Monday, November 29, 2010

निज़ार कब्बानी की दस कवितायेँ


शुरुआती कविता 
शुरुआत में थीं कविताएँ. और मेरे ख्याल से 
अपवाद था सादा-सपाट गद्द्य
गहरा-फैला समुद्र था पहले 
और सूखी धरती अपवाद थी शायद 
उरोजों 
 की पुष्ट गोलाइयां थीं पहले 
और अपवाद थीं सपाट रेखाएँ
पहले पहल तुम थीं मेरी जान, सिर्फ तुम
बाद में थीं दीगर औरतें.
              * *
कविता के साथी !
इक दरख़्त हूँ मैं आग का और इमाम हूँ हसरत का,
लाखों-करोड़ों आशिकों की जुबां मैं ही.
मेरे आगोश में सोती हैं तरसती जानें
कभी फाख्ते रचता हूँ जिनकी खातिर
तो बिरवे कभी चमेली के.
साथियों,
इक ज़ख्म हूँ मैं इन्कार करता हुआ हमेशा 
चाकू की हुकूमत से !
              * *
क्या चला जाता ख़ुदा का ?
क्या चला जाता ख़ुदा का भला,
जिसने सूरज रचा जन्नत में चमकते सेब की तरह 
जिसने बहाव बनाया पानी का और खड़े किए पहाड़ इत्ते बड़े; 
क्या चला जाता उसका आखिर,
गर यूं ही मजे में 
बदल दी होतीं उसने फितरतें हमारी 
मुझे बनाया होता थोड़ा कम पुरजोश
और
थोड़ा कम खूबसूरत बनाया होता तुम्हें.
              * *
बेवकूफी 
जब मिटा दिया तुम्हारा नाम
याददाश्त की किताब से
पता ही नहीं था कि
मिटा रहा हूँ
आधी ज़िंदगी अपनी.
              * *
कप और ग़ुलाब 
काफीघर को गया मैं
भुलाने की खातिर अपना प्यार 
और दफनाने को अपना ग़म,
मगर उभर आई तुम
मेरे काफी कप के तल से,
ग़ुलाब एक सफ़ेद जैसे.  
              * *
नज़रबंदी में प्यार 
इजाज़त चाहता हूँ तुम्हारी, जाने के लिए 
क्योंकि खून जिसे मैं सोचता था कि कभी नहीं बदलेगा पानी में 
हो चुका है पानी 
और आसमान जिसका नीला कांच जो मैं सोचता था 
कि टूटेगा नहीं कभी.........गया है टूट 
और सूरज 
जिसे लटका दिया करता था मैं तुम्हारे कानों में 
झुमके की तरह 
गिर कर जमीन पर मुझसे...... हो गया है चूर-चूर 
और शब्द जिनसे ओढ़ा दिया करता था तुमको जब सो जाती थी तुम 
उड़ भागे हैं डरे हुए परिंदों की तरह
छोड़ कर तुम्हें नग्न. 
              * *
शुरूआत 
छुपाता नहीं हूँ कोई राज़...एक खुली किताब है दिल मेरा  
मुश्किल नहीं है तुम्हारे लिए पढ़ना इसे 
शुरूआत उस दिन से मानता हूँ अपनी ज़िंदगी की, मेरी जान, 
जिस दिन से लगाया दिल तुमसे. 
              * *
उदासी की नदियाँ 
तुम्हारी आँखें 
जैसे उदासी की दो नदियाँ 
दो नदियाँ संगीत की
जो बहा ले जाती हैं मुझे बहुत दूर 
समय की पहुँच से परे,
संगीत की दो नदियाँ मेरी जान 
जो 
भूल गईं अपना रास्ता 
और कर दिया मुझे पथभ्रष्ट. 
              * *
समीकरण 
प्यार करता हूँ तुम्हें 
इसलिए हूँ मैं 
वर्तमान में.
और लिखकर प्रिय, 
वापस पा लेता हूँ अतीत.
              * *
अंगूर 
की बेल 
हर शख्स जो चूमेगा तुम्हें मेरे बाद 
पाएगा होंठों पर तुम्हारे 
अंगूर 
 
की बेल एक छोटी सी 
जिसे रोप दिया है 
 मैनें वहां.
              * *
(अनुवाद : Manoj Patel)
Nizar Qabbani, Padhte Padhte 

2 comments:

  1. बहुत ख़ूबसूरत रचनाएँ और बहुत उम्दा अनुवाद मनोज भाई। बधाई। मुझे व्यक्तिगत स्तर पर कविता "क्या चला जाता ख़ुदा का" बहुत अच्छी लगी।

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  2. पार्टनर, ये कवितायेँ शहद के छत्ते की तरह हैं. शहद से लबरेज़ पर जिनकी हिफाज़त निज़ार साहब करते हैं. ज़ुल्मतों के दौर में इश्क के तराने सुनाने के लिए शुक्रिया.
    अनुवाद बेहद खूबसूरत हैं, हालांकि मूल मैंने नहीं पढ़ा है. खासकर मध्य पूर्व की दुनिया के एक शायर के अनुवाद में उर्दू का रंग कविता को उसके असली स्वाद के बेहद नज़दीक खडा कर देता है.

    एक सुझाव है -
    अगर आप इन कविओं के बारे में, उनकी कविताओं की खासियतों के बारे में, उनकी शायरी के हलकों के बारे में कुछ मालूमात पेश केर दें तो शायद और बेहतर रहेगा, कविता के इर्द-गिर्द की ज़मीन और समझी जा सकेगी, और कविता भी.
    फिर से शुक्रिया.

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