फिलिस्तीनी कवि ताहा मुहम्मद अली की एक और कविता...
बदला : ताहा मुहम्मद अली
(अनुवाद : मनोज पटेल)
कभी-कभी... कामना करता हूँ
कि किसी द्वंद्व युद्ध में मिल पाता मैं
उस शख्स से जिसने मारा था मेरे पिता को
और बर्बाद कर दिया था घर हमारा,
मुझे निर्वासित करते हुए
एक संकरे से देश में.
और अगर वह मार देता है मुझे
तो मुझे चैन मिलेगा आखिरकार
और अगर तैयार हुआ मैं
तो बदला ले लूंगा अपना!
किन्तु मेरे प्रतिद्वंद्वी के नजर आने पर
यदि यह पता चला
कि उसकी एक माँ है
उसका इंतज़ार करती हुई,
या एक पिता
जो अपना दाहिना हाथ
रख लेते हैं अपने सीने पर दिल की जगह के ऊपर
जब कभी देर हो जाती है उनके बेटे को
मुलाक़ात के तयशुदा वक़्त से
आधे घंटे की देरी पर भी --
तो मैं उसे नहीं मारूंगा,
भले ही मौक़ा रहे मेरे पास.
इसी तरह... मैं
तब भी क़त्ल नहीं करूंगा उसका
यदि समय रहते पता चल गया
कि उसका एक भाई है और बहनें
जो प्रेम करते हैं उससे और हमेशा
उसे देखने की हसरत रहती है उनके दिल में.
या एक बीबी है उसकी, उसका स्वागत करने के लिए
और बच्चे, जो
सह नहीं सकते उसकी जुदाई
और जिन्हें रोमांचित कर देते हैं उसके तोहफे.
या फिर, उसके
यार-दोस्त हैं,
उसके परिचित पड़ोसी
कैदखाने या किसी अस्पताल के कमरे
के उसके साथी,
या स्कूल के उसके सहपाठी...
उसे पूछने वाले
या सम्मान देने वाले उसे.
मगर यदि
कोई न निकला उसके आगे-पीछे --
पेड़ से कटी किसी डाली की तरह --
बिना माँ-बाप के,
न भाई, न बहन,
बिना बीबी-बच्चों के,
किसी रिश्तेदार, पड़ोसी या दोस्त
संगी-सहकर्मी के बिना,
तो उसके कष्ट में मैं कोई इजाफा नहीं करूंगा
कुछ नहीं जोड़ूंगा उस अकेलेपन में --
न तो मृत्यु का संताप,
न ही गुजर जाने का गम.
बल्कि संयत रहूँगा
उसे नजरअंदाज करते हुए
जब उसकी बगल से गुजरूँगा सड़क पर --
क्योंकि समझा लिया है मैंने खुद को
कि उसकी तरफ ध्यान न देना
एक तरह का बदला ही है अपने आप में.
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बहुत सुंदर कविता ! आभार मनोज जी !
ReplyDeletehar ek shakash ki jehniat avastha jab uus ke dilo-dimag ka santulan santulit ho. thanks for agood translation.
ReplyDeletehar ek shakash ke mansik avastha jab uus ke dilo-dimag ka santulan santulit ho.
ReplyDeleteवाह ...
ReplyDeleteबेहतरीन कविता मनोज जी.....
साझा करने का शुक्रिया....
सादर
अनु
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता है मनोज भाई. जब कोई भी मनोभाव, यहाँ तक कि बदले की भावना भी जब गहरे धँस जाती है, तो ऐसी ही काव्यात्मक न्याय की मनःस्थिति बनती है.
ReplyDelete"क्योंकि समझा लिया है मैंने खुद को
ReplyDeleteकि उसकी तरफ़ ध्यान न देना
एक तरह का बदला ही है अपने आप में."
शत्रु को सबसे ज़्यादा विचलित कर देने वाला बदला तो यही है. बेहद अच्छी कविता.
"क्योंकि समझा लिया है मैंने खुद को
ReplyDeleteकि उसकी तरफ़ ध्यान न देना
एक तरह का बदला ही है अपने आप में."
शत्रु को सबसे ज़्यादा विचलित कर देने वाला बदला तो यही है. बेहद अच्छी कविता.
हाँ होना तो यही चाहिए .. पर इतना मर्म पूर्ण वर्णन ...लाजवाब हैं
ReplyDeleteशुक्रिया
बेहद अच्छी कविता
ReplyDeleteआपके अनुवाद विदेशी कवियों को हमारे करीब ला रहे है.
मनोज भाई , बहुत सुन्दर और अदभुत रचना.कवि का बदला...!!!
ReplyDeleteकमाल की कविता लगी। यह भाव सबके दिल में आ जाय तो दुनियाँ कितनी हसीन हो जाय!
ReplyDeleteबुद्ध को पूर्णतः आत्मसात कर लिया गया है.कुछ ऐसी ही बात मेरे मन में संसद में आत्मघाती हमले में मरने वाले आतंकवादियों के शवों को देखकर आई थी.क्या इनके माँ बाप ने कभी ऐसे भयावह अंत की कल्पना की होगी.काश ये कुछ और काम करके अपने परिवारजनों के साथ लंबा जीवन बिताते.
ReplyDeleteA very delicate but a strong view of life....
ReplyDeletebehtreen kavita ......anuvaad bhi
ReplyDeleteशानदार कविता। उम्मीदों को ज़िन्दा रखने वाली ऊर्जा से भरपूर।
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