Monday, January 31, 2011

नाओमी शिहाब न्ये की कविता

अरबी काफी 
ज्यादा कड़क कभी नहीं लगी यह हमें :
थोड़ा और काली बनाइए न पापा 
तले पर  खूब गाढ़ी,
फिर से बताइए हमें कि कैसे छोटे सफ़ेद कपों में 
जुटते जाएंगे हमारे साल,
कैसे बसती है हमारी तकदीर 
काफी पाउडर के धब्बों में.

स्टोव पर झुके हुए उबलने दिया उन्होंने  इसे एकदम ऊपर तक 
और फिर जाने दिया नीचे. दो बार.
चीनी एकदम नहीं थी उनके बर्तन में.
और वह जगह जहां मर्द और औरतें 
अलग होते हैं एक-दूसरे से 
उस कमरे में नहीं थी मौजूद. 
सैकड़ों नाउम्मीदियाँ,
गोदाम पर आग में स्वाहा होते 
जैतून की लकड़ी से बने मनके, और ख्वाब 
हर दिन में लिपटे हुए रुमालों की तरह,
अपनी-अपनी जगह ली मेज पर इन सबने,
भुट्टे के अधभरे बर्तन के पास.
और कोई भी ज्यादा अहम नहीं था दूजे से,
और सभी मेहमान ही थे वहां.
जब वे लेकर आए ट्रे कमरे में 
संतुलन बनाए उठाए हुए ऊपर अपने हाथों में,
यह एक भेंट थी उन सभी के लिए,
ठहरिए, बैठिए, और सुनिए शुरू हो जाए 
जो भी बतकही. काफी ही केंद्र थी 
फूल का. 
मानो एक कतार के कपड़े कह रहे हों 
काफी लम्बे जिएंगे आप हमें पहनने की खातिर,    
भरोसे का एक कौल. 
और यह, और 
काफी कुछ और. 

(अनुवाद : Manoj Patel)
Naomi Shihab Nye

3 comments:

  1. ज्यादा कड़क कभी नहीं लगी यह हमें :
    थोड़ा और काली बनाइए न पापा
    तले पर खूब गाढ़ी,
    फिर से बताइए हमें कि कैसे छोटे सफ़ेद कपों में
    जुटते जाएंगे हमारे साल,
    कैसे बसती है हमारी तकदीर
    काफी पाउडर के धब्बों में
    एक कप काफ्फी के बहाने इमोशन का ऐसा निचोड़ कहीं और तो नहीं पिया था...बरहाल इस काफ्फी के लिए शुक्रिया...
    मनोज जी के इस ब्लॉग के लिए कहा जा सकता है जब हर कोई अपनी अपनी कवितायेँ पढने के लियें मरा जा रहा है ऐसे में और किशंदर कवितायेँ पढवाना हिम्मत का काम है...शुक्रिया...

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  2. रचना दर्शाती है कि कविता का जन्म/सृजन कही भो हो सकता है - काफी बनाते हुए या पीते हुए भी - सुंदर

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