Monday, November 1, 2010

फिलिस्तीनी : हारून हाशिम राशिद



फिलिस्तीनी, 
फिलिस्तीनी है मेरा नाम. 
दुनिया के सारे लड़ाई के मैदानों पर, 
साफ़-साफ़ लिखावट में, 
लिख दिया है अपना नाम, 
बाक़ी सभी नामों को ढंकते हुए. 
चिपके रहते हैं मुझसे मेरे नाम के अक्षर, 
रहते हैं मेरे साथ मुझे पोसते हुए, 
आग से भर देते हैं मेरी रूह 
दौड़ते-फिरते मेरी रगों में. 
फिलिस्तीनी, 
ऐसा ही है मेरा नाम, जानता हूँ मैं. 
यातना और दुःख देता है यह मुझे 
मुझे तलाशती हैं उनकी आँखें 
पीछा करती हैं मेरा और जख्मी करती हैं. 
क्योंकि फिलिस्तीनी है मेरा नाम 
अपनी खुशी की खातिर 
भटकाते फिरते हैं वे मुझे. 

रहता आया हूँ ताजिंदगी 
किसी खासियत किसी सूरत के बिना, 
अपनी खुशी की खातिर 
उन्होंने नाम दिए मुझे और पदवियां.  
कैदखाने बुलाते हैं मुझे 
पूरा खोले हुए अपने फाटक 
और दुनिया के सारे हवाईअड्डों पर   
पाए जाते हैं मेरे नाम, मेरी पदवियां - 
हवा बहा ले जाती है मुझे और 
फैला देती है इधर-उधर. 
फिलिस्तीनी - 
मेरा पीछा करता है यह नाम, साथ रहता है हमेशा ;
फिलिस्तीनी है मेरा नसीब 
चिपका हुआ मुझसे, मुझे फिर से जिलाता हुआ. 
फिलिस्तीनी हूँ मैं, 
भले ही कुचल देते हैं वे मुझे और मेरे नाम को ; 
फिलिस्तीनी हूँ मैं, 
भले ही दगा देते हैं वे मुझे और मेरे सरोकार को ; 
फिलिस्तीनी हूँ मैं, 
भले ही बेंच देते हैं वे मुझे सरेबाजार 
हज़ारों लाखों में,
अपनी ख़ुशी की खातिर ;
फिलिस्तीनी हूँ मैं, 
भले ही फांसी के तख्ते तक पहुंचाते हैं वे मुझे ; 
फिलिस्तीनी हूँ मैं, 
भले ही दीवालों में चुन देते हैं वे मुझे. 
फिलिस्तीनी हूँ मैं, 
हाँ फिलिस्तीनी हूँ मैं, 
भले ही आग में झोंक देते हैं वे मुझे. 
मैं - आखिर क्या है मेरी हस्ती ? 
अपने फिलिस्तीनी नाम के बिना 
रहने के वास्ते बिना अपने मादरे वतन के 
जो महफूज रखे मुझे और जिसे महफूज रखूँ मैं 
कौन हूँ, आखिर कौन हूँ मैं ? 
जवाब दो, जवाब दो मुझे !  

(अनुवाद : मनोज पटेल)

1 comment:

  1. बहुत ही प्रभावशाली कविता जिसमें फिलिस्तिन की एक ऐसे भूगोल की बात जो राष्ट्र की बात करते हुए भी आदमी की पहचान में विस्तार में पाती है...

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