अन्ना स्विर की एक और कविता...
वे तीसरी मंजिल से नहीं कूदे : अन्ना स्विर
(अनुवाद : मनोज पटेल)
दूसरा विश्व युद्ध
वारसा.
आज रात उन्होंने बम गिराए
थिएटर चौराहे पर.
थिएटर चौराहे पर
वर्कशाप थी मेरे पिता की.
सारी पेंटिंग, मेहनत
चालीस सालों की.
अगली सुबह पिताजी गए
थिएटर चौराहे की ओर.
उन्होंने देखा.
छत नहीं है उनकी वर्कशाप की,
नहीं हैं दीवारें
फर्श भी नहीं.
पिताजी कूदे नहीं
तीसरी मंजिल से.
उन्होंने फिर से शुरू किया
बिल्कुल शुरूआत से.
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bahut khub...
ReplyDeleteमार्मिक....
ReplyDeleteअद्भुत! प्रेमचंद के एक पात्र ( शायद सूरदास) की याद दिलाती है कविता.
ReplyDeleteआभार.
वाह!!!
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteहिम्मत करने वालों की हार नहीं होती, लहरों से डरकर नैया पार नहीं होती- (डा० बच्चन)।
ReplyDeleteअति उत्तम !
ReplyDeleteaisi baat jispe beeti ho wahi likh sakta hai..kalpana karne se aisi kavita nahi hoti..
ReplyDeleteवाह! यह दर्शन उतर आये जीवन में तो जीना कितना आसान हो जाय!
ReplyDeleteलेकिन हर बार हर आदमी के लिए यह आसान नहीं होता!
ReplyDeleteयही जिजीविषा बर्बादी के बाद सिर उठाने की प्रेरणा देती है.युद्ध के बाद सामान्य जीवन बिताना ही बहुत मुश्किल काम हो जाता है.
ReplyDeleteसुंदर--एक मराठी नाटक की याद आ गई जिस में मुख्य किरदार एक वृध्द इतिहास लेखक है --अनेक बरसों के परिश्रम से उसने लिखा इतिहास एक दिन बाढ़ बहा ले जाती है...और दूसरे दिन वो 'श्री गणेशाय नम:' कहते हुए स्वस्थता से पुन: इतिहास लेखन की शुरुआत करता है...मनोज जी बहुत बहुत आभार इस रचना के अनुवाद के लिए.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता ,प्रेरक और जीवन से भरपूर !
ReplyDeletekamaal ! kam shabdon me sabse badi prerna
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