ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...
गुलाबी कान : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मुझे लगता था
कि बहुत अच्छी तरह जानता हूँ मैं उसे
इतने सालों से हम रह रहे हैं साथ
जानता हूँ
उसका चिड़ियों जैसा सर
गोरी बाहें
और पेट
उस वक़्त तक रहा यह गुमान
जब सर्दियों की एक शाम
वह बैठी थी मेरे बगल
और हमारे पीछे से पड़ रही
लैम्प की रोशनी में
मैंने देखा एक गुलाबी कान
त्वचा की एक मौजूं पंखुड़ी
अपने भीतर प्रवाहमान रक्त भरे
एक सीपी
मैंने कुछ नहीं कहा उस वक़्त --
बेहतर होगा एक कविता लिखना
गुलाबी कान के बारे में
पर ऎसी नहीं कि लोग कहें
कैसा विषय चुना है उसने
सनकी दिखना चाहता है वह.
ऎसी कि हंस भी न सके कोई
ऎसी कि उन्हें लगे
एक रहस्य को प्रकट किया मैंने
मैंने कुछ नहीं कहा उस वक़्त
मगर उस रात जब हम साथ-साथ थे बिस्तर में
बड़ी कोमलता से मैं जांचता रहा
एक गुलाबी कान के
विलक्षण स्वाद को.
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"...गुलाबी कान के बारे में
ReplyDeleteपर ऐसी नहीं कि लोग कहें
कैसा विषय चुना है उसने
सनकी दिखना चाहता है वह..." एक अच्छा कवि किसी भी विषय पर अर्थपूर्ण कविता लिख सकता है, यह तय हो गया. वाह !
i am speechless :) thanku so much manoj ji :)
ReplyDeleteगुलाबी कान...सौंदर्य देखने वाली नजर भर चाहिए..
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteसनक ही जन्म देती है एक अद्भुत कविता को....
बहुत बढ़िया..
शुक्रिया मनोज जी.
अनु
सुन्दर..रोमांटिक...अर्थपूर्ण!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत....!!
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