पोलिश कवियत्री अन्ना स्विर की एक कविता...
समुद्र तट पर शरीर और आत्मा : अन्ना स्विर
(अनुवाद : मनोज पटेल)
समुद्र तट पर आत्मा
एक किताब पढ़ती है दर्शनशास्त्र की.
शरीर से पूछती है आत्मा:
वह क्या है जो जोड़ता है हमें?
शरीर कहता है:
समय हो गया घुटनों पर धूप सेंकने का.
आत्मा पूछती है शरीर से:
क्या यह सच है
कि असल में हमारा अस्तित्व नहीं होता?
शरीर कहता है:
मैं धूप सेंक रहा हूँ घुटनों पर.
शरीर से पूछती है आत्मा:
कहाँ होगी मृत्यु की शुरूआत,
तुम्हारे भीतर या मेरे?
शरीर हंसा,
वह धूप सेंकता रहा घुटनों पर.
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बहुत खूब . अब समझ में आया आत्मा हर वक्त क्यों कलपती रहती है ,देह क्यों थिरकती रहती है !
ReplyDeleteकमाल क़ी कविता लाये मनोज जी ! शारीर को अपने होने पर कोई संदेह नहीं हैं ,संदेह से भरी आत्मा ही अनुमोदन चाहती है और तरह -तरह के प्रश्न करती है !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार इस अच्छी कविता के लिए !
लाजवाब... कविता भी, और आपकी वापसी भी !!
ReplyDeleteshareer aur atma ke sanvad ki dilchasp kavita.admi ke donon roop alag thalg magar sath sath jeewan yatra karte hain.
ReplyDeleteअह.. क्या बात है ...खूब लाये.. घुटनों पर धुप सेंकना शरीर की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति ही स्वीकार किया मैंने.. फिर से स्वागत है आपका..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना.बहुत बहुत सहज.आभार अनुवाद के लिए.
ReplyDeleteकितने प्रश्नों के उत्तर छिपे हैं इसमें... क्या बात है मनोज जी... बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteशरीर जो अभी हँस रहा है एक दिन खो जायेगा..सुंदर कविता
ReplyDeleteअरे वाह... प्रश्नानुकूलता को तरजीह देती जानदार कविता...
ReplyDeleteशुक्रिया मनोज भाई, आपका जवाब नही।
कविता बहुत अच्छी लगी। कितनी समझ में आई कहना मुश्किल है। पाठकों की टिप्पणियों से थोड़ी मदद मिली। वे सभी धन्यवाद के पात्र है। आपको शुक्रिया तो कहना ही पड़ेगा....कविता के बेहतरीन अनुबाद के लिए।
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