अनावरण
कमाल की मूर्ति थी. कहते हैं पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बाबा साहब की ऎसी मूर्ति नहीं थी. उन्होंने कोट पहन रखा था, टाई लगा रखी थी, फुलपैंट और भारी-भरकम जूते थे. पैंट और कोट की सिलवटों में उनकी प्रतिभा की दृढ़ता और गरिमा थी. आँखों में गोल फ्रेम का चश्मा था, जिसके पार से उनकी आँखें कोई स्वप्न देख रही थीं. ......और अपनी एक भुजा उन्होंने उठा रखी थी. उठे हुए हाथ की मुट्ठी बंद थी, बस एक उंगली तनी हुई पूरब दिशा की ओर इशारा कर रही थी. उधर, जिधर रेलवे फाटक था, अस्पताल था, साईँ बाबा का मंदिर था, बालिका महाविद्यालय था और इस सबके बाद मुर्गा-मीट बाज़ार, सरकारी दारू का ठेका, मुसलमान बस्ती और झुग्गी-झोपड़ी बस्ती अर्थात आंबेडकर नगर था.
उधर, जिधर मेकल की पहाड़ियों के पार से सूरज पिछले कई बरसों से बिना किसी ख़ास मकसद के निकलता चला आ रहा था.
उस रोज, आधीरात जब बसपा के लोकल नेता बुचई प्रसाद, अफवाहों के मुताबिक़ जिनकी पहुँच सीधे लखनऊ और दिल्ली तक थी, उस मूर्ति के नीचे से निकल रहे थे, तो उनके कानों में एक फुसफुसाती हुई रहस्यपूर्ण आवाज़ कहीं से, आकाशवाणी की तरह, उड़ती हुई आई, ' पाछू मत देख.... मत देख पाछू, अगाड़ी देख...! उधर जिधर उंगली तनी है बे ! उधर देख ! पाछू कुच्छछ नहीं !'
बुचई प्रसाद असली देशी महुए के ठर्रे के नशे में थे. आजकल किक लगाने के लिए ठेके वाले पाउच में स्पिरिट और लैटीना के पत्ते और अटर-शटर मिलाने लगे थे. खोपड़ी टन्ना जाती थी और कदम ऐसे उठते थे जैसे हवा में देर तक तैर कर धरती पर अपना ठिकाना खोजते उतरते हों. आँखें एक बल्ब को तीन-चार जगमग बल्बों की तरह देखने लगती थीं.
बुचई प्रसाद का दायाँ पैर, जो हवा में तैर रहा था, इस बार धरती के ठिकाने पर नहीं उतरा. बल्कि इसी बीच दूसरा पाँव भी अब तक के चले आ रहे सुर-ताल को बनाए रखने के लिए ऊपर उठ गया. बुचई प्रसाद, कोलतार की सड़क के बीचोंबीच, बाबा साहब की बारह फुट ऊंची मूर्ति के क़दमों के नीचे, चारों खाने चित्त गिर पड़े. उनकी आँखों से जो पानी अँधेरे में छलक रहा था, वह चोट लगने के कारण और सिर के पीछे गूमड़ निकल आने के फलस्वरूप बहने वाला मर्मान्तक आंसू नहीं था, बल्कि वह गहन, आदर्शवादी भावुकता का सिहरता हुआ जल था. सीधे आत्मा के अदृश्य सोते से निकल कर आँख से बहने वाला नीर.
बुचई के दिमाग के भीतर कबीर दास का पद गूंज रहा था - 'ग्यान की जड़िया दई....! ग्यान की जड़िया दई.....!! सत्त गुरुजी ने... गियान की जड़िया दई. मेरे को दई !!!!'
उन्हें उस रात, रेलवे रोड के उस तिराहे पर, बाबा साहेब की मूर्ति के नीचे, सड़क पर चारों खाने चित पड़े हुए, ज्ञान की दुर्लभ जड़ी प्राप्त हो गई थी. 'अगाड़ी देख, अगाड़ी...! पाछू कुच्छ नहीं....! ...कुच्छ भी नहीं...!!'
ठीक इसी समय उनके बगल से पेट्रोल पंप वाला सेठ तरुण केडिया और उसके पीछे-पीछे उसका सामान उठाए सुदामा निकला. सुदामा कुली का काम करता था. तरुण केडिया उसी रहस्यपूर्ण फुसफुसाती आवाज में बोलता चला जा रहा था - 'अगाड़ी देख...! उधर, जिधर ट्यूब लाईट जल रही है, उसी के पास म्हारा अजन्ता लाज बनेगा !! थ्री स्टार ! समझा कि नहीं ?'
'बुचई परसाद ने लगता है आज ज्यादा खैंच ली !' सुदामा सिर पर केडिया का सामान लादे उसके पीछे-पीछे चल रहा था.
लेकिन बुचई जिस तुरीयावस्था में थे, उसमें उनके कान कुछ और सुनना बंद कर चुके थे. उन्होंने उस आधी रात अकस्मात ही मिली दुर्लभ ग्यान की जड़ी को दोनों हाथों की मुट्ठियों में भींचकर अपने सीने से लगा लिया और वहीं सड़क के बीचों-बीच खर्राटे मारने लगे. अगर कोई गौर से सुनता तो जान सकता था कि उनके खर्राटों में एक तरह की संयोजित लय थी. जैसे भप्पी लाहिड़ी या भूपेन हजारिका ने नाक और गले के नैसर्गिक स्वर यंत्रों की संगत से कोई 'सेमी फोक-अर्ध-शास्त्रीय' म्यूजिक कंपोज किया हो. थोड़ा-सा 'इंडी पॉप' का तड़का लगाकर. ..बुचई प्रसाद के खर्राटों की सांगीतिक लय में उस रात सारा कस्बा डूब गया था -
'...सतगुरु जी... सतगुरु जी...! सत सत्त..गुरर्रर्रर्र्र्रर्र्र्र. .. गुरर्र्रर्र्र्रर्र्र...!! गुर्र्र्रर्र्ररूऊऊ जी...S...S...S.. गुर्र्र्रर्र्ररू ऊऊऊ S..S...S.. जी...ई..ई || ||S ||S ||S ||'
दिसंबर का महीना था. कड़ाके की ठण्ड थी. इधर अभी ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की बावजूद जंगल बचे हुए थे, पास में ही बहने वाली छोटी-सी नदी अभी सूखी नहीं थी इसलिए 'एको-बैलेंस' अभी ज्यादा नहीं बिगड़ा था. ठण्ड उतनी ही पड़ती थी, जितनी पूस-माघ के महीने में पड़नी चाहिए.
तो, दिसंबर की उस कड़कड़ाती रात में दत्ताराव पेंढे द्वारा निर्मित बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जिस कांसे की बारह फुट सवा चार इंच की मूर्ति के नीचे, सड़क पर बुचई प्रसाद ज्ञान की जड़ी को सीने में दबोचे, खर्राटों का संगीत उत्पन्न कर रहे थे, उसी मूर्ति का अनावरण अगले सप्ताह, गुरूवार 25 दिसंबर को, सुबह ग्यारह बजे राज्य के वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सि..श्वर पांडे के हाथों संपन्न होना था.
यह सुयोग इसलिए आसानी से बन गया था क्योंकि मंत्री जी जिस ट्रेन के वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे, उससे उतर कर, इसी स्टेशन से उन्हें दूसरी ट्रेन में, उसी श्रेणी के डब्बे पर सवार होना था. दोनों गाड़ियों के बीच डेढ़ घंटे का अंतराल था. यानी, अगर देखें तो इस प्रकार हमारे छोटे से कस्बे लाजिमपुरवा में बाबा साहेब की मूर्ति का भव्य अनावरण समारोह मंत्री जी की राजनीतिक धारावाहिक यात्रा के बीच में आने वाले एक 'कामर्शियल ब्रेक' की तरह था.
सारे कस्बे में चहल-पहल थी. हर जगह उसी मूर्ति, मंत्री और अनावरण की चर्चा थी. थाने में जिला मुख्यालय से अतिरिक्त फ़ोर्स का बंदोबस्त किया गया. नगरपालिका और लोक निर्माण विभाग सड़क के गड्ढों को ढांपने-मूंदने में लगे हुए थे. गुजरात से यहाँ आकर टिम्बर और क्रेशर का धंधा करने वाले रज्जू भाई शाह के बंगले में झंडे-बैनर का काम चल रहा था. जिस पार्टी के मंत्री जी थे, उसी पार्टी के वे जनपद अध्यक्ष थे. तरुण केडिया के पेट्रोल पंप में भी झंडे-झालर-हाथ जोड़े मुस्कुराते मंत्री जी के पोस्टर लग गए थे. भीड़ लाने के लिए बस, ट्रैक्टर और ट्रक के कोआर्दिनेशन का काम भी वही कर रहा था. बल्कि तरुण केडिया इस जुगाड़ में भी था कि अजंता होटल की साईट के पीछे खाली पड़ी नगरपालिका की जमीन को सस्ती लीज में लेकर वह एक बैंक्वेट हाल और एक अम्यूजमेंट पार्क का शिलान्यास लगे हाथ मंत्री से करा ले. कोल्ड स्टोरेज के मामले में रज्जू शाह पहले ही बाजी मार ले गए थे. नगरपालिका के अध्यक्ष अग्रवाल जी से बात हो गई थी, बस ज़रा 'ऊपर' के इशारे की जरूरत भर थी. मंत्री द्वारा शिलान्यास उस ऊपर के इशारे पर राजकीय प्रामाणिकता की मुहर ही होता.
अनावरण की तारीख करीब आ रही थी. पूरा कस्बा स्पंदित, आंदोलित, धुकधुकायमान था. हर कोई अपनी-अपनी गोटियों के साथ अपने-अपने जुगाड़ में लगा हुआ था.
और आखिर 24 दिसंबर, बुधवार का दिन अवतरित हो गया. कल ठीक दस बजकर पचास मिनट पर गोंडवाना एक्सप्रेस पांच मिनट के लिए स्टेशन पर रुकेगी और बाजे-गाजे, फूल-मालाओं में घिरे हुए, आधा दर्जन गैरजमानती वारंटों में कानूनी रूप से फरार, डकैती, हत्या, दंगे, ठगी, और आगजनी के बीसियों अपराधों में चार्जशीटेड, वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री सिद्धू भइया प्लेटफार्म पर अपने चरण रखेंगे.
इसके ठीक दस मिनट बाद रेलवे रोड के चौराहे पर अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा बनाई गई बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की कांसे की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची मूर्ति के ऊपर लपेटा गया कपड़ा हटाया जाएगा और तालियों की गड़गड़ाहट, पटाखों के विस्फोट और आकाश तक को गुंजाते नारों के बीच सिद्धू भइया उर्फ़ सिद्धेश्वर पांडे बाबा साहेब के गले में माला डालेंगे. इसके बाद दोनों हाथों से सबको शांत रहने का इशारा करते हुए डिलाईट इलेक्ट्रिकल्स के माइक पर अपना भाषण बोलेंगे - 'भाइयों और बहनों, बाबा साहेब आंबेडकर हमारे देश के निर्माताओं में से एक थे. हमारे देश का क़ानून उन्हीं का बनाया हुआ है. हमें उन्हीं के बताए रास्ते पर चलना है. दलित भाइयों से मेरी ख़ास गुजारिश है कि वे इस बात को समझें कि आज बाबा साहेब का नाम एक चुंबक के माफिक हो गया है. बड़ा तगड़ा चुंबक. हर पार्टी इस चुंबक को अपने पास रखकर दलित भाइयों का वोट अपनी पेटी में खींचना चाहती है. कोई अपनी जात का वासता देता है कोई अपनी पांत का, लेकिन आप सब तो जानते ही हैं कि हमारी पार्टी ने और आपके इस सेवक सिद्धू भइया ने कभी जात-पांत, ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया है. सारी जनता बराबर है. मैं तो उन सारे नेताओं से पूछना चाहता हूँ, और वे अपनी-अपनी छाती पर हाथ रखकर बताएं कि क्या बाबा साहेब आंबेडकर के आदर्शों पर चलने की ईमानदारी उनमें से किसी में है ? है किसी में ? रही हमारी बात... तो इस पूरे इलाके में, इस पूरे जिले में भाई बुचई प्रसाद से ज्यादा बलिदानी, त्यागी, जुझारू समाजसेवक कोई हुआ है क्या ? उन्हीं के कहने से राज्य सरकार ने आज से आपके नगर की इस सबसे सुन्दर सड़क का नाम 'आंबेडकर मार्ग' कर दिया है और आपके नगर लाजिमपुरवा के युवा समाजकर्मी भाई तरुण केडिया ने, सभी बच्चों और परिवार जनों के मनोरंजन के लिए 'आंबेडकर पार्क' बनाने की पेशकश की है. मुम्बई के एसैल पार्क और दिल्ली के अप्पू घर का मुकाबला करने वाला यह पार्क बाबा साहेब आंबेडकर जी को ही समर्पित होगा. .... आईए.... !!! मैं अनुरोध करता हूँ कि हमारे जिले के गौरव बुचई प्रसाद आगे आएं और माइक पर आपसे दो शब्द कहें.
बुचई प्रसाद की आँखें कहीं दूर खो गई थीं, तालियों का शोर थिरा गया था और कानों में गूँज रहा था - 'अगाड़ी देख....अगाड़ी ! पाछू कुच्छ नहीं...! कुच्छ भी नहीं !!!!
वे अकेले तिराहे पर चुपचाप खड़े थे. उनकी उंगलियाँ जेब के भीतर रूपए टटोल रही थीं. कलारी के लिए कहीं कम तो नहीं पड़ेंगे ?
लेकिन आज तो बुधवार था. मूर्ति का अनावरण तो अगले दिन यानी 25 दिसंबर, बृहस्पतिवार को होना था.
गुलाबचंद क्लाथ हाउस, जहां 'पीटर इंग्लैण्ड' और 'कलर प्लस' की शर्ट और 'लेविस' जैसे ब्रांडों का डेनिम भी मिलता था, यहीं से 380 रुपया प्रति मीटर के रेट से कीमती पीले-बासंती रंग का उम्दा देशी रेशम का कपड़ा लिया गया, लाल रंग का रिबन और रज्जू शाह, तरुण केडिया, अग्रवाल जी, एस. पी. साहेब, स्थानीय कालेज के प्राचार्य सोनी जी, एस. एच. ओ., नगरपालिका अध्यक्ष एस. एन. सिंह आदि की गणमान्य उपस्थिति में पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं ने कपड़े को मूर्ति पर इस तरह लपेटा कि रिबन की एक गाँठ खींचते या काटते ही सारा आवरण नीचे सरक जाए और बाबा साहेब की मूर्ति धड़ाक से बाहर निकल आए. हालांकि, रेशम के कपड़े के रंग को लेकर बहुत गहरा विचार-विमर्श दो दिनों तक चला. नीले रंग के पक्ष में ज्यादातर गणमान्य थे, लेकिन नीले की हार के पीछे तीन मुख्य कारण थे. पहला तो यही कि इस रंग से एक दूसरी पार्टी के सम्बन्ध का संदेह पैदा होता था. दूसरा यह कि बासंती रंग इन दिनों कस्बे में फैशन में था, क्योंकि एक ही महीने में शहीदे आज़म भगत सिंह के जीवन के बारे में तीन-तीन मुम्बइया फ़िल्में कस्बे के दोनों टाकीजों में दिखाई गई थीं. बड़ा कंपटीशन हुआ था. 'मेरा रंग दे बसंती चोला...'. .....और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण यह कि गुलाब क्लाथ हाउस में रेशमी कपड़े में कोई और दूसरा रंग था ही नहीं.
सारी तैयारी होते होते रात के एक बज गए. कलारी से लौटते हुए बुचई प्रसाद की नजर जब बाबा साहेब की मूर्ति की ओर उठी तो चंद्रमा की सुनहली किरणें बासंती-पीले रेशम पर छुपम-छुपाई और फिसलगड्डी का कौतुक भरा खेल खेल रही थीं. दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड थी. आकाश बिलकुल साफ़ गहरा नीला था, जिसमें तारे ठिठुरते हुए काँप रहे थे. 'आज, लगता है पाला गिरेगा.' बुचई प्रसाद ने सोचा. उन्होंने अपने कान गुलूबंद से ढांप रखे थे. वैसे महुए का अद्धा तो उन्होंने आज भी सूंट रखा था और जेब से धेला भी नहीं खर्च हुआ था क्योंकि कल अनावरण की तैयारी में जिन लोकल नेताओं को आज ठेकेदार की तरफ से छूट मिली हुई थी, उनमें वे भी शामिल थे. भांग दिमाग पर, गांजा आँख पर और दारू टांगों पर सवारी गाँठती है. लेकिन आज अगर बुचई प्रसाद के पैर लड़खड़ा नहीं रहे थे, तो इसकी वजह यह हो सकती थी कि महुए के ठर्रे में धतूर, स्पिरिट या लेंटीना के पत्तों की मिलावट नहीं थी.
बुचई ने एक बार चलने के पहले फिर मूर्ति को आँख भर देखा. एक कोई देवदूत, पीताम्बर ओढ़े अनंत की ओर इशारा कर रहा था. बुचई प्रसाद की आँखें उसी दिशा की तरफ घूम गईं...जिधर केडिया का थ्री स्टार अजंता होटल और आंबेडकर पार्क बनना था. अनंत की ओर... लेकिन अनंत से बहुत पहले.
और ठीक इसी समय वह संगीन आपराधिक वारदात घटित हुई.
जब बुचई प्रसाद अनंत की ओर देख रहे थे और बाबा साहेब की मूर्ति पर से उनकी नजरें हटी थीं, उस समय ग्यारह बजकर अट्ठावन मिनट चालीस सैकंड हुए थे. क्योंकि बुचई प्रसाद पिछली रात घटी ग्यान की जड़ी वाली घटना के असर से अभी तक मुक्त नहीं हुए थे और उनके कानों में अभी भी कभी कभी वह फुसफुसाहट गूंजने लगती थी - 'अगाड़ी देख ! अगाड़ी...! पाछू कुच्छ्छ नहीं...!!' और क्योंकि उन्होंने आज भी अद्धा खींच रखा था और फिर आधी रात बासंती रेशम के कपड़े पर चंद्रमा की सुनहली किरणों की फिसलगड्डी का खेल वे कुछ पल पहले ही देख चुके थे, इसलिए वे अनंत की ओर लगभग दो मिनट तक देखते ही रह गए.
और ये दो मिनट बहुत गंभीर, महत्वपूर्ण और हैरतअंगेज सिद्ध हुए.
इन दो मिनटों में कुछ घटनाएं एक साथ घटीं. सबसे पहले तो यही कि हिन्दुस्तान की सारी घड़ियों और कैलेंडरों में एक साथ तारीख़ बदल गई. 24 की जगह 25 दिसंबर और बुधवार की जगह गुरूवार आ गया.
और ठीक इन्हीं दो मिनटों के भीतर रेलवे स्टेशन की ओर से एक रहस्यभरी परछाईं बाबा साहेब की मूर्ति की ओर बढ़ी और उसने पता नहीं क्या किया कि अगले ही पल गुलाब क्लाथ सेंटर से 380 रूपए प्रतिमीटर खरीदा गया कीमती रेशम का बासंती कपड़ा बाबा साहेब की मूर्ति से उड़कर उसके पास आ गया और जब बुचई प्रसाद की दृष्टि अनंत से लौटकर वापस आई तो उन्होंने रेलवे रोड पर, पुलिस थाने की दिशा की ओर, दूर, उस पीतांबर को अँधेरे में भागते हुए देखा.
क्या बाबा साहेब प्रस्थान कर गए ? बुचई प्रसाद ने अपनी आँखें मलीं. अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा निर्मित कांसे की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची वह विलक्षण मूर्ति अपनी जगह पर खड़ी थी. हालांकि बाबा साहेब की भुजा अब भी आगे की ओर उँगलियों से इशारा कर रही थी, लेकिन अनहोनी तो उनके पीछे घटित हुई थी. अब 'अगाड़ी' नहीं 'पिछाडी' देखने का वक़्त था, उधर जिधर पीतांबर भागता-उड़ता चला जा रहा था.
बुचई प्रसाद ने जोरों से गुहार लगाई. 'पकड़ो...पकड़ो...! चोर... चोर...!!' और वे उसी ओर दौड़े. थाने में कांस्टेबल हरिहर पटेल ने उनकी गुहार सुनी और पीतांबर को सड़क पर जाते हुए देखा तो उसने लम्बी सीटी बजाई और वह भी दौड़ पडा. इंस्पेक्टर मिथलेश कुमार सिंह अपने क्वार्टर में सोए हुए थे, उन्होंने ड्यूटी रिवाल्वर कमर पर बांधा, ड्राइवर भोले को जगाया और जिप्सी में सवार उसी दिशा की ओर रवाना हो गए.
कस्बे में जाग पड़ गई. रज्जू भाई शाह को किसी ने एक बजे रात फोन पर बताया कि अनावरण का कपड़ा चोरी चला गया है, तो वे भी कोठी के बाहर निकल आए. तरुण केडिया, महाविद्यालय के प्रिंसीपल, पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के मुख्य अभियंता, नगर पालिका अध्यक्ष समेत सभी गणमान्य जाग गए और देश में हुई सूचना टैक्नोलाजी में क्रांति की बदौलत सब एक-दूसरे के संपर्क में आ गए.
लाजिमपुरवा नामक उस छोटे से कस्बे में आधीरात घटित होती यह एक बड़ी घटना थी. सुबह ग्यारह बजे वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सि..श्वर पांडे के कर कमलों से बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की मूर्ति का अनावरण अब कैसे होगा, जब आवरण ही चला गया ?
कस्बे से बाहर गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर जीप, कारें, मोटर साइकिल, स्कूटर दौड़ने लगे. लाजिमपुरवा में मौजूद प्रशासन और राजनीति का सारा 'सिस्टम' उस चोर के पीछे लग गया. पुलिस की जिप्सी से जो सर्चलाईट फेंकी जा रही थी, उससे पता चला कि पीतांबर चोर ने सड़क छोड़ कर खेत और जंगल की पगडंडी का रास्ता पकड़ लिया है. उधर गाड़ियां नहीं जा सकती थीं. न दुपहिया न चौपहिया.
इधर रज्जू भाई शाह ने गुलाब क्लाथ हाउस के मालिक छजलानी को फोन किया तो उसने कहा कि दूकान में अब अनावरण के लायक कोई दूसरा कपड़ा नहीं है. वही छह मीटर का एक थान बचा था. अलबत्ता सफ़ेद रंग का रेशम जरूर है, कहें तो भेज दूं. रज्जू भाई ने तरुण केडिया और अन्य गणमान्यों से इसके बारे में पूछा तो वे सभी अचानक चुप हो गए और धीरे-धीरे सभी के चेहरे पर पीला-सा रंग छाने लगा, जो तेजी से कत्थई में बदलता जा रहा था. रज्जू भाई इस अचानक की चुप्पी से असमंजस में थे, लेकिन तुरंत ही इसका रहस्य उन्हें पता चल गया, जब उनके कानों में भी 'राम नाम सत्य है' की अनुगूंज पैदा होने लगी.
'नहीं, बिलकुल नहीं. सफ़ेद कपड़ा हम आवरण के लिए नहीं लेंगे.' उन्होंने गुलाब क्लाथ हाउस वाले छजलानी को डांटते हुए कहा.
सुबह के पांच बजने लगे. तड़के का उजास क्षितिज पर झलकने लगा. पाला जबरदस्त गिरा था. सफेदी की पर्त हर चीज पर छा गई थी. किसी ने बताया कि उसने आवरण चोर को नदी पार करते हुए देखा है. नदी के उस पार दूसरा जिला शुरू हो जाता है. ठण्ड इतनी थी कि चोर को पकड़ने का अभियान भी ठंडा पड़ने लग गया. सिर्फ अकेले बुचई प्रसाद थे, जो गुलूबंद से कान बांध कर, कम्बल ओढ़कर, बीड़ी का सुट्टा मारते हुए, बिना ठण्ड की परवाह किए, खेतों की मेड़ और जंगल के बीच से चले जा रहे थे. बाबा साहेब पर उनकी श्रद्धा अगाध थी. बुचई जब नदी किनारे पहुंचे तो उधर से दीनानाथ, रामसुमर, बुद्धन और गियासू चले आ रहे थे. बुचई को देखकर उन्होंने जोहार किया और ठहाका मार कर हंसने लगे.
बुचई ने पूछा कि हंस क्यों रहे हो तुम लोग तो बुद्धन ने बताया कि रेशम का कपड़ा चुराने वाला कोई और नहीं, दुबेरा है. जाड़े में मर रहा था, अब मजे में ओढ़ कर सोएगा. बरगदिहा के पार जो ईंटों का भट्ठा है, उसी के भीतर दुबेरा बीस हाथ की चद्दर ओढ़े सो रहा है.
दुबेरा के बारे में हमारे कस्बे लाजिमपुरवा का हर बाशिंदा जानता है. दुबेरा स्टेशन के प्लेटफार्म पर ही अक्सर सोता है. कभी भीख मांगते नहीं देखा गया. गाड़ियों के आने-जाने के समय उसकी चुस्ती-फुर्ती देखने लायक रहती है. लगता है जैसे उस पर कोई बहुत बड़ी जिम्मेदारी ईश्वर या समाज ने सौंप रखी है, जिसे उसे निभाना है. लाल हरे चीथड़े लहराते हुए ट्रेन को सिग्नल देना, अपनी बोगी खोजने वाले मुसाफिर को उसके डिब्बे तक पहुंचाना, कुली न मिलने पर किसी का सामान खुद ही उठा कर बाहर तक ले आना आदि के अलावा कभी-कभार वह कस्बे के मुख्य चौराहे पर, ट्रैफिक कंट्रोल का काम भी करते देखा जाता है.
लेकिन 24-25 दिसंबर की रात, शून्यकाल में घटी घटना एक राजनीतिक घटना भी थी. सुबह हमारे कस्बे से निकलने वाले तीनों अखबार, 'समाज प्रहरी', 'निडर दैनिक टाइम्स' और 'प्रचंड गर्जन' में इस घटना के बारे में समाचार थे. एक के मुताबिक़ दुबेरा इस इलाके का नहीं था बल्कि उड़ीसा के कालाहांडी से भाग कर आया था. दूसरा अखबार उसे आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले से आया बता रहा था, क्योंकि जिस भाषा में दुबेरा बोलता था, उसे कस्बे का कोई आदमी नहीं समझता था. तीसरे अखबार के अनुसार दुबेरा छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का था. ये सभी वे जगहें थीं, जहां भूख और अकाल से लोग या तो मर रहे थे या बड़ी तादाद में आत्महत्याएं कर रहे थे. एक अखबार ने विश्व हिन्दू परिषद के लोकल नेता का हवाला दिया था, जिसके अनुसार दुबेरा का असली नाम जुबेर अहमद था और वह संदिग्ध व्यक्ति था. स्टेशन पर उसके रहने से लगातार यात्रियों पर ख़तरा बना रहता था, जिसके बारे में पुलिस और स्थानीय प्रशासन से शिकायत की जा चुकी थी. दुबेरा को पोटा में गिरफ्तार करने की जोरदार अपील लोकल विहिप ने की थी. दूसरे अखबार के मुताबिक़ दुबेरा पहले बेलाडीला के लोहे की खदान में लाल झंडा पार्टी का काम करता था और वह 'कामरेड दुबेरा सिंह' के नाम से मशहूर था. बाद में निजीकरण के चलते वह खदान एक अमेरिकी कम्पनी को बेच दी गई, तब से दुबेरा बेरोजगार हो गया. गरीबी और फालतू हो जाने के कारण लाल झंडा पार्टी ने उसे निकाल दिया. 'प्रचंड गर्जन' में राष्ट्रीय संघ के लोकल नेता का सनसनीखेज बयान था. उनके मुताबिक़ दुबेरा दरअसल ईसाई मिशनरी का डबल एजेंट था और सूरीनाम से यहाँ आया था. उसका असली नाम ड्यूबर्ग जार्ज था. 25 दिसंबर, यानी क्रिसमस के दिन, जिस दिन ईसा मसीह का जन्म हुआ था, ठीक उसी तारीख को चोरी के लिए चुनने के पीछे एक बड़ी साजिश है, जिसके सूत्र धर्मांतरण के मुद्दे से जुड़े हुए हैं. लेकिन 'समाज प्रहरी' के रिपोर्टर का दावा था कि दुबेरा की मिचमिची आँखों और त्वचा पीलियाए रंग से पता चलता है कि या तो उसका सम्बन्ध नेपाल से है और प्लेटफार्म पर वह असलहों की तस्करी का काम करता था, या फिर वह नगालैंड या मणिपुर का है और किसी ड्रग ट्रैफिकिंग में शामिल है. बहरहाल, दुबेरा के बारे में जितने मुंह थे, जितने अखबार थे, उतने ही किस्से थे. हाँ, कस्बे के सारे गणमान्य इस एक बात पर, जरूर एकमत थे कि दुबेरा का वहां होना ठीक नहीं है. जैसे भी हो इसे शहर से निकाल बाहर करना चाहिए या फिर डी.आई.जी. साहेब से कह कर इसका 'एनकाउन्टर' करवा देना चाहिए.
पाठकों, जब यह कहानी आप पढ़ रहे होंगे, उस समय लाजिमपुरवा से छह किलोमीटर दूर बहने वाली नदी छिपिया के उस पार, जहां से जिला बारदोई शुरू हो जाता है, वहां पंजाब से यहाँ आकर ईंट का भट्ठा चलाने वाले सरदार गुलशेर सिंह के भट्ठे के भीतर, 25 दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड में, दुबेरा छह मीटर बासंती कपड़ा ओढ़े लेटा हुआ है और उसके पास बैठे हैं महुए के ठर्रे में धुत बुचई प्रसाद. दोनों बीड़ी के सुट्टे खिंच रहे हैं.
जहां तक मशहूर मूर्तिकार अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा बनाई गई बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची कांसे की विलक्षण मूर्ति के वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सिद्धेश्वर पांडे के कर कमलों द्वारा अनावरण की सूचना है, तो निवेदन है कि उस रोज 25 दिसंबर को ग्यारह बजे सुबह वह अनावरण नहीं हो सका. इसके पीछे एक कारण तो यह था कि उस रोज गोंडवाना एक्सप्रेस आठ स्टेशन पहले ही रोक दी गई क्योंकि आगे किसी गिरोह ने रेलवे की पटरी से फिश प्लेटें निकाल दी थीं. संदेह आधा दर्जन से ज्यादा आतंकवादी गिरोहों में से किसी एक पर जाता था. दूसरा कारण यह था कि सिद्धेश्वर भइया को, देश भर में 'एल्युमीनियम एंड पेट्रोल किंग' के रूप में मशहूर एन.आर.आई. उद्यमी भामोजी रामोजी शाह का स्पेशल चार्टर्ड फोर सीटर हवाई जहाज मिल गया, जिससे वे सीधे राजधानी चले गए, जहां उन्हें इस राज्य के अल्युमीनियम ओर की एक सबसे बड़ी खदान के निजीकरण के मसविदे पर दस्तखत करने थे.
लेकिन लाजिमपुरवा में मूर्ति का अनावरण समारोह न हो पाने का तीसरा सबसे बड़ा कारण यह था कि दरअसल अनावरण तो दुबेरा आधीरात शून्यकाल में पहले ही कर चुका था. इसे हर अखबार और हर गणमान्य जानता था, फिर भी सब से छुपा रहा था.
आइए, अंत में जिला बारदोई के उस ईंट के भट्ठे की ओर लौटें जहां बुचई प्रसाद और दुबेरा बीड़ी के सुट्टे खींच रहे हैं. बुचई के कानों में वही रहस्यपूर्ण फुसफुसाहट की आवाज आ रही है - 'अगाड़ी देख....अगाड़ी बे ! पाछू कुच्च्छ नहीं !....कुच्च्छौ नहीं !!!'
ताज्जुब है कि इस बार दुबेरा को भी कुछ ऐसा ही सुनाई पडा.
Uday Prakash
be positive ? is this the message of the story ?
ReplyDeleteबहुत ही खुबसुरत कहानी, लाजवाब शीर्षक। अपने आपको बार-बार समझने को प्रेरित करता, खुद में विश्वास व्यक्त करने के लिए उकसाता सा। आज व्यक्ति किसी पर भी विश्वास कर सकता है पर अपने आप पर नहीं, यह जो दूसरों का पिछलग्गू बनने का नई धारणाओ समाज में पनप रही है, 'अनावरण' उसके विरोध की कहानी है, और उसके खिलाफ व्यक्ति की खुद के निर्माण की कहानी भी है और इसके लिए जिन पात्रों को चुना गया है वह बेहतरीन है। शुरूआत ही बाबासाहब भीमराव अंबेडकर और मूर्तिकार अनंतराव दत्ताराव सो होती है। गणपति बप्पा की मूर्तियाँ बनाने वाला अंबेडकर की मूर्ति भी बना रहा है, क्यो? इसके अलावा और भी बहुत कुछ है इसमें...
ReplyDeleteउदय प्रकाश जी और मनोज जी, आपको बधाई। अधिकाधिक पाठकों तक बात पहुँचाने के लिए।
बहुत अच्छी कहानी है.काफी दिनों से खोज रहा था.शुक्रिया.
ReplyDeleteअंत बहुत अच्छा है :-)
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी!उदय प्रकाश जी की कहानियां बहुत मनोयोग और उत्सुकता से पढ़ती हूँ हमेशा ही !और हर कहानी में कुछ नवीनता पाती हूँ! कहानी में एक सांगीतिक शब्द ''सेमी -फोक -अर्ध-शास्त्रीय ''म्युज़िक कम्पोसिशन का तुलनात्मक विवेचन भी इसी श्रेणी में आता है संभवतः ! इस कहानी तथा आधुनिक ''जोड़-तोड़-संगीत''पर एकदम फिट .. !अच्छी कहानी पढवाने के लिए
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया ,मनोज जी
पढ़ा है पहले इसे.......कंप्यूटर में सनद होनी जरूरी है ......अनेक पाठको वास्ते ..शुक्रिया
ReplyDeleteलाजवाब !!!!!
ReplyDeleteउदय प्रकाश जी की कहानियों में कथा के साथ वातावरण का सूक्ष्म चित्रण होता है ।
ReplyDeleteइससे कहानी जीवंत हो उठती है । लगता है जैसे सिनेमा की तरह दृश्य चल रहे हैं । बहुत सुन्दर और उद्देश्यपूर्ण कहानी । बधाई ।
अपेक्षा से कमजोर रचना निकली. उदय प्रकाश जी की रचना है इस लिए और ऊंची अपेक्षा थी.
ReplyDeleteकहानी का उत्तर आधुनिक संस्करण, क्योंकि यह कहानी परंपरा को पुनरमूल्याकित करती हैं.सबसे बड़ी बात इस कहानी में कुछ नया हैं, कुछ बयां हैं और कल्पनामिश्रित चित्रण से आधुनिक समाज का वर्णन भी हैं, जिससे उदय जी कविता के साथ ही कहानी बिधा में भी एक दर्जा ऊपर उठ गएँ हैं.
ReplyDeleteडा. मनजीत सिंह
बिलासपुर
वाया बलिया