तुम्हारे संजाल के हल्के ही झटके से
बिला जाती हैं बादशाहतें.
गुस्से से बनता है तुम्हारा मुंह तो
दहशत में सिजदा करते हैं मुल्क तमाम.
मौसम बदल सकते हैं तुम्हारे बम,
मिटा सकते हैं बसंत का नामो निशान.
और क्या चाहते हो तुम ?
आखिर क्यों हो तकलीफ में ?
काबू में रखते हो तुम इंसानी जिंदगियां
रोम और टिम्बकटू में.
आवारगी करते एकाकी बंजारे
एहसानमंद तुम्हारे उपग्रहों के लिए.
समुन्दर सरकते हैं तुम्हारे फरमान पर,
आसमान ढँक उठता है तुम्हारे परीक्षणों की गर्द से.
फिर नाखुश क्यों हो तुम ?
आखिर रोते क्यों हैं बच्चे तुम्हारे ?
घुटने टेक देते हैं वे दहशत में अकेले
हर निगाह में दिखता डर.
एक मनहूस विरासत से
रोज धमकायी जाती उनकी रातें.
बसते हो तुम सफ़ेद किले में
गहरी जहरबुझी खाई से घिरे
तुम्हारे कानों तक नहीं पहुंचती बददुआएं
भरे रहते जिनसे तुम्हारे बच्चों के गले.
(अनुवाद : Manoj Patel)
बढ़िया काम... अच्छा लगा..
ReplyDeleteओबामा की आने की तैयारी जिस तरह से हुई है और हो रही है इससे तो लगता है कि इस कविता के अलावा दूसरी कोई सच्चाई है ही नहीं... सही समय पर सही चोट दिया है आपने...
ReplyDeletebehad sateek abhivyakti, shukriya manoj hume jagaye rakho.
ReplyDeletebahut khoobsurat anuwad hai .. theek samay par sateek kavita di hai aapne.
ReplyDeleteअमेरिका की दादागिरी और बाकि तमाम दुनिया की काहिली का दर्दनाक मंजर है यहाँ।
ReplyDeleteकोई कभी खुद से नहीं पूछता कि आखिर क्यों आवारा पूंजी की हवस में हम अमेरिका के पिट्ठू हुए जाते हैं!
कहीं तो ठहरो भाई, कब तक...............
बहुत सुंदर कविता ऐसी सच्चाई जिसे महसूस करते में भी दुनिया की सरकारें डरती हैं
ReplyDeleteबहुत धारदार कविता और धारदार अनुवाद। आभार मनोज जी।
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