( 1952 में इस्ताम्बुल में जन्में ओरहान पामुक तुर्की के प्रसिद्द उपन्यासकार हैं. उनके उपन्यासों का दुनिया की पचास से भी अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. माई नेम इ
ज
रेड, स्नो, व्हाईट कैसेल, म्यूजियम आफ इनोसेंस जैसे उपन्यासों के लेखक पामुक को 2006 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यहाँ प्रस्तुत है उनके गद्य की एक छोटी सी बानगी, उनके कथेतर गद्य संग्रह ' अदर कलर्स ' से - Padhte Padhte )
मैं शामों को थक कर चूर घर लौटता हूँ. सीधे सामने की तरफ सड़कों और फुटपाथों को देखते हुए. किसी चीज से नाराज, आहत, कुपित. हालांकि मेरी कल्पना शक्ति सुन्दर दृश्यों से आकर्षित होती रहती है लेकिन ये मेरे दिमाग की फिल्म में तेजी से गुजर जाते हैं. समय बीत जाता है. कोई फर्क नहीं. रात घिर आई है. बदकिस्मती और हार. रात के खाने में क्या है ?
मेज पर रखा लैम्प जल रहा है ; बगल में ही सलाद और ब्रेड का कटोरा रखा है, सबकुछ उसी टोकरी में ; मेजपोश चारखानेदार है. और कुछ ? ...... एक प्लेट और बीन्स. मैं बीन्स की कल्पना करता हूँ लेकिन यह काफी नहीं है. मेज पर वही लैम्प अब भी जल रहा है. थोड़ा सा दही शायद ? या शायद थोड़ी सी ज़िंदगी ?
टेलीविजन पर क्या आ रहा है ? नहीं मैं टेलीविजन नहीं देख रहा ; यह मुझे सिर्फ गुस्सा ही दिलाता है. मैं बहुत गुस्सैल हूँ. मुझे कवाब भी पसंद है - तो कवाब कहाँ हैं ? पूरी ज़िंदगी यहीं सिमट आई है, इस मेज के इर्द-गिर्द.
फ़रिश्ते मुझसे हिसाब मांगने लगे हैं.
आज तुमने क्या किया प्यारे ?
अपनी पूरी ज़िंदगी.... मैंने काम किया. शामों को मैं घर लौटता रहा. टेलीविजन के बारे में - लेकिन मैं टेलीविजन नहीं देख रहा. कभी-कभी फोन उठाकर बात की है मैनें, नाराज हुआ कुछ लोगों पर ; फिर काम किया, लिखा..... एक आदमी बना...... और हाँ, बहुत एहसानमंद हूँ - जानवर भी बना.
आज तुमने क्या किया प्यारे ?
दिख नहीं रहा क्या तुम्हें ? सलाद भरी है मेरे मुंह में. दांत हिल रहे हैं मेरे जबड़े में. मेरा दिमाग दुःख से पिघलकर गले से होता हुआ बह रहा है. नमक कहाँ है, कहाँ है नमक, नमक ? हम अपनी ज़िंदगी खाए जा रहे हैं. और थोड़ी सी दही भी. ज़िंदगी, ये जो है ज़िंदगी.
फिर आहिस्ता से अपने हाथ फैलाकर मैं परदे अलग करता हूँ, और बाहर अँधेरे में चाँद की झलक मिलती है. दूसरी दुनियाएं सबसे बेहतर तसल्ली हैं. चाँद पर वे टेलीविजन देख रहे थे. मैनें एक संतरा ख़त्म किया - बहुत मीठा था यह - अब मेरा जोश कुछ बढ़ा है.
तब मैं पूरी दुनिया का मालिक था. आप समझ रहे हैं न मेरा मतलब, है न ? शाम को मैं घर आया. घर आया मैं उन सभी लड़ाईयों से, अच्छी, बुरी, और कैसी भी ; मैं पूरा साबुत लौटा और एक गर्म घर में आया. खाना इन्तजार कर रहा था मेरे लिए, और मैनें अपना पेट भर लिया ; बत्तियां जल रही थीं ; फिर मैनें अपना फल खाया. मैनें यह भी सोचना शुरू कर दिया था कि सबकुछ बढ़िया होने वाला है.
फिर मैनें बटन दबाया और टेलीविजन देखने लगा. तब तक, आप समझ सकते हैं, मैं बहुत बेहतर महसूस कर रहा था.
(अनुवाद : Manoj Patel)
Orhan Pamuk
कल फेसबुक पर किसी ने पोस्ट किया था, अगर भगवान तुमसे पूछे - 'बेटा तुमने अपनी पूरी जिंदगी में क्या किया ?'
ReplyDeleteपूरी कोशिश करना ये नहीं बोलने की, 'क्या तुम मेरे फेसबुक स्टेटस नहीं पढ़ते ?'
बहुत अच्छे लेख का उतना ही अच्छा अनुवाद मनोज जी.
ReplyDeleteओरहन पामुक के लेख का अनुवाद पढ़कर अच्छा लगा....
ReplyDeleteachha hai........
ReplyDeleteदिलचस्प...........
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