटों का भट्ठा है, उसी के भीतर दुबेरा बीस हाथ की चद्दर ओढ़े सो रहा है.      

दुबेरा के बारे में हमारे कस्बे लाजिमपुरवा का हर बाशिंदा जानता है. दुबेरा स्टेशन के प्लेटफार्म पर ही अक्सर सोता है. कभी भीख मांगते नहीं देखा गया. गाड़ियों के आने-जाने के समय उसकी चुस्ती-फुर्ती देखने लायक रहती है. लगता है जैसे उस पर कोई बहुत बड़ी जिम्मेदारी ईश्वर या समाज ने सौंप रखी है, जिसे उसे निभाना है. लाल हरे चीथड़े लहराते हुए ट्रेन को सिग्नल देना, अपनी बोगी खोजने वाले मुसाफिर को उसके डिब्बे तक पहुंचाना, कुली न मिलने पर किसी का सामान खुद ही उठा कर बाहर तक ले आना आदि के अलावा कभी-कभार वह कस्बे के मुख्य चौराहे पर, ट्रैफिक कंट्रोल का काम भी करते देखा जाता है. 

लेकिन 24-25 दिसंबर की रात, शून्यकाल में घटी घटना एक राजनीतिक घटना भी थी. सुबह हमारे कस्बे से निकलने वाले तीनों अखबार, 'समाज प्रहरी', 'निडर दैनिक टाइम्स' और 'प्रचंड गर्जन' में इस घटना के बारे में समाचार थे. एक के मुताबिक़ दुबेरा इस इलाके का नहीं था बल्कि उड़ीसा के कालाहांडी से भाग कर आया था. दूसरा अखबार उसे आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले से आया बता रहा था, क्योंकि जिस भाषा में दुबेरा बोलता था, उसे कस्बे का कोई आदमी नहीं समझता था. तीसरे अखबार के अनुसार दुबेरा छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का था. ये सभी वे जगहें थीं, जहां भूख और अकाल से लोग या तो मर रहे थे या बड़ी तादाद में आत्महत्याएं कर रहे थे. एक अखबार ने विश्व हिन्दू परिषद के लोकल नेता का हवाला दिया था, जिसके अनुसार दुबेरा का असली नाम जुबेर अहमद था और वह संदिग्ध व्यक्ति था. स्टेशन पर उसके रहने से लगातार यात्रियों पर ख़तरा बना रहता था, जिसके बारे में पुलिस और स्थानीय प्रशासन से शिकायत की जा चुकी थी. दुबेरा को पोटा में गिरफ्तार करने की जोरदार अपील लोकल विहिप ने की थी. दूसरे अखबार के मुताबिक़ दुबेरा पहले बेलाडीला के लोहे की खदान में लाल झंडा पार्टी का काम करता था और वह 'कामरेड दुबेरा सिंह' के नाम से मशहूर था. बाद में निजीकरण के चलते वह खदान एक अमेरिकी कम्पनी को बेच दी गई, तब से दुबेरा बेरोजगार हो गया. गरीबी और फालतू हो जाने के कारण लाल झंडा पार्टी ने उसे निकाल दिया. 'प्रचंड गर्जन' में राष्ट्रीय संघ के लोकल नेता का सनसनीखेज बयान था. उनके मुताबिक़ दुबेरा दरअसल ईसाई मिशनरी का डबल एजेंट था और सूरीनाम से यहाँ आया था. उसका असली नाम ड्यूबर्ग जार्ज था. 25 दिसंबर, यानी क्रिसमस के दिन, जिस दिन ईसा मसीह का जन्म हुआ था, ठीक उसी तारीख को चोरी के लिए चुनने के पीछे एक बड़ी साजिश है, जिसके सूत्र धर्मांतरण के मुद्दे से जुड़े हुए हैं. लेकिन 'समाज प्रहरी' के रिपोर्टर का दावा था कि दुबेरा की मिचमिची आँखों और त्वचा पीलियाए रंग से पता चलता है कि या तो उसका सम्बन्ध नेपाल से है और प्लेटफार्म पर वह असलहों की तस्करी का काम करता था, या फिर वह नगालैंड या मणिपुर का है और किसी ड्रग ट्रैफिकिंग में शामिल है. बहरहाल, दुबेरा के बारे में जितने मुंह थे, जितने अखबार थे, उतने ही किस्से थे. हाँ, कस्बे के सारे गणमान्य इस एक बात पर, जरूर एकमत थे कि दुबेरा का वहां होना ठीक नहीं है. जैसे भी हो इसे शहर से निकाल बाहर करना चाहिए या फिर डी.आई.जी. साहेब से कह कर इसका 'एनकाउन्टर' करवा देना चाहिए.     

  पाठकों, जब यह कहानी आप पढ़ रहे होंगे, उस समय लाजिमपुरवा से छह किलोमीटर दूर बहने वाली नदी छिपिया के उस पार, जहां से जिला बारदोई शुरू हो जाता है, वहां पंजाब से यहाँ आकर ईंट का भट्ठा चलाने वाले सरदार गुलशेर सिंह के भट्ठे के भीतर, 25 दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड में, दुबेरा छह मीटर बासंती कपड़ा ओढ़े लेटा हुआ है और उसके पास बैठे हैं महुए के ठर्रे में धुत बुचई प्रसाद. दोनों बीड़ी के सुट्टे खिंच रहे हैं. 

जहां तक मशहूर मूर्तिकार अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा बनाई गई बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची कांसे की विलक्षण मूर्ति के वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सिद्धेश्वर पांडे के कर कमलों द्वारा अनावरण की सूचना है, तो निवेदन है कि उस रोज 25 दिसंबर को ग्यारह बजे सुबह वह अनावरण नहीं हो सका. इसके पीछे एक कारण तो यह था कि उस रोज गोंडवाना एक्सप्रेस आठ स्टेशन पहले ही रोक दी गई क्योंकि आगे किसी गिरोह ने रेलवे की पटरी से फिश प्लेटें निकाल दी थीं. संदेह आधा दर्जन से ज्यादा आतंकवादी गिरोहों में से किसी एक पर जाता था. दूसरा कारण यह था कि सिद्धेश्वर भइया को, देश भर में 'एल्युमीनियम एंड पेट्रोल किंग' के रूप में मशहूर एन.आर.आई. उद्यमी भामोजी रामोजी शाह का स्पेशल चार्टर्ड फोर सीटर हवाई जहाज मिल गया, जिससे वे सीधे राजधानी चले गए, जहां उन्हें इस राज्य के अल्युमीनियम ओर की एक सबसे बड़ी खदान के निजीकरण के मसविदे पर दस्तखत करने थे. 

लेकिन लाजिमपुरवा में मूर्ति का अनावरण समारोह न हो पाने का तीसरा सबसे बड़ा कारण यह था कि दरअसल अनावरण तो दुबेरा आधीरात शून्यकाल में पहले ही कर चुका था. इसे हर अखबार और हर गणमान्य जानता था, फिर भी सब से छुपा रहा था. 

आइए, अंत में जिला बारदोई के उस ईंट के भट्ठे की ओर लौटें जहां बुचई प्रसाद और दुबेरा बीड़ी के सुट्टे खींच रहे हैं. बुचई के कानों में वही रहस्यपूर्ण फुसफुसाहट की आवाज आ रही है - 'अगाड़ी देख....अगाड़ी बे ! पाछू कुच्च्छ नहीं !....कुच्च्छौ नहीं !!!'   

ताज्जुब है कि इस बार दुबेरा को भी कुछ ऐसा ही सुनाई पडा.    



Uday Prakash 

Wednesday, January 12, 2011

ओरहान पामुक : टेलीविजन मुझे सिर्फ गुस्सा ही दिलाता है

( 1952 में इस्ताम्बुल में जन्में ओरहान पामुक तुर्की के प्रसिद्द उपन्यासकार हैं. उनके उपन्यासों का दुनिया की पचास से भी अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. माई नेम इ
 
रेड, स्नो, व्हाईट कैसेल, म्यूजियम आफ इनोसेंस जैसे उपन्यासों के लेखक पामुक को 2006 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यहाँ प्रस्तुत है उनके गद्य की एक छोटी सी बानगी, उनके कथेतर गद्य संग्रह ' अदर कलर्स ' से - Padhte Padhte ) 

शाम को थक कर चूर 
मैं शामों को थक कर चूर घर लौटता हूँ. सीधे सामने की तरफ सड़कों और फुटपाथों को देखते हुए. किसी चीज से नाराज, आहत, कुपित. हालांकि मेरी कल्पना शक्ति सुन्दर दृश्यों से आकर्षित होती रहती है लेकिन ये मेरे दिमाग की फिल्म में तेजी से गुजर जाते हैं. समय बीत जाता है. कोई फर्क नहीं. रात घिर आई है. बदकिस्मती और हार. रात के खाने में क्या है ? 

मेज पर रखा लैम्प जल रहा है ; बगल में ही सलाद और ब्रेड का कटोरा रखा है, सबकुछ उसी टोकरी में ; मेजपोश चारखानेदार है. और कुछ ? ...... एक प्लेट और बीन्स. मैं बीन्स की कल्पना करता हूँ लेकिन यह काफी नहीं है. मेज पर वही लैम्प अब भी जल रहा है. थोड़ा सा दही शायद ? या शायद थोड़ी सी ज़िंदगी ? 

टेलीविजन पर क्या आ रहा है ? नहीं मैं टेलीविजन नहीं देख रहा ; यह मुझे सिर्फ गुस्सा ही दिलाता है. मैं बहुत गुस्सैल हूँ. मुझे कवाब भी पसंद है - तो कवाब कहाँ हैं ? पूरी ज़िंदगी यहीं सिमट आई है, इस मेज के इर्द-गिर्द. 

फ़रिश्ते मुझसे हिसाब मांगने लगे हैं. 

आज तुमने क्या किया प्यारे ?

अपनी पूरी ज़िंदगी.... मैंने काम किया. शामों को मैं घर लौटता रहा. टेलीविजन के बारे में - लेकिन मैं टेलीविजन नहीं देख रहा. कभी-कभी फोन उठाकर बात की है मैनें, नाराज हुआ कुछ लोगों पर ; फिर काम किया, लिखा..... एक आदमी बना...... और हाँ, बहुत एहसानमंद हूँ - जानवर भी बना. 

आज तुमने क्या किया प्यारे ?

दिख नहीं रहा क्या तुम्हें ? सलाद भरी है मेरे मुंह में. दांत हिल रहे हैं मेरे जबड़े में. मेरा दिमाग दुःख से पिघलकर गले से होता हुआ बह रहा है. नमक कहाँ है, कहाँ है नमक, नमक ? हम अपनी ज़िंदगी खाए जा रहे हैं. और थोड़ी सी दही भी. ज़िंदगी, ये जो है ज़िंदगी. 

फिर आहिस्ता से अपने हाथ फैलाकर मैं परदे अलग करता हूँ, और बाहर अँधेरे में चाँद की झलक मिलती है. दूसरी दुनियाएं सबसे बेहतर तसल्ली हैं. चाँद पर वे टेलीविजन देख रहे थे. मैनें एक संतरा ख़त्म किया - बहुत मीठा था यह - अब मेरा जोश कुछ बढ़ा है. 

तब मैं पूरी दुनिया का मालिक था. आप समझ रहे हैं न मेरा मतलब, है न ? शाम को मैं घर आया. घर आया मैं उन सभी लड़ाईयों से, अच्छी, बुरी, और कैसी भी ; मैं पूरा साबुत लौटा और एक गर्म घर में आया. खाना इन्तजार कर रहा था मेरे लिए, और मैनें अपना पेट भर लिया ; बत्तियां जल रही थीं ; फिर मैनें अपना फल खाया. मैनें यह भी सोचना शुरू कर दिया था कि सबकुछ बढ़िया होने वाला है.

फिर मैनें बटन दबाया और टेलीविजन देखने लगा. तब तक, आप समझ सकते हैं, मैं बहुत बेहतर महसूस कर रहा था.  

(अनुवाद : Manoj Patel)
Orhan Pamuk 

Monday, January 10, 2011

नाओमी शिहाब न्ये की दो कविताएँ

जो नहीं बदलता उसे नाम देने की कोशिश 
रोजेल्वा के मुताबिक़ सिर्फ रेल की पटरी ही है 
ऎसी इकलौती चीज जो नहीं बदलती. 
पक्का यकीन है उसे.
बदल जाती है रेलगाड़ी 
या अगल-बगल उग आई बेतरतीब खर-पतवार 
नहीं बदलती तो पटरी.
मैनें तीन साल तक गौर किया एक पटरी पर,
बताती है वह,
और यह मुड़ी नहीं, टूटी नहीं, बढ़ी नहीं.

पीटर को शक है कुछ. देखी थी उसने मेक्सिको में सबीना के पास 
एक निष्प्रयोज्य पटरी, उसका कहना है कि 
बदली हुई होती है  
बिना रेलगाड़ी के कोई पटरी.
चमक नहीं बची थी धातु में.
लकड़ी में दरारें पड़ गई थीं और 
खुल गए थे कुछ जोड़. 

मोराल्स स्ट्रीट पर हर मंगलवार 
सैकड़ों मुर्गों की गर्दनें तोड़ते हैं कसाई.
तम्बू में रह रही विधवा 
दालचीनी से चटपटा करती है अपना सूप.
उससे पूछो क्या नहीं बदलता.

विस्फोट होता है सितारों में.
यूं मुड़े होते हैं गुलाब मानो आग हो पंखुड़ियों में. 
झाड़ी के नीचे दफ़न है वह बिल्ली जो पहचानती थी मुझे. 

रेल की सीटी अभी भी बजाती है अपना चिरंतन बाजा 
लेकिन जब चली जाती है दूर 
सिकुड़ते हुए दिमाग की चहारदीवारी से ओझल 
कुछ अलग लिए जाती है अपने साथ हमेशा. 
                         * *

आपको सतर्क रहना होता है 
सतर्क रहना होता है आपको बातें करते समय.
सुरंग होते हैं कुछ कान.
भीतर जाएंगे आपके शब्द और खो जाएंगे अँधेरे में.
सोने की खोज में लगे खनिकों के पास पाए जाने वाले  
चपटे पैन की तरह होते हैं कुछ कान.
पत्थरों से धोया जाएगा जो कुछ भी कहेंगे आप. 

लम्बे समय तक तलाश रहती है आपको 
जब तक कि मिल नहीं जाते सही कान.  
तब तक परिंदे और लैम्प होते हैं बातें करने के लिए, 
गोल-गोल घिसता चमकाता एक धैर्यवान कपड़ा,
और धीरे-धीरे बढ़ती जाती है संभावना 
कि आखिरकार जब मिल जाएंगे आपको ऐसे कान,
उन्हें पता होगा पहले से ही. 
                          * *
(अनुवाद : Manoj Patel) 
Naomi Shihaab Nye 

Saturday, January 8, 2011

निकानोर पार्रा की कविता

क्या हासिल होता है कसरत से एक बूढ़े को 
उसे क्या हासिल होगा फोन पर बात करके 
नाम के पीछे भागने से क्या मिलेगा उसे, बताओ मुझे 
क्या मिल जाता है एक बूढ़े को आईना देखकर 

कुछ नहीं 
बस हर बार वह कुछ और धंस जाता है कीचड़ में 

बज चुके हैं सुबह के चार या पांच 
वह कोशिश क्यों नहीं करता जाकर सो जाने की 
लेकिन नहीं - बंद नहीं करेगा वह कसरत करना 
नहीं बंद करेगा अपनी लम्बी दूरी की टेलीफोन की बतकही 
उसकी बातें नहीं ख़त्म होंगी बाख, बीथोवन और चायकोवस्की की 
नहीं बंद होगा एकटक देखना आईने में 
सांस लेते चले जाने की सनक नहीं ख़त्म होगी उसकी 

बेचारा - बेहतर होता कि वह बुझा देता बत्ती 

उसकी माँ कहती है उसे बुद्धू बुड्ढा 
एक ही जैसे हो तुम बाप-बेटे 
मरना नहीं चाहता वह भी 
ईश्वर तुम्हें कार चलाने की ताकत बख्शे 
ईश्वर तुम्हें फोन पर बात करने की ताकत बख्शे 
ईश्वर तुम्हें सांस लेने की ताकत बख्शे 
ईश्वर तुम्हें अपनी माँ को दफनाने की ताकत बख्शे 

सो गए तुम, बुद्धू बूढ़े !
लेकिन अभागे बुड्ढे का सोने का कोई इरादा नहीं 
रोने को सोना समझने की गलती न किया जाए.

(अनुवाद : Manoj Patel)
Nicanor Parra 

Thursday, January 6, 2011

नाजिम हिकमत की कविता

आखिरी ख्वाहिश और वसीयत 


कामरेडों, अगर ज़िंदा न बचा मैं वह दिन देखने के लिए 
-- मतलब अगर मर गया मैं आजादी मिलने के पहले ही -- 
मुझे ले जाना  
और दफना देना अन्टोलिया गाँव के कब्रिस्तान में. 

मजदूर उस्मान जिसे हसन बे ने गोली मार देने का हुक्म दिया था 
लेट सकता है मेरे एक बगल, और दूसरी बगल शहीद आयशा 
जो मर गई थी चालिस दिनों के भीतर 
बच्चे को जन्म देने के बाद.

ट्रैक्टर और नग्मे गुजर सकते हैं कब्रिस्तान के नीचे से सुबह की रोशनी में,
जहां होंगे नए लोग, जले हुए पेट्रोल की गंध 
सामूहिक मिल्कियत के खेत और पानी नहरों में 
नहीं होगा सूखा या पुलिस का कोई डर. 

ठीक है, हम नहीं सुन पाएंगे वो नग्मे :
मुर्दे पड़े रहते हैं ज़मीन के नीचे पैर पसारे 
सड़ते हुए काली टहनियों की तरह,
अंधे, गूंगे, बहरे ज़मीन में दफ़न.

लेकिन मैं गा चुका हूँ वे नग्मे 
उनके लिक्खे जाने से भी पहले,
और सूंघ चुका हूँ जले हुए पेट्रोल की वह गंध 
जब खाका भी नहीं खींचा गया था ट्रैक्टर का.

जहां तक मेरे पड़ोसियों की बात है, 
मजदूर उस्मान और शहीद आयशा, 
शायद अनजाने में ही, 
उनकी भी थी यही हसरत अपने जीते जी.

कामरेडों, अगर मर गया मैं उस दिन के पहले,
-- जिसकी संभावना बढ़ती नजर आ रही है अब -- 
दफना देना मुझे अन्टोलिया गाँव के कब्रिस्तान में,
और अगर कहीं मिल जाए आस-पास,
एक पेड़ रह सकता है मेरे सिरहाने,
पत्थर या किसी और चीज की जरूरत नहीं मुझे.  
                
                                         मास्को, बारविहा अस्पताल 

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Nazim Hikmet,   Haзым Хикмет

Tuesday, January 4, 2011

नाओमी शिहाब न्ये की कविता


(1952 में जन्मीं नाओमी शिहाब न्ये फिलीस्तीनी पिता और अमेरिकी माँ की संतान हैं. खुद को घुमंतू कवि मानने वाली नाओमी जार्डन, येरुशलम से होते हुए अब टेक्सास में रह रही हैं. उनकी कविताओं में अपनी जड़ों की बेचैन तलाश की झलक मिलती है. उनके लेखक और सम्पादक पिता,  अज़ीज़ शिहाब येरुशलम टाइम्स के सम्पादक रह चुके हैं. यह तस्वीर अपने पिता के कन्धों पर बैठी एक वर्षीय नाओमी शिहाब न्ये की है. - पढ़ते पढ़ते )

खून 
" एक सच्चा अरब जानता है हाथों से कैसे पकड़ते हैं मक्खी," 
कहते मेरे पिता. और साबित भी कर देते इसे, 
भिनभिनाती मक्खी को फ़ौरन बंद कर अपनी मुट्ठी में, 
जबकि मेजबान ताकता रह जाता 
हाथों में मक्खी पकड़ने का स्वाटर लिए. 

बसंत में छिलके सी छूटती थीं हमारी हथेलियाँ सांप की तरह. 
सच्चे अरब मानते थे कि फायदेमंद है तरबूज पचासों तरह से. 
मैंने बदला इसे माहौल के अनुरूप ढालने की खातिर. 

सालों पहले, दरवाज़ा खटखटाया था एक लड़की ने 
वह देखना चाहती थी एक अरब. 
मैंने जवाब दिया था कि हमारे यहाँ नहीं है कोई.
इसी के बाद बताया था मेरे पिता ने अपने बारे में, 
कि "उल्का" मतलब होता है "शिहाब" का,
आसमान से जमीन पर गिरा हुआ सितारा --
एक शानदार नाम, उधार लिया हुआ आसमान से. 
एक बार तो मैनें यह भी पूछ लिया था, "जब मर जाएंगे हम 
तो क्या वापस कर देंगे इसे आसमान को ?"
बोला था उन्होंने कि यही कहना चाहिए एक सच्चे अरब को. 

आज थक्के की तरह जम गई हैं ख़बरों की सुर्खियाँ मेरे खून में.
ट्रक के पीछे लगा फिर रहा है एक फिलिस्तीनी बच्चा फाटक पर.
बेघर लोग, असहनीय है हमारे लिए 
भयानक जड़ों वाली यह त्रासदी. 
आखिर कौन सा झंडा फहरा सकते हैं हम ?  
पत्थर और बीज का झंडा फहराती हूँ मैं,
नीले रंग के धागे से सिला गया एक मेजपोश.

अपने पिता को फोन मिलाती हूँ मैं 
और ख़बरों के बारे में बात करते हैं हम.
उनके लिए बहुत पीड़ादायी है यह सब, 
बहुत मुश्किल है इसे समझना उनके लिए 
अपनी दोनों ज़ुबानों में. 
देहात की तरफ निकल जाती हूँ मैं 
भेड़ों और गायों से मिलने के लिए
बहस करने के लिए हवा से ही : 
कि कौन सभ्य कहता है खुद को ?
कहाँ सुकून मिल सकता है एक रोते हुए दिल को ? 
आखिर क्या करे कोई सच्चा अरब अब ? 

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Naomi Shihab Nye 

Saturday, January 1, 2011

सुरजीत पातर की कविताएँ

(सभी दोस्तों को नए साल की शुभकामनाएं ! इस मौके पर आज मोनिका कुमार के सौजन्य से पंजाबी के मशहूर कवि सुरजीत पातर की कविताएँ. आपके कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. "अँधेरे में सुलगती वर्णमाला" के लिए 1993 में साहित्य अकादमी पुरस्कार. 2009 में "लफ़्ज़ों की दरगाह" के लिए सरस्वती सम्मान. शहीद ऊधम सिंह के जीवन पर बनी एक फिल्म के लिए संवाद लिखने के साथ-साथ विश्व साहित्य से लोर्का, ब्रेष्ट, और पाब्लो नेरुदा के पंजाबी में अनुवाद भी. अनुवादक मोनिका कुमार अंग्रेजी की प्राध्यापक हैं. कविता और दर्शन में गहरी दिलचस्पी. पातर की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया है. किताब शीघ्र प्रकाश्य. - पढ़ते पढ़ते )  



कविता ने मनुष्य जीवन के संघर्षों की कहानी बहुत कलात्मक ढंग से प्रस्तुत की है, ऐसे हमारे पास बहुत नाम है हर भाषा में, हर देश में.
असल में उन्ही को इतिहास ने महान कहा है , माना है जिनके शब्दों में साधारण व्यक्ति के संघर्षों ने अभिव्यक्ति पाई है.
कवि ने उन सोये शब्दों को जगाया , न मिले तो पैदा किये , कभी तलिस्म से काबू किया होगा, कभी शब्द खुद भी खिंचे आये होंगे पंक्ति में सजने , कौन जाने !
पातर जी की आवाज़ में हमारे बहुत से संघर्षों, बहुत सी भावनाओं ने वाणी पायी है, उन्होंने हमारे उन अनकहे अहसासात को कविता का रूप दिया जिन्हें समझने कहने की हमारे भीतर तड़प थी, हम पंक्ति पे वाह वाह करते है लेकिन उस पंक्ति को ( उससे भी पहले अपने अनुभव एहसास को समझना ) लिखना स्वभावतः ही कठिन रहता होगा , कविता के पाठक इसको जरुर समझते होंगे.
पातर जी की यह पंक्तियाँ, कला, कलाकार और कला शास्त्र के रिश्ते को क्या खूब बयाँ करती हैं :

यह पंडित राग के तो सदियों बाद आते है
मेरी सिसकी ही पहले मेरी बांसुरी की सांस बनती. 

पेश हैं उनकी कवितायेँ - मोनिका  

1. 
मेडलिन शहर में कवि सम्मलेन के दिनों
उब्रेरू पार्क में
एक बच्चा आया मेरे पास साइकिल पर 
मेरी पगड़ी और दाढ़ी देख पूछने लगा
" क्या तुम जादूगर हो ? "
मैं हंसने लगा
कहने वाला था 'नहीं' पर अचानक कहा " हाँ, मैं जादूगर हूँ"
मैं आसमान से तारे तोड़ किशोरियों के लिए हार बना सकता हूँ
मैं ज़ख्मों को बदल सकता हूँ फूलों में 
दरख्तों को साज़ बना सकता हूँ
और हवा को साज़ नवाज़

सचमुच ! बच्चे ने कहा
तो फिर तुम मेरी साइकिल को घोड़ा बना दो
नहीं ! मैं बच्चों का नहीं बड़ों का जादूगर हूँ
तो फिर महल बना दो हमारे घर को 

नहीं ! सच बात तो यह है के मैं चीज़ों का जादूगर नहीं 
 जादूगर हूँ शब्दों का

ओह ! अब समझा , तुम कवि हो !

बच्चा साइकिल चलाता हाथ हिलाता
चला गया पार्क से बाहर 
और दाखिल हो गया मेरी कविता में 

2. 
वह मुझको राग से वैराग तक जानता है
मेरी आवाज़ का रंग भी पहचानता है
जरा सिसकी जो लूँ तो काँप जाता है
अभी वह सिर्फ मेरी हँसी को पहचानता है
मेरा मेहरम मेरे इतिहास की हर छाप जाने
मेरा मालिक सिर्फ जुगराफिया ही जानता है
उसको कह दो के किसी भी मिट्टी में उग के खिल जाये
वह यूँ ही खाक क्यूँ रस्तों की दिन भर छानता है

3. 
जब दो दिलों को जोडती वह तार टूटी
साजिन्दे पूछें साज़ से कि नगमा किधर गया
पलकें भी खूब लम्बी, काजल भी खूब है
वह सलोने नैनों का पर सपना किधर गया
पातर तेरे कलाम में अब पुख्तगी तो है
पंक्तियों में थिरकता पर वह पारा किधर गया 

4.
मिली अग्न में अग्न , जल में जल, हवा में हवा
कि बिछड़े सारे मिले , मैं अभी उड़ान में हूँ
छुपा के रखता हूँ मैं तुझसे ताज़ी नज्में
कहीं तुम जान के रो न दो मैं किस जहान में हूँ 

5. 
अल्पसंख्यक नहीं
मैं दुनिया के बहुमत से वास्ता रखता हूँ
बहुमत
जो उदास है
खामोश है
प्यासा है इतने चश्मो के बावजूद  

6.
गाँव में बैलगाड़ियाँ दौड़े चले हुकुम सरदारी
शहर में आ के बन जाते हैं बस की एक सवारी
मन मोया तो सोग न होया, न रोये रूह बारी
तन बिखरा तो यार मेरे ने कूक गज़ब की मारी

7. 
जिस तरह तुम गिर जाती हो मेरे आगोश में
सारी की सारी
पर्वतों से पिघलती नदी की तरह
जां बरसाती बारिश जैसे

ढलता है ज्यों तेरा आँचल किनारे पर 
तेरे गहने अलंकारों में
तेरा नाम रेत पर
तेरा चेहरा पत्थरों पर 

उस तरह मैं क्यूँ नहीं

बचाता रहता हूँ
अपना ताज
अपनी तलवार
अपना जाबख्तर, अपना नाम
अपना मुखौटा
अपने पुराने अहदनामे  

तुम्हारी लहरें छूती हैं मेरे चेहरे को
तो सँभालने लगता हूँ अपना ताज
तुम्हारी लहरें जब डुबोने लगती हैं मेरा चेहरा
तो मुझे याद आता है, किनारे पर रक्खा अपना नाम और मुखौटा

तुम्हारे भंवर घेरने लगते हैं मेरी काया को
तो सँभालने लगता हूँ अपनी तलवार

तुम पूछती हो यह क्या चुभता है
पत्थर जैसा तुम्हारे पानियों में ? 

8. 
मरुस्थल से भाग आया मैं अपनी जान बचा के
पर वहां रह गयीं थीं जो मेरी खातिर राहें
मैं सागर के तट पर बैठा कोरे कागज़ ले के
उधर मरुस्थल में खोजे मुझे मेरी कवितायेँ
क्या कवियों का आना जाना क्या मस्ती संग चलना
ठुमक ठुमक जब संग न आयें कोरी कंवारी कवितायेँ 

9. 
मैं सुनूं जो रात खामोश को 
मेरे दिल में कोई दुआ करे
यह ज़मीन हो सुरमई
यह दरख्त हों हरे भरे

सब परिंदे ही 
यहाँ से उड़ गए 
मेघ आते हुए मुड़ गए
यहाँ करते है दरख़्त भी आजकल
कहीं और जाने के मशवरे

न तो कुर्सियों को न तख़्त को
न सलीब सख्त कुरख्त को
यह मज़ाक करें दरख्त को
बड़े समझदार है मसखरे

अब चीर होते हुए चुप रहे
अब आरियों को भी छाया दे
कहता था जो कि दरख्त हूँ
अब वक़्त आया है सिद्ध करे

वह बना रहें है इमारतें
हम लिख रहे है इबारतें
ताकि पत्थरों के वजूद में
कोई आत्मा भी रहा करे

कौन साथ यहाँ है हमेशा तक
एक तापमान विशेष तक
जुड़े 
रहें तत्वों के साथ तत्व 
फिर टूट के हो जाए परे

कुछ लोग आये थे बेसुरे
मेरी तोड़ तन्द्रा चले गए
अब फिर से राग पिरो रहा
और चुन रहा सुर बिखरे

चलो सूरज चलो धरती
फिर सुन्न समाधि में लौट 
चलें   
कल रात हुए थे रात भर
यही तारों के बीच तज्करे

10. 
मेरी माँ को मेरी कविता समझ न आई
बेशक वोह मेरी माँ बोली में लिखी थी

वो तो केवल इतना समझी 
बेटे की रूह को दुःख है कोई

पर इसका दुःख मेरे होते आया कहाँ से

कुछ और गौर से देखी
मेरी अनपढ़ माँ ने मेरी कविता

देखो लोगों  
कोख के जाए
माँ को छोड़
दुःख कागज़ को बताते है

मेरी माँ ने कागज़ उठा सीने से लगाया
शायद ऐसे ही कुछ
करीब हो मेरा जाया

11.
इसका मतलब तुम यह  समझो
कि मिट्टी से मुझे प्यार नहीं
गर मैं कहूँ कि आज यह तपती है
गर कहूँ कि पैर जलते हैं
वह भी लेखक हैं तपती रेत पे जो
रोज़ लिखते हैं हर्फ़ चापों के
वह भी पाठक हैं सर्द रात में जो
तारों की किताब पढ़ते हैं


(अनुवाद : मोनिका कुमार)
संपर्क : turtle.walks@gmail.com 
Surjit Patar 
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