Monday, September 22, 2014

बिलावल भुट्टो के नाम एक खुला पत्र

(बिलावल भुट्टो के कश्मीर वाले बहुचर्चित बयान पर अमरीकन देसी डॉट कॉम नामक वेबसाइट पर उनके नाम एक खुला पत्र प्रकाशित हुआ है. मौजूं लगा तो उसका अनुवाद कर आपके सामने पेश कर रहा हूँ.) 
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बिलावल भुट्टो के नाम एक खुला पत्र : अमरीकन देसी 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

प्रिय बिलावल, 

पहले तो तुम्हें जन्मदिन की बहुत-बहुत मुबारकबाद. 26! बड़ी ख़ास उम्र होती है यह. मुझे भी अपना वह दौर याद आ गया जब मैं नौजवान और बेवकूफ था, पर शायद इतना भी नहीं. अपनी सालगिरह पर बतौर एक ख़ास तोहफा तुम सोशल मीडिया पर चर्चा में हो और हर हिन्दुस्तानी तुम्हारे बारे में बात कर रहा है. पड़ोसियों की मुहब्बत समझकर शुक्रिया कहो. यार तहजीब कहाँ गई तुम्हारी?  

मैंने वह वीडियो क्लिप बड़ी दिलचस्पी से देखी. वही जिसमें तुमने कश्मीर का एक-एक इंच पाकिस्तान के लिए लेने की बात की थी. बॉस इतनी कम उम्र में ऐसा पक्का इरादा फ़क्र की बात है. तुम्हें इस उम्र में ऐसे स्पष्ट विचार रखने के लिए अपनी पीठ थपथपानी चाहिए जब तुम्हारी उम्र के ज्यादातर हिन्दुस्तानी जावा और एसक्यूएल के सिद्धान्तों का रट्टा मारने और गुड़गांव की किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में 50 फीसदी बढ़ोत्तरी वाली नौकरी हथियाने में जुटे रहते हैं. इससे तुम गलत प्राथमिकताओं की बाबत भी जान सकते हो.  

फिर से तुम्हारे भाषण की बात करें. जिस अनगढ़ जोश और उत्साह से तुमने अपनी बात रखी वह मुझे अच्छा लगा. 'लेंगे लेंगे…कश्मीर…पूरा का पूरा कश्मीर…पाकिस्तान का कश्मीर…लेंगे'.  क्या तो तुमने अपने हाथ ताने, अपनी आवाज ऊंची की और बिल्कुल किसी डब्ल्यूडब्ल्यूई उद्घोषक की तरह बोले. फर्क बस यह था कि तुम्हारी आवाज़ अभी फटी नहीं है जिससे वह डरावनी की बजाए प्यारी लग रही थी. और तुम्हारी इस क़ातिल खूबसूरती को क्या कहूँ, बॉस अगर मैं वहाँ होता तो तुम्हारे गालों को चूमता और निःस्वार्थ प्रेम के वशीभूत तुम्हारे उन चमकते गालों पर चुटकी काटता. चालाक लोमड़ी, तुम्हें खूबसूरत होने के चलते औरतों के वोट मिलेंगे और इस भाषण के चलते मर्दों के.               

बॉस, कश्मीर तो नहीं मिल पाएगा. मतलब तुम क्यूट वगैरह तो हो ही, तुम्हारा उस खूबसूरत महिला मंत्री से चक्कर भी रहा होगा जिसके हैण्डबैग की कीमत बाक़ी के पाकिस्तान से ज्यादा हुआ करती है, मगर ज़िंदगी सब पर इतनी मेहरबान तो होती नहीं. तुम्हें कश्मीर चाहिए. यो यो हनी सिंह को ग्रैमी अवार्ड चाहिए. मुझे एक आईफोन 6 चाहिए. मगर हाय री क़िस्मत ! 

लेकिन हम तुम्हारे लिए दूसरा तोहफा जुगाड़ सकते हैं. एक टाइम मशीन. या बेबी, तुमने बिल्कुल ठीक सुना. मैं भविष्य में झाँकने में तुम्हारी मदद कर सकता हूँ ताकि तुम देख सको कि तुम्हारी ज़िंदगी में आगे क्या होने वाला है. 

वहाँ एक शख्स है. उम्र 44 साल, तुम्हारी ही तरह फेयर एण्ड लवली, तुम्हारी ही तरह नौजवान दिलों की धड़कन, तुम्हारी ही तरह इंग्लैण्ड में तालीमयाफ्ता, तुम्हारी ही तरह सियासी खानदान का चश्मो-चिराग़, और अपने लोगों के लिए उसके भी बोल हँसी और संजीदगी का सटीक घालमेल होते हैं. मैं तुम्हारे सामने राहुल गांधी को पेश करता हूँ. वह 18 साल बाद के तुम हो. वह तुम्हारी टाइम मशीन है. तुम क्या बनने वाले हो यह देखने के लिए बस उसे देख लो. तुम्हारा स्वागत है. 

तुम्हें पता है कि आज पूरा हिन्दुस्तान क्या सोच रहा है? कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान बिल्कुल एक जैसे हैं. हमारी तहजीब एक है. हम वही रोटी और बटर चिकन खाते हैं. हम एक ही पायरेटेड बॉलीवुड म्यूजिक सुनते हैं. हमारी क्रिकेट टीमें एक जैसी अस्थिर और आसानी से लालच में फंसने वाली हैं. कभी हमारी हॉकी टीमों का बोलबाला था मगर अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादातर उनकी भद ही पिटती है. हमारे नेता एक जैसे जोकरों के समूह हैं. अपने ख़ास अंदाज में शाहरुख खान के बाहें फैलाने पर सरहद के दोनों ही तरफ की लड़कियाँ बेहोश हो जाती हैं. 

हमारे पास राहुल हैं. उनके पास तुम हो. सेम टू सेम. 

फिर से कश्मीर पर आते हैं. कम ऑन यार. इतने परेशान मत हो. ठीक है, हम एक चीज आजमा सकते हैं. तुम अर्णव जी के न्यूज ऑवर में पैनल डिस्कशन के लिए क्यों नहीं आ जाते? वहाँ आकर तुम समझाओ कि तुम्हें क्यों वह सूबा चाहिए जिसके लिए पिछले साठेक सालों में भारत चार बार तुम्हारे देश की मिट्टी पलीद कर चुका है. ठीक है न? 

अगर उनके शो में तुम बगैर किसी बाधा के दस पूरे वाक्य बोल ले गए तो कश्मीर तुम्हारा. बोलो चलेगा? शर्त बस यही है कि नाकाम रहने पर तुम्हें एक महीने तक लगातार अरबाज खान का 'माँ तुझे सलाम' देखना पड़ेगा और हर बार उसके 'दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे' कहने पर तुम्हें चिकन-डांस करना होगा. 
                                                                         :: :: ::

Wednesday, August 27, 2014

गिओर्गि गस्पदीनव की कविता

बुल्गारिया के कवि गिओर्गि गस्पदीनव की एक और कविता… 

 ओडियन  : गिओर्गि गस्पदीनव   
(अनुवाद : मनोज पटेल) 
 
किसी दिन ठंडे पड़ जाएंगे हम भी 
जैसे ठंडी हो रही है चाय की प्याली 
पिछवाड़े बरामदे में बिसराई हुई 
जैसे कीचड़ में गिरे लिली के फूल 
जैसे पुराने वाल-पेपर के ऑर्किड 
धुंधला जाएंगे हम भी किसी दिन 
मगर इतनी शान से नहीं 
और किन्हीं दूसरी फिल्मों में 
                   :: :: ::

Monday, March 24, 2014

दुन्या मिखाइल : दुनिया का आकार

"कविता दवा नहीं होती -- वह एक्सरे होती है. वह जख्म को देखने और समझने में आपकी मदद करती है."  -- दुन्या मिखाइल 
दुन्या मिखाइल के शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह 'द इराकी नाइट्स' से एक कविता… 


 
दुनिया का आकार  : दुन्या मिखाइल  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 
 
अगर चपटी होती दुनिया 
किसी जादुई कालीन की तरह,  
तो हमारे दुख का कोई आदि होता और कोई अंत. 

अगर चौकोर होती दुनिया,  
तो किसी कोने में छुप जाते हम 
जब "लुका-छुपी" खेलती जंग. 

अगर गोल होती दुनिया, 
तो चर्खी झूले पर चक्कर लगाते हमारे ख्वाब, 
और एक बराबर होते हम. 
                 :: :: :: 

Sunday, March 9, 2014

एडीलेड क्रेप्सी की कविता

एडीलेड क्रेप्सी (1878 - 1914) की एक कविता...   
 

मौसम की मार खाए पेड़ों को देखकर  : एडीलेड क्रेप्सी   
(अनुवाद : मनोज पटेल) 
 
क्या इतना ही साफ़-साफ़ दिखता है हमारे जीने में 
झुकाव और घुमाव से, कि किस ओर बही है हवा?  
                                 :: :: :: 

Monday, March 3, 2014

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : जहन्नम

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   
जहन्नम : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 
 
मरने के बाद मुझे जहन्नम में दफनाया गया 

मुझे जिस क़ब्र में दाखिल किया गया 
वहाँ एक आदमी पहले से मौजूद था 
यह वही आदमी था जिसे मैंने क़त्ल किया था 
जब क़ातिल और मक़तूल एक ही क़ब्र में जमा हो जाएं 
असल जहन्नम वहीं से शुरू होता है 

अजाब के फ़रिश्ते सवाल व जवाब के लिए क़ब्र में आ गए 
फ़रिश्ते नंगे थे 
उन्हें देखकर मुझे मतली आने लगी 
जो मैंने रोक ली 
मैं अपनी क़ब्र को गंदा नहीं करना चाहता था 

फ़रिश्ते डरे हुए थे 
शायद दोहरी क़ब्र में उतरने का उन्हें कोई तजुर्बा नहीं था 
सवाल शुरू करने के लिए 
एक फ़रिश्ते ने अपने कान से एक सिक्का निकाला 
जिस पर एक जानिब मेरी तस्वीर थी 
और दूसरी जानिब ख़ुदा की 
फ़रिश्ते ने सिक्का उछाला 
हारने वाले फ़रिश्ते ने सवालात शुरू करना चाहे 
मैंने तलवार खींच ली 
फ़रिश्ते मेरी क़ब्र छोड़कर भाग गए 
मैंने कब्र की मिट्टी पर पड़ा हुआ सिक्का उठा लिया 
यह जहन्नम में मेरी पहली कमाई थी 

"तुमने अजाब के फरिश्तों पर तलवार उठाकर अच्छा नहीं किया" 
"मैंने तुम पर तलवार उठाकर भी अच्छा नहीं किया था सूअर के बच्चे" 
"तुम मुझे क़त्ल कर सकते हो मगर गाली नहीं बक सकते" 
मगर यह गलत था 
मैं एक आदमी को दोबारा क़त्ल नहीं कर सकता था 
"अब जहन्नम का दारोग़ा तुम्हारी खबर लेगा" 

मैं जहन्नम के दारोग़ा के इंतज़ार में बैठ गया 
और सोचने लगा 
यह आदमी जो अपनी क़ब्र में भी मुझसे पनाह मांग रहा है 
उसे किस सिलसिले में मुझसे मुक़ाबले का हौसला पैदा हुआ होगा 
मगर उसकी गर्दन पर तलवार का निस्फ़ दायरा ज़िंदा था 
और ऐसा ज़ख्म सारी दुनिया में सिर्फ मैं लगा सकता था 

इतने में शोर हुआ 
जहन्नम का दारोग़ा हमारी क़ब्र में आ गया 
यह कुछ महजूब फरिश्ता था और कपड़े पहने हुए था 

"क्या तुमने मेरे फ़रिश्ते पर तलवार उठाई थी?" 
"जनाब इसने आपके फ़रिश्ते पर तलवार उठाई थी" 
क़ब्र के दूसरे गोशे से मेरे मक़तूल ने कहा 
हालांकि फ़रिश्ते के मुक़ाबले में उसे आदमी की हिमायत करनी चाहिए थी 

"क्या फरिश्ता मेरी तलवार से ज़ख्मी हो सकता है?" 
"नहीं" 
"क्या मैं फ़रिश्ते को क़त्ल कर सकता हूँ?" 
"नहीं" 
"क्या मुझे ऐसे जुर्म की सजा मिल सकती है 
जिसको अंजाम देना नामुमकिन हो?" 
"मैं नहीं कह सकता" 
"कौन कह सकता है?" 
"ख़ुदा" 

जहन्नम का दारोग़ा चला गया 
"तुमने जहन्नम के दारोग़ा को भगा दिया?" 
"मैं क़यामत को भी भगा दूंगा" 
"मगर क़यामत तो आ चुकी" 
मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कि क़यामत हो भी चुकी और मुझे पता नहीं चला 
"तुम क़यामत में नहीं मरे?" 
"कुछ लोग क़यामत से नहीं मरे 
ख़ुदा ने उनको बराहे रास्त जहन्नम में बुला लिया" 

जहन्नम में मैंने अपनी जेब से ताश निकाला 
और सब्र का खेल खेलने लगा 
यहाँ तक कि पत्ते गल सड़ गए 
फिर मैंने अपनी याददाश्त को बावन खानों में बाँट दिया 
और सब्र का खेल खेलने लगा 

एक दिन एक कामचोर फरिश्ता 
हमारी क़ब्र में छुपकर आराम करने को आ गया 
मैंने उसकी गर्दन पर तलवार रख दी 
"मैं तुम्हें क़त्ल कर दूंगा" 
"तुम मुझे क़त्ल नहीं कर सकते मगर तलवार हटा लो, मुझे डर लगता है" 
"मुझे बाहर ले चलो" 
"यह कभी नहीं हुआ" 
जवाब में मैंने अजाब के फ़रिश्ते से हासिल किया हुआ सिक्का 
कामचोर फ़रिश्ते के हाथ पर रख दिया 
फ़रिश्ते ने सर झुका लिया 

मैं क़ब्र से बाहर निकलने लगा 
फिर मुझे अपने मक़तूल का ख्याल आया 
मैंने उसे आवाज़ से झिंझोड़ा 
"बाहर चलो" 
"मुझे बाहर नहीं जाना है 
मुझे तुम्हारे साथ कहीं नहीं जाना है" 
मैंने उसके मुंह पर थूक दिया 
और अपनी क़ब्र से बाहर निकल आया 
                          :: :: :: 

मक़तूल  :  जिसे क़त्ल किया गया हो  
अजाब  :  यमलोक में पाप का दंड  
जानिब  :  तरफ, पक्ष, पहलू  
निस्फ़  :  आधा  
महजूब  :  शर्मदार 
गोशे से  :  कोने से 
बराहे रास्त  :  सीधे 
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