Sunday, July 31, 2011

अडोनिस : क्या सड़क ख़त्म हो गई

अडोनिस की कविताएँ... 











नाम की शुरूआत 

उसका नाम है मेरा दौर 
और ख्वाब उसका नाम है, जब आसमान मेरी उदासी में बिता देता है अपनी रात 
और जुनून उसका नाम है 
और जश्न उसका नाम है, जब कातिल और मकतूल एक साथ होते हैं 

एक बार गाया था मैनें : थकता हुआ 
हर गुलाब उसका नाम है 
सफ़र करता हुआ हर गुलाब उसका नाम है. 

क्या सड़क ख़त्म हो गई? क्या उसने अपना नाम बदल लिया? 
                    :: :: :: 

अन्तरिक्ष की शुरूआत 

धरती की देंह भविष्यवाणी करती है आग की,
पानी : अपने आसन्न संकट की.

          क्या इसीलिए हवा बदल जाती है ताड़ के पेड़ में 
          और अन्तरिक्ष बन जाता है एक स्त्री?
                    :: :: :: 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

Saturday, July 30, 2011

अडोनिस : कुदरत बूढ़ी नहीं होती

एक बार फिर अडोनिस... 



पराग 

कभी-कभी खेत में उग आती हैं कीलें,
खेत इतना चाहता है पानी को. 
               * * *

सर्दी का अकेलापन 
और गर्मी की क्षणभंगुरता 
जुड़ी है बसंत के पुल से.
               * * * 

आवाज़ भाषा की सुबह है. 
               * * *

मिट्टी एक देंह है 
जो नृत्य करती है 
सिर्फ हवा के साथ. 
               * * * 

पराग 2 

कुदरत बूढ़ी नहीं होती.
               * * *

मैं एहसानमंद हूँ वक़्त का 
जो उठा लेता है मुझे बाहों में 
और मिटा देता है मेरे सारे रास्तों को.
               * * * 

अपनी बाहें फैला लो.
मैं देखना चाहता हूँ 
उनके बीच 
कांपती हुई अपनी स्मृति. 
               * * * 
(अनुवाद : मनोज पटेल)
ली अहमद सईद अस्बार अदोनिस Ali Ahmad Said Esber Adunis | Adonis poems translated in Hindi by Manoj Patel अडुनिस 

Friday, July 29, 2011

वेरा पावलोवा : जहां हवा के तकिए पर लेटे होते हैं सितारे

वेरा पावलोवा की एक कविता...















वेरा पावलोवा की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सिर्फ वह जिसने पिलाया है अपनी छाती का दूध 
जान पाती है कितने सुन्दर हैं कान. 
सिर्फ वह जिसने पिया है छाती का दूध 
जान पाता है हंसली की सुन्दरता. 
बनाने वाले ने सिर्फ इंसानों को 
नवाजा है कानों की लौ से.  
हंसली की वजह से 
थोड़े चिड़ियों से लगने वाले इंसान 
थपकियों में गुंथ कर 
रात में उड़ जाते हैं उस जगह, जहाँ,
सबसे शानदार पालने पर झूलते हुए 
रो रहा होता है बच्चा,
जहाँ हवा के तकिए पर 
खिलौनों की तरह लेटे होते हैं सितारे.
और उनमें से कुछ बोलते भी हैं.  
                    :: :: :: 

हंसली : कालर बोन, Clavicle  

Thursday, July 28, 2011

निज़ार कब्बानी : मुझे शिकायत नहीं है

'सौ प्रेम पत्र' से निज़ार कब्बानी की कुछ और कविताएँ... 


निज़ार कब्बानी की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैनें फैसला किया 
आजादी की सायकिल पर 
दुनिया भर की सैर करने का 
उसी गैरकानूनी तरीके से 
जैसे सैर करती है हवा. 
अगर मुझसे पूछी जाती है मेरी रिहाइश 
मैं बता देता हूँ 
उन सारे फुटपाथों का पता 
जिन्हें चुना है मैनें अपना स्थायी ठिकाना.
अगर मुझसे मांगे जाते हैं मेरे कागज़ात,
मैं दिखा देता हूँ उन्हें तुम्हारी आँखें. 
प्रिय,
मुझे जाने दिया जाता है 
क्यूंकि उन्हें मालूम है कि 
तुम्हारी आँखों की बस्ती में सैर का  
हक़ है सारे मर्दों को. 
                    :: :: :: 

तुम्हारे साथ ही ख़त्म हो गई 
छोटी-छोटी चीजों की मेरी बादशाहत 
अब अकेले मेरे पास नहीं होती कोई चीज,
अकेले मैं नहीं सजा पाता फूल,
न ही पढ़ पाता हूँ किताबें 
तुम आ जाती हो 
मेरी आँखों और किताब के बीच,
मेरे मुंह और मेरी आवाज़ के बीच,
मेरे सर और तकिए के बीच,
मेरी अँगुलियों और सिगरेट के बीच.
                    :: :: :: 

सच है 
मुझे शिकायत नहीं है 
अपने दिल में तुम्हारे रहने से, 
अपने हाथों की हरकत में तुम्हारी दखलंदाजी से, 
अपनी आँखों के झपकने, 
और अपने ख्यालों की रफ़्तार से, 
पेड़ शिकायत नहीं करते 
इतनी सारी चिड़ियों का बसेरा होने पर,
प्याले शिकायत नहीं करते 
कि उन्होंने थाम रखी है इतनी शराब. 
                    :: :: :: 

सर्गोन बोउलुस की दो कविताएँ


इराक़ी कवि सर्गोन बोउलुस की यह दो कविताएँ भी देखें... 


यह वह मालिक है जो..

यह 
वह मालिक है जो 
अमेरिका से आया है 
दज़ला 
और फ़रात नदियों 
का 
पानी पीने के लिए.

यह 
बहुत प्यासा मालिक है 
जो पी जाएगा 
हमारे कुओं का 
सारा तेल,
और 
जहरीला कर देगा 
हमारी सारी नदियों को.

यह 
बहुत भूखा मालिक है 
जो लील जाएगा 
हमारे 
बच्चों को,
हजारों हजार की 
तादाद में.

यह 
वह मालिक है जो 
आया है 
दज़ला 
और फ़रात नदियों से 
खून पीने के लिए.  
                 :: :: :: 

रोशनदान 

अगर तुम रोशनदान 
नहीं खोलोगे, कबूतर नहीं आएगा 
तुम्हारे कमरे में.
पानी नहीं जानता 
हालिया सूखे की 
वजहों को,
पानी की इफरात के 
तमाम सबूतों के बावजूद 
दरारें 
पड़ी हुई हैं 
पृथ्वी पर. 
खामोशी एक खोल है 
जो तब तक नहीं खोलेगी खुद को 
जब तक कि तुम्हें नहीं पता होगा 
गुलाब कैसे खिलता या मुरझाता है.
मेज पर एक कलम,
एक कापी जो लेखक की खोपड़ी में 
फड़फड़ाती और खुलती है 
किसी गीशा के पंखे की तरह; 
और कविता 
गुम हो सकती है 
अगर तुम नहीं पा जाते अदृश्य धागा. 
और किस्सागो 
शायद कभी न जान पाए 
क्या कुछ कह सकती है 
कहानी. 
                 :: :: :: 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

नाजिम हिकमत : धंधा



आज फिर से नाजिम हिकमत की एक कविता...












धंधा : नाजिम हिकमत 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब सूरज की पहली किरणें पड़ती हैं मेरे बैल की सींगों पर, 
खेत जोत रहा होता हूँ मैं सब्र और शान के साथ. 
प्रेम से भरी और नम होती है धरती मेरे नंगे पांवों के तले. 

चमकती हैं मेरी बाहों की मछलियाँ, 
दोपहर तलक मैं पीटता हूँ लोहा -- 
लाल रंग का हो जाता है अन्धेरा. 

दोपहर की गरमी में तोड़ता हूँ जैतून, 
उसकी पत्तियाँ दुनिया में सबसे खूबसूरत हरे रंग की :
सर से पाँव तलक नहा उठता हूँ रोशनी में. 

हर शाम बिला नागा आता है कोई मेहमान,  
खुला रहता है मेरा दरवाज़ा 
                                        सारे गीतों के लिए.

रात में, मैं घुसता हूँ घुटनों तक पानी में, 
समुन्दर से बाहर खींचता हूँ जाल : 
मछलियाँ और सितारे उलझे हुए आपस में. 

इस तरह मैं जवाबदेह हूँ 
                                        दुनिया के हालात के लिए :
अवाम और धरती, अँधेरे और रोशनी के लिए. 

तो तुम देख सकती हो, मैं गले तक डूबा हुआ हूँ काम में,
खामोश रहो प्रिय, समझो तो सही 
बहुत मसरूफ़ हूँ तुम्हारे प्यार में. 
                    :: :: :: 

Wednesday, July 27, 2011

नाजिम हिकमत : ज़िंदगी तुम्हारे जैसी ही खूबसूरत होनी चाहिए

नाजिम हिकमत की 'रात 9 से 10 के बीच की कविताएँ' से कुछ और कविताएँ... 



रात 9 से 10 के बीच लिखी गई कविताएँ - 3 : नाजिम हिकमत 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

(पत्नी पिराए के लिए)

2 अक्टूबर 1945 

हवा बह रही है.
चेरी की एक ही डाली दुबारा कभी नहीं हिलाई जा सकती 
उसी हवा द्वारा. 
चिड़िया चहचहा रहीं हैं पेड़ों पर :
                                        उड़ान भरना चाहते हैं पंख. 
दरवाजा बंद है : 
                                        वह टूटकर खुल जाना चाहता है.
मैं तुम्हें चाहता हूँ :
ज़िंदगी तुम्हारे जैसी ही खूबसूरत होनी चाहिए 
                                        दोस्ताना और प्यारी...  
मुझे पता है कि अभी तक ख़त्म नहीं हुआ है गरीबी का जश्न 
                                        मगर वह ख़त्म हो जाएगा... 
                    :: :: :: 

5 अक्टूबर 1945 

हम दोनों जानते हैं, मेरी जान, 
उन्होंने सिखाया है हमें :
          कैसे रहा जाए भूखा और बर्दाश्त की जाए ठण्ड,
          कैसे मर जाया जाए थकान से चूर होकर 
          और कैसे बिछड़ जाया जाए एक-दूजे से. 
अभी तक हमें मजबूर नहीं किया गया है किसी का क़त्ल करने के वास्ते 
और खुद क़त्ल होने की नियति से भी बचे हुए हैं हम. 

हम दोनों जानते हैं, मेरी जान, 
उन्हें सिखा सकते हैं हम : 
          कैसे लड़ा जाए अपने लोगों के लिए 
          और कैसे -- दिन ब दिन थोड़ा और बेहतर 
                            थोड़ा और डूबकर -- 
                                                 किया जाए प्यार...   
                    :: :: :: 

6 अक्टूबर 1945 

बादल गुजरते हैं ख़बरों से लदे, बोझिल. 
अपनी मुट्ठी में भींच लेता हूँ वह चिट्ठी जो आई नहीं अभी तक. 
तुम्हारी पलकों की नोक पर टंगा है मेरा दिल, 
          दुआ देता हुआ उस धरती को जो गुम होती जा रही है बहुत दूर. 
मैं जोर से पुकारना चाहता हूँ तुम्हारा नाम : "पिराए, 
                                                                            पिराए !"
                    :: :: :: 

Tuesday, July 26, 2011

निज़ार कब्बानी की कविता

निजार कब्बानी के 'सौ प्रेम पत्र' से एक और कविता... 



निज़ार कब्बानी की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैं तुमसे प्यार करता हूँ 
मगर खेल नहीं खेलता 
प्यार का.
तुमसे लड़ता नहीं 
जैसे बच्चे लड़ते हैं 
समुन्दर की मछलियों के लिए, 
लाल मछली तुम्हारी,
नीली वाली मेरी.
ले लो सारी लाल और नीली मछलियाँ 
मगर बनी रहो मेरी महबूबा. 
पूरा समुन्दर ले लो,
जहाज़, 
और मुसाफिर, 
मगर बनी रहो मेरी महबूबा. 
मेरी सारी चीजें ले लो 
सिर्फ एक कवि हूँ मैं 
मेरी सारी दौलत है 
अपनी कापी 
और तुम्हारी खूबसूरत आँखों में. 
                    :: :: :: 

Monday, July 25, 2011

अडोनिस : रात कागज़ थी और हम थे रोशनाई


'शुरुआतें' श्रृंखला से अडोनिस की दो और कविताएँ... 












रास्ते की शुरूआत 

रात कागज़ थी और हम थे 
                    रोशनाई :

-- "तुमने एक आदमी का चेहरा बनाया या फिर एक पत्थर?"
-- "तुमने एक औरत का चेहरा बनाया या फिर एक पत्थर?" 
                    मैनें जवाब नहीं दिया 
                    न ही उसने जवाब दिया. हमारे प्यार ने 

कहीं पैठ नहीं है हमारी खामोशी की 
हमारे प्यार की तरह, उस तक भी कोई रास्ता नहीं जाता.  
                    :: :: :: 

हवा की शुरूआत 

"रात की देंह"
                    वह बोली 
                    "एक मकान है 
          जख्मों का और उनके समय का..." 

हमने शुरूआत की जैसे सुबह शुरू होती है.               हम छाया की तरफ गए और हमारे ख्वाब उलझ गए. 
सूरज खिलाता है कलियों को : "झाग आएगा 
समुन्दर जैसे कपड़े पहनकर" --   
                                                    हमने  कोशिश की 
अपनी दूरियां नापने की.               हम उठे 
और हवा को देखा हमारे निशान मिटाते हुए. 
                                                    फुसफुसाते हुए
हमने याद किया बीते दिनों को   
और जुदा हो गए. 
                    :: :: :: 
अली अहमद सईद अस्बार अदोनिस Ali Ahmad Said Esber Adunis 

Sunday, July 24, 2011

रोक डाल्टन की कविता


रोक डाल्टन की एक कविता...

 
अब तुम समझ सकती हो : रोक डाल्टन 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

अब समझ सकती हो, जो कुछ भी बनने की कामना करती थी तुम 
कालेज की बातचीत में 
क्यों एक बेवतन शख्स की महबूब बन बैठी 

तुम जो हवाई जहाज से सैर करने जा रही थी यूरोप की 
तीन या चार इज्जतदार बुजुर्गों से मिली विरासत की बिना पर 
तुम जो बैठी होती हो एक लम्बी लिमोजिन गाड़ी में 
फर के गमकते कोट और चांदी के बड़े-बड़े कंगन पहने हुए 
मगर सबसे बढ़कर 
पूरे शहर में सबसे शानदार आँखों वाली तुम 
जो सोई पड़ी हो इस वक़्त 
इस गरीब तन्हा इंसान की बाहों में. 

मुझे दिख रहा है चमकता हुआ नन्हा क्रास तुम्हारी छाती पर 
और दीवार पर मार्क्स की अपनी तस्वीर 
और लग रहा है कि सारी चीजों के बावजूद 
खूबसूरत है ज़िंदगी.   
                    :: :: :: 

Saturday, July 23, 2011

वेरा पावलोवा की कविता

वेरा पावलोवा की एक कविता... 









वेरा पावलोवा की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मुझे लगता है सर्दियों तक आ पाएगा वह. 
सड़क की असहनीय सफेदी से 
एक बिंदु उभरेगा, इतना काला कि आँखें धुंधला जाएं, 
और बहुत, बहुत देर तक पास आता रहेगा वह, 
धीमे-धीमे ख़त्म होती रहेगी उसकी गैरहाजिरी उसके आते जाने के अनुपात में, 
और बहुत, बहुत देर तक बना रहेगा वह एक बिंदु ही. 
धूल का कोई कण? आँख में कोई जलन? और बर्फ, 
कुछ और नहीं सिर्फ बर्फ होगी वहां, 
और बहुत, बहुत देर तक कुछ नहीं होगा वहां, 
हटा देगा वह बर्फीला परदा, 
वह आकार हासिल करेगा और तीन आयाम, 
पास आता जाएगा, पास, और पास...
बस यह हद है, और पास नहीं आ सकता वह, मगर 
          वह आता जाएगा,
फिर इतना बड़ा कि नामुमकिन होगा मापना... 
                    :: :: :: 

Friday, July 22, 2011

येहूदा आमिखाई की तीन कविताएँ

येहूदा आमिखाई की कुछ और कविताएँ... 
















मेयर 

तकलीफदेह है 
येरूशलम का मेयर होना -- 
भयानक है.
कोई कैसे हो सकता है ऐसे किसी शहर का मेयर?
वह इसका करेगा क्या?
बनाता जाए और बनाता जाए और बनाता जाए कुछ न कुछ. 

और रात में पहाड़ों के पत्थर ढुलक आते हैं नीचे 
घेर लेते हैं पत्थर के घरों को,
जैसे भेंडिए आते हों कुत्तों पर गुर्राने के लिए,
जो इंसानों के गुलाम बन बैठे हैं. 
                    :: :: :: 

किसी को भूलना 

किसी को भूलना उसी तरह है 
जैसे आप बत्ती बुझाना भूल जाएं मकान के पिछवाड़े की 
और वह रोशनी करती रहे अगले पूरे दिन. 

मगर यह रोशनी ही तो है 
जो आपको याद दिलाती है. 
                    :: :: :: 

एक अनंत खिड़की 

किसी बगीचे में मैनें सुना एक बार 
कोई गीत या प्राचीन आशीर्वाद. 
और काले पेड़ों के ऊपर 
हमेशा रोशन रहती है एक खिड़की, 
उस चेहरे की स्मृति में जो उससे बाहर झांका करता था,
और वह चेहरा भी 
स्मृति में था 
एक दूसरी रोशन खिड़की की. 
                    :: :: ::  

(अनुवाद : मनोज पटेल)

येहूदा आमिखाई : तुम हमेशा रहती हो मेरी आँखों में


येहूदा आमिखाई की कविता... 


तमर के लिए गीत : येहूदा आमिखाई 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

धीरे से बोलती है बारिश : 
अब सो सकते हो तुम. 

मेरे बिस्तर के बगल -- एक अखबार के फड़फड़ाते पंख. 
कोई और फ़रिश्ता नहीं. 

मैं जल्दी जाग जाऊंगा और कुछ रिश्वत दे दूंगा शुरू होने वाले दिन को, 
ताकि वह अच्छा रहे हमारे लिए. 

तुम्हारी हँसी अंगूर जैसी है :
ढेर सारी, हरी और गोल. 

तुम्हारी देंह भरी हुई है छिपकलियों से;
वे सब प्यार करती हैं सूरज से. 

फूल उगते हैं खेतों में, और मेरे गालों पर घास. 
कुछ भी हो सकता है. 


तुम हमेशा रहती हो 
मेरी आँखों में. 

हमारे साथ-साथ बिताए गए हर दिन के लिए 
डेविड का बेटा कोहेलेथ मिटा देता है एक पंक्ति अपनी किताब से. 

हम बचाव के सबूत हैं इस भयानक मुक़दमे में. 
हम बरी करा देंगे उन सभी को ! 
                    :: :: :: 

नाजिम हिकमत : तुम्हें याद करना खूबसूरत है

नाजिम हिकमत की 'रात 9 से 10 के बीच की कविताएँ' से कुछ कविताएँ आप यहाँ पहले पढ़ चुके हैं. आज उसी सिलसिले से कुछ और कविताएँ... 












रात 9 से 10 के बीच लिखी गई कविताएँ - 2 : नाजिम हिकमत 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

(पत्नी पिराए के लिए)

25 सितम्बर 1945 

नौ बज गए हैं. 
चौराहे का घंटाघर बजा रहा है गजर,
बंद ही होने वाले होंगे बैरक के दरवाजे. 
कैद कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गई इस बार :
                                        आठ साल...
ज़िंदगी उम्मीद का ही दूसरा नाम है, मेरी जान.
ज़िंदा रहना भी, तुम्हें प्यार करने की तरह
संजीदा काम है.   
                    * * *

26 सितम्बर 1945 

उन्होंने हमें पकड़कर बंदी बना लिया,
मुझे चारदीवारी के भीतर,
और तुम्हें बाहर. 
मगर ये तो कुछ भी नहीं. 
इससे भी बुरा तो तब होता है 
जब लोग -- जाने या अनजाने -- 
अपने भीतर ही जेल लिए फिरते हैं... 
ज्यादर लोग ऎसी ही हालत में हैं,
ईमानदार, मेहनतकश, भले लोग 
जो उतना ही प्यार किए जाने के काबिल हैं,
जितना मैं तुम्हें करता हूँ. 
                    * * *  

30 सितम्बर 1945 

तुम्हें याद करना खूबसूरत है,
और उम्मीद देता है मुझे,
जैसे सबसे खूबसूरत गीत को सुनना 
दुनिया की सबसे मधुर आवाज़ में. 
मगर सिर्फ उम्मीद ही मेरे लिए काफी नहीं. 
अब गीत सुनते ही नहीं रहना चाहता मैं -- 
गाना चाहता हूँ उन्हें. 
                    * * * 

Thursday, July 21, 2011

निज़ार कब्बानी : जब तुम आई किसी कविता की तरह


निज़ार कब्बानी की कविता 'सौ प्रेम पत्र' से कुछ और कविताएँ... 











सौ प्रेम पत्र  : निज़ार कब्बानी  
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मार्च की उस सुबह जब चलकर तुम मेरे पास आई 
किसी कविता की तरह 
धूप आई तुम्हारे साथ और बहार आई. 
हरे हो गए 
मेरी मेज पर रखे सारे कागज़ 
और पीने के पहले ही खाली हो गया 
सामने रखा काफी का कप, 
तुम्हें देखते ही 
दीवार पर लगी पेंटिंग के 
दौड़ते हुए घोड़े 
छोड़ कर मुझे 
भाग गए तुम्हारी तरफ. 
:: :: :: 

मैं कोई बादशाह नहीं हूँ, 
न ही किसी शाही खानदान का, 
मगर यह ख्याल कि तुम मेरी हो 
मुझे एहसास कराता है,
कि जैसे पांचो महाद्वीपों पर हो मेरी सत्ता,
जैसे बारिश हो मेरे काबू में, 
और हवा के रथ मेरे वश में हों,
जैसे सूरज के ऊपर 
हजारों एकड़ जमीन पर हो मेरा कब्जा, 
जैसे उन लोगों पर हो मेरी हुकूमत 
जो कभी किसी के अधीन नहीं रहे, 
और लगता है मैं खेल रहा होऊँ सौर मंडल के सितारों से 
जैसे सीपियों से खेलता है कोई बच्चा. 
मैं कोई बादशाह नहीं हूँ 
न ही होना चाहता हूँ;
मगर जब महसूस करता हूँ 
अपनी हथेलियों पर तुम्हें सोते हुए 
लगता है 
रूस का जार हूँ मैं, 
और फारस का शाह. 
:: :: :: 

Wednesday, July 20, 2011

अडोनिस : शुरुआतें

अडोनिस की 'शुरुआतें' श्रृंखला से दो कविताएँ...










किताब की शुरूआत 

एक कर्ता या एक सर्वनाम -- 
          और समय है विशेषण.                    क्या?                          क्या तुमने कुछ कहा,
                    या कोई चीज 
                    तुम्हारे नाम से बोल रही है?

क्या उद्धृत किया जाए? रूपक एक परदा है   
          और परदा एक नुकसान -- 
          यह तुम्हारी ज़िंदगी है कब्जाई जा रही शब्दों द्वारा.   
          शब्दकोष अपने राज नहीं बताते.                   शब्द 
                    कोई जवाब नहीं देते, वे सवाल करते जाते हैं --                    नुकसान 
          और रूपक                                एक परिवर्तन 
          एक आग से दूसरी आग को 
          एक मौत से दूसरी मौत को. 

तुम वह उद्धरण हो जिसका अर्थ खोला जा रहा है,
          जन्म ले रहे हो हर व्याख्या में :
कोई तरीका नहीं 
तुम्हारे चेहरे को बयान करने का. 
                    :: :: :: 

प्रेम की शुरूआत 

आशिक अपने जख्म पढ़ते हैं, और हम उन्हें लिख देते हैं 
          किसी और युग की तरह, और फिर तस्वीर बनाते हैं 
          अपने समय की :
          मेरा चेहरा शाम है, तुम्हारी पलकें सुबह. 
हमारे कदम खून हैं और चाहत 
          उन्हीं की तरह. 

हर बार जब वे जगे, उन्होंने हमें नोच दिया
और फेंक दिया अपना प्रेम और फेंक दिया हमें -- 
जैसे हवा में एक फूल. 
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल)    

Tuesday, July 19, 2011

यासूनारी कावाबाता की कहानी


जापानी लेखक यासूनारी कावाबाता का परिचय और दो कहानियां आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. आज उनकी एक और कहानी...  


बाल : यासूनारी कावाबाता 

एक लड़की ने सोचा कि वह अपने बाल कटवा ले.

यह दूर पहाड़ियों पर बसे एक छोटे से गाँव की बात है. 

जब वह बाल काटने वाली लड़की के यहाँ पहुंची तो बहुत हैरान हुई. गाँव की सभी लड़कियां वहां जुटी थीं. 

उस शाम, जब लड़कियों के बेडौल केशविन्यास तराश कर सुन्दर कर दिए गए थे, गाँव में फौजियों की एक टुकड़ी पहुंची. गाँव की पंचायत ने उन्हें लोगों के घरों में ठहराया. हर घर में एक मेहमान रुका. मेहमान कभी-कभार ही आते थे और शायद यही वजह थी जो हर लड़की ने अपने बाल ठीक कराने चाहे थे. 

बेशक लड़कियों और फौजियों के बीच कुछ नहीं घटा. अगली सुबह, फौजियों की टुकड़ी गाँव छोड़कर पहाड़ियों के उस पार के लिए रवाना हो गई. 

खैर, थकी-मांदी बाल काटने वाली लड़की ने चार दिनों की छुट्टियां मनाने की सोचा. कड़ी मेहनत के बाद उमड़ने वाले खुशनुमा ख्यालों के साथ, उसी सुबह और उसी पहाड़ी से होते हुए जिससे फ़ौजी जा रहे थे, वह उनके आगे-पीछे एक घोड़ा गाड़ी से हिचकोले खाती हुई अपने प्रेमी से मिलने के लिए निकल पड़ी. 

जब वह पहाड़ियों के उस पार बसे थोड़ा बड़े गाँव में पहुंची तो वहां की बाल काटने वाली ने उससे कहा, "तुम्हें देखकर बहुत खुशी हुई. तुम बिलकुल ठीक वक़्त पर आई हो. जरा मेरी मदद करो." 

यहाँ भी आस-पास की लड़कियां अपने बाल ठीक करवाने के लिए इकट्ठा हुई थीं. 

फिर से दिन भर बेडौल बालों को तराशने-संवारने के बाद वह शाम को उस छोटी सी चांदी की खदान की तरफ निकली जहां उसका प्रेमी काम करता था. उससे मिलते ही वह बोली, "अगर मैं फौजियों के पीछे-पीछे लगी रहूँ तो बहुत जल्द अमीर हो जाऊंगी."

"फौजियों के पीछे-पीछे लगे रहने से ? ऐसे घटिया मजाक मत करो. पीली-भूरी वर्दियां पहने वे ढीठ लोग ? पूरी मूर्ख हो तुम."

उसके प्रेमी ने उसे एक जोर की लगाई.

एक प्यारे से एहसास के साथ, मानो उसकी थकी देंह सुन्न हो गई हो, उसने अपने प्रेमी को तरेर कर देखा. 

पहाड़ी पार कर उनकी तरफ बढ़े आ रहे फौजियों के बिगुल की साफ़ और जोशीली आवाज़ गाँव की सांझ में गूँज उठी.    
                                                        :: :: :: 

Monday, July 18, 2011

न्यूटन का सेब

फदील अल-अज्ज़वी की कविता...


न्यूटन का सेब : फदील अल-अज्ज़वी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

आइज़क न्यूटन ने, जिसने अपनी ज़िंदगी का ज्यादातर हिस्सा 
सार्वजनिक पार्कों में 
पेड़ों को 
ध्यान से देखते हुए बिताया था, 
एक दिन 
एक सेब को 
जमीन पर गिरते हुए देखा.
उसे याद आया 
कि जो चीज उसे जमीन से जोड़े हुई थी 
वह गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत नहीं था 
जिसे अभी-अभी उसने दुर्घटनावश खोज लिया था,
बल्कि यह उम्मीद थी 
कि सेब 
ऊपर की तरफ गिरेगा. 
                    :: :: :: 

Saturday, July 9, 2011

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : लाग बुक

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक कविता, 'लाग बुक'...


लाग बुक : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)

लाग बुक में लिखा है 
यह जहाज़ डूब चुका है 

जहाज़ डूब चुका है 
और समुन्दर ज़िंदा है 
और नमकीन 
और उन मछलियों से भरा हुआ है 
जिनको इस जहाज के डूबने का यकीन अभी नहीं आया 

लाग बुक में जहाज़ डूबने के इंदराज के बाद 
मेरे दस्तख़त हैं 
जिनकी स्याही मेरे हाथों में महफ़ूज़ है 

क्या इसी का नाम मौत है 
क्या यह किसी और जहाज़ की लाग बुक है 
क्या मैं किसी और जहाज़ का नाखुदा हूँ 
क्या तमाम लागबुकों में यही लिख दिया जाता है 
"यह जहाज़ डूब चुका है"

मगर यह जहाज़ डूब चुका है 
उसपर कोई मुसाफ़िर, कोई मल्लाह, कोई सामान नहीं है 
एक डूबे हुए जहाज़ को 
किसी बंदरगाह पर उतारने की ज़िम्मेदारी 
किसी भी नाखुदा पर आयद नहीं होती 
मैं इस जहाज को छोड़कर कहीं भी जा सकता हूँ 
और मरने से पहले 
यह जान सकता हूँ 
कि समुन्दर ज्यादा से ज्यादा कितना नमकीन हो सकता है 
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