आज प्रस्तुत है राल्फ जैकबसन की एक कविता...
जब वे सोते हैं : राल्फ जैकबसन
(अनुवाद : मनोज पटेल)
बच्चे हो जाते हैं सभी लोग सोते समय.
उस दौरान कोई युद्ध नहीं होता उनके भीतर.
अपने हाथ फैलाए सांस ले रहे होते हैं वे
उस शांत लय में जो परलोक से मिली है उन्हें.
अपने होंठ सिकोड़ते हैं वे छोटे बच्चों की तरह
और आधा फैलाए रहते हैं अपना हाथ,
सैनिक और राजनीतिज्ञ, मालिक और नौकर.
चौकसी करते हैं सितारे
और एक धुंध ढँक लेती हैं आसमान को,
ऐसे कुछ घंटे जब कोई किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएगा.
काश कि हम बात कर पाते उस समय एक-दूसरे से
जब अधखिले फूल की मानिंद होते हैं हमारे दिल.
उड़ती आतीं हम तक
बातें, सोन चिरैया जैसी.
-- ईश्वर, सिखा दो मुझे नींद की भाषा.
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neend ki bhasha shanti ki bhasha hai jise jagte hue pana sambhav nahin.
ReplyDeleteवाह... कहाँ सीखूं वो भाषा..(नींद की भाषा )? ...आज तो हर तरफ जागते रहने का भरम है..!!! मनोज जी ! लाजवाब..!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्यारी कविता ! आभार !
ReplyDeleteनींद को इसीलिए शेक्सपीयर "हर दिन की म्रत्यु" कहा था. एक सोया व्यक्ति भी उतना ही "शांत-चित्त, सौम्य और शिशुवत" दिखता है. अच्छी कविता के चयन और सुंदर अनुवाद के लिए बधाई.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना,मनोज भाई, बहुत बहुत बहुत आभार ऐसी रचना ले आने के लिए-
ReplyDeleteकाश जागते हुये भी नींद की भाषा आती .... बहुत सुंदर
ReplyDeleteअतिसुंदर कविता...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका !
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बेहतरीन कविता और उतना ही सुंदर अनुवाद। कविता की नवीनता आकर्षित करती है। लगता है जैसे लंबे समय बाद कोई मन की कविता पढ़ी हो। शायद इसी कारण नींद के बाद खामोश रहने की जरूरत महसूस होती है। हम यकायक से जागती जिंदगी में दाखिल होने से कतराते हैं। ताकि बचपन सी मासूमियत, अधखिले फूलों जैसे दिल की खुशबू और शांति का सानिध्य थोड़ा और लंबा हो जाए। कविता के बारे में सोचते हुए याद आ रहे हैं...सुबह-सुबह नींद सी बोझिल पलकों से स्कूल जाते बच्चे। जो अक्सर खींच लेते हैं हमारा ध्यान सड़क से गुजरते हुए।
ReplyDeleteकभी-कभी अगर दिन की बातें मन में उतर करने लगती हैं बेचैन तो गायब हो जाती है शिशुवत नींद की सहजता। आसपास कहीं खो जाती है मन की शांति जिसे खोजते हुए भटकते रहते हैं हम अतीत,वर्तमान और भविष्य के बियाबान में। अपने जीवन को समझने के तमाम सूत्र देती है कविता। आपका बहुत-बहुत आभार और शुक्रिया।
सुन्दर भाव लिए रचना..
ReplyDelete:-)
बहुत अच्छी कविता... बहुत अच्छा विचार... जो सोए हुए हैं वही असल में जागे हुए हैं और जो जागे हुए हैं वे सोए हुए हैं...
ReplyDeleteननेन्द की भाषा कच्ची अमिया की तरह है , पकाते पकते मीठी हो जाती है , सुबह की कच्ची धुप की तरह है जो दुपहरी में तपते तपते पसीने पसीने हो जाती है
ReplyDeleteसुंदर कविता .....................
सच में खूबसूरत एक नींद की दरकार हैं
ReplyDeleteक्या बात है !आभार !
ReplyDeleteकिसी के जाने पर उसकी याद कितनी आती है ये फिर से एक बार पता चला, अच्छी चीज़ों की आदत लग जाए तो बड़ी दिक्कत होती है और कहीं वैसी क्वालिटी आसानी से मिलती नहीं. आपके ब्लॉग और आप द्वारा अनुवादित दिलफरेब कविताओं की बहुत याद आई, खालीपन रहा और कमजोरी हो गयी. कहाँ चले गए थे Manoj भाई.....जहाँ भी थे, आपका स्वागत है. कविता बहुत कमाल की है और हम सबमे थोड़ी थोड़ी शामिल है
ReplyDeleteहालाँकि यह कविता है, फिर भी कहना चाहता हूँ।
ReplyDeleteसोने-सोने में फर्क होता है। सपने अलग अलग आते हैं। ग़रीबों के सपने अलग होते हैं, अमीरों के बिलकुल अलग!