Saturday, December 22, 2012

दून्या मिखाइल : झूलने वाली कुर्सी

दुन्या मिखाइल की इस कविता का मेरा अनुवाद भी लगभग दो साल पहले 'नई बात' ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था.   
झूलने वाली कुर्सी : दून्या मिखाइल 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

जब वे आए, 
बड़ी माँ वहीं थीं 
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक 
झूलती रहीं वे...
अब 
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे 
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला 
छोड़कर इस कुर्सी को 
झूलते हुए.
         :: :: ::  

5 comments:

  1. कविता में कोई गूढ़ अर्थ हो तो शायद मैं नहीं पकड़ पा रहा हूँ वैसे अनुवाद बहुत अच्छा है !

    ReplyDelete
  2. हर एक का अंत आता है । और अपने पीछे ऐसे ही सब कुछ छूट जाता है ।

    ReplyDelete
  3. jhoolti hui kursi ka spandan man ke jane se ruk gaya hai.

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...