Monday, January 24, 2011

येहूदा आमिखाई की कविता

अपने जन्मदिन के लिए 
बत्तीस बार मैं बाहर निकला अपनी ज़िंदगी में,
हर बार कम तकलीफ देता हुआ अपनी माँ को, 
दूसरे लोगों को भी देता हुआ कम तकलीफ 
खुद को ज्यादा.

बत्तीस बार पहना है दुनिया को 
और अभी तक ठीक नहीं हो पाई है नाप. 
दबाए हुए है यह मुझे अपने वजन से, 
उस कोट के विपरीत जो अब शक्ल ले चुका है मेरी देंह की 
और है आरामदायक   
घिस जाएगा धीरे-धीरे. 

बत्तीस बार जांचा है हिसाब 
कोई गलती पाए बगैर,
शुरू की कोई दास्तान 
मगर नहीं मिली इजाजत ख़त्म करने की उसे.

बत्तीस साल से ढोए जा रहा हूँ अपने संग 
अपने पिता के लक्षण 
और गिराता आया हूँ उनमें से ज्यादातर को रास्ते में,
ताकि कुछ कम कर सकूं बोझ.     
मातमी पोशाक विधवा की उग आई है मेरे मुंह में. और चकित हूँ मैं,
और मेरी आँखों से फूट रही किरणें जिन्हें हटा नहीं पाऊंगा मैं, 
खिलने लगी हैं दरख्तों के साथ बहार के वक़्त.
और लगातार छोटे होते जा रहे हैं मेरे अच्छे काम. 

मगर व्याख्यायें बड़ी होती जा रही हैं उनके चारो ओर 
जैसे एक दुरूह अंश ताल्मुड का 
जहां पाठ्य भाग कम से कम हिस्सा लेता है पन्ने का 
और राशि और दीगर टीकाकार 
घेरे आते हैं इसे चारो ओर से.

और अब, बत्तीस बार के बाद, 
अभी तक हूँ एक नजीर 
मायने बनने की कोई संभावना भी नहीं. 
और खड़ा हूँ दुश्मन की आँखों के सामने किसी छद्मावरण के बगैर,
पुराने नक़्शे लिए अपने हाथों में,
ताकत जुटा रहे प्रतिरोध में और बुर्जों के बीच,
और अकेला, इस विस्तीर्ण रेगिस्तान में 
किसी सिफारिश के बगैर.     

(अनुवाद : Manoj Patel)
Yehuda Amichai,   יהודה עמיחי

8 comments:

  1. बहुत ही अच्छी कविता...

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  2. ग़ज़ब की कविता और शानदार अनुवाद

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  3. ''लगातार छोटे होते जा रहे हैं मेरे अच्छे काम, मगर व्याख्याएं बड़ी होती जा रही हैं उनके चरों ओर...!''
    बहुत अच्छी कविता...।

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  4. ''बत्तीस बार पहना है दुनिया को
    और अभी तक ठीक नहीं हो पाई है नाप....।''
    ... सचमुच ...!!!

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  5. bahut hi sundar kavita or bada hi sundar anuvaad. aabhar Manoj ji padhane k liye...

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  6. चकित करने वाली रचना ,बेहद असरदार ! आपके लिए धन्यवाद !

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