Tuesday, July 2, 2013

चंदन पाण्डेय से शेषनाथ की बातचीत

चंदन पाण्डेय से शेषनाथ पाण्डेय की यह बातचीत 'जनपथ' के ताजा अंक में प्रकाशित हुई है...

कुछ एहसास होता है मुझे मैं घर की ओर जाना चाह रहा हूँ. : चंदन पाण्डेय
          
शेषनाथ - आज की पीढ़ी कैरियरपरस्त होती जा रही हैं जिसमें समाज और परिवार दोनो का पूरा साथ मिल रहा हैं. लोग बड़ी बड़ी नौकरियों की तरफ़ भाग रहे हैं. सृजन के स्तर पर कुछ हद तक परिवार और समाज का साथ मिलता भी है तो नृत्य और संगीत में. ऐसे में लेखक बनने की चाह वो भी हिंदी लेखक (हिंदी लेखक यहाँ इसलिए कि आप कॉन्वेंट के छात्र रहे है.) बनने के पीछे क्या आपके अंतस का उत्स था या कोई दूसरी शक्ति मसलन जीवन का संघर्ष, कुछ अलग करने की चाह, कही कोई हार आदि. क्या कुछ रहा इसके पीछे ?
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चंदन पाण्डेय - यह सवाल पेचीदा है. मैं भी आए दिन अपनी सफलताओं असफलताओं के दरमियान इस सवाल से भिड़ता रहता हूँ. कोई ऐसा पुरसूकून उत्तर नहीं पाता जो दिल को चैन दे. लेकिन मुझे लगता है कि अभी मेरा कद इतना बड़ा नहीं हुआ है जो मैं जीवन के व्यक्तिगत सवालों के जवाब सार्वजनिक मंचों से दूँ, जरा भी दाएँ बाएँ हुआ तो हेठी लगेगी. फिर भी कोशिश करता हूँ:  
यह कुछ ऐसा ही है जैसे मेरे अनुज कुन्दन सारी पढ़ाई हिन्दी माध्यम से करने के बावजूद अपनी लगन और मेहनत से अंग्रेजी के पत्रकार बने. मेरी पढ़ाई जरूर अंग्रेजी माध्यम से थी पर जीवन सन्दर्भ जैसे घर, गाँव, या प्रेम सारे हिन्दीयाना थे. जो मेरा गाँव घर है, वहाँ गरीबी और भोजपूरी का बोलबाला है. इससे हुआ यह कि मेरा सोचना और मेरे सम्वाद हिन्दी में होते रहे. स्कूल के मेरे साथियों से उलट मेरे इर्द गिर्द, सोचना समझना,  सबकुछ हिन्दी या भोजपुरी में ही चलता था. हिन्दी में लिखते हुए बहुत स्पष्ट तो नहीं पर एक कुहरीला एहसास होता है, जिसे विली ग्रानक्विस्ट के शब्दों में कहूँ, कुछ एहसास होता है मुझे मैं घर की ओर जाना चाह रहा हूँ. 
आपका प्रश्न सही इसलिए है क्योंकि वह कोई बारीक रेखा थी, जिसे मैं अब पुन: समझना चाह रहा हूँ, जो भाषा चुनाव के बीच आई. मेरा यकीन है कि घर का माहौल अगर रंचमात्र भी अंग्रेजियत का होता, या साहित्यिक ( हिन्दी ही सही ) भी होता तो शर्तिया मैं अंग्रेजी की ओर मुड़ चुका होता. कहानी लेखन से पहले की सारी तैयारी जैसे लिखना पढ़ना दोनों ही भाषाओं में ठीक ठाक अनुपात में हुआ.
हिन्दी और अंग्रेजी शुरुआत में मेरे लिए दो भाषाएँ भर थीं, सच्चाई यही है. साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ने के पहले तक हिन्दी बनाम अंग्रेजी साहित्य लेखन के दूसरे डायनामिक्स जैसे पाठक संख्या, अर्थशास्त्र और विश्वविद्यालय / महाविद्यालय आदि पर हिन्दी साहित्य की अति निर्भरता से ठीक ठीक वाकिफ नहीं था. इसलिए एक धक्का तो जरूर लगा क्योंकि मेरी पूरी तैयारी कुलवक्ती लेखक बनने की है. अभी भी दोस्त मित्र सलाह देते हैं, जैसे अतुल ठाकुर, जो कि खुद एक नामी अंग्रेजी लेखक बनने की राह पर हैं, ने तो मेरे लिए पब्लिशिंग अजेंट्स आदि से बात चलाने की बात बताई है, पर मेरा मन अभी हिन्दी में रमा हुआ है. कुछ एक अगल्प ( नॉन-फिक्शन ) हैं, जिन्हें अंग्रेजी और हिन्दी में साथ साथ लिखना इसलिए अच्छा रहेगा ताकि वो अत्यधिक पाठक मित्रों तक पहुँच सकें पर जहाँ तक गल्प का सवाल है, उसे लेकर कोई संशय नहीं. अपने लिए हिन्दी ही दरिया है.
हिन्दी अंग्रेजी में चयन का मामला बहुत कुछ मेरे उदासीन और लेट-लतीफ स्वभाव पर भी निर्भर करता है, मैने इसके फायदे नुकसान समझने में बहुत देर लगा दिया. फिर मेरे जीवन में एक शख्स था जिसने हिन्दी में लिखने पर जोर दिया. हम दोनों में से किसी एक को दूसरे की बात माननी थी सो मैने ही मान लिया.
रही पराजय या कुंठा की बात तो सबसे पहले बता दूँ कि मैं घर परिवार, स्कूल, बेहद सीमित मित्र मंडली आदि का बहुत दुलारा और साथ ही सम्मानित सदस्य रहा हूँ. बहुत बहुत दुलारा. हर जगह लोग मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. कहीं भी कोई दु:ख पसरता है मेरे घर परिवार या मित्र मंडली में तो वो सबसे आखिर में मुझ तक पहुँचता है. इस कारण भी एक जिम्मेदराना तबीयत बनती गई. लिखना मुझे अपनी जिम्मेदार तबीयत से मिला.
संघर्ष या अलग करने की चाह जैसी स्थितियाँ द्वितीयक हैं. पराजय भी हुई अगर तो काफी बड़े स्तर पर. मतलब कई सफलताएँ उसके आगे छोटी पड़ जाएँ, ऐसी पराजय. जैसे मैं शतरंज का अच्छा खिलाड़ी था. राज्य स्तर तक खेला पर उससे आगे जाने के लिए जिन प्रक्रियाओं से गुजरना था वो हमारे जैसे निम्न मध्य वर्गीय परिवारों में कम ही सम्भव था. कलकत्ते के जिस कोचिंग इंस्टीट्यूट से जुड़ना था उसकी फीस तब बारह से पन्द्रह लाख थी जब एक रूपए की काफी कीमत हुआ करती थी. पापा एकबारगी रिटायरमेंट के लिए तैयार हो गए ताकि उससे मिला हुआ पैसा वो मुझ पर लगा देंगे. पर मालूम चला कि कुल रकम का आधा भी उन्हें नहीं मिलने वाला, इसलिए वो विचार हमने त्याग दिया. हालाँकि बहुत दिनों तक मातमी माहौल रहा. भारत में शतरंज को कैरियर बनाना या कमोबेश किसी भी खेल को कैरीयर बनाना बेहद कठिन है अगर आप निम्न मध्यवर्ग या निम्न वर्ग से आते हैं.  इसे एक साँस में बताने से शायद यह बात जाहिर न हो कि कक्षा आठ से पहले मैने शतरंज से अलग कुछ सोचा भी नहीं होगा.
इससे अलग जिस पराजय ने मुझे बेहद हतोत्साहित किया, वो था – प्रथम प्रेम. इस पर कभी विस्तार से बात होगी कि कैसे प्रेम में पड़ते ही मैं विशेष से सामान्य हो गया. आप यकीन नहीं करेंगे, पढ़ने लिखने में जो मेरा जलवा सालों साल में बना था वो रातों रात बिखर गया – जैसे मैने सबकी उम्मीद धराशायी कर दी हो कि कई लोग मुझे अपने दरवाजे से भगाने लगे थे. न मैं न उनका सगा था और न ही वो लड़की, फिर भी. मैं चुप से और चुप होता चला गया. अब मैं उन घटनाओं को नए नए कोणों से देखता हूँ पर उन दिनों मैं निहायत अकेला पड़ गया था. तो यही दो पराजय हैं, जिनने मुझ पर असर छोड़ा.  
अभाव ने कल्पनाशील बना दिया. सबसे पहला सार्वजनिक लेखन मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. कक्षा पाँच में था जब एक क्रिकेट मैच में हम पाँचवी वालों ने तुक्के और साहस के दम पर नौवीं कक्षा को हरा दिया था तो उस घटना को लेकर मैने हाथ से लिखा हुआ एक हिन्दी अखबार निकाला. समाचार का लम्बा शीर्षक था – आधा रोटी तवा में, नाईंथ क्लास हवा में. मेरे स्कूल के प्रिंसिपल साहित्यिक मिजाज के थे, उन्होने अपने बच्चों के नाम साहित्यकारों के नाम पर रखे थे. उनका एक बेटा जो मेरा बैचमेट था उसका नाम धर्मवीर भारती है. आज वो मुंगेर में शिक्षक है. उन्होने वो अखबार नोटिस बोर्ड पर लगवाया. कलाप्रेमी शिक्षक ने मुझे हाथो हाथ लिया. वैसे भी हिन्दी अंग्रेजी के शिक्षक मुझे बहुत अशीषते थे.
हिन्दी में लिखने का जो निर्णय है वो दरअसल उतना ही मेरा है जितना शिक्षकों का, घर परिवार, समाज  का. मेरे स्कूल में मैनेजमेंट अंग्रेजीदाँ था और शिक्षक ज्यादातर भोले भाले, भावुक, हिन्दी और राष्ट्रप्रेमी. पता नहीं कैसी लड़ाई थी. बेबात के मुद्दे बनते थे पर उन दिनों वही निर्णायक थे.
लिखने का रियाज डायरी, पत्रों और प्रेमपत्रों से बना. डायरी लिखने की आदत पापा ने लगाई थी. गाँव में कई औरतें मुझसे पत्र लिखवाती रहींनियमित. पोस्टकार्ड तो बहादुरी से लिखता था पर अंतरदेशीय पत्र देखकर मेरा हाल खराब हो जाता था.
प्रेमपत्र खूब लिखे. वह भी एक निर्णायक मोड़ था. शुरु में ‘इम्प्रेस’ करने के लिए अंग्रेजी में लिखता रहा पर एक दिन उसने बताया कि अग्रेजी पत्र पढ़ने, समझने में इतना समय चला जाता है कि मैं जवाब देने का समय नहीं निकाल पाती. तब मैने उसे हिन्दी में लिखना शुरु किया. एक समय ऐसा था जब दिन के तीन से चार पत्र लिखता था. पत्र ही मेरे साथी थे. दुनिया मुझसे एक कदम सिमटी थी और मैने आत्महंता की तरह खुद को दुनिया भर से सैकड़ो कदम दूर कर लिया था. उस समय अगर मैं जरा सा अच्छा, अनुशासित माहौल पा गया होता तो आज हाल दूसरे होते. उन्हीं किन्ही दिनों मैने लेखक बनने की बात सोची. उसे बताया. वो मुझे बहुत बड़ा लेखक मानती थी. कहती थी, जो जो मैं सोचती हूँ, तुम वो सब हू ब हू पत्र में लिख देते हो. खैर तो ‘शायद’ इस तरह मैं हिन्दी का लेखक बना.

           
शेषनाथ - शतरंज नहीं खेल पाने से परिवार की हताशा दुखद है लेकिन आपको लेखन में आने की वजह से उनका क्या वो मोह कम हुआ है. किस रूप में अब आपका परिवार आपको लेता रहा है इसके साथ एक जरूरी बात यह भी कि आपका भाई कुंदन जो कि अब एक उभरते हुए अंग्रेजी के पत्रकार है और उनसे कुछेक मुलाकात के बाद मैं जहाँ तक जान पाया हूँ कि युवा कहानी पर बहुत दिलचस्पी रखते है और मिलने पर इसके अलावा कुछ और बात भी नहीं करते. कैसे वो आपके हिंदी माहौल से अलग उन्होंने अंग्रेजी में लिखने की बात सोची और वो भी अलग क्षेत्र में. क्या वे मान चुके थे बरगद के नीचे का पेड़ उभरता नहीं आपकी कहानियों में जगह जगह तीव्र इर्ष्या का जो भाव उभरता है उसमें आपका परिवार कितना सहयोगी रहा है ?

चंदन पाण्डेय - परिवार की हताशा से मेरा अर्थ पिता, कुन्दन और मुझसे से है. अन्य किसी को ऐसी दिलचस्पी नहीं. माँ इतनी अद्भुत हैं कि वो बस हमें स्वस्थ सानन्द देखना चाहती हैं. खेल कूद पढ़ाई लिखाई उनके लिए उतना ही जरूरी है जितने भर से हमारा स्वास्थ्य प्रभावित न होता हो. हमारे बड़े परिवार के अन्य सदस्य, विशेषकर चाचा लोग, अपने जीवन में भी इतने पैसिव हैं कि सफलता, असफलता, मान, अपमान उन्हें  बहुत प्रभावित नहीं करते. ऐसा क्यों है, मैं इसके कारणों का पता बारम्बार लगाता रहता हूँ.

पिता जरूर हताश थे. कहानीकार होना चूँकि हमारे समाज में एक अनपेक्षित घटना थी, और इसकी दुनियावी उपलब्द्धियाँ इतनी नगण्य हैं कि जो इस ( साहित्यिक ) दुनिया का नहीं है उन लोगों के खुश या दुखी होने का कोई औचित्य समझ नहीं आता. बस इतना जानते हैं कि मैं कुछ न कुछ अच्छा ही करता हूँगा. अम्मा पापा को यह जरूर लगता है कि पढ़ना भी जरूरी काम है इसलिए मुझे घर में देर तक सोने की छूट मिली हुई है. अपने पिता के बारे में मेरा मानना है कि सर्वश्रेष्ठ पिता हैं. उम्मीदें पालीं, अपनी सारी कमाई हम पर लुटा दिया और जब हम असफल हुए तो फिर नए सिरे से सहारे दिए. फिर वही शृंखला. उम्मीद – खर्च – असफलता. वरना जिस तरह के समाज से हम आते हैं वहाँ लेखक बनना तो फिर भी आसान है लेकिन गाँव से निकल पाना असम्भव. मेरा कोई साथी सफलतापूर्वक निकल नहीं पाया. जो निकले वो झोपड़पट्टियों में खोकर रह गए या उन्हें लौटना पड़ा.

कुन्दन को मेरे होने का सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ा. हम दोनों में उम्र का फासला बिल्कुल कम है, साल - डेढ़ साल का. वैसे में एक भाई बाहर हॉस्टल का सुकून भरा जीवन जीता है और दूसरा, गाँव का वह जीवन जहाँ रोज के तनाव - झगड़े हैं, घर का सारा काम है, गोबर – सानी है. दूध दूहना है. हमारा परिवार सन्युक्त और बहुत बड़ा परिवार है तथा राशन का खर्च बेतहाशा है, वैसे में आप कल्पना कीजिए कि सातवीं का छात्र हर चौथे – पाँचवे दिन चालीस या पचास किलो गेंहूँ पिसाने अपनी साईकिल पर लाद कर पाँच किलोमीटर ले जाता है और ले आता है. सरकारी स्कूल है जिसका कोई गौरवशाली अतीत रहा होगा, वर्तमान फूहड़ है. यहाँ जो हम लोगों के बीच एक भौतिक दूरी बनी, उससे हम सब बहुत करीब आए. हाई स्कूल तक तो कुन्दन गाँव पर रहे, उसके बाद, वह एक अलग ही जीवन और लगभग किस्सा है , हमने कुन्दन को गाँव से निकाल लिया. फिर तो कुन्दन ने हिचकोले जरूर खाए पर पीछे मुड़कर नहीं देखा.

बरगद वाली कोई बात मुझे नहीं लगती और ना ही कभी कुन्दन ने इसका एहसास कराया, हाँ यह जरूर है कि अपनी शुरुआती रचनाओं वो अतिशय परिश्रम करते थे. इससे ही उनका ‘डीमोटिवेशन’ हुआ होगा. दरअसल, मेरे बाद घर का माहौल साहित्यिक होता गया. मेरे घर में अब हर कोई साहित्य पढ़ता है और अपनी राय रखता है. पिछले दिनों देखा कि मेरे सबसे छोटे भाई उमंग ‘इन द प्रेज ऑव ओल्डर वीमेन’ पढ़ रहे थे. कुन्दन तो मेरी हर कहानी के प्रथम पाठक और रायकर्ता होते हैं. हिन्दी कथा साहित्य में उनका दखल है. उन्होने राजू शर्मा के उपन्यास हलफनामें और नीलाक्षी सिंह के उपन्यास शुद्धिपत्र की विस्तृत और बेहतरीन समीक्षाएँ लिखी थी. मेरे लेखन से जुड़ने के बाद हम सब भाई बहन भाषाओं का डायनामिक्स समझने लगे थे और जब कुन्दन पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए अंग्रेजी माध्यम चुना. यह हमदोनों का सोचा समझा निर्णय था.

ईर्ष्य़ा ? मैने आपको बताया न कितना प्रिय हूँ मैं अपने लोगों का. इसलिए यह रोग मुझे छू कर भी नहीं गया है. पर जितने भी इंसानी गुण हैं उन्हें बहुत करीब से और वो भी लगातार देखने का मौका मिला है. लेकिन जहाँ तक कहानियों की बात है तो वहाँ व्यक्त पाठ लिखने के परिश्रम से सटीक आता है, जीवनानुभव से नहीं.

शेषनाथ - लिखना शुरू करने के पहले ऐसा भी होता है कि कोई खास रचनाकरकुछ कृतियाँ बहुत उत्प्रेरक साबित होती है जिसके बाद लगता है कि अब बस लिखना है. इस लिहाज से कुछ ऐसे रचनाकार कुछ कृतियों  का जिक्र करेंगे जो आपके लेखन में एक मजबूत कंधे की तरह सहायक रहे है यहाँ यह भी अपेक्षित है कि लिखने में पढ़ने की भूमिका से आप कितने प्रेरणा ग्रहण करते है इस प्रेरणा का परिणाम हमेशा सकारात्मक ही होता है या कुछ नकारात्मक ऐसा डर नहीं होता कि आप प्रेरणा और प्रभाव में आ कर अपनी बात कहने के बजाय संदर्भित कृतियों और रचनाकारों के आलोक में कह रहे है ?
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चंदन पाण्डेय - लिखने की शुरुआत की बात करूँ तो प्रेरणास्रोत मेरी प्रथम प्रेमिका रही. यह उसका मेरे प्रति अनुराग और विश्वास ही रहा होगा जिसमें वो मुझसे कहती थी कि तुम चीजों को नए तरीके से देखते हो. लिखा करो. तब मैने गौर करना शुरु किया कि अब यार प्रेमिका कह रही है तो सही ही कह रही होगी, आओ इस पर अमल करते हैं.

किताबें तो वही थी जो स्कूल लाईब्रेरी में मिली. जब लेखक बनने का फैसला कर लिया था और कई  कहानियाँ ( अप्रकाशित ) सिर्फ उसके पढ़ने के लिए लिख ली थीं तब मुझे बी.एच.यू के पुस्तकालय रूपी एक वरदान मिला. अकूत किताबें. पत्रिकाओं के सभी पुराने अंक मुझे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में मिल गए और मैने नियम बनाकर इन्हें पढ़ा. लक्ष्य की तरह. जैसे, इस महीने अगस्त 1988- जुलाई 89 का हंस पढ़ जाना है. ( पत्रिका इसी शक्ल में मौजूद थी ). पचासो साल पुरानी पत्रिकाओं का भंडार है बी.एच.यू में. ऐसी ऐसी किताबें ‘इशु’ कराई जो अपनी उम्र में दूसरी या पहली बार पढ़ी जा रही थीं. उस जगह ( सिर्फ पुस्तकालय ) से मुझे प्यार है. मतलब कि विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के लिए फैज के शब्दों में कहूँ “ एहसान इतने कि गिनवाना चाहूँ तो गिनवा भी न सकूँ”. उससे मुझे आत्मविश्वास मिला. अंग्रेजी तो जो पढ़ा वो पढ़ा ही,  खासकर हिन्दी, जो मेरे लिए लोक और बोलचाल की भाषा थी, उसे सीखने का मौका मिला. इतने शिल्प और इतने स्ट्रक्चर मिले कि क्या बताऊँ ? अब मुझे आश्चर्य होता है कि बाकी सब तो ठीक है, पर मैं एकसार और एकलय में पढ़ता कैसे होऊँगा.

प्रभाव से सायास बचता हूँ. ऐसा नहीं कि प्रभाव पड़ता नहीं है. बेहतरीन रचनाएँ मुझ पर नशे की तरह चढ़ती हैं. पर उस नशे को उतरने देता हूँ. पहली कहानी के बाद कृष्णमोहन की संगत मिली, उनसे मैने यह सवाल किया था कि जो भी मैं लिखना चाहता हूँ वो पहले से ही कहीं न कहीं लिखा हुआ मिल जाता है. उन्होने मेरी मुश्किल को समझा और उस पर कोई इकतरफा उत्तर न देते हुए, मुझसे सम्वाद करते हुए मुश्किल के हल तक मुझे ले गए.

दुनिया मास्टर्स से भरी पड़ी है. अंग्रेजी अनुवादों ने सहज उपलब्ध कराया है और आए दिन उनका नाम इस सूचना संसार में किसी न किसी के श्रीमुख से सुनने को मिल जाता है इसलिए उनका अलग से नाम क्या लेना. आप अगर किसी खास नाम के बारे में जानना चाहते हों तो उस पर बात की जा सकती है. मेरा मन चूँकि फिल्टर कर लेता है इसलिए नकारात्मक प्रभाव की गुंजाईश ही नहीं.      

आपके प्रश्न की आखिरी कड़ी इतनी अच्छी है कि मन करता है आपका मुँह मीठा करा दूँ. साधुवाद. आप यकीन नहीं करेंगे इन दिनों मैं बाकायदा उल्लेख करते हुए कुछ रचनाकारों के आलोक में अपनी दो कहानियाँ लिख रहा हूँ. इसे मैने एक शिल्प की तरह निभाने की कोशिश की है, आगे आगे देखिए होता है क्या.

शेषनाथ - आपको पहली कहानी से नोटिस किया गया. कुछेक कहानी के बाद आपको नोटिस करना जरूरी हो गया. यही से आपकी कहानियों पर भुनभुनाहट बुखार की तरह बढ़ती गई कि आगे लिखे तो जाने, अभी तो कालिया ना छाप रहे है, हँस में छपे तो जाने, खूब पढ़ता इसीलिए है कि विदेशी साहित्य का माल उठा ले. लेकिन अब आप हँस में भी छप गए है और कालिया जी से इतर प्रकाशन से आप की किताब भी आ गई और आपका दो और संग्रह भी आ गए. इसलिए इस बुखार का मतलब नहीं बनता लेकिन जो बुखार आपको मिला उसके बाद आपका लेखन जिस उत्स या कह ले कोरापन से शुरू हुआ था उस पर कहीं कोई खरोंच आए या बाद का लेखन उस कुप्रतिक्रिया का प्रतिफल है ?
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चंदन पाण्डेय - व्यक्तिगत आक्षेपों का क्या जवाब दिया जाए, उसे आशीर्वचन और प्रेम आदि मान कर मन के किसी कोने अँतरें में डाल लेना चाहिए. किसी प्रतिक्रिया पर कभी कोई क्षणिक क्रोध उपजे, अलग थलग महसूस करूँ ऐसा तो कई बार हुआ लेकिन मेरे लेखन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. कभी कोई रचना मैने किसी आरोप के प्रतिक्रिया स्वरूप नहीं लिखी. कहानी पर आई प्रतिक्रियाओं से सीखता जरूर हूँ. पढने की आदत पर भी अगर कोई नकारात्मक टिप्पणी करे तो उस पर तरस खाकर छोड़ देना चाहिए. हाँ, अगर कोई रणबाकुँरा इसे आरोप की तरह मढ़े कि नकल करने के लिए पढ़ता हूँ तो उससे एक ही सवाल कीजिए : साबित करके दिखाओ. आज कल तो सारा साहित्य आसानी से उपलब्ध है. पर इस खातिर उसे पढ़ना पड़ेगा जो कि वो कभी नहीं करने वाला. आपने इस प्रश्न से एक मौका दिया है जिसे मैं खोना नहीं चाहता. मेरे लेखन का दस वर्ष पूरा हो रहा है और इन दस वर्षों में दो अद्भुत सम्पादक मिले. एक रवीन्द्र कालिया और दूसरे ज्ञानरंजन. इनकी सबसे बड़ी खूबी, जो किसी भी टीमवर्क की पहली विशेषता होती है, है – स्पेस. भरोसा. ये दोनों जने अपने लेखकों पर भरोसा करते हैं. लेखकों को स्पेस देना बहुत जरूरी है.

शेषनाथ -  एक निजी मुलाकात में मेरी याद अगर सही हो तो शायद वर्धा में आपने कहा था कि  आजकल साहित्य में सभी डूबती नाव पर सवार है और सब अपनी जान बचाने के लिए जल्दी में है. हलाकि यह निजी मुलाकात की बात थी और इस पर चाहे तो आप चुप भी रह सकते है लेकिन साहित्य में जिस तरह की उठा पठक होती हैकाँटने-छाँटने और मिटाने का जो खेल चलता है उसके बरक्स क्या आपको लगता नहीं है कि इस पर बात सार्वजनिक रूप से भी कुछ कहना चाहिए क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि इससे ज्यादातर नुकसान ही होता है ?

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चंदन पाण्डेय - नुकसान सिर्फ हिन्दी जन, भाषा और सच्चे अर्थों में लेखकों का हुआ है वरना मीडियाकर्स का पूरा कैरियर ही इसी उठा-पटक जोड़ जुगाड़ के सहारे चलता है. हिन्दी तो इतनी महान है कि उसने अपने खस्ताहाल में भी कितनों का जीवन बना दिया. प्रकाशक, अथाह हिन्दी भवन और अथाह हिन्दी संस्थानों के अधिकारी कर्मचारी, विभाग दर विभाग का पूरा जत्था, पुस्तकालयों के तमाम अधिकारी, कमीशनबाज, हिन्दी के नाम वाले सरकारी फन्ड के मैनेजर, सरकारी अनुवाद के अतल समुन्दर. यह सब एक साल में अरबों रूपयों का कारोबार है. आप अगर सामान्यज्ञान में दिलचस्पी रखते हों तो बताईये कि जिन जगहों / पदों का मैने जिक्र किया है वहाँ कोई ऐसा शख्स है जो हिन्दी विकास या साहित्य में रूचि भी रखता हो, साहित्यकार होना तो भूल ही जाईये ? यह कहना उद्दंड तर्क है कि बाकियों की तरह वो भी अपनी नौकरी कर रहे हैं. यह गलत है. सभी नौकरियों की अलग अलग शर्त होती हैं. भाषा के मामले जिम्मेदारी वो शर्त है. भाषा ‘पैसन’ की माँग करती है, जिसके बदले आपको कितनी तो रियायत मिलती है. एक स्टेटस मिलता है. आपको क्लर्कों की तरह सुबह नौ से पाँच तक जूता नहीं बजाना पड़ता है.    

निजी मुलाकात में कही गई बातें बिना सन्दर्भ के याद नहीं पड़ती. वैसे अपनी ‘कैजुअलनेस’ से खुद मुझे ही बहुत शिकायत है. अभी कुछ दिनों पहले गौरव सोलंकी ने भी ऐसे ही किसी निजी ख्याली मुलाकात की बात का उल्लेख कर हंगामा बरपाया था. सामने वाले का मूड कैसा है, वह किस बात के कौन से टुकड़े को किस तरह अपने मन में रच लेता है, इसका कोई विज्ञान भी नहीं. और चूँकि इन बातों में दो ही जने भागीदार होते हैं इसलिए यह कहना भी जँचता नहीं है कि दूसरा झूठ बोल रहा है. आप मेरी कही गई बात का सन्दर्भ याद दिलाएँ तो शायद मैं कुछ बता पाऊँ.

हिन्दी में एक दूसरा मामला भी है. नामी उपन्यासकार आरोन अपलफेल्ड अपने उपन्यास ‘बेडेनहैम 1939’ में इस समस्या पर अद्भुत लिखा है. बैडेनहैम शहर का सुन्दर जीवन चल रहा है जब तक कि नाजी अपना डेरा वहाँ जमाने नहीं लगते. नाजियों के आने को नागरिक यह समझते हैं कि जरूर उन नागरिकों में से ही किसी की चूक है, या अपराध है, जो नाजी उनके शहर को छावनी बना रहे हैं. यह जो आत्महंता स्थिति है, कमोबेश हिन्दी में आ रही है. हिन्दी में पाठक नहीं रहे, जो थे उन्हें संरक्षित नहीं किया जा सका, इसका भी दोष लेखकों को ही दिया जाता है. लेखक कुलवक्ती नहीं हो सकता, इसका भी दोष लेखक को ही जाता है. यकीन मानिए कि चालीस से पचास करोड़ की आबादी वाले भाषा का साहित्य जनता के बीच स्थापित अगर नहीं हो पाया है तो शर्तिया इसकी समस्यायें दूसरी हैं. उनकी तलाश होनी चाहिए. पहली नजर में,  यह परम्परा, भाषाई – स्वाभिमान का मामला है. हलवा साहित्य की माँग करने वाले नाशुक्रे यह नहीं जानते कि साहित्य को सरलतम बनाने की माँग करने वालों के लिए मुक्तिबोध ने क्या कहा था. उस विद्वान ने कहा था कि अगर साहित्य का पैमाना सरलता ही है तब तो कक्षा दो तीन में पढ़ाई जाने वाली कहानियाँ ही साहित्य का मानक हो सकती हैं.      

शेषनाथ - जब आपने इतना कह दिया तो लगे हाथ ये भी बता ही दीजिए कि लेखक की व्यैक्तिक जीवन से उसके लेखन को देखने की जो बात होती हैउससे आप कहा तक इत्तेफाक रखते है. जैसे कहा जाता है कि आम जिंदगी में तो ऐसा है लेकिन बड़ी बड़ी बात करता है. यह भी कहा जाता है कि जो भी करता हो लिखता तो अच्छा है. ऐसे रचनाकर और उनकी रचनाएँ आपको कितना पसंद आती है और व्यक्तिगत तौर आप उनके लिए कितना इज्जत रखते है ?
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चंदन पाण्डेय - यह निर्भर करता है कि पाठक, लेखक की किस व्यक्तिगत बात को तवज्जो देता है. हिन्दी में यह शुचिता प्रेम और स्त्री ( चटखारावाद ) या कभी कभी राजनीतिक मंचो से ही जोड़ कर देखी जाती है. आज की तारीख में बहुत सारे अच्छे लेखक व्यवसायी हैं या सरकारी नौकरियों में हैं. हम उनकी रचनाएँ पढ़ते हैं पर एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं करते कि वो रिश्वतखोर या मुनाफाखोर है या नहीं ? इसलिए उनका व्यक्तित्व हमारे लिए हमेशा साफ सुथरा बना रहता है और वो लेखक भी. विश्वविद्यालय/महाविद्यालय से जुड़े हुए लेखक अपने दायित्व का निर्वाह कैसे करते हैं, इसकी पड़ताल हम कभी नहीं करते. लेकिन आलोक धन्वा जैसे अजर कवि की कविताएँ हम सिर्फ इसलिए पढ़ना छोड़ देते हैं कि उनके दाम्पत्य जीवन का रौशनदान हम पर जाहिर हो गया. रामविलास शर्मा को हम सिर्फ इसलिए खारिज करते हैं क्योंकि लोगों को यह अन्देशा है उनके लेखन के किन्ही हिस्सों को हिन्दुवादियों ने इस्तेमाल कर लिया. दो दो नौकरियाँ करने वाले लोग, उदय प्रकाश की शिकायत इस बिना पर करते हैं कि उदय ने कोई ऐसा काम किया जिससे उन्हें आर्थिक लाभ हो गया ! यह सब कुछ सत्ता का खेल है, अगर लेखक अकेला है तो व्यक्तिगत बातें उसका लेखन मटियामेट कर देती हैं. अगर लेखक के पीछे कोई सत्ता संगठन है तो उसकी हर गलती, एक मात्र चूक भर होती है. मैंने कोशिश से यह सीखा कि कैसे रचनाकार के व्यक्तित्व और उसकी रचना को विलगा कर रखें. रचनाकार अगर अपने जीवन में किसी बिन्दु पर गलत है, तो उसकी गलती के मुताबिक आलोचना कीजिए पर जब तक हद न हो जाए, उसके लेखन को खारिज नहीं करना चाहिए.      

इसका दूसरा पहलू भी है. कई बार बदमाश, न पढ़ने वाले, इसे ‘टूल’ की तरह चरित्र हनन के लिए इस्तेमाल करते हैं. ऐसे किसी भी प्रयास का जबर्दस्त विरोध करना चाहिए. इतना कि कहने वाले को चूल्लू भर पानी में डूबने वाले मुहावरे की याद आ जाए. चाहे वो आपका मित्र ही क्यों न हो. ये अक्सर निखट्टू लोग होते हैं वो आपकी सारी काबिलियत को, उदाहरण स्वरूप, शराब पीने की आपकी आदत के दुश्प्रचार से धो देना चाहते हैं.
  
शेषनाथ - नकार कहानी पर नकल करने के आरोप लगे. खामोश पानी से प्रभावित बताया गया. नकल करना और प्रभावित होना दो अलग बातें है लेकिन प्रतिभा सारोकार के लिहाज से क्या ये दोनो लेखन विरोधी तत्व है ? इसीसे जुड़ी एक और बात. यह आरोप आपकी पीढ़ी पर भी उठ रहा है. समग्रता में बताए तो कही ज्यादा सही रहेगा.
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चंदन पाण्डेय - फिल्म खामोश पानी का आरोप तो पहली बार सुन रहा हूँ पर अब तक इस कहानी पर संजीव की एक कहानी की नकल का आरोप लगता रहा है. खुद ही आरोपी और खुद ही मुंसिफ की भूमिका निभाने के बजाए इसका जवाब मैं पाठक मित्रों पर छोड़ता हूँ. वरना अगर मेरा जवाब कोई मायने रखता हो तो आप निश्चिंत रहें, जिस दिन किसी से प्रभावित होकर लिखूंगा, रचना के पहले सफे पर उसके प्रति आभार के साथ लिखूंगा. पिछले दिनों हिन्दी के बेहतरीन उपन्यासकार जगदीश चन्द्र के उपन्यास – शीर्षक ‘ जमीन अपनी तो थी’ को अपनी कहानी का शीर्षक बनाया तो उनका नाम बाकायदा दर्ज करते हुए किया था.    

आधुनिक समय में मौलिकता की माँग और उसकी परिभाषा इमैनुएल काँट की दी हुई है. उन्होने यह प्रतिपादित किया “ऑरिजिनालिटी इज द एसेंशियल कैरेक़्टर ऑव अ जीनियस”. इससे लोगों ने अनेकानेक मतलब निकाले और अर्थ का अनर्थ किया. मैं खुद इस पर विस्तार से बात करना चाहता हूँ. बेहद प्रिय नेरूदा ने हम सबके पक्ष में सुन्दर बात कही है, “ऑरिजिनालिटी इज मॉडर्न टाईम्स फेटिश”. एक उदाहरण: मान लीजिए किसी ने साहित्य बिल्कुल नहीं पढ़ा हो पर अपने सहज ज्ञान तथा जीवनानुभव से वो कोई ऐसी रचना लिखे जो अपने प्रभावशीलता में गोदान के इर्द गिर्द पहुँचे, तो हम आप उसे नकलची या अमौलिक मान कर उसका परिहास करेंगे पर इसमें उस बेचारे का क्या दोष ? अपने आप में वो सर्वथा मौलिक है. यहाँ कहना मैं यह चाहता हूँ कि रचना के जाँच परख का पैमाना मौलिकता नहीं बल्कि उसका उद्देश्य, उसके पाठ, उसकी समीचीनता होनी चाहिए. वो अगर कुछ नई बात कहती है तो फिर सोने पे सुहागा को चरितार्थ मानिए.   

मौलिकता की चालू माँग में एक बात हम गोल कर देते हैं वो है प्रभाव बनाम सीधी नकल. आप किसी रचना से प्रभावित होते हैं और उसके सहारे अगर आप कोई नया सत्य, नया विचार, नया नजरिया सामने लाते हैं, यह सर्वोत्तम है. पर सीधी नकल, जैसे मुहावरे, शब्द प्रयोग, वाक्य विन्यास में अगर आप बार बार किसी लेखक के करीब जाते हुए पाये जाएँ तो अपने दोस्तों को कहिए कि वो आपको आगाह करें, वरना तो आप गए.

एक उदाहरण: आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी को गलत तरीके से समझने वाले लेखक सूक्तिनुमा वाक्यों पर बहुत जोर दे रहे हैं. ये सब अगर थीम को मजबूत नहीं करती हुई बातें है तो समझ लीजिए कि जबरिया ठूँसी गई हैं, इनका आधार कहीं और है और जरूरत कहीं और. जरूरी नहीं कि यह आधार किसी पूर्ववर्ती लेखक ही में पाया जाए, यह सिनेमा, जीवन और कहीं भी हो सकता है, जो रचना को चौपट कर रहा होता है. फेसबुक पर कोट करने के अलावा अभी तक ऐसे कटे फटे वाक्यों का दूसरा उपयोग खोजा नहीं जा सका है. तलाश, हालाँकि, जारी है.
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शेषनाथ - नया शब्द को लेकर बहुत बातें हुई, चूँकि नया नया है इसलिए नई नई बातें और होती भी रहेंगी. नया नाम से आपकी कहानी भी है. नया पर आप कौन सी नई बात कहना चाहेंगे जो नई कहानी के नया से अलग हो ?
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चंदन पाण्डेय - हिन्दी साहित्य के जो आन्दोलन है मसलन नई कहानी, नई कविता, समानांतर कहानी आदि इनके बारे में, विनम्रता पूर्वक, यह कहना चाहता हूँ कि इनके बीच की विभाजन रेखा स्पष्ट नहीं है और यह कोई ढुलमुल बात नहीं. हिन्दी साहित्य के किसी भी आन्दोलन के पास अपना घोषणापत्र नहीं है. इसलिए सब एक दूसरे में घुलते मिलते अब तक चले आ रहे हैं.  

हिन्दी भाषा के कथा संसार में नएपन की सम्भावना भाषा, कथ्य, कथायुक्ति और विचार जैसे हर क्षेत्र में है. नई कहानी से आज की कहानी में निकष का फर्क है. दृष्टिकोण का फर्क है. इन दो समयों की कहानी में कोई समानता नहीं. नई कहानी व्यक्ति केन्द्रित थी. मध्यवर्ग को समझदारी का इकलौता ठेकेदार मानने की कवायद थी. नई कहानी का एक खराब परिमार्जन उस दौर की कहानियों में हुआ जब भारत में बाजारवाद नया नया आया था. उस समय ऐसी कहानियाँ खूब लिखी गईं जिसमें नायक के सिवा सारा घर, सारा समाज बाजार के लालच में फँस चुका है और नायक को भी ढकेलना चाहता है. यह ‘पोजिशनिंग’ ही हास्यास्पद है. वैसे इस पोजिशनिंग पर भी पंकज मित्र की ‘पड़ताल’ बहुत अच्छी है.  बाद के दिनों में मनोज रूपड़ा ने साज नासाज लिख कर इस ‘पोजिशन’ को ‘चेक’ किया. फिर नीलाक्षी ने ‘प्रतियोगी’ लिखा. ममता कालिया ने आश्चर्यजनक रूप से नई सम्वेदना को पकड़ते हुए ‘दौड़’ लिखी.

‘नया’ कहानी लिखते हुए मैं सचमुच इस ख्याल को जी रहा था कि बैंक या चक्रवृद्धि ब्याज की जिस चक्की में भारत की इतनी बड़ी आबादी पिस रही है, क्यों न उस चक्रवृद्धि ब्याज के सूत्र को ही जरा कोमल बनाया जाए. कोई मानवीय सूत्र इस्तेमाल किया जाए. साधारण ब्याज का सूत्र लगे तो क्या होगा ? तो इस तरकीब के लिए मैने ‘नया’ शीर्षक रखा था.    
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शेषनाथ - एक सिरे से देखा जाय तो आपकी कहानियों में थीम बहुत फोकस रहता है और घटनाएँ उस थीम का सपोर्ट करती है या उससे आबद्ध रहती है. इस बात से थोड़ा इतर जा कर कहूँ तो आपकी भूलना कहानी को लोगों ने सबसे ज्यादा पसंद किया. मेरे खयाल से ऐसा इसलिए कि इसमें थीम और घटनाएँ जो गहन जीवन संघर्ष से उपजी है की आपसी संबद्धता अभिन्न हो जाती है. लेकिन सुनो में जिसके थीम में प्रेम के प्रति अविश्वास की कहानी है लेकिन यहाँ यह ज्यादा फोकस न हो कर सत्ता का चरित्र और उसका अतिक्रमण ज्यादा फोकस होता है वही नकार कहानी में नकार थीम इतना हावी रहता है कि घटनाएँ अपेक्षाकृत कम फोकस होती है. संबद्धता असंबद्धता की यह आवृति बाकी कहानियों में है ऐसे में थीम के प्रति आग्रही होने में यथार्थ का स्वरूप धूमिल नहीं होता ?
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चंदन पाण्डेय - इसे थीम-बहुलता भी कह सकते हैं. ऐसी कहानियाँ आपको उदय प्रकाश, योगेन्द्र आहुजा और राजू शर्मा के पास खूब मिलेंगी. फोकस वाली आपकी बात मजेदार है. फिजिक्स में अवतल और उत्तल दर्पण/ लेंस की सारी कीमियागिरी जानते हैं किस पर निर्भर करती है ? आपको सुन कर आश्चर्य होगा: दूरी. साहित्य में भी जीवन और रचना से पाठक/लेखक की दूरी ही उसका फोकस निर्धारित करती है. थीम से आपका इशारा शायद ‘आईडिया’ या ट्रिक की ओर है.  मैं आईडिया या ट्रिक को आधार बना कर कभी कहानी नहीं लिखता. मुझे उसके प्रॉसेस को लिखने में आनन्द आता है. कैसे हुआ होगा ? क्या वजह रही होगी ? अभी जो सैयद मोदी पर लिख रहा हूँ उसमें सबसे बड़ा सवाल मेरे लिए यही है कि आखिर हत्या की नौबत ही क्यों आई ? तलाक भी हो सकता था, या अलगाव भी. इसलिए मेरा आग्रह यथार्थ को लेकर रहता है.

सम्बद्धता और असम्बद्धता को मैं सायास रचता हूँ. वह एकदम से असम्बन्ध नहीं होता. तॉलस्तॉय की एक कहानी है जिसमें घोड़े की मृत्यु हो जाती है, कायदन कहानी वहीं खत्म है पर वह, हमारा मास्टर, घोड़े की मृत्यु के बाद सात या आठ पन्ने लिखता है तो पहले पाठ में वह आपको असम्बन्ध सा दिखेगा पर वह धीरे धीरे असर करता है. मैं वह कला तॉलस्ताय से सीखता हूँ, सीख रहा हूँ कि बात को ‘न कहते हुए’ कैसे कहा जाए. इस कला पर बोर्हेस ने अद्भुत साधना की है. लेकिन बोर्हेस की अपनी स्टाईल है, ट्रिक है, जो एक बार पकड़ में आ जाए तो आप उनकी कई कहानियों का सुराग लगा सकते हैं. मुझे इससे बहुत दिक्कत होती है, अगर मैं लेखक का शिल्प पकड़ लेता हूँ. अगर आप बुक ऑव सैंड की ट्रिक पकड़ लेंगे तो आपके लिए त्लोन, उकबर और ... तथा शेक्स्पीयरर्स मेमोरी अपने अद्भुत गद्य के बावजूद सामान्य कहानी बन कर रह जाएगी.  
     
शेषनाथ  - आप की दो कहानी कवि और नीम का पेड़ को छोड़कर बाकी कहानियों के केंद्र में जेनरल घटनाएँ नहीं होती है. आप अपवाद को उठाते है. जैसी बहन इतनी इर्ष्यालू होती है कि बिना बदले की बदला लेती है. माँ अपने बेटे को भूल जा रही है. पति शक करता है तो पत्नी को चरित्रहीन नहीं वेश्या ही समझ लेता है. प्रेमी प्रेमिका के बीच इतनी इर्ष्या होती है कि अलगाव नहीं होता. प्रेमिका को बाँध कर रिवॉल्वर के नोक पर सवाल किया जाता है. जबकि आम जीवन में मनुष्य छोटी छोटी बातों से ही पीड़ित रहता है और अधिकांशत: हद पार करने तक निगेटिव भी नहीं होता है फिर अपवाद को उठाने का मतलब चमत्कृत करना तो नहीं है ? चमत्कृत करना नहीं भी है तो ऐसे विंदु उठाने की खास वजह ?
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चंदन पाण्डेय - अपवाद नियमों के होते हैं, सम्भावनाओं के नहीं. कहानी सम्भावना होती है. यह भी तो सम्भव है कि जो आपके लिए सामान्य है वो दूसरों के लिए अपवाद हो. मसलन नीम का पौधा कहानी में एक ऐसे समय का  जिक्र है जहाँ लोग पेड़ पहचानना भूल गए हैं. कहने वाले इसे ही अपवाद कह सकते हैं. ‘मेड्स’ नाटक के बारे में बात करते हुए ज्या जेने ने कहा, “लोग कहते हैं नौकरानियाँ ऐसा बर्ताव नहीं करती जैसा इस नाटक में हैं, मैं कहता हूँ कि किसी एक शाम के साढ़े चार बजे वो ऐसा ही बर्ताव करेंगी और मैं उसी समय की कहानी लिखता हूँ”.  

अगर आप मेरा जवाब जानना चाहते हैं तो यही कहूँगा कि मैं यथार्थ में डूबता उतराता रहता हूँ. यथार्थ के तमाम श्रोत हैं. जीवन, पड़ोस, साथी समाजी. सौभाग्य से मेरा दायरा बड़ा है, मेरे पास गाँव की चरवाही से लेकर, कस्बों, छोटे शहरों और कॉस्मोपोलिटन सिटी में रहने का अनुभव है, साथ समाज है. रोजगार के मामले में ट्यूशन पढ़ाने, कॉलेजों और कोचिंग संस्थानों में प्रवेश दिलाने के जरिए मिले रोजगार से लेकर लोअर मैनेजमेंट, क्लासिफाईड कॉरपोरेट ग्रुप में रहने का अनुभव है. जीवन के ऐसे कई स्याह सफेद पक्ष हैं जिनका शायद मैं कभी जिक्र न करूँ. बचपन से ही मैने बहुत यात्राएँ की है. कम से कम सात आठ स्कूल बदले. नौकरी के दरमियान साल में दो सौ दिन से अधिक यात्राओं में ही रहता हूँ. इसलिए अधिकाधिक लोगों से मिलना हुआ है. 

उदाहरण देता हूँ – अम्बिकापुर एक जगह है, जहाँ मैने टुकड़े टुकड़ों में पचास से साठ दिन बिताये होंगे और मेरी डायरी में उस जगह से कहानी के नाम पर कम से कम दस थीम है. राजस्थान से मुझे कहानियों का जखीरा मिला हुआ है. साथ ही विश्व के अन्य भूभागों से जुड़ी बहुत सारी पत्रिकाएँ, बहुत सारा अखबार पढ़ता हूँ. और सच में पढ़ता हूँ केवल पलटता नहीं. जो खबरें चुभती हैं उनके कटिंग्स रखता हूँ. ऑनलाईन सेव करता हूँ. इसलिए यथार्थ की दुनिया जरा विस्तृत है. और जरा अजूबा भी. इधर एक कहानी लिखी है जिसमें एक ऑटो रिक्शा वाला शहर में गुम हो गया है, वो रास्ता खोज रहा है और उसे नहीं मिल रहा. एक साथी ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है ? मैं कहता हूँ, इस सवाल से एक कदम आगे आओ, अगर ऐसा हो गया तो. अब अगर मैं सत्यापित करने लगूँ कि ऐसा कैसे हुआ, जो कि सम्भव है, तो कहानी बेमौत मारी जायेगी. भूलना के जिस प्रसंग की आप बात कर रहे हैं वो कहानी को सन्घनित करने के रखा गया है, पर है वो प्रस्ंग ही, मूल कथा तो भूलने और आतंकवाद की है. मैने ऐसे बीसियों प्रेमिल जोड़े देखें हैं जो सिर्फ इसलिए साथ हैं क्योंकि दूसरा कोई चारा नहीं है. झगड़ना सम्वाद का एक टूल है. ‘रिवॉल्वर’ तो आपको आए दिन घटित होते हुए दिख जाएगी. कहने का आशय कि मैं कहानियों की कल्पना नहीं करता. डिटेल्स जरूर रचता हूँ. हाँ, एक बार कल्पना करने पर उतर आया तो हजार हजार स्थितियाँ कल्पना कर लेता हूँ, उन पर यकीन करने लगता हूँ, उन्हें जीने लगता हूँ.  

शेषनाथ -सिटी पब्लिक स्कूल की भाषा शुद्ध हिंग्लीस भाषा थीहो सकता है मेरी ये बात लाउड लगे लेकिन विनम्रता से मैं कह रहा हूँ कि भले ही इसमें खामी वाली बात ना हो लेकिन भाषा बिगाड़ने का आरोप आप पर लगा है. ऐसी भाषा चुनने की कोई खास वजह या कोई मुहिम इस संरचना से इतर भी तो आप अपनी बात कह सकते थे. या फिर उस समय जागरण के उप अखबार आई नेक्सट और अमर उजाला के कॉम्पेक्ट की भाषा से आप ने अनुमान लगा लिया कि आने वाली भाषा का स्वरूप ही यही होगा ?

चंदन पाण्डेय - आप आरोपों को इतनी गम्भीरता से ले रहे हैं कि बाकायदा उसका सवाल बना दे रहे हैं. आरोप तो इतने लद्धड़ हैं कि इन पर बात करना मूर्खता को तवज्जो देना होगा. आरोप तो मुझ पर यह भी लगता है कि अभिमानी हूँ, ये हूँ वो हूँ पता नहीं क्या हूँ, तो क्या सबका जवाब देते फिरूँगा ? हरगिज नहीं.

हाँ, भाषा का प्रश्न जरूरी है. वैसे आपसे अनजाने में शायद, सर्वाधिक खराब भाषा वाले अखबार ‘नव भारत टाईम्स’ का नाम छूट गया है. भाषा के मामले में यह कहानी इतना भर दर्शाती है कि हिन्दी भवनों और विभागों के मुख्य दरवाजे पर मढ़े ताले के बाहर की दुनिया हिन्दी को कैसे बरत रही है. आपने जितने सवाल पूछे हैं, उसी में कितने ऐसे अंग्रेजी शब्द हैं जिनके लिए हिन्दी में शब्द मौजूद हैं पर वो जगह खो रहे हैं. अखबारों के ‘माशाअल्लाह’ सम्पादक, जो सर्वाधिक कमजोर भाषा के ही मोर्चे पर होते हैं, तय करते हैं कि कौन सा शब्द जनता समझती है और कौन सा नहीं ? आप अंग्रेजी के अखबार देखिए, वहाँ हमें नित नए शब्द, शब्द - प्रयोग देखने को मिलते हैं. हिन्दी का नाम आते ही चम्पू सम्पादक सरल से सरल शब्द खोजने के नाम पर नर्क मचाए हुए हैं. हिन्दी के अखबार मुझे मॉरीशस के ‘क्रियोलाईजेशन’ की याद दिलाते हैं.

मुहिम तो तब होती जब मैं इसे दुहराता. मैं तो एक नजीर पेश की थी.

शेषनाथ - पहल में आई आपकी हालिया कहानी ग्राफ और रेखांकन की शैली में लिखी गई है. क्या प्रयोग करने के लिए प्रयोग है कहानी को शिल्प के स्तर पर और गति देने की बात ऐसा नहीं लगता कि इस प्रयोग से पठनियता प्रभावित हो सकती है ?

......

चंदन पाण्डेय - यानी आप यह मान कर बैठे हुए हैं कि वो कहानी सिर्फ प्रयोग करने के लिए लिखी गई है ? एक बार को ही कम से कम यह सोचिए कि उसके पीछे मंतव्य क्या हो सकता है. पिछले कुछ सालों में भ्रष्टाचार को मिटाने की बात ऐसे हो रही है जैसे वो आम घास हो. जैसे चुटकी बजाई और भ्रष्टाचार खत्म. ऐसा है क्या ? नहीं. क्यों ? क्योंकि भ्रष्टाचार हमारे देश में धर्म जितनी गहरी जड़े जमा चुका है. व्यवस्थित हो चुका है. व्यव्स्था का एक अंग है भ्रष्टाचार. किसी दफ्तर के पचासो अंग होते हैं – जैसे मकान, अधिकारी, कानून, रजिस्टर, चपरासी है वैसे ही भ्रष्टाचार एक अंग है. मैने यह दिखाया है कि रिश्वतखोरी और अन्य भ्रष्टाचार हमारे यहाँ कितने सुव्यस्थित हैं. किस तरह, वही मूल आय का स्रोत है. रिश्वतखोर किस तरह उसे बढ़ाने के चिंतन मनन करते हैं, किस तरह, नियम बनाकर (चोरी छुपे नहीं ) यह काली कमाई बाँटी जाती है. हर भ्रष्टाचारी, भ्रष्टाचार के विरोध में हैं. मैं तो इस दृश्य की कल्पना करता हूँ कि रिश्वत देने वाला और रिश्वत लेने वाला आमने सामने बैठे हुए हैं, लेन देन चल रही है और उनके बीच भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एकमत बात हो रही है.

पठनीयता की लाठी कब तक चलाई जायेगी ? हिन्दी भाषा में ही तो लिखी कहानी है न. शब्द सीधे सरल और रोजमर्रा के जीवन से हैं. वाक्य निर्माण कर्तृ वाच्य में हैं. कर्ता + कर्म + क्रिया. बस आपको ठहर कर उस टेबल को देखना भर है. क्या एक लेखक अपनी भाषा के पाठक मित्रों से इतने भर की भी उम्मीद न करे ?        


शेषनाथ - भाषाशील्पकथ्य और यथार्थ में से कोई एक के प्रति कई लेखक इतने आग्रही हो जाते है कि लगता है कि इसमें कोई एक उनकी प्रेमिका है और खिलाफ ऐसे मानो जैसे बाकी सारे रकीब. आपको इसमें कौन प्रेमिका लगती है कौन रकीब ?

चंदन पाण्डेय - इन चारों के प्रति मेरा विचार,  कथरीन ब्रेलें की फिल्म फैट गर्ल में छोटी बहन ( बारह तेरह वर्ष की है ) के विचार से मिलता है, वो स्विमिंग पूल में तैरते हुए एक पोल को प्रेमी मान कर उसे चूमती है, फिर तैर कर दूसरे पोल तक जाती है और जो उससे कहती है वह इस प्रश्न का जवाब है. कहती है – मेरे प्रिय, तुम्हें जलन तो नहीं हुई अगर मैने दूसरे को चूमा. तुम घबराना मत, जो मेरा प्रेम तुम्हारे लिए है वो सिर्फ तुम्हारे लिए है, उसमें किसी का हिस्सा नहीं. दूसरे को प्रेम करने से तुम्हारे लिए मेरे मन का स्नेह कम नहीं हो जायेगा.

अच्छी फिल्म है, आप भी देखिए.

शेषनाथ - नैतिकता और अनैतिकता समाज के लिए दिलचस्प विषय है लेकिन जीवन बोध के बरक्स लेखकीय दृष्टिकोण के लिए यह दिलचस्पी जरूरी है या उसे बोझिल करती है ?
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चंदन पाण्डेय - नैतिकता / अनैतिकता पराश्रित गुण - दोष हैं. ये आर्थिक और सामाजिक आजादी के क्रमश: समानुपाती और व्युतक्रमानुपाती हैं. शक्तिशालियों के अनैतिक होने को पतित की श्रेणी में रखना चाहिए. भारत में दो चीजें सर्वाधिक बुरी हैं: शक्तिशाली अनैतिकों का चतुर्दिक स्वीकार और बेमेल विवाह. इनकी वजह से हमारे समाज में व्यक्तिगत जीवन से भी / ही सत्य, ईमानदारी और भरोसा ( कमिटमेंट ) जैसे मूल्य अपने अर्थ खोते गए. 

साहित्यकार अपने मूल में नैतिकता का पक्षधर होता है ( पाखंडी नैतिकता नहीं, सत्य और भरोसे वाली नैतिकता ). दिक्कत क्या हो रही है कि पात्रों द्वारा अनैतिक को चुनने के दबाव को समझने के बजाय अक्सर लोग उसके पक्षधर हो जाते हैं. सत्य और भरोसे की नींव वाली नैतिकता, मेरे हिसाब से, रचनाकार का दायित्व होना चाहिए.

शेषनाथ - सेक्स समाज और साहित्य दोनों के लिए कौतुहल का विषय रहा है. लेकिन साहित्यिक लेखन में सेक्स आने पर चटखारे की बात होने लगती है. लेखन में सेक्स का स्वरूप क्या होने चाहिए क्या नहीं से संबंधित किसी अवधारणा पर पहुँचे है. हिंदी कहानी लेखन के आलोक में अपनी बात रखेंगे कुछ काहनियों का जिक्र करते हुए तो ज्यादा सही होगा. खासकर इस दौर को जरूरी तौर पर शामिल करते हुए.
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चंदन पाण्डेय - यह पुरुष प्रधान समाज और साहित्य की ‘सटीक’ मुश्किल है. हम ऐसे समाज में हैं जहाँ सहवास में सँलिप्त स्त्री के ‘पैसिव’ रहने की परम्परा है. शरीर का लोकतंत्र यहीं से शुरु होता है. प्रेम के लिए जरूरी जो यौनिकता है उसका अगर , आपके लाड़ प्यार को देखते हुए, स्त्री जिक्र भी कर दे तो लोगों के कान खड़े हो जाते हैं. तो हमारे यहाँ गूँगे सहवास या गूँगे प्रेम की परम्परा है. सम्वाद शून्य. अब जहाँ सम्वाद ही नहीं है वहाँ लिखोगे क्या ? हालाँकि इस गूँगे प्रेम की तारीफ में अथाह कागद कारे किए गए हैं.   

हिन्दी साहित्य में ( अच्छा या बुरा ) शरीर की उपस्थिति इतनी कम है कि उसका जिक्र आते ही चटखारे स्वभाविक हैं. ऐसा प्रेम कहानियों की कमी से भी हुआ है. जहाँ शरीर उपस्थित भी है वहाँ रियाज इतना कम है ( उस प्रसंग को लिखने का रियाज ) कि कई बार हम अंग्रेजी अनुवाद से काम चलाते हुए प्रतीत होते हैं. कई बार तो यह भी देखा गया है कि शरीरी प्रेम का जिक्र आते ही हिन्दी के नायक नायिका अंग्रेजी में गपियाने लगते हैं. जैसे प्रत्यक्षा और गीत की कहानियों में.
खास हिन्दी के यौनिक शब्द, जो संस्कृत से सर्टिफाईड होकर आए हैं,  के कम या न प्रयोग से वो असर नहीं पैदा करते. मतलब हिन्दी के तो जैसे कोई शब्द ही नहीं है. आप बताओ, अगर कोई प्रेमी प्रेमिका से कहे कि मैं सहवास करना चाहता हूँ तो सहवास शब्द चूँकि हमारे जनमानस में कभी नहीं उतरा इसलिए उससे जरूरी सनसनाहट नहीं उपजती. बना बनाया मूड उखड़ जाए, ऐसा. लिंग शब्द को शिवलिंग शब्द से जोड़ कर महानुभावों ने सम्वेदना जगाने वाला एक शब्द यों ही खा लिया.  दूसरी तरफ हमारे देशज शब्द गालियों की खुराक बन गए इसलिए सुसंस्कृत लेखकों ने उनको साहित्य या जीवन का हिस्सा बनने नहीं दिया. इससे उलट अन्य भाषाओं जैसे अंग्रेजी या स्पेनिश में देशज यौनिक शब्द प्रयोग में आए तो न सिर्फ उनका असर हुआ बल्कि उनमें परिमार्जन ( इम्प्रोवाईजेशन) भी खूब हुए.
अनिल यादव की एक बहुत अच्छी कहानी है – अप्रेम. उसमें नायिका किसी सन्दर्भ में कहती है – तुम सिर्फ मुझे चोदना चाहते हो. उस कहानी को पढ़ते हुए आप कह सकते हैं कि बिना इस शब्द प्रयोग के वह अर्थ सम्भव ही नहीं था, नायिका का नकार सम्भव ही नहीं था.
फूहड़ता और ऐन्द्रिकता में फर्क भी जरूरी है. अभी काशीनाथ सिंह की एक कहानी तद्भव में आई – महुआचरित. कहानी में काशीनाथ जी न इधर के हो पाए ( सामंती ) और न ई उधर के ( मॉडर्न ). यह उनके भीतर का मास्टर था जो यौनिक सम्वादों को खुद सुनने / लिखने का साहस न कर, बाथरूम के बाहर बैठी लड़की के माध्यम से सुने / सुनवाए. काशीनाथ जी ने इस कहानी को लिखने का साहस किया पर जब ओखल में सर दे दिया था तो उन्हें सीधे, लेखक का विशेषाधिकार प्रयोग करते हुए, वॉशरूम में पहुँच जाना चाहिए था. वहाँ आप दो शरीर के बीच का सच्चा लोकतंत्र दिखा पाते. प्रेमी प्रेमिका या पति पत्नी का साथ स्नान करना, उनके दैनन्दिन जीवन में भी, सामान्य घटना नहीं है. जब प्रेम, विश्वास अपने चरम पर होता है तब लोग ऐसी सुन्दर हरकत करते हैं. लेकिन जब आप अन्दर गए ही नहीं तो जाहिर सी बात है, साऊंड इफेक्ट पर ही भरोसा करेंगे. ऐसे में लेखक ही चटखारे लेने लगता है, पाठक की कौन पूछे.          

मेरा मानना है कि स्त्री पुरुष ( शरीरी ) सम्बन्धी लेखन खूब हो,  जरूरत भर अंतरंग सम्वाद भी लिखे जाएँ, और इस ख्याल से लिखे जाएँ कि फूहड़ता और ऐन्द्रिकता का फर्क हो पाए. जीवन की बात करें तो अपर मिडिल क्लास में यहफर्क आया है, या फिर वहाँ जहाँ प्रेम विकसित हुए हैं. कहानियों में यह होना अभी बाकी है.
    
शेषनाथ - इस समय मुख्यत: साहित्य की तीन धाराएँ है. आपलोगों के लेखन का मुख्य धारा कहने का साहस तो मैं नहीं कर सकता लेकिन इसके साथ एक स्त्री आंदोलन से उपजी धारा है और दूसरी दलित से. आपलोगों का लेखन भी कही गहरे तरीके से सारोकार युक्त है फिर भी अन्य दो धाराओं से आपलोगों के लेखन को अलग कर दिया गया है. बल्की आपलोगों की कहानी को वहाँ कटघर में खड़ी कर दी जाती है जबकि आपलोगों पर जब भी बात होती है उन दो धाराओं से जोड़ कर ही बात होती है. क्या ये अलगाव बाह्य है ? इस अलगाव का क्या देय होगा ? क्या सच में आपलोग उतनी सशक्त्ता से समाज को नहीं देख पा रहे है ?
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चंदन पाण्डेय - सरोकार आपकी धारा तय नहीं करता. धारा एजेंडे से तय होती है. साथ ही यह भी कि धाराएँ जब राजनीतिक होती हैं तो साहित्य वहाँ पूरक की स्थिति में रहता है. अगर इन पैमानों पर जाएँ तो यह कह सकते हैं इस समय के लेखकों में अलग अलग धाराएँ हैं पर सच्चाई है कि इस समय के किसी भी लेखन में स्त्री को प्रमुखता से स्थान मिला है. वो चाहें कुणाल हों, राकेश, वन्दना, नीलाक्षी ( जो कि स्त्री विमर्श की घोषित पैरोकार नहीं हैं ) के यहाँ स्त्रियाँ मानीखेज और लगातार उपस्थिति दर्ज कराती रहीं हैं. जहाँ दलित का प्रश्न है तो इसका जवाब जटिल नहीं पर लम्बा जरूर है. हिन्दी साहित्य में जो प्रगतिशील धारा है, जहाँ साम्यवादी विचार, रचना परम्परा में घुले हुए हैं, उसमें अस्मिता या जातिगत विभाजन से अधिक वर्ग विभाजन पर जोर है और वैसे में हमारे लिए शुरु से ही संसाधनविहीन लोग पात्र रहे, अब वो दलित थे या सवर्ण थे इसका अलग से रेखांकन नहीं हुआ. भूलना कहानी में मैं खुद नहीं जानता, वो परिवार किस जाति का है पर जैसी स्थितियाँ उसे देख कर आप अन्दाजा लगा सकते हैं.  

लेकिन एक दूसरा पहलू भी है:  स्थितियों को सुलझाने में साम्यवादी पार्टियाँ लगभग नाकाम रही हैं इसलिए जो दूसरे तरीके हैं, मसलन संसदीय लोकतंत्रवाद या अस्मितावाद, उनके जरिए भी समाज को देखने की जरूरत है. हो सकता है अंतिम निकष एक ही हो, पर आपका विषय ( सबजेक्ट ) बदलेगा, लेंस बदलेगा. मैं अपनी बात करूँ तो लिखते हुए दस वर्ष हो गए पर आज तक किसी प्रचलित एजेंडे से नहीं जुड़ पाया. कह सकता हूँ, कहानी ही मेरा ऐजेंडा है. मेरी जो भी ट्रेनिंग हुई उसमें सामाजिकता को वर्ग के जरिए ही जाना. साथ ही यह भी बाद में ही जाना कि माओ ने वर्ग के बारे में क्या कहा था ? उनका मानना था कि हर समूह जो आपकी बात सुन सकता है, उस तक जाईये. उससे बातें कीजिए. यह कहना यहाँ उचित नहीं फिर भी, काफी कुछ पूर्वनियोजित लेखन मैं समयाभाव के कारण नहीं कर पा रहा. पर ऐसा कोई बँटवारा उचित नहीं समझता. जाति के सवाल पर जो भी कहानियाँ मैने छान रखी हैं, उन्हें जब पूरा करूँ, तब तक दूसरों का लिखा पढ़ रहा हूँ. और यह लेखन भी सामूहिकता ही तो है, हर कोई एक ही विषय पर लिखे ऐसी अपेक्षा के बजाए यह भी देखा जा सकता है कि सामूहिकता में क्या लिखा जा रहा है ?   

शेषनाथ - चूँकी आप सिनेमा भी बहुत देखते है इसलिए जैसे सिनेमा में कहा जाता है कि विश्व सिनेमा से हमारा सिनेमा बहुत पिछड़ा हुआ है इसलिए हम उसकी तरफ़ भागते है. साहित्य में भी वही परिदृश्य है ?

चंदन पाण्डेय - साहित्य में ऐसा कम है. अब कोई अपनी वाक्य रचना प्रभावित करे तो इसकी जाँच मैं नहीं कर सकता पर रचनात्मक-वैचारिकी के स्तर पर यह कम ही है. हिन्दी, उर्दू और संस्कृत में ज्ञान, मिथ, परम्परा, जड़े आदि काफी गहरे तक गई हैं. मैने गालिब को पढ़ते हुए कितने ऐसे थीम खोजे जो बाद में मुझे पश्चिम में भी मिले. मसलन एक शे’र है “ हूँ मैं भी नैरंग-ए-तमाशाई-तमन्ना/ मतलब नहीं बर इससे मतलब बर आवे”. इसी तर्ज पर मिलान कुन्देरा की एक महान कहानी है – द गोल्डेन एपल ऑव इटर्नल डिजायर. मैं एक उदाहरण देकर कोई सनसनी नहीं या कोई उच्शृंखल बात नहीं करना चाहता. कहना बस यह चाहता हूँ कि सिनेमा से उलट साहित्य में हमारे पास एक शानदार परम्परा है.  
वैसे कुछ चीजें जो खटकती है वो हैं अंग्रेजी/ विदेशी साहित्य के पुराने पड़ चुके मुहावरों को हिन्दी में रखना. मसलन बीते दिनों किसी साथी के उपन्यास अंश में बेबेल की मीनार का रूपक पढ़ा. विश्व साहित्य पढ़ने वाले के लिए इस मुहावरे का प्रयोग ऐसे ही है जैसे अस्सी के दशक की हिन्दी फिल्मों के शौकीनों का आज की चालू भोजपुरी फिल्में देखना.  

1 comment:

  1. bahut badhia anuvad manoj bhaia .bahut bariki se matter ko pakde hai .very nice.

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