Friday, September 7, 2012

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट : गुलाबी कान

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...   

 
गुलाबी कान : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मुझे लगता था 
कि बहुत अच्छी तरह जानता हूँ मैं उसे 
इतने सालों से हम रह रहे हैं साथ 

जानता हूँ 
उसका चिड़ियों जैसा सर 
गोरी बाहें 
और पेट 

उस वक़्त तक रहा यह गुमान 
जब सर्दियों की एक शाम 
वह बैठी थी मेरे बगल 
और हमारे पीछे से पड़ रही 
लैम्प की रोशनी में 
मैंने देखा एक गुलाबी कान 

त्वचा की एक मौजूं पंखुड़ी 
अपने भीतर प्रवाहमान रक्त भरे 
एक सीपी 

मैंने कुछ नहीं कहा उस वक़्त -- 
बेहतर होगा एक कविता लिखना 
गुलाबी कान के बारे में 
पर ऎसी नहीं कि लोग कहें 
कैसा विषय चुना है उसने 
सनकी दिखना चाहता है वह. 

ऎसी कि हंस भी न सके कोई 
ऎसी कि उन्हें लगे 
एक रहस्य को प्रकट किया मैंने 

मैंने कुछ नहीं कहा उस वक़्त 
मगर उस रात जब हम साथ-साथ थे बिस्तर में 
बड़ी कोमलता से मैं जांचता रहा 
एक गुलाबी कान के 
विलक्षण स्वाद को. 
               :: :: :: 

6 comments:

  1. "...गुलाबी कान के बारे में
    पर ऐसी नहीं कि लोग कहें
    कैसा विषय चुना है उसने
    सनकी दिखना चाहता है वह..." एक अच्छा कवि किसी भी विषय पर अर्थपूर्ण कविता लिख सकता है, यह तय हो गया. वाह !

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  2. i am speechless :) thanku so much manoj ji :)

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  3. गुलाबी कान...सौंदर्य देखने वाली नजर भर चाहिए..

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  4. वाह...
    सनक ही जन्म देती है एक अद्भुत कविता को....
    बहुत बढ़िया..
    शुक्रिया मनोज जी.

    अनु

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  5. सुन्दर..रोमांटिक...अर्थपूर्ण!

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  6. बहुत खूबसूरत....!!

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