Monday, October 29, 2012

ज़ाक प्रेवेर : किसी चिड़िया की तस्वीर बनाने के लिए

फ़्रांसीसी कवि ज़ाक प्रेवेर (Jacques Prevert) की एक कविता...   


किसी चिड़िया की तस्वीर बनाने के लिए : ज़ाक प्रेवेर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

सबसे पहले तो एक पिंजरा बनाना 
छोटे से खुले दरवाजे वाला 
फिर बनाना कोई आकर्षक चीज 
सहज सी 
कोई सुन्दर चीज 
ऎसी जो फायदे की हो चिड़िया के लिए 
इस तस्वीर को रख देना एक पेड़ पर 
किसी बगीचे में 
किसी पार्क 
या किसी जंगल में 
खुद को छिपा लेना पेड़ के पीछे 
चुपचाप 
अचल... 

कभी-कभी चिड़िया आ जाती है जल्दी ही 
मगर कभी-कभी तो सालों लग जाते हैं 
हताश मत होना 
इंतज़ार करना 
गर जरूरत पड़े तो सालों करना इंतज़ार 
उसके आगमन की शीघ्रता या धीमेपन का 
कोई सम्बन्ध नहीं है 
तस्वीर की अच्छाई से 

जब आ जाए चिड़िया 
गर आए वह 
बनाए रखना बहुत गहरी खामोशी 
इंतज़ार करना जब तक चिड़िया अन्दर न आ जाए पिंजरे के 
और जब वह दाखिल हो जाए अन्दर 
धीरे से बंद कर देना दरवाजे को ब्रश से 
फिर एक-एक कर हटा देना सारे सींखचों को 
ध्यान रखना कि हाथ न लगने पाए चिड़िया के किसी पंख से 

फिर बनाना पेड़ की तस्वीर 
सबसे खूबसूरत डाली चुनना 
चिड़िया के लिए 
हरे पल्लव बनाना और हवा की शीतलता 
धूप में तैरते कण बनाना और गर्मियों के ताप में 
दूब के कीड़ों की आवाज़ 
और फिर, इंतज़ार करना चिड़िया के गाने का 

अगर चिड़िया नहीं गाती 
तो यह अपशकुन होगा 
इसका मतलब गड़बड़ है तस्वीर 
लेकिन यदि वह गाने लगती है तो यह अच्छा शकुन है 
इसका मतलब तुम कर सकते हो अपने दस्तखत 

तब तुम बड़े प्यार से खींचना 
चिड़िया से एक पंख 
और तस्वीर के एक कोने में लिख देना अपना नाम. 
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Thursday, October 25, 2012

अन्ना स्विर : शादी वाली सफ़ेद जूतियाँ

अन्ना स्विर की एक और कविता...   


शादी वाली सफ़ेद जूतियाँ : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

रात में 
माँ ने एक संदूक खोली 
और अपनी 
रेशमी सफ़ेद शादी वाली जूतियाँ निकालीं. 
फिर धीरे से 
रोशनाई पोत दिया उन पर. 

सुबह-सुबह 
उन जूतियों को पहने वे 
निकल पडीं सड़क पर 
ब्रेड की कतार में खड़ी होने के लिए. 
शून्य से दस डिग्री नीचे के तापमान में 
तीन घंटे तक 
वे खड़ी रहीं सड़क पर. 

वे बाँट रहे थे 
प्रति व्यक्ति एक-चौथाई डबल रोटी. 
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Wednesday, October 24, 2012

अन्ना स्विर : हैरत

पोलिश कवयित्री अन्ना स्विर की एक और कविता...  


हैरत : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

इतने सालों से 
देखती आ रही हूँ तुम्हें 
कि बिल्कुल अदृश्य हो गए हो तुम. 
मगर अभी तक एहसास नहीं था मुझे इस बात का. 

कल संयोग से 
किसी और के संग चुम्बनों का आदान-प्रदान किया मैंने. 
और तब जाकर कहीं 
यह जाना मैंने हैरत के साथ 
कि लम्बे समय से 
मेरे लिए एक पुरुष नहीं रह गए हो तुम. 
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Monday, October 22, 2012

घर में बुक क्लब

आज फिर से दो लघुकथाएं...    


दो लघुकथाएं 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

गड्ढा : बाब जैकब्स 
तस्वीरों में क्रिस्टी दिखाई नहीं पड़ती. जहां उसे होना चाहिए वहां पृष्ठभूमि नजर आती है. इस बारे में सोचते हुए मैं रात-रात भर जागा करता हूँ जबकि क्रिस्टी अँधेरे में मेरे बगल सो रही होती है. भोर होते ही वह बिस्तर छोड़ निकल जाएगी. मैं करवट बदलूंगा और ताजुब्ब करूंगा कि उसके तकिये पर कोई गड्ढा क्यों नहीं है. 
                                                        :: :: :: 

घर में बुक क्लब : एम जे इयुप्पा 
वे बूढ़े हैं और कमरे में अपनी कुर्सी तक जाने के लिए भी छड़ी लेकर चलते हैं. उन्हें पता है कि वे यहाँ पहले भी आ चुके हैं. कोई नहीं जानता कि जो किताबें वे पढ़ते हैं, उन्हें कौन चुनता है. उनका कहना है कि यह उनके हाथ में नहीं है. वे हर समय पढ़ते ही रहते हैं लेकिन न तो कथानक समझ पाते हैं, न ही यह कि किसने किसके साथ क्या किया. वे कहते हैं कि यही ज़िंदगी है, और फिर उसे अपने दिमाग से निकाल देते हैं. 
                                                        :: :: :: 

Friday, October 19, 2012

दो लघुकथाएँ


दो लघुकथाएँ...    


अनकिया : लारा गैरिसन 
मेरे सास-ससुर आ रहे थे और मुर्गा पकाते हुए मैंने उसे जला डाला था. अब यह पता लगाने का समय आ गया था कि इतना महँगा अवन किसी काम का था या नहीं. मैंने "रिवर्स" वाली बटन दबा दिया. कांच में से मैं देखती रही कि काला धुंआ गायब हो गया और जली हुई चमड़ी पहले सुनहरी और फिर थोड़ा गुलाबी लिए हुए सफ़ेद हो गई. मृत शरीर में पंख उग आए, सर और पैर फिर से निकल आए, और फिर वह इतनी तेजी से सिकुड़ने लगा कि जब तक मैं उस झबरे मुर्गे के चेहरे पर मौजूद सकपकाए हाव-भाव को समझ पाती वह जालीदार रैक पर रखे एक भूरे अंडे में बदल चुका था. मेरी सास खुश तो नहीं ही होने वाली थीं. 
                                                  :: :: :: 

ज़रा सी बातचीत : जीना कार्दारेली 
रोज सुबह वह मुस्कराते हुए पूछा करती, "कैसी हो?" सच्चाई बताने की अनिच्छुक लड़की वही रस्मी सा जवाब दोहरा देती. उसे लगता कि स्त्री की तरफ से यह औपचारिक बातचीत ही है और उसके पास उसकी निजी समस्याएँ सुनने का समय कहाँ होगा. औरत पछताती है कि काश उसने पहले ही यह समझ लिया होता. वह सोचती है कि काश उसने थोड़ा गहराई से उससे पूछताछ की होती, कुछ और कुरेदा होता, कुछ किया होता. वह पछताती है कि काश काले कपड़ों की भीड़ में खड़ी वह इस वक़्त एक बक्से पर भुरभुरी मिट्टी न डाल रही होती. 
                                                  :: :: ::  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

Wednesday, October 17, 2012

महमूद दरवेश : एयरपोर्ट पर


महमूद दरवेश की तीसरी और आखिरी गद्य पुस्तक 'इन द प्रजेंस आफ एब्सेंस' के अनुवाद के लिए इराकी कवि, कथाकार और अनुवादक सिनान अन्तून को हाल ही में अमेरिकन लिटरेरी ट्रांसलेटर्स एसोसिएशन द्वारा राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है. इस किताब से एक अंश आप पहले भी यहाँ पढ़ चुके हैं. आज प्रस्तुत है एक और अंश...  










एयरपोर्ट पर : महमूद दरवेश 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

किसी इंसान के एयरपोर्ट पर रहने का क्या मतलब होता है? तुम सोचते हो: अगर मैं, मैं होता तो मैंने एयरपोर्ट पर अपनी आजादी की तारीफ़ में कुछ लिखा होता: मैं और मक्खी आज़ाद हैं. मक्खी, मेरी बहन नर्मदिल है. वह मेरे कन्धों और हाथों पर बैठ जाती है. मुझे लिखने की याद दिलाकर उड़ जाती है और मैं एक पंक्ति लिख लेता हूँ. जैसे एयरपोर्ट उन लोगों का वतन हो जिनका कोई वतन नहीं. कुछ देर बाद मक्खी फिर आ जाती है. एकरसता को तोड़कर वह फिर उड़ जाती है. मैं किसी से बात नहीं कर पाता. मेरी बहन, वह मक्खी कहाँ है? मैं कहाँ हूँ आखिर?   

तुम खुद को एक फिल्म में देखते हो जिसमें तुम कैफेटेरिया में सामने बैठी एक स्त्री को घूर रहे हो. जब वह तुम्हें निहारते हुए देख लेती है, तुम अपनी कमीज पर गिर आई शराब की एक बूँद को पोछने का बहाना करने लगते हो, वह बूँद जो उन बातों में से एक भगोड़े शब्द जैसी है जिसे तुमने उससे कहा होता गर वह तुम्हारे साथ होती: मेरे लिए आपकी खूबसूरती आसमान की तरह बहुत ज्यादा है, इसलिए बराएमेहरबानी आसमान को थोड़ा सा उठा लीजिए ताकि मैं बात कर सकूं. तुम भाप छोड़ते सूप के कटोरे से अपनी निगाहें उठाते हो और पाते हो कि वह तुम्हें देख रही है. मगर वह अपने खाने पर एक ऐसे हाथ से नमक छिड़कने में मशगूल होने का बहाना करने लगती है जिस पर रोशनी कांपती रहती है. तुम चुपचाप उससे बातें करते हो: मेरी तरह अगर तुम भी कहीं जाने से प्रतिबंधित होती, अगर तुम भी होती मेरी तरह! तुम्हें लगता है कि तुमने उसे शर्मिन्दा कर दिया है इसलिए तुम वेटर से बात करने का दिखावा करने लगते हो: नहीं, सॉरी. उसकी गर्दन पर पसीने का एक मोती झिलमिलाने लगता है और जैसे तारीफ़ के लिए बढ़ने लगता है. तुम चुपके से उसे बताते हो: अगर मैं तुम्हारे साथ होता तो पसीने की उस बूँद को चाट जाता. हसरत उतनी ही जाहिर और नुमायाँ हो गई है जितना कि प्लेट, काँटा, चम्मच, छुरी, पानी की बोतल, मेजपोश और मेज के पाए. हवा में खुश्बू है. दो निगाहें मिलती हैं, लजाती हैं और जुदा हो जाती हैं. वह शराब के प्याले से एक घूँट भरती है, जिसमें वह मोती भी घुल चुका है. तुम्हें महसूस होता है कि वह किसी गहरे समंदर में व्हेल का रूदन सुन चुकी है. नहीं तो इस गाढ़ी खामोशी में उसे क्या डुबो रहा होता? तुम चोरी से उसे बताते हो: अगर वे यह एलान करें कि एयरपोर्ट पर एक बम फटने वाला है तो इस बात का भरोसा मत करना! यह अफवाह मैं ही फैला रहा हूँ, तुम तक पहुँचने के लिए और तुमसे यह कहने के लिए कि कोई और नहीं मैं ही हूँ इस अफवाह को फैलाने वाला. तुम्हें लगता है कि वह आश्वस्त हो गई है, और जैसे ही वह तुम्हारी तंदरुस्ती के नाम अपना जाम उठाती है, उसकी उँगलियों के पोरों से हसरत का एक धागा फिसल जाता है और तुम्हारी रीढ़ की हड्डी में बिजली का करंट दौड़ा जाता है. एक सिहरन तुम्हें हिला देती है. मंत्रमुग्ध होकर तुम गहरी साँसे लेने लगते हो. हवा में लटकते एक पोशीदा पलंग से आम की महक तैरती हुई आती है. कहीं दूर ग़मज़दा वायलिनें विलाप करती हैं, चरम पर पहुँचने के बाद उनके तार शांत हो जाते हैं.     

तुम उस पर निगाह नहीं डालते क्योंकि तुम्हें पता है कि उसकी निगाहें तुम पर हैं, फिर भी वह तुम्हें देख नहीं रही है. तुम्हारी मेज को धुंध ने ढँक लिया है जो अब उन तमाम व्याख्यात्मक औजारों के नीचे दबी ऊंघ रही है जिन्हें तुमने उस पर जमा कर रखा है और उन सफ़ेद कागजों के नीचे दबी हुई भी जिन्हें बीस लेखक मिलकर भी शब्दों की बाजीगरी से भर नहीं सकते. यह वेटर नहीं, वह थी जिसने तुम्हारी मूर्छा तोड़कर तुमसे पूछा था: खाना ठीक था? तुमने उससे पूछा: और तुम्हारा? उसने कहा: तुमसे मिलकर खुशी हुई... क्या तुम्हें मेरी याद है? तुमने कहा: एयरपोर्टों पर किसी की याददाश्त जा भी सकती है. उसने कहा: खुदाहाफिज़! तुमने उसे जाते हुए नहीं देखा, क्योंकि तुम नहीं चाहते थे कि पूजाघरों के संगमरमर पर दो ऊंची हीलों को देखकर हसरत फिर सर उठाने लगे और वायलिनों की सूरत में जुदाई के लिए कोई लालसा भड़कने लगे. लेकिन तुमने उसे याद किया जब नींद घिर आई, तुम्हारी देह पर शराब के सुन्न कर देने वाले असर की तरह जो घुटनों से उस हिस्से की तरफ बढ़ता रहता है जिसे बदन के जंगल में तुम याद नहीं रख पाते. और जहां तक उसके नाम की बात है, उसे शायद तुम कल जान सको, किसी और मेज पर, किसी और एयरपोर्ट पर. 
                                                                :: :: :: 
(शीर्षक हिन्दी अनुवादक की ओर से)

Monday, October 15, 2012

पीटर चर्चेस : चोरी करने की बीमारी

चोरी करने की बीमारी से पीड़ित एक चौर्योन्मादी. पीटर चर्चेस की एक और कविता... 


चौर्योन्मादी : पीटर चर्चेस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

वह चोरी करने की बीमारी से पीड़ित थी. जब वह देख नहीं रहा होता तो अनजाने में ही वह टुकड़े-टुकड़े उसको चुराया करती और उन्हें अपने शरीर में छिपा लिया करती. उधर उसे पता था कि वह कम होता जा रहा है, लेकिन यह नहीं समझ पाता था कि कैसे और क्यों. और लो, अचानक वह गायब हो गया. मगर दिल से वह कोई चोर नहीं थी. जब उसे एहसास हुआ कि उसने क्या कर डाला है तो उसने आलिंगन समाप्त कर दिया और उसे, उसको लौटा दिया. 
                                                     :: :: :: 

Friday, October 12, 2012

मो यान : सेंसरशिप साहित्य सृजन के लिए बेहतर है

इस साल का नोबेल साहित्य पुरस्कार चीनी लेखक मो यान को दिए जाने की घोषणा की गई है. उन्हें भ्रान्तिजनक यथार्थवाद के साथ लोक कथाओं, इतिहास और समकालीन जीवन को मिलाने की अपनी अनोखी शैली के लिए यह पुरस्कार दिया गया है. पिछले सप्ताह लंदन पुस्तक मेले में ग्रांटा सम्पादक जान फ्रीमैन ने उनसे बातचीत की थी. प्रस्तुत है उसी बातचीत का हिन्दी अनुवाद...   


सेंसरशिप साहित्य सृजन के लिए बेहतर है : मो यान 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जान फ्रीमैन : आपके कई उपन्यासों की पृष्ठभूमि गाओमी के आपके घरेलू कस्बे पर आधारित अर्द्ध-काल्पनिक शहर की है, एक तरह से उसी तरह जैसे कि फाकनर का अमेरिकी दक्षिण. ऐसा क्या है जो आपको इस अर्द्ध-काल्पनिक समाज की तरफ लौटने के लिए मजबूर करता है और विश्वव्यापी पाठक वर्ग ने क्या इस फोकस को कुछ बदला है? 
मो यान : जब मैंने पहले पहल लिखना शुरू किया तो लिखने का माहौल था, बिल्कुल वास्तविक, और कथानक मेरे निजी अनुभव पर आधारित हुआ करता था. लेकिन जैसे-जैसे मेरी किताबें छपती गईं, मेरे दिन-प्रतिदिन के अनुभव समाप्त होने लगे और इसलिए मुझे थोड़ी सी कल्पना और यहाँ तक कि कभी-कभी फंतासी मिलाने की जरूरत पड़ने लगी. 

जाफ्री  : आपकी कुछ रचनाएं गुंटर ग्रास, विलियम फाकनर और गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की रचनाओं की याद दिलाती हैं. क्या शुरू-शुरू में आपको चीन में इन लेखकों की किताबें उपलब्ध थीं? उन लोगों के बारे में कुछ बताइए जिन्होंने आपको प्रभावित किया? 
मोया : 1981 की बात है, जब मैंने लिखना शुरू किया, तो मैंने गार्सिया मार्केस या फाकनर की कोई किताब नहीं पढ़ी थी. मैंने सबसे पहले 1984 में उन्हें पढ़ा और इसमें कोई शक नहीं कि मेरे लेखन पर इन दोनों लेखकों का बहुत प्रभाव पड़ा. मैंने पाया कि मेरे जीवन के अनुभव उनके अनुभवों से काफी मिलते-जुलते हैं, लेकिन इसका पता मुझे बाद में ही चल पाया. यदि मैंने उन्हें थोड़ा पहले पढ़ा होता तो उन्हीं की तरह मैं भी अब तक एक मास्टरपीस लिख चुका होता.    

जाफ्री : रेड सोरघम जैसे शुरूआती उपन्यास प्रकट रूप से ऐतिहासिक, या कुछ लोगों को तो 'रोमांस' तक लगते हैं जबकि आजकल आपके उपन्यास अधिक प्रकट रूप से समकालीन जगत और विषय वस्तुओं की तरफ आए हैं. क्या यह जानबूझकर किया गया एक चुनाव है? 
मोया : जब मैंने 'रेड सोरघम' लिखा था उस समय मैं तीस साल से भी कम उम्र का एक नौजवान था. उस समय मेरी ज़िंदगी, मेरे पूर्वजों की ज़िंदगी को देखते हुए, रूमानी चीजों से भरी थी. मैं उनके जीवन के बारे में लिख रहा था लेकिन उनके बारे में ज्यादा कुछ जानता नहीं था इसलिए उन चरित्रों में मैंने तमाम कल्पनाएँ भर डालीं. जब मैंने 'लाइफ एंड डेथ आर वियरिंग मी आउट' लिखा, उस समय मैं चालीस साल से अधिक उम्र का था. तो मैं एक नौजवान से मध्यवय के एक व्यक्ति में बदल चुका था. मेरी ज़िंदगी अलग है. मेरी ज़िंदगी अधिक समकालीन है और हमारे समकालीन समय की गलाकाट क्रूरता ने मेरे उस रोमांस पर लगाम लगा दिया है जिसे मैं कभी महसूस किया करता था.   

जाफ्री : आप अक्सर स्थानीय लाओबाक्सिंग भाषा और खासतौर पर शैनतुंग बोली में लिखते हैं जो आपके गद्य को एक चुटीली धार देती है. क्या आप यह सोचकर निराश नहीं होते कि कुछ मुहावरे और श्लेष शायद अंग्रेजी अनुवाद में ठीक-ठीक न आ पाते हों, या क्या आप अपने अनुवादक हावर्ड गोल्डब्लाट के साथ उस का हल निकालने में सक्षम हो पाते हैं? 
मोया : हाँ, यह सच है कि अपनी शुरूआती रचनाओं में मैं स्थानीय भाषा, मुहावरों और श्लेषों का काफी इस्तेमाल किया करता था क्योंकि उस समय मैं ऐसा सोचता भी नहीं था कि मेरी रचना का दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी होगा. बाद में मैंने महसूस किया कि इस तरह की भाषा अनुवादक के लिए तमाम समस्याएँ पैदा करती है. लेकिन स्थानीय भाषा, मुहावरे और श्लेषों का इस्तेमाल न किया जाना मेरे लिए काम नहीं करता क्योंकि मुहावरेदार भाषा जीवंत और अर्थपूर्ण होने के साथ-साथ लेखक विशेष की सिग्नेचर भाषा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होती है. इसलिए जहां एक तरफ अपने कुछ श्लेषों और मुहावरों के उपयोग को मैं संशोधित और समायोजित कर सकता हूँ, वहीं दूसरी तरफ मैं उम्मीद करता हूँ कि हमारे अनुवादक अपने काम के दौरान मेरे इस्तेमाल किए गए श्लेषों को दूसरी भाषा में उतार सकते हैं -- आदर्श स्थिति यही है.    

जाफ्री : आपके कई उपन्यासों के केंद्र में सशक्त स्त्रियाँ हैं, मसलन 'बिग ब्रेस्ट्स एंड वाइड हिप्स', 'लाइफ एंड डेथ आर वियरिंग मी आउट' और 'फ्राग' में. क्या आप खुद को नारीवादी मानते हैं या बस एक स्त्री के नजरिए से लिखने में आपकी दिलचस्पी है? 
मोया : सबसे पहले तो यह कि मैं स्त्रियों की सराहना और सम्मान करता हूँ. मुझे लगता है कि वे बहुत महान होती हैं और उनके जीवनानुभव तथा सहनशक्ति हमेशा किसी पुरुष से बहुत अधिक होती है. बड़ी आपदाओं से हमारा सामना होने पर स्त्रियाँ सदैव पुरुषों से अधिक बहादुर साबित होती हैं. मेरे ख्याल से इतनी क्षमता उनमें इस वजह से होती है क्योंकि वे माँ भी होती हैं. इसके कारण जो ताकत आती है उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते. अपनी किताबों में मैं खुद को स्त्रियों की जगह रखकर देखने की चेष्टा करता हूँ, इस दुनिया को मैं स्त्रियों के नजरिए से समझने और विश्लेषित करने की कोशिश करता हूँ. लेकिन लब्बोलुआब यह है कि मैं स्त्री नहीं हूँ: मैं एक पुरुष लेखक हूँ. अपनी किताबों में जिस दुनिया का बयान मैंने इस तरह किया है मानो मैं एक स्त्री होऊँ, उसे शायद स्वयं स्त्रियों द्वारा ठीक न माना जाए, लेकिन यह ऎसी चीज नहीं है जिसके बारे में मैं कुछ कर सकता हूँ. स्त्रियों को मैं प्यार करता हूँ और उनकी सराहना करता हूँ लेकिन फिर भी मैं एक पुरुष ही हूँ.   

जाफ्री : क्या सेंसरशिप से बचना बारीकी का एक सवाल है, और जादुई यथार्थवाद द्वारा खोले गए रास्तों के साथ-साथ वर्णन की परम्परागत तकनीकें बिना वाद-विवाद का सहारा लिए किस सीमा तक एक लेखक को अपनी सबसे गहरी चिंताएं व्यक्त करने की अनुमति प्रदान करती हैं? 
मोया : हाँ, सच में. साहित्य की तमाम पद्धतियों के राजनीतिक आचरण होते हैं. उदाहरण के लिए हमारे वास्तविक जीवन में कुछ तीखे और संवेदनशील मुद्दे हो सकते हैं और वे छुए जाने की अपेक्षा नहीं करते. ऐसे किसी मोड़ पर एक लेखक उन्हें असल दुनिया से अलग करने के लिए अपनी कल्पना का प्रयोग कर सकता है या वे स्थिति को बढ़ा-चढ़ा कर भी कह सकते हैं -- यह सुनिश्चित करते हुए कि वह निर्भीक, जीवंत और हमारी वास्तविक दुनिया की पहचान लिए हुए हो. इसलिए असल में तो मेरा मानना है कि ये सीमाएं या सेंसरशिप साहित्य सृजन के लिए बेहतर ही हैं.   

जाफ्री : अंग्रेजी में अनूदित आपकी पिछली किताब जो 'डेमोक्रेसी' नामक एक छोटा सा संस्मरण है, एक युवक और प्रौढ़ पुरुष के रूप में आपके अनुभवों के माध्यम से चीन के भीतर एक युग की समाप्ति का वर्णन करती है. इसका लहजा कुछ विषादपूर्ण है जो पश्चिम के लिहाज से एक हद तक आश्चर्यजनक है: हम यह मानते हैं कि प्रगति का मतलब बेहतरी ही होता है लेकिन आपके संस्मरण से लगता है कि कुछ खो गया है. क्या यह सच्चा वर्णन है?
मोया : हाँ, जिस संस्मरण का आप जिक्र कर रहे हैं वह मेरे निजी अनुभवों एवं मेरे रोजाना के जीवन से भरा है, अलबत्ता इसमें कुछ काल्पनिक भी प्रस्तुत किया गया है. विषादपूर्ण स्वर के बारे में आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं क्योंकि कहानी में चालीस साल का एक आदमी है जो ऎसी युवावस्था को याद कर रहा है जो अब जा चुकी है. उदाहरण के लिए जब आप युवा थे तो हो सकता है कि आप कभी किसी लड़की के प्यार में पागल रहे हों लेकिन किसी कारण से आज वह लड़की किसी और की पत्नी है और अब वह स्मृति वास्तव में दुखद ही होगी. पिछले तीस सालों में हमने चीन को जबरदस्त प्रगति के दौर से गुजरते देखा है, चाहे वह हमारे नागरिकों के जीवन स्तर में हुई हो या उनके बौद्धिक या आध्यात्मिक स्तर में. प्रगति तो प्रत्यक्ष है लेकिन निस्संदेह तमाम चीजें हैं जिनको लेकर अपने रोजाना के जीवन में हम संतुष्ट नहीं हैं. यह सच है कि चीन ने प्रगति की है लेकिन प्रगति खुद ही तमाम मुद्दे लेकर आती है, मसलन पर्यावरण और उच्च नैतिक स्तर में गिरावट के मुद्दे. इसलिए जिस विषाद के बारे में आप बात कर रहे हैं, वह दो कारणों से है -- मैं महसूस करता हूँ कि मेरी युवावस्था समाप्त हो चुकी है, और दूसरे मैं चीन की वर्तमान यथास्थिति से चिंतित हूँ, खासकर उन बातों से जिनसे मैं संतुष्ट नहीं हूँ. 

जाफ्री : अंग्रेजी में आपकी अगली किताब कौन सी होगी? 
मोया : सैंडलवुड पेनाल्टी    
                                                                 :: :: :: ::   
(ग्रांटा से साभार)     

Wednesday, October 10, 2012

पीटर चर्चेस की कविता

पीटर चर्चेस की एक कविता...   


अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाओ : पीटर चर्चेस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाओ, वह बोली. 
मैंने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठा लिया. 
अपना बायाँ हाथ ऊपर उठाओ, उसने कहा. 
मैंने अपना बायाँ हाथ ऊपर उठा लिया, मेरे दोनों हाथ ऊपर हो गए. 
अपना दाहिना हाथ नीचे कर लो, वह बोली. 
मैंने उसे नीचे कर लिया. 
बायाँ हाथ नीचे कर लो, उसने कहा. 
मैंने ऐसा ही किया. 
दाहिना हाथ ऊपर उठाओ, वह बोली. 
मैंने उसका कहा माना. 
नीचे कर लो अपना दाहिना हाथ. 
मैंने कर लिया. 
अपना बायाँ हाथ उठाओ. 
मैंने उठा लिया. 
नीचे कर लो बायाँ हाथ. 
मैंने नीचे कर लिया. 

खामोशी छा गई. मैं दोनों हाथ नीचे किए उसके अगले हुक्म का इंतज़ार करता खड़ा रहा. थोड़ी देर बाद बेचैन होकर मैंने कहा, अब क्या करना है. 
अब तुम्हारी बारी है हुक्म देने की, वह बोली. 
ठीक है, मैंने कहा. मुझसे दाहिना हाथ ऊपर उठाने के लिए कहो. 
               :: :: :: 

Monday, October 8, 2012

बिली कालिंस : मृतक

बिली कालिंस की एक और कविता...   


मृतक : बिली कालिंस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

लोग कहते हैं, मृतक हमेशा ऊपर से देखते रहते हैं हमें. 
जब हम पहनते होते हैं अपने जूते या तैयार करते होते हैं एक सैंडविच, 
स्वर्ग की शीशे के तलों वाली कश्तियों से वे निहारा करते हैं हमें 
अनंत में आहिस्ता-आहिस्ता खेते हुए अपने कश्ती. 

पृथ्वी पर फिरती हमारी खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा देखा करते हैं वे, 
और जब हम लेट जाते हैं किसी मैदान में या किसी सोफे पर 
शायद एक लम्बी दोपहर की भिनभिनाहट के नशे में, 
उन्हें लगता है कि वापस उन्हें ताक रहे हैं हम, 
तब अपने चप्पू ऊपर उठाकर खामोश हो जाते हैं वे 
और इंतज़ार करते हैं, माँ-बाप की तरह कि हम बंद कर लें अपनी आँखें.  
                            :: :: :: 

इस कविता का एनीमेटेड वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें. 

Friday, October 5, 2012

डान पगिस की कविता

इजरायली कवि डान पगिस की एक और कविता...    


एक छोटी सी कविताई : डान पगिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम्हें सब कुछ लिखने की इजाजत है, 
मसलन और  और और.  
सारे शब्दों की इजाजत है तुम्हें जिन्हें पा सको तुम, 
और सारे अर्थों की जिन्हें तुम बैठा सको उनमें. 

बेशक, अच्छा ख़याल है यह जांचना 
कि आवाज़ तुम्हारी आवाज़ ही है या नहीं, 
और हाथ तुम्हारे ही हाथ हैं, 

यदि हाँ, तो बंद कर लो अपनी आवाज़,  
बटोर लो अपने हाथ, 
और कहना मानो 
कोरे कागज़ की आवाज़ का. 
            :: :: :: 

Wednesday, October 3, 2012

बिली कालिंस : खामोशी

अमेरिकी कवि बिली कालिंस की एक और कविता...   


खामोशी : बिली कालिंस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक अचानक उग आई खामोशी होती है भीड़ की 
उस खिलाड़ी पर जो बेहरकत खड़ा हो मैदान में, 
और खामोशी होती है आर्किड की. 

फर्श से टकराने के पहले 
खामोशी गिरते हुए गुलदान की, 
और बेल्ट की खामोशी, जब वह पड़ न रही हो बच्चे पर. 

निःशब्दता कप और उसमें भरे हुए पानी की, 
चंद्रमा की खामोशी 
और सूरज की भभक से परे दिन की शान्ति. 

खामोशी जब मैं तुम्हें लगाए होता हूँ अपनी छाती से, 
हमारे ऊपर के रोशनदान की खामोशी, 
और खामोशी जब तुम उठती हो और चली जाती हो दूर. 

और खामोशी इस सुबह की 
जिसे भंग कर दिया है मैंने अपनी कलम से, 
खामोशी जो जमा होती रही है रात भर 

घर के अँधेरे में होती हुई बर्फबारी की मानिंद -- 
मेरे कोई शब्द लिखने के पहले की खामोशी 
व और भी घटिया खामोशी इस वक़्त की. 
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Monday, October 1, 2012

डान पगिस : प्रश्नावली का अंत

इजरायली कवि डान पगिस की एक और कविता...   


प्रश्नावली का अंत : डान पगिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

आपकी आवासीय दशाएं: आकाशगंगा एवं ग्रह की क्रमसंख्या. कब्र की क्रमसंख्या. आप अकेले हैं, या नहीं. ऊपर कौन सी घासें उगती हैं और कहाँ से (उदाहरण के लिए, पेट से, आँख से, मुंह से इत्यादि) 

आपको अपील करने का अधिकार है. 

नीचे दी गई खाली जगह पर उल्लेख करें कि आप कब से जाग रहे हैं और आप हैरत में क्यों पड़ गए थे.  
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