Monday, December 27, 2010

चन्दन पाण्डेय की कहानी : मुहर

( इस कहानी के केंद्र में वही नई पीढ़ी है जिसके बारे में बुजुर्गवार यह राय बना चुके हैं कि वह असंवेदनशील, मनुष्य विरोधी वगैरह है. कहानी में एक लड़की है, एक नौकरी की तलाश है और कुछ लम्हे हैं जो बताते हैं कि संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुण लुप्त नहीं हुए हैं. कहानी चन्दन पाण्डेय की है - पढ़ते पढ़ते ) 



मुहर
      रोली के जिद्दी और अकड़ू होने की खबर आजकल जैसे सबको हो गई है. अभी अभी पारिजात सर ने भी जिद्दीपने के खातिर उसे डांट लगाई है.
      रोली की नौकरी छूटे तीन महीने हो रहे हैं. नौकरी की तलाश में मित्रों की मदद उसे ‘अच्छी’ नहीं लगती. यह भी सच है कि सीधे रास्ते सारे बन्द हैं. उसके मित्र समझदार हैं. किसी जगह उसके रोजगार की बात चलाने से पूर्व रोली की सहमति लेने का काम सलीके से करतें हैं. इस तरह कि कहीं रोली को ‘फील’ ना हो जाये.
      भोपाल के इस दफ्तर में रोली के लिये नौकरी की बात पारिजात सर ने चला रखी है. इस दफ्तर में उनका मित्र मुकुन्द पांडेय बड़ी पदवी पर है और सक्षम है. मुकुन्द पांडेय, पारिजात का सहपाठी रहा है और दो वर्षों के पाठ्यक्रम के दौरान पारिजात ने मुकुन्द से कभी जो बातचीत की हो. पर समय समय की बात. तुक्के और अपनी बीवी की मदद से मुकुन्द ने दफ्तर की दुनिया में अच्छा स्थान बना लिया है. वैसे, इस दफ्तर में रोली की नौकरी की बात चलाने से पहले पारिजात ने दो बार सोचा था. या शायद तीन बार.
      नौकरी पारिजात की भी नहीं है पर उन्होने छोड़ रखी है. यह उनका तरीका है. छ: महीने की नौकरी करते हैं, धुआँधार काम करतें हैं इतना शानदार कि चाहकर भी बॉस डांट नहीं पाता.. फिर नौकरी छोड़ देते हैं. थोड़ा दुनिया घूमा, कुछ किताबें पढ़ी, कुछ लेख लिखे और फिर छ: महीने के लिये नौकरी कर लेते हैं. इस अखबार की छवि उनके मन में अच्छी है इसलिये चाहते हैं कि रोली यहीं काम करे.
      भोपाल तक का रेल टिकट लेने के लिये रोली कतार में थी और मुम्बई के अपने मित्र से बात कर रही थी. आकाश था. यहाँ टिकट कतार से कम ही मिल रहे थे. ऐसे में बुकिंग क्लर्क पर उपजी झल्लाहट रोली ने आकाश पर उतार दी. थोड़ी बेरुखी से कहा: अभी फोन रखो, बाद में बात होती है. इसी बात पर उस मित्र ने कहा था: रोली, तुम ‘एरोगेंट’ हो गई हो.
      उसी शाम की बात है, पारिजात सर का फोन था. रोली उन्हें अपने भोपाल के टिकट हो जाने की बात बता रही थी. सर ने पूछा: टिकट कन्फर्म तो नहीं होगा? उनके सवाल में तंज था. रोली ने कहा: बिल्कुल सही, कंफर्म नहीं है. सर डाँटने लगे. उनका कहना वाजिब था. जाना, जब दो दिन पहले ही तय हो चुका था तो टिकट भी पहले ले लेना था. आलसी नम्बर एक से नम्बर दस तक, सारा यही जो ठहरीं. और तो और, रोली मैडम, सर की डाँट का बुरा भी मान गईं. कह दिया : अब मैं भोपाल नहीं आ रही हूँ. सर ने दुनिया की सारी उपेक्षा बटोर कर कहा: महारानी, ऐसी अकड़ नहीं चलेगी. समझी.
      जब वो अपने लिये चाय बना रही थी तो पाया कि चीनी नहीं है और साथ ही उसे सुबह का वह समय याद आया जब आकाश ने उसे एरोगेंट कहा था. रोली को यह छोटे मोटे आविष्कार की तरह लगा. शाम को पारिजात सर ने भी उसे अकड़ू कहा था. शाम की यह याद आते ही वो चाय लेकर हॉस्टल की छत पर चली आई.
      उसे हँसी और एक पुरानी याद साथ साथ आई. पत्रकारिता की पढ़ाई के आखिरी साल की बात है, जब एक दिन उसने ‘एवरीथिंग इज एल्यूमिनेटेड’ के बारे में सुना. अंकित था या कोई और जो इस फिल्म की तारीफ में कई सारे पुल बान्धे जा रहा था. बाइत्तिफाकन रोली ने अगले ही दिन किसी पत्रिका में इस फिल्म का जिक्र देखा. उसे यह संयोग अच्छा लगा. दोनों घटनायें अगर दिनों के अंतराल पर घटती तब वो शायद इस फिल्म का ध्यान नहीं धर पाती. पर अनोखी बात तो इसके भी बाद घटी.
      उसी दोपहर कैसेट्स की किसी अचर्चित दुकान में टहलते हुए रोली को इस फिल्म की सी.डी. मिल गई. उसे खूब आश्चर्य हुआ. उसे लगा हो ना हो सारे समीकरण ऐसे बन रहे हैं जिससे रोली को यह फिल्म दिखाई जा सके. उसने वो फिल्म खरीद ली वरना वो सी.डी. खरीदकर सिनेमा देखने वालों में से नहीं है.
      रोली ने उस फिल्म को याद किया और उस घटना की इस बेअन्दाज पुनरावृति को भी. उसके चेहरे पर इस ख्याल की कसैली मुस्कुराहट फैल गई कि आज कहीं कोई तीसरा ना मिल जाये जो उसके जिद्दी और अकड़ू होने की बात बताने लगे.

      जिस दिन वो भोपाल पहुंची उससे पांच दिन पूर्व से ही पारिजात सर अपना डेरा डंडा भोपाल में जमाये हुए थे. सर रोली से दो साल सीनियर हैं पर उनका ज्ञान तगड़ा है, जिसे वो गाहे ब-गाहे बघारते भी खूब रहते हैं. रोली को बहुत मानते हैं. चाहतें हैं दुनिया की सारी समझ, सारा ज्ञान, सारा कुछ रोली के पास रहे. रोली, भले ही, ऐसा नहीं चाहती हो. दोनों के झगड़े मशहूर हैं.
      कल साक्षात्कार है.
      जब से वो आई है, पारिजात सर उसे कुछ ना कुछ समझाये जा रहे हैं. पहला घंटा शेयर बाजार के बारे में धाराप्रवाह बताते हुए बिताया. अभी अर्थशास्त्रीय सूत्र समझा रहें है. पर रोली यह सब सुनना नहीं चाहती है. उसे बार बार समझाये जाने की कोशिश भली नहीं लग रही है. जैसे वो बहुत बड़ी हो गई है या जैसे कोई उसे याद दिला रहा है कि वो बेरोजगार है. समझाईशों के बीच एक बार वो टोकती भी है: इससे पहले मुझे नौकरी नहीं मिली है क्या?
      साक्षात्कार के लिये जाते हुए उसने पीपल के गिरे हुए पत्तों के रंग का सूट पहन रखा था. रास्ते भर, जैसा कि आप सब अवगत हो चुके होंगे, सर रोली को समझाते रहे. दफ्तर के बाहर ही मुकुन्द से मिलना तय हुआ था. वो मिले और मिलते ही पारिजात सर से शेयर बाजार के उतार चढ़ाव की बात शुरु कर दी. पारिजात बात जरूर कर रहे थे पर साथ के साथ यह भी सोच रहे थे कि कहीं रोली के साक्षात्कार में विलम्ब ना हो जाये. उनका यह सोचना साफ दिख रहा था जिसे देख रोली मन ही मन हँस रही थी.
      साक्षात्कार के वक्त एच.आर.(मानव सन्साधन) की टीम के साथ मुकुन्द पाण्डेय भी बैठे रहे. औपचारिक सवाल पूछे जा रहे थे जिनके औपचारिक ही जबाव रोली दे रही थी. एच.आर. के बन्दे सवाल पूछ कर एक बार मुकुन्द की तरफ देख लेते थे; कहीं सवाल वजनी तो नहीं हो गया? बीच बीच में मुकुन्द अपने संघर्षों की कहानी, अपनी ही जबानी शुरू कर दे रहे थे. वो सीनियर थे इस नाते सब उन्हें सुन भी रहे थे – कि कैसे बचपन में पचास मीटर पैदल चल कर विद्यालय जाया करते थे, कि बचपन में विद्यालय की फीस जमा करने में उन्हे कितनी मुश्किल आती थी; इसलिये नहीं कि उनके पास पैसे नहीं होते थे बल्कि इसलिये कि उन्हें फीस जमा करने के लिये लम्बी कतार में खड़ा होना पड़ता था.
      वो सीनियर थे इसलिये आते आते प्रवचन पर उतर आये. यह सब बताने लगे कि दुनिया माया है, सब मिथ्या है..... और कहते कहते तैश खा गये. कहना शुरु किया: लोगों को अहंकार नहीं पालना चाहिये. जब मैं कॉलेज में था तब कुछ लोग मुझसे बात करना भी गवारा नहीं करते थे. वो मुझे देख कर रास्ता बदल लेते थे. उन्हे लगता था कि कॉलेज से निकलते ही किसी अखबार के सम्पादक की कुर्सी पर जा बैठेंगे... और इतना सब कह कर मुकुन्द ने रोली की तरफ देखा. रोली ने बड़े गौर से देखा, मुकुन्द उसकी तरफ देख रहे हैं. एच.आर. के सद्स्यों ने देखा: मुकुन्द अभ्यर्थी की ओर देख रहे हैं और यह जो अभ्यर्थी है वह भी कम नहीं है जो मुकुन्द की तरफ देखे जा रही है.
      रोली को देखने के बाद भी मुकुन्द ने अपनी बात जारी रखा. कहते रहे: ये जो महान पढ़ाकू लोग थे और जो हमें किसी लायक नहीं समझते थे आज खुद सड़क पर हैं. इनका सारा ज्ञान जाने कहाँ खो गया कि आजकल बेकार बेरोजगार घूम रहे हैं.
      रोली ने दूर की सोची और पाया कि वो जब तक यहाँ रहेगी यह पाजी पंडित ऐसी ही बातें करता रहेगा. रोली समझ रही थी कि मुकुन्द यह सब किसके बारे में कह रहे हैं. यह सारी गलतियाँ पारिजात सर में है. वो अपने कॉलेज में शायद ही किसी से मेलजोल रखते हों. खुद उससे भी वे केवल पत्रकारिता सम्बन्धित बातें ही करते हैं. दरअसल पारिजात सर अपने आप में इतना गुम रहते हैं कि उन्हें पत्रकारिता के अलावा किसी भी दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रहता है. अपने बैच में सबसे पहली नौकरी उन्होने ही पाई थी. सर्वाधिक इंक्रीमेंट्स भी उन्हीं के लगे. ये जरूर है कि आज उनके पास नौकरी नहीं है पर उन्होने नौकरी छोड़ रखी है, उन्हें निकाला नहीं गया है.
      इतना लम्बा सोचते ना सोचते रोली की साँस फूल गई. पारिजात सर के बारे में आजतक उसने इतनी अच्छी बातें एक साथ कभी नहीं सोची होगी. इसी खातिर उसने मुकुन्द पाण्डेय से कहा: पारिजात सर जब चाहें उन्हें नौकरी मिल जाये. कितने अखबार वाले जो उनके काम को जानते हैं, उन्हें बुला रहे हैं.
      मुकुन्द पाण्डेय झटका खा गये. किसी से कुछ भी सुनने की उनकी आदत छूट गई. फिर भी खीसें या दाँत जैसा कुछ निपोरते हुए कहा: मैं पारिजात जी की बात नहीं कर रहा हूँ. यह तो एक आम चलन होता जा रहा है.
      एच.आर. के सदस्यों की समझ में ज्यादातर बातें नहीं आ रही थीं कि यहाँ क्या चल रहा है और यह भी कि यह, पारिजात, आखिर है कौन?
      कुछ देर ठहर कर रोली को सुनाते हुए मुकुन्द ने एच.आर. हेड से पूछा: अब?
      एच.आर. हेड ने कहा: जरूरी कागजात इन्हें मेल द्वारा भेज दिया जायेगा. उसने मुस्कुराते हुए रोली को बधाई दी और इस अखबार को नियमित तौर पर देखने की सलाह भी दी ताकि जब काम पर रोली आने लगे तो इस अखबार की नीतियों को समझनें पर ज्यादा समय ना खर्च हो. ठीक इसी बिन्दु पर मुकुन्द ने रोली का ध्यान अपनी तरफ खींचा, कहा: पारिजात जी से कहियेगा, शाम को मिल लें.
अखबार के दफ्तर से निकलते ही रोली ने पारिजात सर को फोन कर दिया.


रोली उस पूरे दिन भोपाल घूमती रही. एक छोटे से दिन में जहाँ जा सकती थी, गई. जहाँ नहीं जा सकती थी, जैसे भीमबैठका, वहाँ मन ही मन गई. भीमबैठका पर जो कछुये के आकार वाला पत्थर था, उस पर मन ही मन बैठी रही. भोपाल ने उसकी स्मृतियों का अच्छा खासा हिस्सा छेंक रखा है.
शाम को पारिजात सर मिले. मिलते ही डॉटना शुरु कर दिया. कहने लगे, “ मुकुन्द कह रहा था कि मन्दी के कारण नई नियुक्तियाँ पाँच छ: महीने के लिये टाल दी गई हैं. वो झूठ बोल रहा था. पर हँसते हुए ही उसने एक बात कही कि रोली थोड़ी ‘एरोगेंट’ है. ..बताओ, मुकुन्द की हरेक बात का जबाव देना जरूरी था?” पारिजात रोली को पिछले कुछ दिनों की हर वो घटना याद दिलाते रहे जिससे साबित होता था कि रोली जिद्दी और अकड़ू है.
इधर रोली को पहले तो बेहद तकलीफ हुई पर अपनी तकलीफ को उसने गुस्से में बदलने  दिया, सोचती रही – दो दिन पहले भी तो यही मन्दी रही होगी जब उसे साक्षत्कार के लिये बुलाया गया. एक बार को ही, पर रोली को यह ख्याल आया कि पारिजात सर को बता दे, मुकुन्द की कौन सी बात पर उसने ‘जबाव’ दिया था. पर नहीं बताया क्योंकि उसी वक्त हबीबगंज स्टेशन से एक रेल खुली थी.  रोली उसके डब्बे गिनने लगी थी. उसने गौर किया तो पाया कि इधर कुछ रेलगाड़ियों के डब्बे हरे रंग के भी होने लगे हैं.
                              * * *

चन्दन पाण्डेय, 28 वर्ष की उम्र,एक कथा संग्रह 'भूलना' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित, दूसरा कथा संग्रह 'जंक्शन' शीघ्र प्रकाश्य. नई बात नाम से एक ब्लॉग लिखते हैं. 
संपर्क : मोबाइल : 09996027953, ई-मेल : chandanpandey1@gmail.com    

chandan pandey 

14 comments:

  1. waah bhai, kahani ka turning point bahut pasand aaya. aur bhi kai-kuchh. fir baad mein...
    abhi to badhaai is nai aur achchhi kahaani ke liye.

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  2. kahani achhi lagi... naya sangrah kab aa raha hai?

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  3. शानदार प्रस्तुति //
    नए साल की बधाई

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  4. सधी हुई संतुलित कहानी लगी. चंदनजी को बधाई और पढते-पढते का आभार इतनी अच्छी कहानी पढवाने के लिए.

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  5. चन्दन भाई, कहानी छोटी है. लम्बी कहानियां पढ़ने की ऐसी लत लग गयी है कि बहुत मज़ा नहीं आया. मेरी ही समस्या हो सकती है. मुझे तो लगता है कि ये कहानी जल्दी में लिखी गयी है.
    जहां तक रोली के चरित्र की बात है, ढेरों अंदेशे लगातार उठते चले जाते हैं, सूत्र बिखरते चले जाते हैं. मैं कल्पना कर रहा हूँ कि पारिजात रोली की ये कहानी अगर "रिवाल्वर" के पहले हिस्से में उसके प्रेमी प्रेमिका पर घटित हो तो कैसा होगा? नायक बाद में इसके क्या मतलब निकालेगा? मैं यह भी सोच रहा हूँ कि नौकरी ठुकरा देने के पीछे आखिर रोली क्या सोच रही होगी?

    अभी तो इतना ही
    और दो तीन बार पढ़ कर फिर आगे बतियाते हैं.

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  6. is kahani se tum apne khanipan ke sath variation ke bhi mastaer kahe javoge... sabse khash to tumhara climex hota hai jo dubane ke sath pathak ko sochva deta hai... tum kahani lambi likhte ho lekin khanai padte wakt ye sab khyal nahi aata... bahut hi achhi khani... badhayi manoj ji ko bhi.....

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  7. It seems that this story was written before "Revolver", "city public school", "neem ka paudha", "bhulna".... As I read all those stories before this, so my expectation with you is very high Chandan!!!!
    Its an average story, not of Chandan Pandey type which we are very used to read..... Just after reading the story I know why people call me "Arrogant".... he he he

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  8. चन्दन भाई बहुत खूब, मज़ा आ गया, अच्छी कहानी है

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  9. चन्दन , कहानी पढ़ कर अच्छा लगा. इंसान के अंदर की तमाम दीवारों और रिश्ते की बारीक़ सतहो को बड़े ही नेचुरल वे में कहानी चुपचाप महसूस करा देती है .

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  10. कहानी बिना रूके पढ़ तो ली। पर लगा कुछ बात बनी नहीं। किसी का भी कैरेक्‍टर उभरा नहीं। लगा जैसे कहानी बहुत जल्‍द बाजी में पूरी कर दी गई है।

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  11. chandan.....sidhe sade...shabdon...me likhi...behatareen kahani...is kahani ko mai...ek tokri bhar mitti ke sath rakhati hun....manawata..awam...samvedansheelta pr khari utarti kahani hai.....jis bat pr roli ne jawab diya tha...wahi...to kahani ka marm hai.....use akadu kahane walon ke mukh pr tamacha.....

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  12. कहानी अच्छी है, पर एक अधूरापन है.

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  13. Chandanji kahani padte waqt aisa lag raha tha abhi kuch hoga , abhi koi ghatna ghategi par aisa kuch hua nahi, thodi si nirasha hue. par ummid barkaraar hai .

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