एथलबर्ट मिलर की एक और कविता...
रेबेका : एथलबर्ट मिलर
(अनुवाद : मनोज पटेल)
क्या मैं नफरत करने लगूंगी आईनों से?
नफरत करने लगूंगी अक्सों से?
क्या मैं नफरत करने लगूंगी कपड़े पहनने से?
कपड़े उतारने से नफरत करने लगूंगी क्या?
मेरा पति जिम कहता है मुझसे
कि कोई फर्क नहीं पड़ता इससे
चाहे एक रहे मेरे पास या दो
दो या एक कोई फर्क नहीं
वह कहता है
मगर पड़ता है फर्क
मुझे पता है कि पड़ता है
मेरी देह है यह
दक्षिण अफ्रीका या निकारागुआ नहीं
मेरी देह
एक जंग हारती हुई कैंसर के खिलाफ
और अस्पताल के बाहर कोई प्रदर्शनकारी भी नहीं
बंद करो का नारा लगाने के लिए
केवल जिम है वहां
बैठा हुआ बरामदे में
सोचता हुआ कि क्या कहेगा वह
अगली बार प्यार करते समय
जब बढ़ेंगे उसके हाथ
बचे हुए मेरे एक स्तन की ओर
कैसे समझाएंगे हम खुद को
कि कोई फर्क नहीं पड़ता इससे?
कैसे स्वीकार करूंगी अपनी नग्नता को
जो अब नहीं रही सम्पूर्ण?
:: :: ::
'मगर पड़ता है फर्क / मुझे पता है कि पड़ता है "....!!!
ReplyDeletebehad niji vichaar aur anubhav se bani kavita..adbhut!
ReplyDeleteआह.....
ReplyDeleteमगर पड़ता है फर्क
ReplyDeleteमुझे पता है कि पड़ता है ...
सही बात फर्क पड़ता है ...एक सुन्दर शरीर की अपूर्णता ही कुरूपता है ,इसे कैसे भूला जा सकता है !
अच्छी कविता ! बधाई मनोज जी !
हिन्दी की जिन दो कविताओं पर आलोचनात्मक खूनखराबा जारी है ,उन में स्तन कैंसर का संदर्भ भले हो , वे स्तनकैंसर के बारे में नहीं हैं . ( बहुत कर के वे स्तनव्यामोह की सभ्यतागत व्याधि के बारे में हैं.) मिलर की यह अनमोल कविता स्तन कैंसर की 'सच्ची' और 'सम्पूर्ण ' कविता है , इन पदों के जो भी अर्थ संभव हों ! लेकिन मनोज पटेल के इस सच्चे सम्पूर्ण अनुवाद के बिना हमें इस फर्क के तमीज कैसे होती !
ReplyDeleteजियो ....
ReplyDeleteबहुत मार्मिक . स्त्री का यह दर्द समझने के लिए हमे निरंतर स्त्रैण होते चले जाना होता है . जो बहुत कठिन है . दुरूह!!
ReplyDeleteकिंतु देखो हम सब जिम हैं . छलिया . पाखण्डी .
behtareen kavita aur behtareen anuvaad. Ashutosh sir ki baat se sahmat
ReplyDeleteVERY NICE. FULL OF EMOTIONS.
ReplyDeleteantar-kalah
ReplyDeletethe great poem, ek alag nazaria hai, chhoti c kavita me bahut badi baat keh di hai
antar-kalah
ReplyDeletechhoti c kavita me bahut badi baat keh di hai,i like it
zabardast kavita aur anuwaad....
ReplyDeleteफ़र्क तो पडे्गा ही
ReplyDeleteकविता के बारे में क्या कहूँ सिवाय इसके कि यह एक विशिष्ट पीड़ा की सही और बहुत संतुलित अभिव्यक्ति है.
ReplyDeleteबहुत सही और सच्ची कविता और उससे भी बेहतर आपका चुनाव.. बधाई..
ReplyDeleteआशुतोष भाई से सहमत. यहाँ पीड़ा और अवसाद का वह शुद्धतम रूप मौजूद है, जिसके साथ पहले की कविताओं में बौद्धिक क्रीडा भर की गयी थी. मनोज भाई को बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteआशुतोष भाई से सहमत. यहाँ पीड़ा और अवसाद का वह शुद्धतम रूप मौजूद है, जिसके साथ पहले की कविताओं में बौद्धिक क्रीडा भर की गयी थी. मनोज भाई को बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteयह बहुत ही असहनीय वास्तववादी रचना है-
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