ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...
स्वर्ग से रपट : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट
(अनुवाद : मनोज पटेल)
स्वर्ग में हफ्ते में तीस घंटे निर्धारित हैं काम के
तनख्वाहें ऊँची हैं और कीमतें गिरती जाती हैं लगातार
शारीरिक श्रम थकाऊ नहीं होता (गुरुत्वाकर्षण कम होने की वजह से)
टाइपिंग से ज्यादा मुश्किल नहीं है लकड़ी चीरना
सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ है और शासक बुद्धिमान
सच में किसी अन्य देश से बेहतर है जीवन स्वर्ग में
शुरू में इसे अलग होना था
आभामंडल कीर्तन-मंडली और अमूर्तन के दर्जे
मगर वे ठीक से अलग नहीं कर सके
आत्मा को शरीर से, इसलिए वह यहाँ आ गई
चर्बी की एक बूँद और मांसपेशी के एक रेशे के साथ
जरूरी था नतीजों का सामना करना
मिट्टी का एक कण मिलाना परम के एक कण में
सिद्धांत से एक और विचलन, आखिरी विचलन
सिर्फ जॉन ने इसे पहले ही भाँप लिया था: फिर से धरनी पड़ेगी तुम्हें देह
बहुत लोग नहीं देख पाते ईश्वर को
सिर्फ उन लोगों के लिए है वह जिनमें होती है 100 प्रतिशत आत्मा
बाक़ी सुनते हैं चमत्कारों और प्रलयों की घोषणाओं को
किसी दिन सबको दिखेगा ईश्वर
कोई नहीं जानता कि कब होगा ऐसा
फिलहाल हर शनिवार की दोपहर
मधुरता से गूंजते हैं साइरन
और कारखानों से निकल पड़ते हैं अलौकिक मजदूर
काँखों में अजीब ढंग से दबाए अपने डैने, वायलिनों की तरह
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सिर्फ उनके लिए होता है वह जिनमे होती है १००% आत्मा ....बहुत गहरा व्यंग्य ....शानदार अनुवाद ।
ReplyDeleteबड़ा आकर्षक खाका खींचा है स्वर्ग का !
ReplyDelete"कहन" शानदार है. अनुवाद भी.
behtreen lines.....
ReplyDeleteशानदार कविता और उतना ही अच्छा अनुवाद
ReplyDeleteशानदार कविता और उतना ही अच्छा अनुवाद
ReplyDeleteBahut hi badhiya!
ReplyDeleteबहुत कुछ कहना है कवि को.... बहुत कम समझ में आया-
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