अन्ना स्विर की एक और कविता...
मुर्दों से मेरी बातचीत : अन्ना स्विर
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मुर्दों के साथ एक ही कम्बल ओढ़कर सोई मैं
माफी मांगती हुई उनसे
अपने अभी तक ज़िंदा रहने के लिए.
बेमतलब था वह. उन्होंने माफ़ कर दिया मुझे.
गलत था मेरा ख्याल. हैरान हुए वे भी.
आखिरकार
ज़िंदगी कितनी खतरनाक थी उस वक़्त.
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Murdo ke sath ki kavita behad thandepan ka ahsaas deti hui, mritu ka sparsh karate hue humare zinda hone par ek prashnchihn bhi...veri nice.
ReplyDeleteअद्भुत ....ह्रदय विदीर्ण कर देने वाली रचना !आभार !
ReplyDeleteअद्भुत ....ह्रदय विदीर्ण कर देने वाली रचना !आभार !
ReplyDeleteमुर्दों के साथ सोने की मजबूरी युद्ध के समय की लगती है जब जीवन ओर मृत्यु का भेद समाप्त होने लगता है.
ReplyDeleteमौत की चादर जैसी रचना......
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