Saturday, March 31, 2012

सेंसरशिप पर चार्ल्स बुकावस्की


१९८५ में एक स्थानीय पाठक की शिकायत पर नयमेंखन सार्वजनिक पुस्तकालय से चार्ल्स बुकावस्की की एक किताब 'टेल्स आफ आर्डिनरी मैडनेस' को "सैडिस्टिक, फासिस्ट और अश्वेतों, स्त्रियों एवं समलैंगिकों के प्रति भेदभावपूर्ण सोच रखने वाली" घोषित करते हुए हटा दिया गया. एक स्थानीय पत्रकार ने इस मसले पर बुकावस्की की राय जाननी चाही. जवाब में बुकावस्की ने यह पत्र भेजा: 

 
सेंसरशिप पर चार्ल्स बुकावस्की 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

२२-७-८५ 

प्रिय हांस वान देन ब्रूक:

नयमेंखन पुस्तकालय से मेरी किताब के हटाए जाने की सूचना देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. आपके पत्र से यह भी ज्ञात हुआ कि उस किताब पर अश्वेतों, स्त्रियों एवं समलैंगिकों के प्रति भेदभावपूर्ण सोच रखने का आरोप लगाया गया है, और परपीड़न-सुख के चित्रण के कारण वह परपीड़क है. 

जिस विषय पर पक्षपाती होने से मैं डरता हूँ, वह है हास्य-विनोद एवं सत्य. 

यदि स्त्रियों, अश्वेतों एवं समलैंगिकों के बारे में मैं बहुत खराब लिखता हूँ तो ऐसा इसलिए है कि जिनसे भी मैं मिला वे वैसे ही थे. दुनिया में बहुत सी 'बुरी चीजें' हैं - बुरे कुत्ते, बुरी सेंसरशिप; और "बुरे" श्वेत पुरुष भी. शिकायत केवल तब नहीं होती जब आप बुरे श्वेत पुरुषों के बारे में लिखते हैं. और क्या मुझे यह भी कहने की जरूरत है कि 'अच्छे' अश्वेत, 'अच्छे' समलैंगिक एवं 'अच्छी' स्त्रियाँ भी होती हैं? 

एक लेखक के रूप में मैं जो करता हूँ वह यह कि मैं जो भी देखता हूँ, शब्दों में उसकी तस्वीर भर उतार देता हूँ. यदि मैं 'सैडिज्म' के बारे में लिखता हूँ तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वह मौजूद है, मैनें उसका आविष्कार नहीं किया और यदि मेरी किसी कृति में कोई भयावह कृत्य घटित होता है तो इसलिए क्योंकि ऎसी चीजें हमारे जीवन में घटित होती हैं. यदि ऎसी कोई चीज बुराई के रूप में प्रचलित हो तो मैं बुराई की तरफ नहीं हूँ. अपने लेखन में, जो कुछ भी घटित होता है, उससे मैं हमेशा सहमत नहीं होता, न ही मैं सिर्फ उसी के लिए कीचड़ में लोट रहता हूँ. मेरे लेखन की निंदा करने वाले लोग न जाने क्यों खुशी, प्रेम और उम्मीद से सम्बंधित अंशों को नजरअंदाज कर देते हैं, जबकि ऐसे अंश मौजूद हैं. मेरे दिनों, मेरे सालों, मेरी ज़िंदगी ने काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं, अँधेरे और रोशनियाँ देखी हैं. यदि मैं लगातार सिर्फ "रोशनी" के बारे में ही लिखता और दूसरे पक्ष का कभी जिक्र भी न करता तो एक कलाकार के रूप में मैं झूठा होता. 

सेंसरशिप उन लोगों का औजार है जिन्हें अपने आप से और दूसरों से असलियत को छिपाने की जरूरत होती है. उनका डर महज सच्चाई का सामना करने की उनकी असमर्थता है और मैं उनके विरुद्ध कोई नाराजगी नहीं प्रकट कर सकता. मैं तो बस इस भयावह उदासी से घिर गया हूँ. उनकी परवरिश में कहीं न कहीं, उन्हें हमारे अस्तित्व की समस्त सच्चाइयों से बचाकर रखा गया. जब तमाम पहलू मौजूद थे तब उन्हें सिर्फ एक पहलू को देखना सिखाया गया.   

मैं हताश नहीं हूँ कि मेरी एक किताब को नुकसान पहुंचाया गया है और एक स्थानीय पुस्तकालय की आल्मारी से उसे हटा दिया गया है. एक तरीके से मैं सम्मानित महसूस करता हूँ कि मैनें ऐसा कुछ लिखा है जिसने इन्हें अपनी आरामदेह जड़ता से जगाने का काम किया है. मगर हाँ, मुझे तब पीड़ा होती है जब किसी और की किताब को प्रतिबंधित किया जाता है और जो सामान्यतः महान किताब होती है. ऎसी बहुत सी किताबें हैं जिन्होनें समय के साथ क्लासिक का दर्जा प्राप्त कर लिया है और जिसे कभी अप्रीतिकर एवं अनैतिक माना जाता था उन्हें अब हमारे तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने की जरूरत महसूस होती है.  

मैं यह नहीं कह रहा कि मेरी किताब भी उसी दर्जे की है, बल्कि मैं यह कह रहा हूँ कि हमारे दौर में, इस पल जबकि कोई भी पल हममें से बहुतों का आखिरी पल साबित हो सकता है, यह अत्यंत कष्टकर और अत्यधिक उदास कर देने वाला तथ्य है कि अब भी हमारे बीच तुच्छ, तिक्त, कुतर्की और मानवता व संस्कृति के तथाकथित रक्षक लोग मौजूद हैं. यद्यपि वे भी हमसे ही जुड़े हुए हैं और समूची दुनिया का एक हिस्सा हैं, और यदि मैनें उनके बारे में न लिखा होता तो मुझे लिखना चाहिए था, शायद यहीं, और यही काफी है. 

हम सभी साथ-साथ बेहतर हों, 
आपका,
 
(दस्तखत)
चार्ल्स बुकावस्की 

Friday, March 30, 2012

महमूद दरवेश : इंतज़ार करते वक़्त

महमूद दरवेश की एक और कविता...   

 
इंतज़ार करते वक़्त : महमूद दरवेश 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

इंतज़ार करते वक़्त मुझे जूनून सा हो जाता है तमाम संभावनाओं पर 
गौर करने का: क्या पता वह ट्रेन में ही भूल गई हो 
अपना छोटा सा सूटकेस, और गुम हो गया हो मेरा पता 
और उसका मोबाइल फोन भी, उसकी इच्छा न रह गई हो 
और कहा हो उसने: इस बूंदा-बांदी में मैं क्यों भीगूँ उसके लिए / 
या शायद किसी जरूरी काम में व्यस्त हो गई हो वह, या निकल गई हो 
दक्खिन की तरफ सूरज से भेंट करने के लिए, और फोन किया हो मुझे 
और मुझसे बात न हो पाई हो सुबह-सुबह, क्योंकि मैं तो चला गया था 
गार्जीनिया के कुछ फूल और वाइन की दो बोतलें खरीदने के लिए
अपनी शाम के वास्ते  / 
या फिर शायद कोई झगड़ा था उसका अपने पूर्व-पति से 
कुछ यादों को लेकर, और कसम खा ली हो उसने किसी मर्द से न मिलने की 
जिससे डर हो उसे कुछ नई यादों के पैदा होने का / 
या दुर्घटनाग्रस्त हो गई वह एक टैक्सी में मुझसे मिलने आते समय 
जिसने बुझा दिए हों उसकी आकाश गंगा के कुछ सितारे 
और अब भी उसका इलाज चल रहा हो शांतिकर दवाओं और नींद से / 
या क्या पता बाहर निकलने के पहले उसने आईना देखा हो खुद से ही 
और महसूस किया हो दो नाशपातियों को लहरें पैदा करती हुईं 
अपनी रेशमी पोशाक में, फिर आह भरी हो और हिचकिचाई हो: 
क्या मेरे अलावा कोई और मेरे स्त्रीत्व का हकदार हो सकता है / 
या शायद संयोगवश ही वह टकरा गई हो एक पुराने प्यार से 
जिससे उबर न सकी हो अभी तक, और उसके साथ चली गई हो डिनर पर / 
या क्या पता मर ही गई हो वह, 
क्योंकि मौत को भी अचानक होता है प्यार, मेरी तरह 
और मेरी तरह मौत को भी पसंद नहीं इंतज़ार 
                    :: :: :: 

Thursday, March 29, 2012

शेल सिल्वरस्टाइन : अगर-मगर-तगर

अमेरिकी कवि शेल सिल्वरस्टाइन की एक कविता...    

 
अगर-मगर-तगर : शेल सिल्वरस्टाइन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अगर-मगर-तगर 
तीनों लेटे हुए थे धूप में 
बातें करते हुए 
जो किया होता उन्होंने अगर-मगर-तगर...
लेकिन भाग कर छिप गए 
तीनों अगर-मगर-तगर 
जब दिखाई दिया 
एक नन्हा सा कर गुजर. 
               :: :: :: 

Wednesday, March 28, 2012

राबर्तो हुआरोज़ : पोर्चिया की स्मृति में

आज प्रस्तुत है एंतोनियो पोर्चिया की स्मृति में लिखी गई राबर्तो हुआरोज़ की 'एलेवेंथ वर्टिकल पोएट्री' में संकलित यह कविता...   

 
राबर्तो हुआरोज़ की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

हर कविता हमें मजबूर करती है पिछली कविता को भूलने के लिए, 
मिटा देती है सारी कविताओं का इतिहास, 
मिटा देती है अपना इतिहास 
और यहाँ तक कि मनुष्य का इतिहास भी 
शब्दों का एक चेहरा हासिल करने के लिए 
जिसे मिटा न पाए रसातल.  

कविता का हर शब्द भी 
हमें मजबूर करता है पिछले शब्द को भूलने के लिए, 
भाषा के बहुरूपी संदूक से 
काट देता है एक पल को 
और उसके बाद पुनः भिड़ता है दूसरे शब्दों से 
एक अन्य भाषा के उदघाटन की 
अनिवार्य रस्म को पूरा करने के लिए. 

और कविता की हर खामोशी भी 
कविता के इस महान विस्मरण में  
हमें मजबूर करती है पिछली खामोशी को भूलने के लिए 
और तब तक सिमटती जाती है शब्द दर शब्द, 
जब तक कि दुबारा उभरकर वह ढँक नहीं लेती कविता को 
किसी सुरक्षा लबादे की तरह 
जो बचाए रहता है उसे किसी अन्य कथन से. 

यह अजीब नहीं है. 
गहराई से देखें तो, 
हर व्यक्ति हमें मजबूर करता है पिछले व्यक्ति को भूलने के लिए, 
मजबूर करता है सभी अन्य व्यक्तियों को भूल जाने के लिए. 

अगर कोई चीज दुबारा वही नहीं रहती, 
तो सभी चीजें अंतिम हैं. 
अगर कोई चीज दुबारा वही नहीं रहती, 
तो सभी चीजें पहली हैं. 
                                                    (एंतोनियो पोर्चिया की अमिट स्मृति में) 
                    :: :: ::

Tuesday, March 27, 2012

डब्लू. एस. मर्विन : जुदाई

डब्लू. एस. मर्विन की एक कविता...   

 
जुदाई : डब्लू. एस. मर्विन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम्हारी जुदाई गुजर गई है मेरे भीतर से 
जैसे धागा किसी सूई में से. 
इसी के रंग से सिला होता है मेरा हर काम.  
                    :: :: :: 

एंतोनियो पोर्चिया के साथ एक मुलाक़ात


एंतोनियो पोर्चिया के साथ इनेस मालिनोव की एक मुलाक़ात...   


एंतोनियो पोर्चिया के साथ एक मुलाक़ात : इनेस मालिनोव 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

"मैं कविता की तलाश नहीं करता; वह मेरे पास आती है." 
                                                        -- एंतोनियो पोर्चिया 

ओलीवस स्थित एंतोनियो पोर्चिया के छोटे से घर के बगीचे में एक रहस्यमयी काली बिल्ली हमें देख रही है. दिन के ग्यारह बजे हैं. चार साफ़-सुथरे कमरों में तमाम पेंटिंग्स लगी हैं. पोर्चिया बताते हैं, "मेरे कई दोस्त पेंटर हैं... यह उसी की फसल है." उनकी कोई पत्नी या बच्चे नहीं हैं. वे खुद भी किसी चीज के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हैं. वे अपनी किताब के बारे में बातें करते हैं. आप इसे आवाजें  क्यों कहते हैं? वे जवाब देते हैं, "बड़ा मुश्किल है कुछ कहना. हर चीज सुनी जाती है. लोग भी हर चीज को सुनते हैं." पोर्चिया इसी तरह आम तौर पर सूक्तिपूर्ण ढंग से ही कोई बात कहते हैं. उनके हाथ कांपा करते हैं. वे माफी मांगते हैं, "मैं नर्वस हो रहा हूँ. मैं हमेशा नर्वस रहता हूँ." हालांकि माफी तो दरअसल हमें मांगनी चाहिए, हम यानी एक पत्रकार और एक फोटोग्राफर जो एक ऎसी भरपूर और गहरी ज़िंदगी को दर्ज करने के लिए बेचैन हैं जो शायद ही कभी लोगों तक पहुंची हो. यह कोई सनसनी नहीं, बल्कि एक राज है. कवि बताता है, "ज़िंदगी का राज? चीजें बदलती हैं, हम सभी बदल जाते हैं. कोई राज नही है. कौन जान सकता है इसे?" और "कोई कभी नहीं जान पाता, और बहुत कम जानना भी चाहता है जिससे कि बेचैनी की व्याख्या हो जाए." उनका चेहरा एक ऎसी रोशनी से चमक उठता है जिसने बहुत कुछ देखा है; वे हँसते हैं और एक किताब उठाकर पढ़ने लगते हैं. उन्हें अपने ख्यालों को पढ़ना पसंद है. वे शुरू करते हैं, "किसी समय, किसी अनंतता में, क्या ऐसा हो सकता है कि चीजें, चीजें ही रही हों न कि चीजों की स्मृति?" खुद को बिलकुल सहज-सरल तरीके से अभिव्यक्त करने के लिए वे किसी अभिनेता की तरह पढ़ते हैं, मगर फिर भी हमेशा, तब भी जब वे एक क्षण के लिए किताब पर गौर करने लगते हैं, ऐसा ही लगता है कि मानो वे अपने शब्दों को कहीं तलाशते रहते हों, शायद अपनी स्मृति में. वे अपने विचार को रटने के बाद बोलते हैं. उनके लिए पढ़ने का यही मतलब है. "मुझे नहीं लगता कि मैं अतियथार्थवादी हूँ. मुझे नहीं पता कि मैं खुद को कैसे परिभाषित करूँ क्योंकि मैं, कभी खुद मैं होता ही नहीं. हर कोई चीजों की एक अनंतता होता है. जहां तक निश्चितता की बात है... किसके पास है यह?"  वे अस्तित्व, समय, यथार्थता पर सवाल खड़े करते हैं. दस्तखतों से भरे एक बड़े से कागज़ पर लिखा हुआ है : "दार्शनिक एंतोनियो पोर्चिया के लिए." शायद यही कुंजी है: पोर्चिया अपने कवि जितने ही गूढ़ दार्शनिक भी हैं. अध्ययन और चिंतन उनके विचारों में झलकता है. "मैनें बहुत कम और बहुत बेतरतीबी से पढ़ा है." वे जल्दी से बताते हैं. उनमें बहुत शर्मीलापन और आत्मविश्वास है. वे कहते हैं, "मेरी किताब आवाजें लगभग मेरी आत्मकथा है. और वही लगभग सभी लोगों की है." और फिर वे अपनी ज़िंदगी के बारे में बताने लगते हैं. 

एंतोनियो पोर्चिया का जन्म १८८५ में इटली में हुआ था. वे पचास साल से अर्जेंटीना में रह रहे हैं. अब तक आपने अपनी जीविका कैसे कमाई? "मैं बहुत छोटा था जब मेरे पिता की मृत्यु हो गई. वे पचास साल के थे. इसीलिए मैनें कहा: 'मेरे पिता जब गए, मेरे बचपन को आधी सदी का तोहफा दे गए'. मैं कई भाई-बहनों में सबसे बड़ा था और मैनें बहुत काम किया. मेरी माँ मुझे बहुत प्यार करती थीं. मगर उसकी अच्छाई ने मुझे बहुत नुकसान पहुंचाया है. उसकी वजह से मैनें बहुत तकलीफें सही हैं. इसीलिए मैनें लिखा: 'मैं कोई चीज दुबारा नहीं चाहूंगा. माँ भी नहीं.' मैनें हर तरह के काम किए... और फिर अपने भाई के छापाखाने पर भी काम किया."  जब पोर्चिया बोलते हैं तो वह मर्मस्पर्शी होता है. वे सबकुछ जानने वाले और सबसे मासूम एक साथ लगते हैं. प्यार के बारे में उनका कहना है: "हाँ, मुझे पता नहीं. मुझे दो बार हुआ. ऎसी चीजें होती हैं, वे किसी एक के भीतर समाई हुई आती हैं. चूंकि वे तार्किक या सुव्यवस्थित नहीं होतीं इसलिए वे असंभव के भीतर आती हैं. असंभव अपने आपको अकेला कर लेता है, कोई उसे करता नहीं... मगर यही एक चीज है जिसका कोई महत्त्व है."  वे याद करते हैं कि यह उदासी और दूसरे का अकेलापन था जो उन्हें आकर्षित करता था. वे दोनों ऎसी स्त्रियाँ थीं जिनसे वे शुरूआत में प्यार नहीं कर पाए.. --फिर खासतौर पर पहली वाली को-- वे जीवनभर प्यार करते रहे. मगर उन्होंने कभी अकेला नहीं महसूस किया. "मेरे ढेर सारे दोस्त हैं. लोगों के साथ घुलना-मिलना मेरे लिए हमेशा बहुत आसान रहा है. कभी-कभी मैं तब अकेला महसूस करता हूँ जब कोई मेरे साथ होता है. जो कोई नहीं होता." 

दोपहर के समय को वे सेब खाने का समय मानते हैं. वे एक प्लेट में दो सेब लेकर आते हैं जिसे उन्होंने खुद पकाया है. सेब बहुत स्वादिष्ट हैं. वे उनमें चीज लगाते हैं. उनके वाक्य छोटे और सारगर्भित होते हैं. वे फिर से बताते हैं: "मैनें बहुत थोड़ा और बहुत बेतरतीब ढंग से पढ़ा है. मुझे चीजों से सुझाव मिला करते थे. मगर वह हर किसी के लिए नहीं है." वे सच कह रहे हैं; भले ही यह जानते-बूझते न हो, मगर वे अलग हैं. एक तरह से उन्हें पता है कि वे मूल्यवान हैं क्योंकि उनके अनुभव सबके अनुभव हैं. अस्तित्व अनंतता को ही दर्ज करता है. वे एक कलाकार हैं, अमूर्त वास्तविकताओं और मानव ह्रदय के जटिल और संवेदनशील अन्वेषक. मुझे उनसे पूछना पड़ता है, "पोर्चिया, क्या आप ईश्वर में भरोसा करते हैं?" वे मुस्कराते हुए जवाब देते हैं, "मैं ईश्वर में भरोसा नहीं करता मगर मैं उन्हें प्यार करता हूँ." 

वे मुझे बिलकुल नई Voices की पांडुलिपि दिखाते हैं. बिलकुल साफ़-सुथरी हस्तलिपि में उन्होंने अपनी कविताओं, अपने विचारों को लिख रखा है. वे स्कूल के दिनों की, रोशनाई में डुबो कर लिखने वाली एक कलम से लिखते हैं. वे ध्यान दिलाते हैं, "आप मेरे बारे में इतना कुछ जानते हैं मगर मुझे समझते नहीं. जानना, समझना नहीं होता. हो सकता है हम सबकुछ जानते हों मगर समझते कुछ भी न हों."  "ज्यादातर हमारा स्वयं होने का डर ही हमें आईने तक ले जाता है." "क्योंकि वे उसका नाम जानते हैं जो मैं ढूंढ़ रहा हूँ, उन्हें लगता है कि वे जानते हैं कि मैं क्या ढूंढ़ रहा हूँ." "यह पल अभी, अनंतता बाद में. पल और अनंतता. केवल पल ही समय है, अनंतता समय नहीं है. अनंतता पल की स्मृति है." "जो आग से आग तक घूमता रहता है, ठण्ड से मर जाता है." 

एंतोनियो पोर्चिया मर्मस्पर्शी और अद्भुत हैं. सब के बारे में उदारतापूर्वक बात करते हुए वे अपनी सहज करुणा, अपनी बुद्धिमत्ता, अपने मानवीय पहलू को उद्घाटित करते रहते हैं. जैसा कि वे विदा करते हुए कहते हैं, "मैं उम्मीद करता हूँ कि कम से कम एक बेहतर पैराग्राफ के लिए मैं जरूर मदद कर पाया होऊंगा." गैस चूल्हा जलाकर मेट  तैयार करने के लिए केतली गर्माते हुए वे ओलीवस के अपने छोटे से मकान में अकेले रह जाते हैं. वे एक ऎसी आवाज़ हैं जो भावनाओं और ब्रह्माण्ड की विविधता से भरी हुई है. 
                                                            :: :: :: 

Monday, March 26, 2012

येहूदा आमिखाई : बीहड़ यादें

येहूदा आमिखाई की एक और कविता...  

 
बीहड़ यादें : येहूदा आमिखाई 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

इन दिनों मुझे याद आती है तुम्हारे बालों को लहराती हवा, 
और याद आता है तुम्हारे आने के पहले 
इस दुनिया में बीता अपना समय,   
और वह अनंतता जिधर मैं चल पड़ा तुमसे पहले; 

और उन गोलियों को याद करता हूँ जिन्होनें मारा नहीं मुझे, 
मगर मार डाला मेरे दोस्तों को -- 
उन्हें, जो मुझसे बेहतर थे  
क्योंकि जिए जाना छोड़ दिया उन्होंने; 

और तुम्हें याद करता हूँ, गर्मियों में 
नग्न खड़ी चूल्हे के सामने 
या बेहतर पढ़ने के लिए झुकी हुई एक किताब पर 
ढलते हुए दिन की रोशनी में.  

हाँ, ज़िंदगी से कुछ ज्यादा ही था हमारे पास. 
बहुत जरूरी है हमारे लिए 
संतुलित करना हर चीज को भारी स्वप्नों से, 
और जड़ना बीहड़ यादों को 
उस चीज पर जो कभी आज था. 
                    :: :: ::

Sunday, March 25, 2012

पीट हाईन : अनानास की तरह होता है प्यार

पीट हाईन के कुछ और ग्रुक्स...   

 
पीट हाईन के ग्रूक  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

आत्मकेंद्रित 

हद दर्जे के 
आत्मकेंद्रित होते हैं लोग 
अपनी ही हांके जाएंगे वे 
जब मैं बता रहा होता हूँ अपने बारे में. 
               :: :: :: 

जैसा होता है प्यार 

अनानास की तरह 
होता है प्यार, 
मीठा और 
अपरिभाष्य. 
               :: :: :: 

बराबरी 

वह, जो   
इरादा बांधता है बराबरी का 
हमेशा आता है 
दूसरे स्थान पर. 
               :: :: :: 

ज़िंदगी का विरोधाभास 
दार्शनिक ग्रूक 

थोड़ा समझ से परे लगेगा यह 
मगर कभी-कभी लगता है मुझे 
कि दो ताला जड़े संदूकों जैसी होती है ज़िंदगी 
और हर एक में बंद रहती है दूसरे की चाभी. 
               :: :: :: 

Saturday, March 24, 2012

चार्ल्स बुकावस्की : पट्टा पहनना

अमेरिकी कवि चार्ल्स बुकावस्की की एक कविता...   

 
पट्टा पहनना : चार्ल्स बुकावस्की 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मैं रहता हूँ एक स्त्री और चार बिल्लियों के साथ 
कभी हम सभी 
रहते हैं मजे से.   

कभी मुझे दिक्कत होती है 
एक 
बिल्ली से.  

कभी-कभी दिक्कत होती है मुझे 
दो 
बिल्लियों से.  

कभी 
तीन से. 

कभी-कभी तो दिक्कत होती है मुझे 
सभी चारो 
बिल्लियों  

और 
स्त्री से: 

दस आँखें मुझे ताकती हुईं 
जैसे कोई कुत्ता होऊँ मैं. 
               :: :: ::  

Friday, March 23, 2012

सिनान अन्तून की डायरी से


इराकी कवि, कथाकार एवं फिलहाल न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में अध्यापन कर रहे सिनान अन्तून की कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं. आज प्रस्तुत है युद्ध के दौरान लिखी गई उनकी डायरी का एक अंश...  
[Academy of Fine Arts, Baghdad, 2003. Image from InCounter Productions]
बग़दाद वाल, एकेडमी आफ फाइन आर्ट्स बग़दाद २००३  

 









रोम में एक बर्बर : सिनान अन्तून 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

"मैनें लाखों लोगों को बर्बरता से निजात दिलवाई है." 
                                                          - जार्ज डब्लू. बुश, द गार्जियन, रविवार १५ जून २००८ 

"क्या तुम छुट्टियों में घर जा रहे हो?" कुछ साल पहले मेरे एक सहकर्मी ने लिफ्ट में मुझसे यह सवाल किया था. यह एक आम और जायज सवाल है मगर यदि आप मेरी तरह बग़दाद के हों तो कोई जवाब देना इतना आसान नहीं होगा. फ़ौरन जो जवाब सूझा था वह यह था: "क्या तुमने पिछले चार साल की ख़बरों पर गौर किया है?" मगर मैं इतना थका हुआ हूँ कि उसके बाद होने वाली बातचीत में फंसना नहीं चाहता और न ही एक अजीब सी स्थिति में क्षणिक अपराध के असर का साक्षी बनना चाहता हूँ. मुझे अपने सहकर्मी को बस माफ़ कर देना चाहिए. 

रोम में ऐसा ही है. अधिकतर लोगों के लिए दूरवर्ती देशों में बर्बरों के खिलाफ लड़े जा रहे युद्ध की ख़बरें ज्यादा से ज्यादा एक मनबहलाव ही हैं. यहाँ तक कि सम्राट ने भी अभी हाल ही में 'ईराक ऊब' की बात की. हाँ, कुछ बड़बड़ाहट है, कुछ बहसें और ऎसी ही चीजें, मगर...   

मैं वापस न जाने की चाहे जितनी कोशिश कर लूं मगर मुझे हर रोज लौटना पड़ता है, लेकिन किसी वास्तविक जगह पर नहीं. वह खानदानी घर जिसमें मैं पैदा हुआ था पांच साल पहले बेच दिया गया. बग़दाद में रह गईं मेरे परिवार की आखिरी सदस्य, मेरी आंटी, जार्डन के अम्मान चली गईं क्योंकि ७२ साल की एक बुजुर्ग महिला के लिए विस्फोटों के बीच रहना नामुमकिन हो गया था.  

इसलिए मैं ग्राउंड फ्लोर पर उससे विदा लेते हुए जवाब देता हूँ: 
-- दरअसल मैं घर नहीं जा रहा. इतनी सारी डेडलाइंस! 
-- हैव अ नाईस ब्रेक! 
-- यू टू. 

"डेडलाइन : २  पुराने जमाने में जेल की वह सीमारेखा जिसका उल्लंघन कैदियों के लिए वर्जित था अन्यथा उन्हें मौत की सजा दी जाती थी.      

ईराक वेबसाइटों पर बिखरा पड़ा है. एक स्त्री उस ताड़ के पेड़ के बारे में लिखती है जिसे उसने अपने छोटे से बगीचे में रोपा था और वह कैसे उसे देखने हर शाम वापस जाती है... गूगल अर्थ पर. कुछ महाद्वीपों की दूरी पर बैठी वह, उसे सिर्फ अपने आंसुओं से ही सींच सकती है. 

बर्बरों का ब्रह्माण्ड टुकड़ों-टुकड़ों में होता है. वह कतरनें और तस्वीरें जमा किया करता है: 

छः या सात साल की एक छोटी बच्ची अपने पिता की उंगली पकड़े एक सूनी सड़क को पार कर रही है. वे बीच के डिवाईडर पर पहुँचने वाले हैं जिसपर कुछ घास-फूस और कूड़ा-करकट मौजूद है. सड़क के उस पार, झुलस कर काली हुई एक गाड़ी इंतज़ार कर रही है. लड़की के पास लाल रंग का एक छोटा सा पिठ्ठूबैग है. तस्वीर के दाएं तरफ कोने में एक फूली हुई लाश पड़ी है. 

कितने साल, कितने दशक लगेंगे उस लड़की को सड़क पार करने में?    
                                                   :: :: ::

Thursday, March 22, 2012

अरुंधती राय : एडवर्ड सईद स्मृति व्याख्यान २०१२

हाल ही में आउटलुक में प्रकाशित अरुंधती राय का लेख 'पूंजीवाद : एक प्रेतकथा' ५ मार्च को प्रिंसटन में दिए गए एडवर्ड सईद स्मृति व्याख्यान २०१२ पर आधारित है. उनकी प्रारम्भिक टिप्पणियाँ ये थीं:   

 
एडवर्ड सईद स्मृति व्याख्यान २०१२ : अरुंधती राय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

प्रोफ़ेसर एडवर्ड सईद से मैं सिर्फ एक बार, उनके जीवन के आखिरी दौर में मिली थी. विदा लेते वक्त उन्होंने मेरे हाथ को अपने हाथों में लेकर कहा "फिलिस्तीन को तुम कभी मत भूलना." जैसे मैं भूल जाती. जैसे हममें से कोई भी भूल सकता है. 

हालांकि आज का मेरा भाषण फिलिस्तीन के बारे में नहीं है मगर मैं फिलिस्तीन की जनता के संघर्ष के साथ हूँ. और ईरान की जनता के साथ भी जो प्रतिबंधों से त्रस्त है और जिसे युद्ध की धमकी दी जा रही है. 

'९० के दशक की शुरूआत तक, उसके पहले जब भारत ने वाशिंगटन की राय के साथ इत्तेफाक जाहिर करते हुए भूमंडलीय पूंजी के लिए अपने बाज़ार खोल दिए, भारत सरकार फिलिस्तीन और ईरान की दोस्त हुआ करती थी. उसके बाद से उसे अपनी विदेश नीति में भी 'ढांचागत सुधार' करने पड़े हैं, और अब वह खुद को अमेरिका और इजराइल की 'स्वाभाविक मित्र' बताती है. फिर भी भारत के लोगों के लिए फिलिस्तीन की जनता के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करना अधिक आसान है जबकि वह खुद अपने पिछवाड़े में सैन्य अधिग्रहण पर एक समझदार और बेईमान खामोशी बनाए रखती है जहां पांच लाख से अधिक भारतीय  सैनिकों ने कश्मीर की छोटी सी घाटी पर कब्जा जमा रखा है और वे इसे सामूहिक कब्रों, यातनागृहों और सैन्य छावनियों से पाटे जा रहे हैं. मैं एक बार फिर से भारतीय कब्जे के खिलाफ उनके संघर्ष में कश्मीर की जनता के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित करती हूँ. और उन सभी लोगों के प्रति भी जिनसे उनकी आजादी एक चेकबुक, एक क्रूज मिसाइल या इन दोनों के किसी गठजोड़ द्वारा छीन ली गई है. 

मेरे भाषण का शीर्षक 'बेदखली की राजनीति' होना था. मैं दरअसल इससे घनिष्ठ रूप से जुड़े और कम विचार किए गए विषय -- 'अधिग्रहण की राजनीति' पर बोलने जा रही हूँ. 

मेरे आज के भाषण का शीर्षक है 'पूंजीवाद: एक प्रेतकथा'. इसकी शुरूआत मुम्बई से होती है, एंटिला नाम की एक ऊंची इमारत के गेट के बाहर से...    
                                                   :: :: ::    

Wednesday, March 21, 2012

आन्द्रास गेरेविच : टिरीसियस का कुबूलनामा

समलैंगिकता जैसे निषिद्ध विषय को अपनी कविता की विषय वस्तु बनाने वाले आन्द्रास गेरेविच की दो कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. आज उनकी एक और कविता - 'टिरीसियस का कुबूलनामा'.  टिरीसियस एक अंधे पैगम्बर थे जो एक श्राप की वजह से सात साल तक स्त्री की काया में रहे.   

 
टिरीसियस का कुबूलनामा : आन्द्रास गेरेविच 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

"कभी-कभी मैं जागता हूँ किसी सपने से 
और मुझे अंदाजा भी नहीं होता कि मैं कौन हूँ 
जवान या बूढ़ा, लड़की या लड़का. 

यह जानने के लिए मुझे 
छूना पड़ता है खुद को : इकलौता सबूत होती है 
सीले बिस्तर पर पसीने से तर मेरी देह." 

टिरीसियस मेरे सामने बैठा था. वह घुमाने निकला था 
अपने कुत्ते को, जबकि मैं दौड़ लगा रहा था 
और अब एक बेंच पर पसरे बैठे थे हम. 

"दिन या रात का फर्क तो काफी पहले ही  
ख़त्म हो चुका था मेरे लिए. बंद हो गई थी 
समय का ध्यान रखने वाली वह अंदरूनी घड़ी. 

सालों हो गए मुझे वर्तमान में रहना छोड़े हुए, 
सिर्फ उपदेशों और मिथकों में रहता आया हूँ मैं; 
और अब तो भटक जाता हूँ रास्ता भी अपना."    

उसने एक सिगरेट सुलगाई और कान के पीछे 
खुजलाया अपने कुत्ते को. "आन्द्रास, यदि मैं बात कर पाता 
इस बारे में, इस एक बार ही सही तो शायद... 

अपने सपनों में मैं हमेशा होता हूँ एक स्त्री 
मस्त और मोहक, और एकदम पहुँच से परे, 
पुरुषों की चहेती और प्रशंसित उनके द्वारा. 

अपने वक्षों से मैं खेलता हूँ अपने सपनों में, 
नाजुक और मुलायम होती है मेरी त्वचा, 
हलकी कंपकंपी रहती है पूरे सपने के दौरान." 

अपनी सफ़ेद छड़ी से पैरों को खुजलाया उसने, 
उसके हाथों और चेहरे पर से जगह-जगह उतर रही थी चमड़ी    
कुत्ते को एक साही मिल गई थी खेलने के लिए. 

"लगता है बहुत थोड़े समय का था सबसे बेहतरीन दौर 
मेरी ज़िंदगी का, सिर्फ कुछ मिनटों का जैसे 
जब पुरुषों के अन्दर चाह थी मेरी." 

उसने एक गहरी सांस ली, थूका और दूर देखने लगा. 
"यदि तुम्हें पुरुष होना पसंद हो तो ज़रा सावधान रहना, 
किसी भी समय तुम बदल सकते हो एक स्त्री में. 

बहुत महीन है इन दोनों के बीच की रेखा.     
शायद यदि मैं उम्मीद से हो जाऊं, 
तो बना रह पाऊँ एक स्त्री, एक माँ." 
                    :: :: :: 

Tuesday, March 20, 2012

पीट हाइन की कविताएँ

डेनमार्क के कवि पीट हाइन (१९०५ - १९९६) लेखक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक, गणितज्ञ, आविष्कारक और डिजाइनर भी थे. ग्रूक के नाम से जानी जाने वाली उनकी छोटी-छोटी कविताएँ अप्रैल १९४० में नाजी आधिपत्य के बाद एक अखबार में प्रकाशित होना शुरू हुईं थीं. प्रायः व्यंग्यात्मक प्रकृति की ये कविताएँ वे कुम्बल (कब्र का पत्थर) के छद्म नाम से लिखा करते थे.   










पीट हाइन के ग्रूक 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तसल्ली 

निश्चित रूप से तकलीफदेह है 
एक दस्ताने का गुम होना, 
मगर उस तकलीफ का  
कोई मुकाबला ही नहीं 
कि एक दस्ताना खो जाने पर 
फेंक देना दूसरे को, 
और फिर 

मिल जाना पहले वाले का. 
:: :: :: 

अक्लमंदी का रास्ता 

अक्लमंदी का रास्ता? 
बहुत आसान है 
इसे समझाना: 
गलती 
और गलती 
फिर और गलती,  
मगर कम 
और कम 
फिर और कम. 
:: :: :: 

समानता 

कोई गाय घोड़े जैसी नहीं होती, 
और कोई घोड़ा नहीं होता गाय जैसा. 
बस यही एक समानता है 
जैसे-तैसे. 
:: :: :: 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...