ईमान मर्सल की एक और कविता...
सम्पादकीय कक्ष : ईमान मर्सल
(अनुवाद : मनोज पटेल)
एक बार मैं भी बनी एक साहित्यिक पत्रिका की सम्पादक
और पूरी दुनिया एक पांडुलिपि हो उठी धूल से ढँकी हुई.
चिट्ठियों के ढेर लगे होते थे
अपनी डाक व्यवस्था में सरकारी भरोसे की टिकट के साथ.
और जहां ऊब के सिवाय और किसी चीज की उम्मीद भी न थी
टिकटें उजाड़ना ही बन गया मेरे लिए सबसे रोमांचक काम
जबकि उस पर से सूख रही होती थी अभागे लेखकों की थूक.
हर रोज सम्पादकीय कक्ष में आना
अपने आप को एक कोने में धर देने जैसा होता था
जैसे खारे घोल में रखना कान्टेक्ट लेंस को.
केवल हताशा थी वहां दूसरे लोगों की हताशा को मापने के लिए.
साफ़ तौर पर यह उचित नहीं था ऎसी पत्रिका के लिए
जिसका लक्ष्य हो समतावादी समाज.
कोई बाल्कनी नहीं थी उस कमरे में,
मगर दराजें भरी हुआ करती थीं कैंचियों से.
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