इस साल का नोबेल साहित्य पुरस्कार चीनी लेखक मो यान को दिए जाने की घोषणा की गई है. उन्हें भ्रान्तिजनक यथार्थवाद के साथ लोक कथाओं, इतिहास और समकालीन जीवन को मिलाने की अपनी अनोखी शैली के लिए यह पुरस्कार दिया गया है. पिछले सप्ताह लंदन पुस्तक मेले में ग्रांटा सम्पादक जान फ्रीमैन ने उनसे बातचीत की थी. प्रस्तुत है उसी बातचीत का हिन्दी अनुवाद...
सेंसरशिप साहित्य सृजन के लिए बेहतर है : मो यान
(अनुवाद : मनोज पटेल)
जान फ्रीमैन : आपके कई उपन्यासों की पृष्ठभूमि गाओमी के आपके घरेलू कस्बे पर आधारित अर्द्ध-काल्पनिक शहर की है, एक तरह से उसी तरह जैसे कि फाकनर का अमेरिकी दक्षिण. ऐसा क्या है जो आपको इस अर्द्ध-काल्पनिक समाज की तरफ लौटने के लिए मजबूर करता है और विश्वव्यापी पाठक वर्ग ने क्या इस फोकस को कुछ बदला है?
मो यान : जब मैंने पहले पहल लिखना शुरू किया तो लिखने का माहौल था, बिल्कुल वास्तविक, और कथानक मेरे निजी अनुभव पर आधारित हुआ करता था. लेकिन जैसे-जैसे मेरी किताबें छपती गईं, मेरे दिन-प्रतिदिन के अनुभव समाप्त होने लगे और इसलिए मुझे थोड़ी सी कल्पना और यहाँ तक कि कभी-कभी फंतासी मिलाने की जरूरत पड़ने लगी.
जाफ्री : आपकी कुछ रचनाएं गुंटर ग्रास, विलियम फाकनर और गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की रचनाओं की याद दिलाती हैं. क्या शुरू-शुरू में आपको चीन में इन लेखकों की किताबें उपलब्ध थीं? उन लोगों के बारे में कुछ बताइए जिन्होंने आपको प्रभावित किया?
मोया : 1981 की बात है, जब मैंने लिखना शुरू किया, तो मैंने गार्सिया मार्केस या फाकनर की कोई किताब नहीं पढ़ी थी. मैंने सबसे पहले 1984 में उन्हें पढ़ा और इसमें कोई शक नहीं कि मेरे लेखन पर इन दोनों लेखकों का बहुत प्रभाव पड़ा. मैंने पाया कि मेरे जीवन के अनुभव उनके अनुभवों से काफी मिलते-जुलते हैं, लेकिन इसका पता मुझे बाद में ही चल पाया. यदि मैंने उन्हें थोड़ा पहले पढ़ा होता तो उन्हीं की तरह मैं भी अब तक एक मास्टरपीस लिख चुका होता.
जाफ्री : रेड सोरघम जैसे शुरूआती उपन्यास प्रकट रूप से ऐतिहासिक, या कुछ लोगों को तो 'रोमांस' तक लगते हैं जबकि आजकल आपके उपन्यास अधिक प्रकट रूप से समकालीन जगत और विषय वस्तुओं की तरफ आए हैं. क्या यह जानबूझकर किया गया एक चुनाव है?
मोया : जब मैंने 'रेड सोरघम' लिखा था उस समय मैं तीस साल से भी कम उम्र का एक नौजवान था. उस समय मेरी ज़िंदगी, मेरे पूर्वजों की ज़िंदगी को देखते हुए, रूमानी चीजों से भरी थी. मैं उनके जीवन के बारे में लिख रहा था लेकिन उनके बारे में ज्यादा कुछ जानता नहीं था इसलिए उन चरित्रों में मैंने तमाम कल्पनाएँ भर डालीं. जब मैंने 'लाइफ एंड डेथ आर वियरिंग मी आउट' लिखा, उस समय मैं चालीस साल से अधिक उम्र का था. तो मैं एक नौजवान से मध्यवय के एक व्यक्ति में बदल चुका था. मेरी ज़िंदगी अलग है. मेरी ज़िंदगी अधिक समकालीन है और हमारे समकालीन समय की गलाकाट क्रूरता ने मेरे उस रोमांस पर लगाम लगा दिया है जिसे मैं कभी महसूस किया करता था.
जाफ्री : आप अक्सर स्थानीय लाओबाक्सिंग भाषा और खासतौर पर शैनतुंग बोली में लिखते हैं जो आपके गद्य को एक चुटीली धार देती है. क्या आप यह सोचकर निराश नहीं होते कि कुछ मुहावरे और श्लेष शायद अंग्रेजी अनुवाद में ठीक-ठीक न आ पाते हों, या क्या आप अपने अनुवादक हावर्ड गोल्डब्लाट के साथ उस का हल निकालने में सक्षम हो पाते हैं?
मोया : हाँ, यह सच है कि अपनी शुरूआती रचनाओं में मैं स्थानीय भाषा, मुहावरों और श्लेषों का काफी इस्तेमाल किया करता था क्योंकि उस समय मैं ऐसा सोचता भी नहीं था कि मेरी रचना का दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी होगा. बाद में मैंने महसूस किया कि इस तरह की भाषा अनुवादक के लिए तमाम समस्याएँ पैदा करती है. लेकिन स्थानीय भाषा, मुहावरे और श्लेषों का इस्तेमाल न किया जाना मेरे लिए काम नहीं करता क्योंकि मुहावरेदार भाषा जीवंत और अर्थपूर्ण होने के साथ-साथ लेखक विशेष की सिग्नेचर भाषा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होती है. इसलिए जहां एक तरफ अपने कुछ श्लेषों और मुहावरों के उपयोग को मैं संशोधित और समायोजित कर सकता हूँ, वहीं दूसरी तरफ मैं उम्मीद करता हूँ कि हमारे अनुवादक अपने काम के दौरान मेरे इस्तेमाल किए गए श्लेषों को दूसरी भाषा में उतार सकते हैं -- आदर्श स्थिति यही है.
जाफ्री : आपके कई उपन्यासों के केंद्र में सशक्त स्त्रियाँ हैं, मसलन 'बिग ब्रेस्ट्स एंड वाइड हिप्स', 'लाइफ एंड डेथ आर वियरिंग मी आउट' और 'फ्राग' में. क्या आप खुद को नारीवादी मानते हैं या बस एक स्त्री के नजरिए से लिखने में आपकी दिलचस्पी है?
मोया : सबसे पहले तो यह कि मैं स्त्रियों की सराहना और सम्मान करता हूँ. मुझे लगता है कि वे बहुत महान होती हैं और उनके जीवनानुभव तथा सहनशक्ति हमेशा किसी पुरुष से बहुत अधिक होती है. बड़ी आपदाओं से हमारा सामना होने पर स्त्रियाँ सदैव पुरुषों से अधिक बहादुर साबित होती हैं. मेरे ख्याल से इतनी क्षमता उनमें इस वजह से होती है क्योंकि वे माँ भी होती हैं. इसके कारण जो ताकत आती है उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते. अपनी किताबों में मैं खुद को स्त्रियों की जगह रखकर देखने की चेष्टा करता हूँ, इस दुनिया को मैं स्त्रियों के नजरिए से समझने और विश्लेषित करने की कोशिश करता हूँ. लेकिन लब्बोलुआब यह है कि मैं स्त्री नहीं हूँ: मैं एक पुरुष लेखक हूँ. अपनी किताबों में जिस दुनिया का बयान मैंने इस तरह किया है मानो मैं एक स्त्री होऊँ, उसे शायद स्वयं स्त्रियों द्वारा ठीक न माना जाए, लेकिन यह ऎसी चीज नहीं है जिसके बारे में मैं कुछ कर सकता हूँ. स्त्रियों को मैं प्यार करता हूँ और उनकी सराहना करता हूँ लेकिन फिर भी मैं एक पुरुष ही हूँ.
जाफ्री : क्या सेंसरशिप से बचना बारीकी का एक सवाल है, और जादुई यथार्थवाद द्वारा खोले गए रास्तों के साथ-साथ वर्णन की परम्परागत तकनीकें बिना वाद-विवाद का सहारा लिए किस सीमा तक एक लेखक को अपनी सबसे गहरी चिंताएं व्यक्त करने की अनुमति प्रदान करती हैं?
मोया : हाँ, सच में. साहित्य की तमाम पद्धतियों के राजनीतिक आचरण होते हैं. उदाहरण के लिए हमारे वास्तविक जीवन में कुछ तीखे और संवेदनशील मुद्दे हो सकते हैं और वे छुए जाने की अपेक्षा नहीं करते. ऐसे किसी मोड़ पर एक लेखक उन्हें असल दुनिया से अलग करने के लिए अपनी कल्पना का प्रयोग कर सकता है या वे स्थिति को बढ़ा-चढ़ा कर भी कह सकते हैं -- यह सुनिश्चित करते हुए कि वह निर्भीक, जीवंत और हमारी वास्तविक दुनिया की पहचान लिए हुए हो. इसलिए असल में तो मेरा मानना है कि ये सीमाएं या सेंसरशिप साहित्य सृजन के लिए बेहतर ही हैं.
जाफ्री : अंग्रेजी में अनूदित आपकी पिछली किताब जो 'डेमोक्रेसी' नामक एक छोटा सा संस्मरण है, एक युवक और प्रौढ़ पुरुष के रूप में आपके अनुभवों के माध्यम से चीन के भीतर एक युग की समाप्ति का वर्णन करती है. इसका लहजा कुछ विषादपूर्ण है जो पश्चिम के लिहाज से एक हद तक आश्चर्यजनक है: हम यह मानते हैं कि प्रगति का मतलब बेहतरी ही होता है लेकिन आपके संस्मरण से लगता है कि कुछ खो गया है. क्या यह सच्चा वर्णन है?
मोया : हाँ, जिस संस्मरण का आप जिक्र कर रहे हैं वह मेरे निजी अनुभवों एवं मेरे रोजाना के जीवन से भरा है, अलबत्ता इसमें कुछ काल्पनिक भी प्रस्तुत किया गया है. विषादपूर्ण स्वर के बारे में आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं क्योंकि कहानी में चालीस साल का एक आदमी है जो ऎसी युवावस्था को याद कर रहा है जो अब जा चुकी है. उदाहरण के लिए जब आप युवा थे तो हो सकता है कि आप कभी किसी लड़की के प्यार में पागल रहे हों लेकिन किसी कारण से आज वह लड़की किसी और की पत्नी है और अब वह स्मृति वास्तव में दुखद ही होगी. पिछले तीस सालों में हमने चीन को जबरदस्त प्रगति के दौर से गुजरते देखा है, चाहे वह हमारे नागरिकों के जीवन स्तर में हुई हो या उनके बौद्धिक या आध्यात्मिक स्तर में. प्रगति तो प्रत्यक्ष है लेकिन निस्संदेह तमाम चीजें हैं जिनको लेकर अपने रोजाना के जीवन में हम संतुष्ट नहीं हैं. यह सच है कि चीन ने प्रगति की है लेकिन प्रगति खुद ही तमाम मुद्दे लेकर आती है, मसलन पर्यावरण और उच्च नैतिक स्तर में गिरावट के मुद्दे. इसलिए जिस विषाद के बारे में आप बात कर रहे हैं, वह दो कारणों से है -- मैं महसूस करता हूँ कि मेरी युवावस्था समाप्त हो चुकी है, और दूसरे मैं चीन की वर्तमान यथास्थिति से चिंतित हूँ, खासकर उन बातों से जिनसे मैं संतुष्ट नहीं हूँ.
जाफ्री : अंग्रेजी में आपकी अगली किताब कौन सी होगी?
मोया : सैंडलवुड पेनाल्टी
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(ग्रांटा से साभार)
subah subah ek demand bina kiye apne puri kar di sir, iske liye bahut shukriya
ReplyDeleteinse milwaane ka shkuriya
ReplyDeleteबधाई, इस इतने अच्छे जानकारीपरक साक्षात्कार को तुरत उपलब्ध करा देने के लिए.
ReplyDeleteएक और इंटरव्यू मैंने पढ़ा था उसमें मो यान खुल कर फॉकनर का प्रभाव स्वीकार करते हैं अपने पर .
ReplyDeleteपता नहीं क्यों पर मुझे यह लगता है यह अनुवाद आपने तो नहीं किया है.अद्भुत रूप से यथार्थ एवं यथार्थ से बचने का उपक्रम करती हुई बातचीत है. जिसे सिर्फ आप ही समझ एवं लिख सकते थे.कुछ है इस साक्षात्कार में जो अनकहा रहते हुए भी कह डाला गया है.इस यथार्थाजनक अनु वाद जो निश्चय ही वि वाद में न पड़ने की मो यान की विवशता को पुरे उत्स में दर्शा गया है की बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteis lekhak se parichit karane ke liye shukriya.kaljayi kritiyan deshkal ko sath lekar chalti hain.mo yan atyant gambheer lekhak hain.
ReplyDeletebahut sunder interview hai yahan dene ke liye abhar
ReplyDeleterachana
इतनी महत्वपूर्ण सामग्री और वह भी इतनी तीव्रता से पढाने के लिए हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteधन्यवाद यह बातचीत पढ़ाने के लिये।
ReplyDeletebahut hi sundar sakshaatkar, Manoj.
ReplyDeleteबहुत पारदर्शी साक्षात्कार.... बहुत शुक्रिया----
ReplyDeleteआप कमाल करते है
ReplyDeleteबातचीत उपयोगी। हालांकि, सर्वाधिक जिज्ञासा के स्थलों (यथा- मौजूदा चीन के वे हालात जिन्होंने मुलक में तमाम आम प्रगति के बावजूद उन्हें चिंतित बनाए रखा है) पर मोयान पारदर्शी ढंग से प्रतीकात्मक हो गए हैं, किंतु संतोषजनक यही कि उनके ऐसे अंदाज अमुक संदर्भ को और भी व्यंजक ही बनाते महसूस हुए। उपलब्ध कराने के लिए आभार मनोज जी..
ReplyDeleteआभार इस पोस्ट के लिए . ज़रूरी इंटर्व्यू है .
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