Thursday, August 11, 2011

फदील अल-अज्ज़वी : हम सभी बहुत व्यस्त हैं इन दिनों


फदील अल-अज्ज़वी की यह कविता पढ़ें...


सुप्रभात ईश्वर : फदील अल-अज्ज़वी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सुप्रभात ईश्वर !
मुझे यकीन है कि आप मुझे जानते होंगे, 
भले ही हम मिले नहीं कभी, 
क्योंकि आप तो सभी को उनके नाम से जानते हैं,
एक-एक को,
भले और बुरे लोगों को. 
मैं सचमुच आपसे मिलना चाहता था 
अपना सच्चा विश्वास जताने के लिए,
मगर नहीं जानता था आसमान में आपका पता 
जहां सितारों और आकाश गंगाओं की पूरी भूल-भुलैया है. 
आप तो जानते ही हैं कि मैं कोई अन्तरिक्ष यात्री नहीं हूँ 
और कोई यान नहीं मेरे पास आप तक पहुँचने के लिए. 
मुझे पता है कि आप बहुत व्यस्त रहते हैं. 
दरअसल, हम सभी बहुत व्यस्त हैं इन दिनों 
भले ही बेरोजगार हूँ मैं शुरू से ही. 
फिर भी मैं चाहूंगा कि आप मेरी बात सुनें 
जब हर चीज पर आपको अपने विचार बता रहा होऊँ मैं. 
आखिरकार, आपने ही बनाया मुझे और फेंक दिया 
इस कमबख्त धरती पर.
कितना कुछ सुना था मैनें आपके बारे में 
अपने पैदा होने से भी पहले.
वे आपके बारे में इज्जत से जरूर बात करते हैं  
मगर बुरी नीयत से. 
मुझे भरोसा है कि वे आपको नुकसान पहुंचाना चाहते हैं.
उन्हें डर है बंद गाड़ी से ले जाकर 
नरक में ठेल दिए जाने का,  
या लालच है उन्हें स्वर्ग में शानदार महलों का. 
आपको तो मुझसे बेहतर ही पता होगी यह बात. 
यह बहुत कष्टप्रद होगा, है कि नहीं ?
मगर मैं क्यूं परवाह करूँ इस सब की 
क्योंकि मैं तो सिर्फ एक दोस्त की हैसियत से आपसे बात करना चाहता था 
जिसे फायदे या नुकसान से कोई मतलब नहीं है 
और क्योंकि मैं आपसे बात करना चाहता था 
दिल से दिल की बात 
जैसे कि वे कहते हैं ? 
मैनें आपको फोन मिलाना चाहा,
मगर आपका नाम न पा सका 
टेलीफोन निर्देशिका में, 
और इसलिए मुझे बहुत खुशी होगी 
यदि आप मुझे फोन कर लें 
और थोड़ा हिम्मत बढ़ाएं मेरी, 
मजाकिया लहजे में मुझसे पूछते हुए, 
"और क्या हाल-चाल है फदील, 
कैसा चल रहा है इस फानी दुनिया में ?"
आप तो मेरा फोन नंबर जानते ही हैं.
जब भी दिल करे मुझे फोन मिलाएं 
दिन हो या रात.
मैं ज्यादातर वक़्त घर पर ही बिताता हूँ
पढ़ते-लिखते या टेलीविजन देखते, 
और कभी-कभार एकाध झपकी मार लेता हूँ 
दुनिया के भविष्य के बारे में सोचते हुए. 
सचमुच, कम से कम एक बार तो मिल ही लिया जाय. 
आपको भी तो थोड़ा छुट्टी की जरूरत है. 
मुझे आपसे बहुत कुछ बताना है,
ढेर सारी बातें जिन्हें मैनें किसी से नहीं बताया है,
ऎसी बातें जिन्हें मैं सिर्फ आप से ही बता सकता हूँ. 
और अगर आप चाहेंगे तो मैं आपको अपनी ताज़ा कविताएँ सुनाऊंगा 
ताकि आप ईमानदारी से अपनी राय मुझे बता सकें.
हो सकता है हम इंसानियत के भविष्य के बारे में बात करें 
या ब्रम्हांड के भविष्य के बारे में 
काफी के एक प्याले के साथ.
मेरे पास बहुत सी योजनाएं और विचार हैं.
मुझे लगता है कि वे आपको पसंद आएंगी. 
मैं अपने घर पर ही मिलना पसंद करूंगा,
और हर हाल में, आप पता तो जानते ही हैं.
दरवाज़े पर मेरा नाम लिखा है. 
बस एक बार घंटी बजा दीजिएगा 
और आप भीतर से मेरी आवाज़ सुनेंगे, 
"दरवाज़ा खुला है. स्वागत है ईश्वर. अन्दर आ जाइए.
मुझे आपका इंतज़ार था जाने कब से."
                    :: :: ::    

Wednesday, August 10, 2011

फौज़िया अबू खालिद : दो बच्चे


फौज़िया अबू खालिद की कुछ कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं, आज उनकी एक और कविता... 










दो बच्चे : फौज़िया अबू खालिद 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

माँ नूर के लिए, एक कवि जिनकी कविताएँ मैं उधार लेती हूँ 

मैं चिपकी रहती हूँ उसकी पोशाक से 
जैसे एक बच्चा चिपका रहे पतंग की डोर से, 
चढ़ती हूँ उसके बालों की चोटी पर 
जैसे कोई गिलहरी चढ़े बादाम के पेड़ पर, 
दोपहर में, हम कूदते रहते हैं एक दुनिया से दूसरी दुनिया में,
मस्ती करते हैं हवा में 
जैसे परिंदे, खुल गया हो जिनके पिंजड़े का दरवाज़ा, 
एक खेल छोड़, खेलने लगते हैं दूसरा खेल, 
वह मुझे सिखाती है
          फूलों के नाम 
          बारिशों के मौसम 
          अपने वतन का प्रेम, 
मैं उसे सिखाती हूँ 
          जिद और शरारत 
एक सेब साझा करते हैं हम और ढेरों ख्वाब 
रेगिस्तान को हम बना देते हैं सवालों की एक जन्नत 
एक-दूसरे पर डालते हैं मरीचिका का पानी 
          और दोस्ती करते हैं एक भटके हुए हिरन से
जब शाम हमें पकड़ लेती है 
          धुंधली रोशनी में, 
है कोई बूझने वाला
यह पहेली : 
कौन माँ है 
और कौन बेटी ? 
                    :: :: :: 

Tuesday, August 9, 2011

येहूदा आमिखाई : कैसे दोस्ती में बदल गया प्रेम

येहूदा आमिखाई की किताब 'वक़्त' से एक और कविता...

















येहूदा आमिखाई की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक गहरी चाहत पैदा हुई मेरे भीतर 
किसी पुरानी तस्वीर में दिख रहे लोगों की तरह 
जो वापस उन लोगों के बीच आना चाहते हैं 
जो देख रहे हैं उस तस्वीर को 
दिये की बेहतर रोशनी में.

यहाँ इस मकान में मैं सोच रहा हूँ 
कि कैसे हमारे जीवन के रसायन शास्त्र में
दोस्ती में बदल गया प्रेम.
मैं दोस्ती के बारे में सोचता हूँ जो हमें शांत करती है मौत के लिए 
और कैसे हमारी जिंदगियां इकहरे धागे की तरह हैं 
किसी और कपड़े में 
फिर से बुने जाने की किसी उम्मीद के बिना. 

रेगिस्तान से आ रही हैं 
घुटी हुई आवाजें, 
मिट्टी भविष्यवाणी करती है मिट्टी की, एक हवाई जहाज 
बंद करता है हमारे सिरों के ऊपर 
तकदीर के बड़े से थैले की चेन.

और एक लड़की की स्मृति जिसे मैं कभी प्यार करता था 
चलती है आज की रात घाटी में, जैसे कोई बस -- 
तमाम रोशन खिड़कियाँ गुजरती हुईं, 
गुजरते हुए उसके तमाम चेहरे. 
                    :: :: :: 
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