Monday, December 31, 2012

पाब्लो नेरुदा : यदि हर दिन

पाब्लो नेरुदा की एक और कविता...    


यदि हर दिन : पाब्लो नेरुदा 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यदि हर दिन पड़े 
हर रात के भीतर, 
तो एक कुआँ होगा वहां 
जहां कैद होगी स्पष्टता. 
बैठना होगा हमें 
अंधकार के कुएँ की जगत पर 
और जाल डालकर पकड़ना होगा गिरी हुई रोशनी 
धैर्य के साथ. 
:: :: :: 

Saturday, December 22, 2012

दून्या मिखाइल : झूलने वाली कुर्सी

दुन्या मिखाइल की इस कविता का मेरा अनुवाद भी लगभग दो साल पहले 'नई बात' ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था.   
झूलने वाली कुर्सी : दून्या मिखाइल 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

जब वे आए, 
बड़ी माँ वहीं थीं 
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक 
झूलती रहीं वे...
अब 
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे 
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला 
छोड़कर इस कुर्सी को 
झूलते हुए.
         :: :: ::  

Wednesday, December 19, 2012

माइआ अंजालो की कविता


कोई दो साल पहले यह अनुवाद 'नई बात' ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था. आज इसे फिर से साझा करने का मन हुआ...    


मैं हूँ कि उठती जाती हूँ : माइआ अंजालो 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम दर्ज कर सकते हो मेरा नाम इतिहास में
अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
कुचल सकते हो मुझे गन्दगी में
लेकिन फिर भी धूल की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.

क्या मेरी बेबाकी परेशान करती है तुम्हें ?
क्यों घिरे बैठे हो उदासी में ?
क्योंकि मैं यूँ इतराती चलती हूँ
गोया कोई तेल का कुआं उलीच रहा हो तेल
मेरी बैठक में.

जैसे उगते हैं चाँद और सूरज
जैसे निश्चितता से उठती हैं लहरें
जैसे उम्मीदें उछलती हैं ऊपर
उठती जाउंगी मैं भी.

क्या टूटी हुई देखना चाहते थे तुम मुझे ?
झुका सर और नीची निगाहें किए ?
आंसुओं की तरह नीचे गिरते कंधे
अपने भावपूर्ण रुदन से कमजोर.

क्या मेरी अकड़ से ठेस पहुँचती है तुम्हें ?
क्या तुम पर बहुत भारी नहीं गुजरता
कि यूँ कहकहे लगाती हूँ मैं
गोया मेरे घर के पिछवाड़े सोने की खदान में हो रही हो खुदाई

तुम शब्दों के बाण चला सकते हो मुझ पर
चीर सकते हो मुझे अपनी निगाहों से
अपनी नफरत से कर सकते हो क़त्ल
फिर भी हवा की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.

क्या मेरी कामुकता परेशान करती है तुम्हें ?
क्या तुम्हें ताज्जुब होता है कि
मैं यूँ नाचती फिरती हूँ
गोया हीरे जड़े हों मेरी जांघों के संधि-स्थल पर ?

इतिहास के शर्म के छप्परों से
मैं उड़ती हूँ
दर्द में जड़ जमाए अतीत से
मैं उगती हूँ

एक सियाह समंदर हूँ मैं उछालें मारता और विस्तीर्ण
जज़्ब करता लहरों के उठने और गिरने को

डर और आतंक की रातों को पीछे छोड़ते
मैं उड़ती हूँ
आश्चर्यजनक रूप से साफ़ एक सुबह में
मैं उगती हूँ

उन तोहफों के साथ जो मेरे पुरखों ने मुझे सौंपा था
मैं उठती हूँ

मैं ही हूँ सपना और उम्मीद गुलामों की
मैं उड़ती हूँ
मैं उगती हूँ
मैं उठती हूँ. 
               :: :: :: 

Tuesday, December 18, 2012

ताहा मुहम्मद अली : एयरपोर्ट पर एक मुलाक़ात

फिलिस्तीनी कवि ताहा मुहम्मद अली की एक और कविता...   


एयरपोर्ट पर एक मुलाक़ात : ताहा मुहम्मद अली 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक बार तुमने पूछा था मुझसे, 
सुबह के वक़्त 
झरने की सैर से 
लौटते हुए: 
"तुम्हें किस चीज से नफरत है, 
और किससे है प्यार?" 

और जवाब दिया था मैंने, 
अपनी हैरत की 
पलकों के पीछे से, 
मेरा खून दौड़ता हुआ 
चिड़ियों के बादल से 
बन रही परछाईं की तरह: 
"मुझे जुदाई से है नफरत... 
और प्यार है झरने, और 
झरने तक के रास्ते से, 
और इबादत करता हूँ मैं 
सुबह के वक़्त की." 
और तुम हँसी थी... 
और फूल खिल उठे थे बादाम के पेड़ों में 
बुलबुलों के गान से गूँज उठा था झुरमुट. 

...एक सवाल 
आज चार दशक पुराना: 
मैं सलाम करता हूँ उस सवाल के जवाब को; 
और एक जवाब 
तुम्हारी जुदाई जितना ही पुराना; 
सलाम करता हूँ मैं उस जवाब के सवाल को... 

और आज, 
कितना अजीब है यह, 
एक दोस्ताना एयरपोर्ट पर मौजूद हैं हम, 
और कैसा दुर्लभ संयोग 
कि मुलाक़ात होती है हमारी. 
उफ़ मेरे मालिक! 
आमना-सामना हो गया हमारा. 
एक और 
बिल्कुल अजीब बात 
कि मैं तो पहचान गया तुमको 
मगर तुम नहीं पहचान पाई मुझे. 
पूछती हो तुम, 
"क्या तुम्हीं हो?!" 
पर विश्वास नहीं होता तुम्हें. 
और अचानक 
बोल फूटते हैं तुम्हारे: 
"अगर सचमुच ये तुम हो 
तो बताओ मुझे 
कि तुम्हें किस चीज से नफरत है 
और किससे है प्यार?!" 

और मेरा खून दौड़ता हुआ मेरे भीतर 
चिड़ियों के बादल से 
बन रही परछाईं की तरह 
जैसे निकल जाता है हाल से बाहर, 
और जवाब देता हूँ मैं: 
"मुझे जुदाई से है नफरत, 
और प्यार है झरने, और 
झरने तक के रास्ते से, 
और इबादत करता हूँ मैं 
सुबह के वक़्त की." 

और तुम रोईं, 
और फूलों ने झुका लिए अपने सर, 
और अपने गम में डूबे सिसकने लगे कपोत. 
               :: :: :: 

Tuesday, December 11, 2012

अलीना माल्दोवा है मेरा नाम

क्रिस्टीना टोथ की तीन कविताओं की सीरीज 'पूर्वी यूरोप : त्रिफलक' से एक और कविता...   


पूर्वी यूरोप   त्रिफलक : क्रिस्टीना टोथ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अलीना माल्दोवा है मेरा नाम. 
पूर्वी यूरोप की हूँ मैं, 
मेरी लम्बाई है 170 सेंटीमीटर 
और जीवन-प्रत्याशा 56 साल. 
दांतों में चांदी भरवा रखी है मैंने 
और एक आनुवांशिक डर ढोती रहती हूँ अपनी छाती में. 
जब बोलती हूँ अंग्रेजी तो कोई नहीं समझ पाता मेरी बात, 
जब बोलती हूँ फ्रेंच तो कोई नहीं समझ पाता मेरी बात, 
सिर्फ डर की भाषा ही है 
जिसे मैं बोलती हूँ बिना किसी स्वराघात के. 

अलीना माल्दोवा है मेरा नाम. 
एक मानव-रहित रेलवे-क्रासिंग हैं मेरे हृदय के वाल्व, 
जहर दौड़ा करता है मेरी रगों में, 
56 साल है मेरी जीवन-प्रत्याशा. 
मैं पाल रही हूँ अपने दस साल के बेटे को, 
थोड़ा सा आटा मिल जाता है मुझे, चलती हुई ट्रेनों पर चढ़ती हूँ मैं. 
चाहे मारो तुम मुझे, चाहे झकझोरो 
बस थोड़ा सा झनझनाती है मेरी झुमकी, 
जैसे कोई ढीला पुर्जा 
अभी तक चल रही एक मोटर का. 
                  :: :: :: 

Monday, December 3, 2012

क्रिस्टीना टोथ की कविता

क्रिस्टीना टोथ हंगरी की जानी-मानी कवयित्री हैं. हंगरी साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक लारीअट पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित. फिलहाल बुडापेस्ट में रहती हैं जहां कविताओं के लेखन और अनुवाद के अतिरिक्त स्टेंड ग्लास विंडोज की डिजायनिंग भी करती हैं. यहाँ उनकी तीन कविताओं की एक सीरीज 'पूर्वी यूरोप : त्रिफलक' से एक कविता प्रस्तुत है...    

पूर्वी यूरोप   त्रिफलक : क्रिस्टीना टोथ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

लाउडस्पीकर पुकारता है हमारा नाम 
और हम खड़े हो जाते हैं उछलकर. गलत हिज्जे लिखे जाते हैं 
हमारे नाम के और गलत उच्चारण किया जाता है उनका, 
मगर हम मुस्कराया करते हैं शालीनतापूर्वक. 
हम साबुन उठा लाते हैं होटल से, 
और बहुत पहले पहुँच जाते हैं स्टेशन. 
भारी सूटकेस उठाए, ढीली-ढाली पतलूनों में, 
हर कहीं मंडराया करता है हमारा एक हमवतन. 
ट्रेन गलत दिशाओं में लेकर चली जाती हैं हमें, 
और जब पैसे देते हैं हम, इधर-उधर लुढ़का करती है रेजगारी. 

हम डरे होते हैं अपनी सरहदों पर, और गुम हो जाते हैं 
उनके आगे, मगर पहचानते हैं एक-दूसरे को. 
हम परिचित हैं दुनिया के दूसरे हिस्से से, 
कोट के नीचे पसीने से तर कपड़ों से. 
स्वचालित सीढ़ियाँ होती हैं हमारे नीचे, 
ठसाठस भरे होते हैं शापिंग बैग, और हमारे जाते समय 
बज उठता है अलार्म. 
हमारी चमड़ी के नीचे, चमक बिखेरते एक रत्न की तरह 
एक माइक्रोचिप है किसी अपराध-बोध की. 
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