Wednesday, August 31, 2011

अरुंधती राय : जन लोकपाल बिल बहुत प्रतिगामी है

अन्ना आन्दोलन पर अरुंधती राय का एक लेख आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. सी एन एन - आई बी एन की पत्रकार सागरिका घोष के साथ एक बातचीत में अरुंधती राय ने एक बार फिर जन लोकपाल बिल पर गंभीर चिंताएं जाहिर की हैं. पेश हैं इस बातचीत में अरुंधती राय की बातों के कुछ ख़ास अंश...












जन लोकपाल बिल बहुत प्रतिगामी है : अरुंधती राय
(अनुवाद/सम्पादन : मनोज पटेल)

मुझे खुशी है कि जन लोकपाल बिल अपने मौजूदा स्वरुप में संसद में नहीं जा पाया. सिविल सोसायटी ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों के गुस्से का इस्तेमाल अपने जन लोकपाल विधेयक को आगे बढाने के लिए किया, जो कि बहुत प्रतिगामी बिल है. 

अन्ना हजारे को भले ही जनसाधारण के संत के रूप में पेश किया गया हो किन्तु वे इस आन्दोलन को संचालित नहीं कर रहे थे. इस आन्दोलन के पीछे के दिमाग वे नहीं थे. दरअसल यह एन जी ओ द्वारा चलाया गया एक आन्दोलन था. किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया एन जी ओ चलाते हैं. तीन प्रमुख सदस्य मैग्सेसे पुरस्कार विजेता हैं जिन्हें फोर्ड फाउंडेशन और फेलर से आर्थिक सहायता मिलती है. मैं इस बिंदु पर ध्यान दिलाना चाहती थी कि विश्व बैंक और फोर्ड फाउंडेशन से सहायता पाने वाले ये एन जी ओ आखिर सार्वजनिक नीतियों को तय करने वाले मसले पर क्यों हिस्सेदारी कर रहे हैं. दरअसल हाल ही में मैं विश्व बैंक की साईट पर गई थी और मैनें पाया कि विश्व बैंक अफ्रीका जैसे देशों में 600 भ्रष्टाचार-विरोधी कार्यक्रम चलाता है. विश्व बैंक की भ्रष्टाचार निवारण में क्या रूचि है ? उन्होंने पांच मुख्य बिंदु बताए हैं जिन्हें जानना जरूरी है :

1)   राजनैतिक जवाबदेही को बढ़ाना 
2)   सिविल सोसायटी की हिस्सेदारी को मजबूत करना
3)   प्रतियोगी निजी क्षेत्र का निर्माण करना 
4)   सत्ता पर नियंत्रण लगाना 
5)   सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबंधन को बेहतर करना 

इससे मुझे स्पष्ट हो गया कि विश्व बैंक, फोर्ड फाउंडेशन और ये लोग अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की पैठ बढ़ाने में लगे हैं और यह 'कापी बुक विश्व बैंक एजेंडा' है. भ्रष्टाचार से हम भी पीड़ित हैं किन्तु जबकि सरकार के परम्परागत कार्य एन जी ओ और बड़े-बड़े निगम हथियाते जा रहे हैं तो इन सभी को क्यों छोड़ दिया जा रहा है.    

यह सही है कि इस आन्दोलन में बहुत से लोगों ने हिस्सेदारी की और वे सभी भाजपा या मध्य-वर्ग ही नहीं थे. उनमें से बहुत से लोग दरअसल मीडिया द्वारा निर्देशित किए जा रहे एक तरह के रियल्टी शो में चले आए थे. 

निचली नौकरशाही को लोकपाल के दायरे में लाने का मसला भी बहुत पेचीदा है. मुझे नहीं लगता कि हमारे देश की ऎसी समस्याएँ सिर्फ पुलिसिंग या शिकायती बूथों से हल होने वाली हैं. कोई ऎसी चीज लानी होगी जहां आप लोगों को यह भरोसा दिला सकें कि आप अफसरशाही का कोई ऐसा ताम झाम नहीं खड़ा करने जा रहे जो कि उतना ही भ्रष्ट होगा. यदि आपका एक भाई भाजपा में हो, एक कांग्रेस में, एक पुलिस में और एक लोकपाल में तो ऎसी चीजों को कैसे संभाला जाएगा. 

समस्या यह है कि ढांचागत असमानता पर सवाल नहीं खड़े किए जा रहे हैं बल्कि आप सिर्फ एक ऐसे क़ानून के लिए लड़ रहे हैं जो कि इस असमानता को आधिकारिक बना देगा. हाल ही मैं आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर आपरेशन ग्रीन हंट के शरणार्थियों से मिली थी. उनके लिए मसला यह नहीं है कि टाटा ने इस खनन के लिए घूस दिया या वेदांता ने उस खनन के लिए घूस नहीं दिया. बड़ी समस्या यह है कि भारत की खनिज, जल एवं वन संपदा का निजीकरण किया जा रहा है, उन्हें लूटा जा रहा है. भले ही यह सब गैर-भ्रष्ट तरीके से किया जा रहा हो, यह समस्या है. कुछ बहुत महत्वपूर्ण एवं गंभीर चीजें घटित हो रही हैं जिन्हें नहीं उठाया जा रहा है. 

मुझे याद नहीं पड़ता कि इसके पहले मीडिया ने ऐसा अभियान कब चलाया था जब कि दस दिनों तक बाक़ी हर तरह की ख़बरें किनारे कर दी गयी हों. एक अरब लोगों के इस देश में मीडिया के पास दिखाने के लिए और कुछ नहीं था और वह यह अभियान चला रहा था. कुछ बड़े टेलीविजन चैनलों ने यह अभियान चलाया और कहा भी कि वे अभियान चला रहे थे. मेरे लिए यह प्रथमतया एक तरह का भ्रष्टाचार ही है. एक समाचार चैनल के रूप में आपको प्रसारण करने का लाइसेंस ख़बरें प्रसारित करने के लिए दिया जाता है न कि अभियान चलाने के लिए.   

इस आन्दोलन के प्रतीकों पर बात करना मजेदार होगा. वन्दे मातरम का लंबा साम्प्रदायिक इतिहास रहा है. आपने पहले भारत माता की तस्वीर लगाई और फिर गांधी की. वहां मनुवादी क्रांतिकारी आन्दोलन के लोग थे. ज़रा अनशन के बाद गांधी जी के किसी निजी अस्पताल में जाने की कल्पना करें. एक ऐसा निजी अस्पताल जो ग़रीबों के लिए स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र से राज्य के पीछे हटने का प्रतीक है. जहां डाक्टर हर बार सांस खींचने और छोड़ने के लाख-लाख रूपए शुल्क लेते हैं. ये सभी प्रतीक बहुत खतरनाक थे और यह आन्दोलन यदि इस तरह समाप्त न हो गया होता तो यह बहुत खतरनाक रूप ले सकता था. 

मैं भीड़ के आकार से प्रभावित नहीं थी. मैनें कश्मीर और यहीं दिल्ली (के आन्दोलनों) में इससे ज्यादा भीड़ देखी है. उनकी खबर किसी ने नहीं लिखी. सिर्फ यह कहा गया कि 'ट्रैफिक जाम बना दिया इन्होनें'. बाबरी मस्जिद ढहाए जाते समय इससे ज्यादा भीड़ नारे लगा रही थी. क्या हमारे लिए वह ठीक था. 

भविष्य के प्रतिरोध आन्दोलनों को इससे क्या सबक मिल सकता है. ताकतवर लोगों का प्रतिरोध आन्दोलन जहां मीडिया आपके पक्ष में हो, सरकार आपसे डरी हुई हो जहां पुलिस ने खुद को निशस्त्र कर लिया हो, ऐसे कितने आन्दोलन भविष्य में होने जा रहे हैं ? मुझे नहीं पता. जब हम यह बात कर रहे हैं मध्य भारत में भारतीय सेना इस देश के सबसे गरीब लोगों से युद्ध करने की तैयारी कर रही है, और मैं आपसे बता सकती हूँ कि वह निशस्त्र नहीं होगी. तो मुझे नहीं पता कि आप ऐसे प्रतिरोध आन्दोलन से क्या सबक ले सकते हैं जिसे इतने विशेषाधिकार प्राप्त हों.  
                                                             :: :: :: 
(आई बी एन लाइव.इन.काम से साभार)  

Tuesday, August 30, 2011

ईमान मर्सल : और अधिक झुक गई है मेरी पीठ

ईमान मर्सल की लम्बी कविता 'थक्का' से कुछ अंश...


थक्का : ईमान मर्सल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

अपने पिता के लिए 

बस सोते रहना 

वे गुस्से में काटते हैं अपने होंठ 
उन वजहों से जिन्हें वे भूल चुके हैं. 
बहुत गहरी नींद में हैं वे,
सर के नीचे दबी हुई हथेलियों के कारण 
वे उन फौजियों की तरह दिखते हैं 
जो ऊंघ रहे हैं रात को ट्रकों में 
और बंद करते हैं अपनी पलकें 
निगरानी की तस्वीरों के ढेर पर 
अपनी आत्मा को चक्कर खाते रहने के लिए छोड़कर 
जब तक कि अचानक वे फरिश्तों में न बदल जाएं. 
                    * * *

ई सी जी 

मुझे डाक्टर बनना चाहिए था 
ताकि पढ़ती रह सकती उनका ई सी जी 
अपनी आँखों से,
और पक्का कर सकती कि थक्का 
महज एक बादल था 
जिसे टूट जाना था मामूली आंसुओं में 
जरूरत भर की गर्माहट पाकर. 
मगर मैं किसी काम की नहीं हूँ, 
और मेरे पिता जो सो नहीं सकते अपने बिस्तर पर 
सोए पड़े हैं 
एक बड़े से कमरे में मेज पर. 
                    * * *

चीत्कार 

खामोश औरतों ने 
भर रखा है सामने वाले बरामदे को 
वे एक रस्म की तैयारी में हैं 
जो छुड़ा देगी 
उनके गले में लगी हुई जंग को 
और जो सिर्फ उनकी सीमा ही जांच सकती है 
सामूहिक चीत्कार में. 
                    * * * 

बेहतर 

बगल के मरीज को 
स्वयंसेवकों के कंधे 
ढो ले गए सार्वजनिक कब्रिस्तान तक.
तुम्हारे लिए बेहतर है यह.
मौत दुहरा नहीं सकती अपना कुकृत्य 
उसी शाम को 
उसी कमरे में.
                    * * * 

तस्वीर 

उनके दिल की लय मिली हुई थी मेरे क़दमों से 
मगर अब उनकी याद रह जाएगी 
सिर्फ एक पुरानी, सीली गंध की तरह. 
क्या पता उन्हें नफरत रही हो मेरे निकरों और,
संगीत से रिक्त मेरी कविताओं से.
मगर कई बार मैनें देखा था उन्हें 
अपनी दोस्तों के गुल-गपाड़े से परेशान,
और चुपके-चुपके  एकाध कश मारते 
उनकी छोड़ी गई सिगरेटों से. 
                    * * * 

समरूपता 

सिर्फ इसलिए कि मैं खरीद सकूं अनूदित कविताओं की किताबें 
गहरी नींद सो रहे इस शख्स ने मुझे भरोसा दिलाया 
कि उसकी शादी की अंगूठी से जलन होती है उसकी उँगलियों में.
मुस्कराए ही जा रहे थे वे सुनार के यहाँ से लौटते हुए,
जब कहा था मैनें उनसे 
कि उनकी नाक एकदम मेरे जैसी नहीं लगती. 
                    * * *  

तुम्हारी मौत की ख़बर

अपने प्रति किए गए तुम्हारे आखिरी गुनाह की तरह 
स्वीकार करूंगी तुम्हारी मौत को.
राहत नहीं महसूस करूंगी जैसी कि तुमने उम्मीद की थी.  
और मजबूती से विश्वास करूंगी 
कि तुमने इन्कार कर दिया मुझे 
उन ट्यूमरों के निदान का मौक़ा देने से 
जो सुप्त पड़े हुआ करते थे हमारे बीच. 
सुबह 
मैं हैरान हो सकती हूँ अपनी सूजी हुई पलकों से 
और यह जानकर
कि और अधिक झुक गई है मेरी पीठ. 
                     * * *  

Sunday, August 28, 2011

अन्ना के नाम इरोम शर्मिला की चिट्ठी

आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के खिलाफ पिछले दस सालों से अनशन कर रही मणिपुर की लौह महिला इरोम शर्मिला ने पिछले दिनों अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में साथ देने के निमंत्रण के जवाब में एक पत्र लिखा था. पत्र में उन्होंने अन्ना के आन्दोलन के प्रति एकता प्रदर्शित करने के साथ ही कुछ और महत्वपूर्ण बातें कही हैं. प्रस्तुत है उसी पत्र का अनुवाद...











इरोम शर्मिला की चिट्ठी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

23 अगस्त 2011, मंगलवार    
10:27ए एम, सेक्युरिटी वार्ड, जे.एन.हास्पिटल 

सम्मानीय अन्ना जी,

आपके द्वारा लड़ी जा रही भ्रष्टाचार विरोधी रैली में शिरकत करने के आपके निमंत्रण का मैं तहे दिल से स्वागत करती हूँ. मगर मैं अपनी वस्तुस्थिति के प्रति आपको आश्वस्त करना चाहूंगी, कि आपकी जैसी परिस्थिति के विपरीत, मैं एक लोकतांत्रिक देश के एक लोकतांत्रिक नागरिक की हैसियत से, यहाँ के सम्बद्ध अधिकारियों की मर्जी के खिलाफ न्याय के लिए अपने अहिंसात्मक विरोध के अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकती. यह एक ऎसी समस्या है जिसे मैं समझ नहीं पाती. 


मेरा विनम्र सुझाव है कि यदि आप सचमुच गंभीर हों तो कृपया सम्बद्ध विधायकों (पढ़ें अधिकारियों) से अपनी तरह मुझे भी आज़ाद करवाने के लिए बात करें ताकि मैं सभी बुराइयों की जड़ भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने के आपके शानदार युद्ध में शामिल हो सकूँ. या आप चाहें तो मणिपुर आ सकते हैं जो दुनिया का सर्वाधिक भ्रष्टाचार-पीड़ित क्षेत्र है. 


पूरी एकता और पूरी शुभकामना के साथ,
इरोम शर्मिला 


(बरगद.आर्ग से साभार)

Saturday, August 27, 2011

निज़ार कब्बानी की कविताएँ

निज़ार कब्बानी की कविताएँ...



निज़ार कब्बानी की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

क्या कभी सोचा तुमने
कि आखिर जा कहाँ रहे हैं हम 
जहाज़ों को पता होती है अपनी दिशा,
मछलियाँ जानती हैं कि उन्हें तैरना है किस तरफ,
पंछी जानते हैं अपनी मंजिल 
मगर हम छटपटाते हैं समुन्दर में
और डूबते नहीं 
पहने होते हैं सैलानियों की पोशाक 
और निकलते नहीं बाहर 
लिखते हैं चिट्ठियाँ 
मगर भेजते नहीं उन्हें 
जाते हुए हर हवाई जहाज का 
खरीदते हैं टिकट 
मगर बैठे रहते हैं हवाई अड्डे पर 
तुम और मैं प्रिय  
सबसे बुजदिल मुसाफिर हैं इतिहास के.
                    :: :: :: 

बंद कर दो सारी किताबें 
और पढ़ो मेरे चेहरे की लकीरों को 
निहार रहा हूँ मैं तुम्हें
क्रिसमस के पेड़ के सामने खड़े 
एक बच्चे की उत्सुक निगाहों से. 
                    :: :: :: 

कल मैनें सोचा 
तुम्हारी खातिर अपने प्यार के बारे में.
मुझे याद आईं 
तुम्हारे होंठो पर शहद की वे बूँदें, 
और अपने होंठों पर जुबां फिराकर 
पोंछ दी मैनें वह मिठास 
स्मृति के गलियारे से.
                    :: :: :: 

Monday, August 22, 2011

अरुंधती राय : अन्ना की मांगें गांधीवादी नहीं हैं


अरुंधती राय का यह महत्वपूर्ण आलेख आज 22 अगस्त के हिन्दू में प्रकाशित हुआ है... 

















मैं अन्ना नहीं होना चाहूंगी : अरुंधती राय 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

उनके तौर-तरीके भले ही गांधीवादी हों मगर उनकी मांगें निश्चित रूप से गांधीवादी नहीं हैं.

जो कुछ भी हम टी. वी. पर देख रहे हैं अगर वह सचमुच क्रान्ति है तो हाल फिलहाल यह सबसे शर्मनाक और समझ में न आने वाली क्रान्ति होगी. इस समय जन लोकपाल बिल के बारे में आपके जो भी सवाल हों उम्मीद है कि आपको ये जवाब मिलेंगे : किसी एक पर निशान लगा लीजिए - (अ) वन्दे मातरम, (ब) भारत माता की जय, (स) इंडिया इज अन्ना, अन्ना इज इंडिया, (द) जय हिंद.  

आप यह कह सकते हैं कि, बिलकुल अलग वजहों से और बिलकुल अलग तरीके से, माओवादियों और जन लोकपाल बिल में एक बात सामान्य है. वे दोनों ही भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. एक नीचे से ऊपर की ओर काम करते हुए, मुख्यतया सबसे गरीब लोगों से गठित आदिवासी सेना द्वारा छेड़े गए सशस्त्र संघर्ष के जरिए, तो दूसरा ऊपर से नीचे की तरफ काम करते हुए ताजा-ताजा गढ़े गए एक संत के नेतृत्व में, अहिंसक गांधीवादी तरीके से जिसकी सेना में मुख्यतया शहरी और निश्चित रूप से बेहतर ज़िंदगी जी रहे लोग शामिल हैं. (इस दूसरे वाले में सरकार भी खुद को उखाड़ फेंके जाने के लिए हर संभव सहयोग करती है.)

अप्रैल 2011 में, अन्ना हजारे के पहले "आमरण अनशन" के कुछ दिनों बाद भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े घोटालों से, जिसने सरकार की साख को चूर-चूर कर दिया था, जनता का ध्यान हटाने के लिए सरकार ने टीम अन्ना को ("सिविल सोसायटी" ग्रुप ने यही ब्रांड नाम चुना है) नए भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून की ड्राफ्टिंग कमेटी में शामिल होने का न्योता दिया. कुछ महीनों बाद ही इस कोशिश को धता बताते हुए उसने अपना खुद का विधेयक संसद में पेश कर दिया जिसमें इतनी कमियाँ थीं कि उसे गंभीरता से लिया ही नहीं जा सकता था. 

फिर अपने दूसरे "आमरण अनशन" के लिए तय तारीख 16 अगस्त की सुबह, अनशन शुरू करने या किसी भी तरह का अपराध करने के पहले ही अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. जन लोकपाल बिल के लिए किया जाने वाला संघर्ष अब विरोध करने के अधिकार के लिए संघर्ष और खुद लोकतंत्र के लिए संघर्ष से जुड़ गया. इस 'आजादी की दूसरी लड़ाई' के कुछ ही घंटों के भीतर अन्ना को रिहा कर दिया गया. उन्होंने होशियारी से जेल छोड़ने से इन्कार कर दिया, बतौर एक सम्मानित मेहमान तिहाड़ जेल में बने रहे और किसी सार्वजनिक स्थान पर अनशन करने के अधिकार की मांग करते हुए वहीं पर अपना अनशन शुरू कर दिया. तीन दिनों तक जबकि तमाम लोग और टी.वी. चैनलों की वैन बाहर जमी हुई थीं, टीम अन्ना के सदस्य उच्च सुरक्षा वाली इस जेल में अन्दर-बाहर डोलते रहे और देश भर के टी.वी. चैनलों पर दिखाए जाने के लिए उनके वीडियो सन्देश लेकर आते रहे. (यह सुविधा क्या किसी और को मिल सकती है?) इस बीच दिल्ली नगर निगम के 250 कर्मचारी, 15 ट्रक और 6 जे सी बी मशीनें कीचड़ युक्त रामलीला मैदान को सप्ताहांत के बड़े तमाशे के लिए तैयार करने में दिन रात लगे रहे. अब कीर्तन करती भीड़ और क्रेन पर लगे कैमरों के सामने, भारत के सबसे महंगे डाक्टरों की देख रेख में, बहुप्रतीक्षित अन्ना के आमरण अनशन का तीसरा दौर शुरू हो चुका है. टी.वी. उद्घोषकों ने हमें बताया कि "कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है."    

उनके तौर-तरीके गांधीवादी हो सकते हैं मगर अन्ना हजारे की मांगें कतई गांधीवादी नहीं हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण के गांधी जी के विचारों के विपरीत जन लोकपाल बिल एक कठोर भ्रष्टाचार निरोधी क़ानून है जिसमें सावधानीपूर्वक चुने गए लोगों का एक दल हजारों कर्मचारियों वाली एक बहुत बड़ी नौकरशाही के माध्यम से प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, संसद सदस्य, और सबसे निचले सरकारी अधिकारी तक यानी पूरी नौकरशाही पर नियंत्रण रखेगा. लोकपाल को जांच करने, निगरानी करने और अभियोजन की शक्तियां प्राप्त होंगी. इस तथ्य के अतिरिक्त कि उसके पास खुद की जेलें नहीं होंगी यह एक स्वतंत्र निजाम की तरह कार्य करेगा, उस मुटाए, गैरजिम्मेदार और भ्रष्ट निजाम के जवाब में जो हमारे पास पहले से ही है. एक की बजाए, बहुत थोड़े से लोगों द्वारा शासित दो व्यवस्थाएं.   

यह काम करेगी या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि भ्रष्टाचार के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है? क्या भ्रष्टाचार सिर्फ एक कानूनी सवाल, वित्तीय अनियमितता या घूसखोरी का मामला है या एक बेहद असमान समाज में सामाजिक लेन-देन की व्यापकता है जिसमें सत्ता थोड़े से लोगों के हाथों में संकेंद्रित रहती है? मसलन शापिंग मालों के एक शहर की कल्पना करिए जिसकी सड़कों पर फेरी लगाकर सामान बेचना प्रतिबंधित हो. एक फेरी वाली, हल्के के गश्ती सिपाही और नगर पालिका वाले को एक छोटी सी रकम घूस में देती है ताकि वह क़ानून के खिलाफ उन लोगों को अपने सामान बेंच सके जिनकी हैसियत शापिंग मालों में खरीददारी करने की नहीं है. क्या यह बहुत बड़ी बात होगी? क्या भविष्य में उसे लोकपाल के प्रतिनिधियों को भी कुछ देना पड़ेगा? आम लोगों की समस्याओं के समाधान का रास्ता ढांचागत असमानता को दूर करने में है या एक और सत्ता केंद्र खड़ा कर देने में जिसके सामने लोगों को झुकना पड़े. 

अन्ना की क्रान्ति का मंच और नाच, आक्रामक राष्ट्रवाद और झंडे लहराना सबकुछ आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों, विश्व कप जीत के जुलूसों और परमाणु परीक्षण के जश्नों से उधार लिया हुआ है. वे हमें इशारा करते हैं कि अगर हमने अनशन का समर्थन नहीं किया तो हम 'सच्चे भारतीय' नहीं हैं. चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों ने तय कर लिया है कि देश भर में और कोई खबर दिखाए जाने लायक नहीं है. 

यहाँ अनशन का मतलब मणिपुर की सेना को केवल शक की बिना पर हत्या करने का अधिकार देने वाले क़ानून AFSPA के खिलाफ इरोम शर्मिला के अनशन से नहीं है जो दस साल तक चलता रहा (उन्हें अब जबरन भोजन दिया जा रहा है). अनशन का मतलब कोडनकुलम के दस हजार ग्रामीणों द्वारा परमाणु बिजली घर के खिलाफ किए जा रहे क्रमिक अनशन से भी नहीं है जो इस समय भी जारी है. 'जनता' का मतलब मणिपुर की जनता से नहीं है जो इरोम के अनशन का समर्थन करती है. वे हजारों लोग भी इसमें शामिल नहीं हैं जो जगतसिंहपुर या कलिंगनगर या नियमगिरि या बस्तर या जैतपुर में हथियारबंद पुलिसवालों और खनन माफियाओं से मुकाबला कर रहे हैं. 'जनता' से हमारा मतलब भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों और नर्मदा घाटी के बांधों के विस्थापितों से भी नहीं होता. अपनी जमीन के अधिग्रहण का प्रतिरोध कर रहे नोयडा या पुणे या हरियाणा या देश में कहीं के भी किसान 'जनता' नहीं हैं.     

'जनता' का मतलब सिर्फ उन दर्शकों से है जो 74 साल के उस बुजुर्गवार का तमाशा देखने जुटी हुई है जो धमकी दे रहे हैं कि वे भूखे मर जाएंगे यदि उनका जन लोकपाल बिल संसद में पेश करके पास नहीं किया जाता. वे दसियों हजार लोग 'जनता' हैं जिन्हें हमारे टी.वी. चैनलों ने करिश्माई ढंग से लाखों में गुणित कर दिया है, ठीक वैसे ही जैसे ईसा मसीह ने भूखों को भोजन कराने के लिए मछलियों और रोटी को कई गुना कर दिया था. "एक अरब लोगों की आवाज़" हमें बताया गया. "इंडिया इज अन्ना." 

वह सचमुच कौन हैं, यह नए संत, जनता की यह आवाज़? आश्चर्यजनक रूप से हमने उन्हें जरूरी मुद्दों पर कुछ भी बोलते हुए नहीं सुना है. अपने पड़ोस में किसानों की आत्महत्याओं के मामले पर या थोड़ा दूर आपरेशन ग्रीन हंट पर, सिंगूर, नंदीग्राम, लालगढ़ पर, पास्को, किसानों के आन्दोलन या सेज के अभिशाप पर, इनमें से किसी भी मुद्दे पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है. शायद मध्य भारत के वनों में सेना उतारने की सरकार की योजना पर भी वे कोई राय नहीं रखते. 

हालांकि वे राज ठाकरे के मराठी माणूस गैर-प्रान्तवासी द्वेष का समर्थन करते हैं और वे गुजरात के मुख्यमंत्री के विकास माडल की तारीफ़ भी कर चुके हैं जिन्होनें 2002 में मुस्लिमों की सामूहिक हत्याओं का इंतजाम किया था. (अन्ना ने लोगों के कड़े विरोध के बाद अपना वह बयान वापस ले लिया था मगर संभवतः अपनी वह सराहना नहीं.)

इतने हंगामे के बावजूद गंभीर पत्रकारों ने वह काम किया है जो पत्रकार किया करते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अन्ना के पुराने रिश्तों की स्याह कहानी के बारे में अब हम जानते हैं. अन्ना के ग्राम समाज रालेगान सिद्धि का अध्ययन करने वाले मुकुल शर्मा से हमने सुना है कि पिछले 25 सालों से वहां ग्राम पंचायत या सहकारी समिति के चुनाव नहीं हुए हैं. 'हरिजनों' के प्रति अन्ना के रुख को हम जानते हैं : "महात्मा गांधी का विचार था कि हर गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक लुहार होने चाहिए और इसी तरह से और लोग भी. उन सभी को अपना काम अपनी भूमिका और अपने पेशे के हिसाब से करना चाहिए, इस तरह से हर गाँव आत्म-निर्भर हो जाएगा. रालेगान सिद्धि में हम यही तरीका आजमा रहे हैं." क्या यह आश्चर्यजनक है कि टीम अन्ना के सदस्य आरक्षण विरोधी (और योग्यता समर्थक) आन्दोलन यूथ फार इक्वेलिटी से भी जुड़े रहे हैं? इस अभियान की बागडोर उनलोगों के हाथ में है जो ऐसे भारी आर्थिक अनुदान पाने वाले गैर सरकारी संगठनों को चलाते हैं जिनके दानदाताओं में कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स भी शामिल हैं. टीम अन्ना के मुख्य सदस्यों में से अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा चलाए जाने वाले कबीर को पिछले तीन सालों में फोर्ड फाउंडेशन से 400000 डालर मिल चुके हैं. इंडिया अगेंस्ट करप्शन अभियान के अंशदाताओं में ऎसी भारतीय कम्पनियां और संस्थान शामिल हैं जिनके पास अल्युमिनियम कारखाने हैं, जो बंदरगाह और सेज बनाते हैं, जिनके पास भू-संपदा के कारोबार हैं और जो करोड़ों करोड़ रूपए के वित्तीय साम्राज्य वाले राजनीतिकों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं. उनमें से कुछ के खिलाफ भ्रष्टाचार एवं अन्य अपराधों की जांच भी चल रही है. आखिर वे इतने उत्साह में क्यों हैं?   

याद रखिए कि विकीलीक्स द्वारा किए गए शर्मनाक खुलासों और एक के बाद दूसरे घोटालों के उजागर होने के समय ही जन लोकपाल बिल के अभियान ने भी जोर पकड़ा. इन घोटालों में 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला भी था जिसमें बड़े कारपोरेशनों, वरिष्ठ पत्रकारों, सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस तथा भाजपा के नेताओं ने तमाम तरीके से साठ-गाँठ करके सरकारी खजाने का हजारों करोड़ रूपया चूस लिया. सालों में पहली बार पत्रकार और लाबीइंग करने वाले कलंकित हुए और ऐसा लगा कि कारपोरेट इंडिया के कुछ प्रमुख नायक जेल के सींखचों के पीछे होंगे. जनता के भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन के लिए बिल्कुल सटीक समय. मगर क्या सचमुच?

ऐसे समय में जब राज्य अपने परम्परागत कर्तव्यों से पीछे हटता जा रहा है और निगम और गैर सरकारी संगठन सरकार के क्रिया कलापों को अपने हाथ में ले रहे हैं (जल एवं विद्युत् आपूर्ति, परिवहन, दूरसंचार, खनन, स्वास्थ्य, शिक्षा); ऐसे समय में जब कारपोरेट के स्वामित्व वाली मीडिया की डरावनी ताकत और पहुँच लोगों की कल्पना शक्ति को नियंत्रित करने की कोशिश में लगी है; किसी को सोचना चाहिए कि ये संस्थान भी -- निगम, मीडिया और गैर सरकारी संगठन -- लोकपाल के अधिकार-क्षेत्र में शामिल किए जाने चाहिए. इसकी बजाए प्रस्तावित विधेयक उन्हें पूरी तरह से छोड़ देता है.     

अब औरों से ज्यादा तेज चिल्लाने से, ऐसे अभियान को चलाने से जिसके निशाने पर सिर्फ दुष्ट नेता और सरकारी भ्रष्टाचार ही हो, बड़ी चालाकी से उन्होंने खुद को फंदे से निकाल लिया है. इससे भी बदतर यह कि केवल सरकार को राक्षस बताकर उन्होंने अपने लिए एक सिंहासन का निर्माण कर लिया है, जिसपर बैठकर वे सार्वजनिक क्षेत्र से राज्य के और पीछे हटने और दूसरे दौर के सुधारों को लागू करने की मांग कर सकते हैं -- और अधिक निजीकरण, आधारभूत संरचना और भारत के प्राकृतिक संसाधनों तक और अधिक पहुँच. ज्यादा समय नहीं लगेगा जब कारपोरेट भ्रष्टाचार को कानूनी दर्जा देकर उसका नाम लाबीइंग शुल्क कर दिया जाएगा. 

क्या ऎसी नीतियों को मजबूत करने से जो उन्हें गरीब बनाती जा रही है और इस देश को गृह युद्ध की तरफ धकेल रही है, 20 रूपए प्रतिदिन पर गुजर कर रहे तिरासी करोड़ लोगों का वाकई कोई भला होगा? 

यह डरावना संकट भारत के प्रतिनिधिक लोकतंत्र के पूरी तरह से असफल होने की वजह से पैदा हुआ है. इसमें विधायिका का गठन अपराधियों और धनाढ्य राजनीतिकों से हो रहा है जो जनता की नुमाइन्द्गी करना बंद कर चुके हैं. इसमें एक भी ऐसा लोकतांत्रिक संस्थान नहीं है जो आम जनता के लिए सुगम हो. झंडे लहराए जाने से बेवकूफ मत बनिए. हम भारत को आधिपत्य के लिए एक ऐसे युद्ध में बंटते देख रहे हैं जो उतना ही घातक है जितना अफगानिस्तान के युद्ध नेताओं में छिड़ने वाली कोई जंग. बस यहाँ दांव पर बहुत कुछ है, बहुत कुछ.  
                                             :: :: :: 
                                                             
('द हिन्दू' से साभार)

टोंटी से टपक पड़ती है कविता


सलमा अल-नीमी की एक कविता... 













लालच : सलमा अल-नीमी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

शादीशुदा ज़िंदगी की चखचख शायराना नहीं होती 
न ही बच्चों की हाय-तौबा, 
बसों के धक्के और 
अखबारों की ख़बरें भी नहीं होतीं शायराना.
बर्तन माजते वक़्त 
मेरे हाथों में 
टोंटी से टपक पड़ती है कविता 
किसी मछली की तरह.                    
                  :: :: :: 

Sunday, August 21, 2011

खून का रिश्ता

एइलीन कोस्नर की कविता ...



खून का रिश्ता : एइलीन कोस्नर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

कोई रेखा नहीं खिंची है 
हम माँ बेटे के बीच.
तुम मेरा पुरुष चेहरा हो. 

जब तुम अपने हाथों में लेते हो मेरा हाथ
जैसे मेरा दायाँ हाथ पकड़ लेता है बाएँ हाथ को.

किसी भूकंप लेखी की तरह 
तुम दर्ज करते हो मेरे कम्पन.

अपने शब्दों में तुम बोलते हो 
मेरे ख़यालों को.
               :: :: :: 

Saturday, August 20, 2011

ईमान मर्सल : बाथरूम की सफेदी पर धब्बे मैनें नहीं लगाए थे


ईमान मर्सल की कविता... 











चीजें मुझे चकमा दे देती हैं : ईमान मर्सल 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक दिन गुजरूंगी उस मकान के सामने से 
जो बरसों तक घर रहा मेरा 
और कोशिश करूंगी कि मन ही मन न नापूं 
अपने दोस्तों के घर से उसकी दूरी. 

वह मोटी विधवा अब मेरी पड़ोसन नहीं रही 
प्रणय के लिए जिसका रूदन अक्सर जगा दिया करता था मुझे. 

मुझे ईजाद करनी होंगी कुछ चीजें भ्रम से बचने के लिए. 
अपने कदम गिनना, शायद, 
या निचला होंठ काटना हल्के दर्द का मजा लेते हुए, 
या अपनी उँगलियों को व्यस्त रखना 
पेपर टिश्यू का एक पूरा पैकेट फाड़ने में. 

तकलीफ से बचने के लिए 
छोटे रास्तों का सहारा नहीं लूंगी. 
मटरगश्ती करने से खुद को रोकूंगी नहीं  
जब अपने दांतों को सिखा रही होऊंगी उस नफरत को चबाना 
जो अपने ही भीतर से पैदा होती है,
और बर्दाश्त करना 
उन सर्द हाथों को जिन्होनें मुझे उसकी तरफ धकेला था, 
याद रखूंगी 
कि बाथरूम की सफेदी पर धब्बे मैनें नहीं लगाए थे 
अपने खुद के अँधेरे से. 

बेशक, चीजें मुझे चकमा दे देती हैं 
दीवाल ने मेरे ख़्वाबों में दखलंदाजी नहीं की थी
और मौके की बेढंगी प्रकाश व्यवस्था से मेल खाने के लिए
पेंट के रंग की कल्पना मैनें नहीं की थी. 

यह मकान बरसों मेरा घर रहा. 
वह कोई छात्रावास नहीं था 
जहां मैं छोड़ देती अपना गाउन 
दरवाजे के पीछे किसी कील पर 
या लेई से चिपकाती पुरानी तस्वीरें.
लव इन द टाइम आफ कालरा  से छांटे गए वे रूमानी जुमले 
बेतरतीब हो गए होंगे अब तक तो 
और मिलकर दिखने लगे होंगे 
किसी मसखरी बात जैसे.
                            :: :: :: 

Friday, August 19, 2011

पासपोर्ट के बिना


राशिद हुसैन (1936 - 1977) एक प्रमुख फिलिस्तीनी कवि और वक्ता थे. उनका पहला कविता संग्रह 1957 में प्रकाशित हुआ था. उन्होंने 1959 के लैंड मूवमेंट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1966 के बाद वे सीरिया, लेबनान और न्यूयार्क में रहे. फरवरी  1977 में न्यूयार्क में ही उनका निधन हो गया.  














पासपोर्ट के बिना : राशिद हुसैन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मैं पैदा हुआ था बिना पासपोर्ट के 
बड़ा हुआ 
और देखा अपने वतन को 
जेल बनते 
पासपोर्ट के बिना 

इसलिए मैनें एक वतन उगाया 
एक सूरज 
और गेहूं 
हर घर में 
मैनें देख-रेख किया उसके पेड़ों की 
अपने गाँव के लोगों के चेहरे पर हँसी खिलाने के लिए 
सीखा कविताएँ लिखना 
पासपोर्ट के बिना 

मैनें जाना कि उसे अच्छी नहीं लगती बारिश 
जिसका वतन चुरा लिया गया हो 
अगर वह कभी लौट सके अपने वतन, वह लौटेगा 
पासपोर्ट के बिना 

मगर मैं आजिज आ चुका हूँ दिमागों से 
जो होटल बन चुके हैं ऎसी तमन्नाओं के 
जो बाँझ हैं, जब तक कि 
न हो पासपोर्ट 

पासपोर्ट के बिना 
मैं आया तुम तक 
और बगावत की तुम्हारे खिलाफ 
तो मार डालो मुझको 
शायद तब मुझे एहसास होगा कि मर रहा हूँ  
पासपोर्ट के बिना 
                    :: :: :: 

Thursday, August 18, 2011

कौन हराएगा किसको


मिस्र के कवि अहमद फौद नग्म अपनी क्रांतिकारी कविताओं के लिए जाने आते हैं. अपने राजनीतिक विचारों और राष्ट्रपति अनवर सादात एवं हुस्नी मुबारक की तीखी आलोचना के लिए वे कई बार जेल जा चुके हैं. मिस्र के वंचित वर्ग के बीच उन्हें जननायक सा दर्जा प्राप्त है. पेश है उनकी यह कविता...
 












वे कौन हैं और हम कौन : अहमद फौद नग्म 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

वे कौन हैं और हम कौन ?
वे शहजादे हैं और बादशाह 
दौलत और सत्ता है उनके पास 
हम गरीब और वंचित 
अपना दिमाग लगाओ.. सोचो 
सोचो, कौन कर रहा है किस पर हुकूमत ?

वे कौन हैं और हम कौन ?
हम दस्तकार हैं और मजदूर 
अल-सुन्ना और अल-फर्द 
हम आम जनता हैं, लम्बे और चौड़े 
हमारे दम से अन्न उगलती है धरती 
और हमारे पसीने से हरे-भरे होते हैं खेत.
अपना दिमाग लगाओ... सोचो 
सोचो, कौन करता है किसकी चाकरी ?

वे कौन हैं और हम कौन ?
वे शहजादे हैं और बादशाह 
वे बड़ी-बड़ी हवेलियाँ और कार 
और उनकी खूबसूरत औरतें 
उपभोक्तावादी जानवर 
केवल अपना पेट भरना है उनका काम 
अपना दिमाग लगाओ... सोचो 
सोचो, कौन खा रहा है किसको ?

वे कौन हैं और हम कौन ?
हम जंग हैं, उसके पत्थर और आग 
हम फौज हैं आज़ाद करा रहे अपने वतन को 
हम शहीद हैं 
जीतने या हारने वाले 
अपना दिमाग लगाओ... सोचो 
सोचो, कौन क़त्ल कर रहा है किसको ? 

वे कौन हैं और हम कौन ?
वे शहजादे हैं और बादशाह 
नए ढंग के कपड़े पहनने वाले 
जबकि हम सात-सात लोग रह रहे एक ही कमरे में 
वे शानदार दावतें उड़ाने वाले 
जबकि हमें नसीब होता है रूखा-सूखा 
वे घूमने वाले निजी हवाई जहाज़ों से 
हम धक्के खाने वाले बस में 
शानदार और फूलों से भरी है उनकी ज़िंदगी 
वे एक नस्ल के; हम दूसरी 
अपना दिमाग लगाओ... सोचो 
सोचो,
कौन हराएगा किसको ? 
                    :: :: :: 

Wednesday, August 17, 2011

ईमान मर्सल : मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करने वाली मार्क्स

ईमान मर्सल की एक और कविता...



मार्क्स का सम्मान : ईमान मर्सल
(अनुवाद : मनोज पटेल)

स्त्रियों के अंतःवस्त्रों से भरे
चमचमाते शो केसों के सामने 
मैं रोक नहीं पाती खुद को 
मार्क्स को याद करने से. 

मार्क्स का सम्मान करना ही वह इकलौती चीज थी 
जिसे साझा करते थे मेरे सभी चाहने वाले 
और मैनें इजाजत दी उन्हें -- गोकि अलग-अलग अनुपातों में -- 
अपनी देंह के भीतर छिपी 
कपड़े की गुड़िया को नोचने-खसोटने की.

मार्क्स
मार्क्स
मैं कभी माफ़ नहीं करने वाली तुम्हें.  
                    :: :: :: 

Tuesday, August 16, 2011

येहूदा आमिखाई : दो सवालों के बीच

येहूदा आमिखाई की किताब 'वक़्त' से एक और कविता...



येहूदा आमिखाई की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जमींदोज हो गया वह मकान 
जिसमें बहुत कुछ विचार किया करता था मैं 
अपने बचपन में. 
इस तरह मेरे विचार छुट्टा घूम रहे हैं दुनिया में 
और खतरे का सबब हैं मेरे लिए. 

यही वजह है कि मैं भटकता फिरता हूँ इधर-उधर 
और बदलता रहता हूँ मकान 
ताकि वे ढूंढ़ न पाएं मुझे. 
क्या वह आ गया? और, क्या अब भी वह यहीं रहता है?
इन दो सवालों के बीच से 
मैं हमेशा बच निकलता हूँ, नयी जगहों के लिए.

मेरा भी अंजाम होना है सारी गोश्त वाली चीजों की तरह : खोजा जाना,
पकड़ा जाना, मारा जाना, मारने के पहले ही बेचा जाना, 
नमक मिर्च लगाकर रखा जाना,
काटे जाना और यातना पाना, 
अजीब सी ज़िंदगी रही है मेरी 
और अजीब सी मौत भी 
और एक अजीब सी कब्र 
सिरहाने के पत्थर पर 
लिखाई की गल्तियों के साथ. 
                    :: :: :: 

Sunday, August 14, 2011

अडोनिस : कोई और वर्णमाला


पेन अमेरिकन सेंटर ने 2011 के पेन साहित्यिक पुरस्कारों की घोषणा कर दी है. गद्य के अनुवाद के लिए यह पुरस्कार इस बार इब्राहिम मुहावी को महमूद दरवेश की किताब 'जर्नल आफ ऐन आर्डिनरी ग्रीफ' के अनुवाद के लिए दिए जाने की घोषणा की गई है. इस किताब के एक छोटे से अंश का अनुवाद आप इस ब्लॉग पर यहाँ देख सकते हैं. इसी तरह कविता के अनुवाद के लिए यह पुरस्कार खालिद मत्तावा को, अडोनिस की चुनिन्दा कविताओं के अनुवाद की किताब 'अडोनिस : सेलेक्टेड पोयम्स' के लिए दिए जाने की घोषणा की गई है. इस किताब से भी अडोनिस की बहुत सी कविताओं के अनुवाद आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. दोनों अनुवादकों को बधाई के साथ पेश है अडोनिस की एक और कविता...  


खंडहर : अडोनिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब बेरुत खून और राख से बैसाखियाँ बनाकर उनके सहारे लंगड़ा कर चल रहा होता है, चाँद अपने आईने खंडहरों पर पटक कर चूर-चूर कर देता है. 

सचमुच, आसमान के पैरों में बेड़ियाँ हैं और सितारों की कमर में खंजर बंधे हुए हैं. 

जो उसे दिख रहा है उसपर अविश्वास जताते हुए, समय आँखें मल रहा है. 

रो लो बेरुत, क्षितिज के दामन से अपने आंसू पोंछ लो. तुमने फिर से आसमान पर लिखा मगर तुम गलत थे, और अब तुम्हारी गलतियां तुम्हें लिख रही हैं. 

क्या तुम्हारे पास कोई और वर्णमाला है ? 
                                                :: :: :: 

ईमान मर्सल : सम्पादकीय कक्ष

ईमान मर्सल की एक और कविता...

सम्पादकीय कक्ष : ईमान मर्सल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक बार मैं भी बनी एक साहित्यिक पत्रिका की सम्पादक 
और पूरी दुनिया एक पांडुलिपि हो उठी धूल से ढँकी हुई.
चिट्ठियों के ढेर लगे होते थे 
अपनी डाक व्यवस्था में सरकारी भरोसे की टिकट के साथ. 
और जहां ऊब के सिवाय और किसी चीज की उम्मीद भी न थी 
टिकटें उजाड़ना ही बन गया मेरे लिए सबसे रोमांचक काम 
जबकि उस पर से सूख रही होती थी अभागे लेखकों की थूक. 
हर रोज सम्पादकीय कक्ष में आना 
अपने आप को एक कोने में धर देने जैसा होता था 
जैसे खारे घोल में रखना कान्टेक्ट लेंस को.
केवल हताशा थी वहां दूसरे लोगों की हताशा को मापने के लिए. 
साफ़ तौर पर यह उचित नहीं था ऎसी पत्रिका के लिए 
जिसका लक्ष्य हो समतावादी समाज. 
कोई बाल्कनी नहीं थी उस कमरे में, 
मगर दराजें भरी हुआ करती थीं कैंचियों से.  
                        :: :: :: 

Saturday, August 13, 2011

ईमान मर्सल : देखती हूँ अपने आस-पास


ईमान मर्सल की कविता...











देखती हूँ अपने आस-पास : ईमान मर्सल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

अक्सर देखा करती हूँ अपने आस-पास 
उस इंसान की सतर्कता के साथ 
जिसे भान हो अपनी मृत्यु का. 
शायद इसीलिए मेरी गर्दन की ताकत 
मेल नहीं खाती मेरे शरीर की ताकत से, 
और आश्चर्य की बात तो यह है 
कि मुझे सुनसान गलियों से 
गोलियां चलने का आभास नहीं होता 
या क़त्ल के खामोश तरीके के तौर पर 
चाकुओं के चलने का, 
बल्कि आभास होता है मुझे उठती निगाहों का 
उन आँखों से जिनकी झलक मुझे बमुश्किल ही मिल पाती है 
मगर वे कर सकती हैं वो काम 
जिसे किया ही जाना है. 
                    :: :: :: 

Friday, August 12, 2011

ईमान मर्सल : अमीना

ईमान मर्सल 1966 में मिस्र की पैदाइश, 1998 में आधुनिक अरबी कविता पर काहिरा विश्वविद्यालय से डाक्टरेट, कनाडा के एक विश्वविद्यालय में अध्यापन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ हाई स्कूल से ही प्रकाशित होने लगी थीं. अब तक कुल चार कविता-संग्रह, कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, हिब्रू, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं में भी हो चुका है. 


अमीना : ईमान मर्सल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

तुम फोन पर बीयर लाने के लिए कहती हो 
उस स्त्री के आत्मविश्वास के साथ जो तीन भाषाएँ जानती है 
और जो शब्दों को बुन सकती है अप्रत्याशित सन्दर्भों में. 
सुरक्षा का ऐसा एहसास तुमने कहाँ से पाया
जैसे कि कभी छोड़ा ही नहीं तुमने अपने बाबुल का घर ? 
इस विनाशकता को भड़काती क्यों है तुम्हारी मौजूदगी 
जिसके पीछे कोई इरादा नहीं, 
यह गंभीरता 
जो मेरी इन्द्रियों को मुक्त करती है उनके अंधेरों से ? 
मैं करूँ भी तो क्या  
जब हमारा साझे का होटल का कमरा मुझे पेश कर रहा हो 
एक सम्पूर्ण दोस्त 
सिवाय इसके कि मैं गोला बना लूं अपने अपरिष्कृत तौर तरीकों का
और फेंक दूं उसके सामने अपने द्वारा बरते गए गंवारूपन की तरह ? 

चलो चलो, मस्त रहो.
मैं इंसाफपसंद हूँ. 
तुम्हें कमरे की आधे से भी ज्यादा आक्सीजन लेने दूंगी 
इस शर्त पर कि तुम मुझे तुलनात्मक निगाहों से नहीं देखोगी, 
बीस साल बड़ी हो तुम मेरी माँ से 
और पहनती हो रंग-बिरंगे कपड़े 
कभी बूढ़ी नहीं होने वाली तुम. 

मेरी सम्पूर्ण दोस्त, 
अब तुम चली क्यों नहीं जाती.
क्या पता कि मैं खोलूँ धूसर आलमारियाँ 
और पहन कर देखूं तुम्हारी नए ढंग की चीजों को.
तुम जाती क्यों नहीं
कमरे की सारी आक्सीजन मेरे लिए छोड़कर. 
तुम्हारी गैरहाजिरी का शून्य मुझे प्रेरित कर सकता है 
पछतावे में अपने होंठ काटने के लिए 
देखते हुए तुम्हारा टूथब्रश     
चिरपरिचित... और गीला. 
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