वेंडी कोप की एक कविता...
सुबह तीन बजे : वेंडी कोप
(अनुवाद : मनोज पटेल)
कोई आवाज़ नहीं है कमरे में
सिवाय घड़ी की टिक-टिक के
जो घबड़ाने लगी है
किसी बड़े से बक्से में
बंद हो गए एक कीड़े की तरह.
किताबें खुली पड़ी हुई हैं कालीन पर.
कहीं और
सो रहे हो तुम
और तुम्हारे बगल है एक स्त्री
जो रो रही है चुपचाप
कि कहीं जाग न जाओ तुम.
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गज़ब का अहसास ...भीतर एक सन्नाटा उतर गया ! आभार मनोज जी इस उत्कृष्ट रचना के लिए !
ReplyDeleteकम लफ़्ज में गहरे तक उतर जाने वाली कविता ............
ReplyDeleteमनोज भाई --- बहुत बढ़िया---
ReplyDeleteजबरदस्त ....
ReplyDeleteघड़ी की टिकटिक और औरत की रुलाई में समय दर्शाती मार्मिक कविता.
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