अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...
सुर्ख़ पत्तों का एक दरख़्त : अफ़ज़ाल अहमद सैयद
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)
नहीं देखा होगा तुमने अपने आपको छत से लगे हुए आईने में
सुर्ख़ पत्तों से भरे एक दरख़्त के नीचे
नहीं बढ़ाई होंगी तुमने अपनी उंगलियाँ
दरख़्त से पत्ते और अपने बदन से लिबास उतारने के लिए
"आदमी दरख़्त से ज्यादा ख़ूबसूरत है"
नहीं कहा होगा किसी ने तुम्हें चूमकर
दरख़्त को टुकड़े टुकड़े करने के बाद
नहीं उठाया होगा तुमने लकड़ी का गट्ठर
नहीं जाना होगा तुमने कटी हुई शाख़ में पानी का वजन
"आग दरख़्त से ज्यादा ख़ूबसूरत है"
नहीं कहा होगा किसी ने अलाव के क़रीब तुम्हें अपने सीने से लगाकर
नहीं दिया होगा तुम्हें किसी ने अपना दिल
सुर्ख़ पत्तों का एक दरख़्त
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नहीं दिया होगा किसी ने तुम्हे अपना दिल
ReplyDeleteसुर्ख पत्तों से भरा एक दरख्त !
मार्मिक और जटिल .
waaaaaaaaah waaaaaaaaaaaaaah hot khub ye ruh ko chune vale shabd hai bhot khubt
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeletebahut sundar, hamesha ki tarah
ReplyDeleteसुर्ख पत्तों वाले दरख़्त जैसे दिल को जिस्म के आगे कौन पूछता है .....बहुत अच्छी कविता । सुन्दर अनुवाद ।
ReplyDeleteसुर्ख पत्तों वाले दरख़्त जैसे दिल को जिस्म के आगे कौन पूछता है .....बहुत अच्छी कविता । सुन्दर अनुवाद ।
ReplyDeleteअच्छी कविता है
ReplyDeleteकृति
https://kritisansar.noblogs.org/
शानदार कविता .............घनीभूत संवेदना साथ बहा ले जाती है . समुचित अनुवाद !
ReplyDeletesuperb poem manoj ji...
ReplyDeletethanks
anu
सुन्दर!
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