Sunday, August 14, 2011

ईमान मर्सल : सम्पादकीय कक्ष

ईमान मर्सल की एक और कविता...

सम्पादकीय कक्ष : ईमान मर्सल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक बार मैं भी बनी एक साहित्यिक पत्रिका की सम्पादक 
और पूरी दुनिया एक पांडुलिपि हो उठी धूल से ढँकी हुई.
चिट्ठियों के ढेर लगे होते थे 
अपनी डाक व्यवस्था में सरकारी भरोसे की टिकट के साथ. 
और जहां ऊब के सिवाय और किसी चीज की उम्मीद भी न थी 
टिकटें उजाड़ना ही बन गया मेरे लिए सबसे रोमांचक काम 
जबकि उस पर से सूख रही होती थी अभागे लेखकों की थूक. 
हर रोज सम्पादकीय कक्ष में आना 
अपने आप को एक कोने में धर देने जैसा होता था 
जैसे खारे घोल में रखना कान्टेक्ट लेंस को.
केवल हताशा थी वहां दूसरे लोगों की हताशा को मापने के लिए. 
साफ़ तौर पर यह उचित नहीं था ऎसी पत्रिका के लिए 
जिसका लक्ष्य हो समतावादी समाज. 
कोई बाल्कनी नहीं थी उस कमरे में, 
मगर दराजें भरी हुआ करती थीं कैंचियों से.  
                        :: :: :: 

Saturday, August 13, 2011

ईमान मर्सल : देखती हूँ अपने आस-पास


ईमान मर्सल की कविता...











देखती हूँ अपने आस-पास : ईमान मर्सल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

अक्सर देखा करती हूँ अपने आस-पास 
उस इंसान की सतर्कता के साथ 
जिसे भान हो अपनी मृत्यु का. 
शायद इसीलिए मेरी गर्दन की ताकत 
मेल नहीं खाती मेरे शरीर की ताकत से, 
और आश्चर्य की बात तो यह है 
कि मुझे सुनसान गलियों से 
गोलियां चलने का आभास नहीं होता 
या क़त्ल के खामोश तरीके के तौर पर 
चाकुओं के चलने का, 
बल्कि आभास होता है मुझे उठती निगाहों का 
उन आँखों से जिनकी झलक मुझे बमुश्किल ही मिल पाती है 
मगर वे कर सकती हैं वो काम 
जिसे किया ही जाना है. 
                    :: :: :: 

Friday, August 12, 2011

ईमान मर्सल : अमीना

ईमान मर्सल 1966 में मिस्र की पैदाइश, 1998 में आधुनिक अरबी कविता पर काहिरा विश्वविद्यालय से डाक्टरेट, कनाडा के एक विश्वविद्यालय में अध्यापन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ हाई स्कूल से ही प्रकाशित होने लगी थीं. अब तक कुल चार कविता-संग्रह, कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, हिब्रू, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं में भी हो चुका है. 


अमीना : ईमान मर्सल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

तुम फोन पर बीयर लाने के लिए कहती हो 
उस स्त्री के आत्मविश्वास के साथ जो तीन भाषाएँ जानती है 
और जो शब्दों को बुन सकती है अप्रत्याशित सन्दर्भों में. 
सुरक्षा का ऐसा एहसास तुमने कहाँ से पाया
जैसे कि कभी छोड़ा ही नहीं तुमने अपने बाबुल का घर ? 
इस विनाशकता को भड़काती क्यों है तुम्हारी मौजूदगी 
जिसके पीछे कोई इरादा नहीं, 
यह गंभीरता 
जो मेरी इन्द्रियों को मुक्त करती है उनके अंधेरों से ? 
मैं करूँ भी तो क्या  
जब हमारा साझे का होटल का कमरा मुझे पेश कर रहा हो 
एक सम्पूर्ण दोस्त 
सिवाय इसके कि मैं गोला बना लूं अपने अपरिष्कृत तौर तरीकों का
और फेंक दूं उसके सामने अपने द्वारा बरते गए गंवारूपन की तरह ? 

चलो चलो, मस्त रहो.
मैं इंसाफपसंद हूँ. 
तुम्हें कमरे की आधे से भी ज्यादा आक्सीजन लेने दूंगी 
इस शर्त पर कि तुम मुझे तुलनात्मक निगाहों से नहीं देखोगी, 
बीस साल बड़ी हो तुम मेरी माँ से 
और पहनती हो रंग-बिरंगे कपड़े 
कभी बूढ़ी नहीं होने वाली तुम. 

मेरी सम्पूर्ण दोस्त, 
अब तुम चली क्यों नहीं जाती.
क्या पता कि मैं खोलूँ धूसर आलमारियाँ 
और पहन कर देखूं तुम्हारी नए ढंग की चीजों को.
तुम जाती क्यों नहीं
कमरे की सारी आक्सीजन मेरे लिए छोड़कर. 
तुम्हारी गैरहाजिरी का शून्य मुझे प्रेरित कर सकता है 
पछतावे में अपने होंठ काटने के लिए 
देखते हुए तुम्हारा टूथब्रश     
चिरपरिचित... और गीला. 
                    :: :: :: 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...