मार्क स्ट्रैंड की एक और कविता...
यहाँ से तुम हमेशा वहाँ पहुँच सकते हो : मार्क स्ट्रैंड
(अनुवाद : मनोज पटेल)
एक मुसाफ़िर उस देश को लौटा जहाँ से कई साल पहले वह निकला था. जहाज से बाहर कदम रखते ही उसने गौर किया कि सब कुछ कितना अलग था. कभी वहाँ तमाम इमारतें हुआ करती थीं मगर अब बहुत कम रह गई थीं और उनमें से हर एक को मरम्मत की दरकार थी. उस पार्क में जहाँ वह बचपन में खेला करता था, धूल से भरी धूप की छड़ें पेड़ों की पीली पत्तियों और पौधों से बनाई गईं कुम्हलाई बाड़ों से टकरा रही थीं. कचरे की खाली थैलियां घास में बिखरी हुई थीं. हवा भारी थी. वह एक बेंच पर बैठ गया और अपने बगल बैठी औरत से बताने लगा कि वह काफी समय से बाहर था, और पूछा कि वह किस मौसम में लौट कर आया है. औरत ने जवाब दिया कि यही एक ही बचा था, वही जिस पर वे सभी राजी हुए थे.
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