Saturday, June 29, 2013

लिंडा पास्तन की कविता

अमेरिका की कवयित्री लिंडा पास्तन (27 मई, 1932) की एक कविता... 

दुनिया में कहीं न कहीं : लिंडा पास्तन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

दुनिया में कहीं न कहीं 
कुछ न कुछ घट रहा है ऐसा 
जो खरामा-खरामा पहुँच ही जाएगा यहाँ तक. 

सर्द हवाएँ चली आएंगी कैमेलिया के पौधों को 
बर्बाद करने, या शायद गर्मी का प्रकोप 
उन्हें झुलसाने के लिए. 

बिना कागजात, बिना पासपोर्ट आ जाएगा कोई वायरस 
और धर दबोचेगा मुझे जब मैं मिला रही होऊँगी किसी से हाथ 
या चूम रही होऊँगी कोई गाल. 

कहीं न कहीं शुरू हो चुका है कोई छोटा सा झगड़ा 
गरमा-गरमी वाले कुछ शब्दों ने 
लगा दी है आग, 

और आने लगी है 
धुएँ की बू; 
बू जंग की. 

जहाँ भी मैं जाती हूँ खटखटा कर देखती हूँ लकड़ी -- 
मेजों को या पेड़ के तनों को. 
बार-बार धोती हूँ अपने हाथ, 

नजर दौड़ाती हूँ अखबारों पर 
और बनाती हूँ ऐसे चेतावनी कोड 
जो मेरे या मेरे पति की जन्मतिथि नहीं होते. 

मगर कहीं न कहीं, कुछ न कुछ घट रहा है ऐसा 
जिसके खिलाफ नहीं है कोई तैयारी, सिर्फ वही दोनों 
बुढ़ाते साज़िशकर्ता, उम्मीद और किस्मत. 
                        :: :: :: 

6 comments:

  1. बुढ़ाते साजिशकर्ता उम्मीद और किस्मत ……… ………

    सोंच और चिंता में डाल देने वाली कविता ,सुन्दर अनुवाद !

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  2. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती आभार ।

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  3. आपदाओं की आशंका से भरी कविता.जब सब कुछ व्यवस्थित होता है, दबे पांव मुसीबत चली आती है.

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  4. कहीं न कहीं कुछ घट रहा है ऐसा जिस के खिलाफ नहीं है कोई तैयारी ,,,,,,,,,,,,, बड़ी चिंता .

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  5. खुबसूरत कविता है....हरएक घटना को अच्छी तरह से बयां किया गया है,,,, थैंक्स पटेल भाई..

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  6. कहीं न कहीं कुछ न कुछ घट रहा है ऐसा...

    चिंतनीय!

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