अन्ना स्विर की एक और कविता...
अजन्मी स्त्री : अन्ना स्विर
(अनुवाद : मनोज पटेल)
अभी जन्मी नहीं हूँ मैं,
अपनी पैदाइश के पांच मिनट पहले तक.
अभी भी जा सकती हूँ वापस
अपने अजन्म में.
अब दस मिनट पहले,
अब, एक घंटे पहले अपनी पैदाइश से.
वापस जाती हूँ मैं,
दौड़ती हूँ
अपने ऋणात्मक जीवन में.
अपने अजन्म में चलती हूँ जैसे अनोखे दृश्यों वाली
सुरंग में किसी.
दस साल पहले,
डेढ़ सौ साल पहले,
चलती जाती हूँ मैं, धमधमाते हुए मेरे कदम
एक शानदार यात्रा उन युगों से होते हुए
जिनमें अस्तित्व नहीं था मेरा.
कितना लंबा है मेरा ऋणात्मक जीवन,
कितना अमरत्व जैसा होता है अनस्तित्व.
यह रहा रोमैन्टसिजम, जहां कोई चिर कुमारी हो सकती थी मैं,
यह रहा पुनर्जागरण, जहां किसी दुष्ट पति की
बदसूरत और अनचाही पत्नी हो सकती थी मैं,
मध्य युग, जहां पानी ढोया होता मैंने किसी शराबघर में.
और आगे बढ़ती हूँ मैं,
कितनी शानदार गूँज,
धमधमाते हुए मेरे कदम
मेरे ऋणात्मक जीवन से होते हुए.
होते हुए मेरे जीवन के विपरीत से. आदम और हव्वा तक पहुँच जाती हूँ मैं
अब और कुछ नहीं दिखता, अंधेरा है यहाँ.
मृत्यु हो चुकी है मेरे अनस्तित्व की अब
गणितीय गल्प की घिसी-पिटी मृत्यु के साथ.
उतनी ही घिसी-पिटी जितनी कि रही होती मेरे अस्तित्व की मृत्यु
गर हकीकत में जन्म लिया होता मैंने.
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excellent.............
ReplyDeletethanks manoj ji.
regards
anu
वाह ! बहुत सुंदर !
ReplyDeleteस्त्री के अस्तित्वबोध का एक करुण चित्र...बहुत असरदार कविता.
ReplyDeleteइतिहास का यथार्थ उकेर दिया है आप ने।
ReplyDeletebahut sunder
ReplyDeleteaapka abhar
rachana
कविता एक भीषण प्रश्न उठाती है --क्या इस होने का कोई मूल्य बन पाया है अभी तक ? घनघोर निराशा में डालने वाली कविता ! आभार मनोज जी !
ReplyDeleteapke chahne waalon ki sankhya 1000 tak pahunchne mein keval ek ki kami hai..aankda 1000 ko chhuega to bahut khushi hogi..aur dua hai ki jald hi 10000 ho jaayein....itna achha blog hai aapka ki dil se dua nikalti hai..
ReplyDeleteअक्सर कवितायेँ नही पढ़ती हूँ (अपनी सीमाएं है )....पर यह अच्छी लगी ...आपका अनुवाद हमेशा की तरह अच्छा है
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