दुन्या मिखाइल की इस कविता का मेरा अनुवाद भी लगभग दो साल पहले 'नई बात' ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था.
झूलने वाली कुर्सी : दून्या मिखाइल
(अनुवाद : मनोज पटेल)
जब वे आए,
बड़ी माँ वहीं थीं
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक
झूलती रहीं वे...
अब
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला
छोड़कर इस कुर्सी को
झूलते हुए.
बड़ी माँ वहीं थीं
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक
झूलती रहीं वे...
अब
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला
छोड़कर इस कुर्सी को
झूलते हुए.
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sateek anuwad hai..
ReplyDeleteकविता में कोई गूढ़ अर्थ हो तो शायद मैं नहीं पकड़ पा रहा हूँ वैसे अनुवाद बहुत अच्छा है !
ReplyDeleteबहुत बढ़ियाँ....
ReplyDelete:-)
हर एक का अंत आता है । और अपने पीछे ऐसे ही सब कुछ छूट जाता है ।
ReplyDeletejhoolti hui kursi ka spandan man ke jane se ruk gaya hai.
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