Friday, October 19, 2012

दो लघुकथाएँ


दो लघुकथाएँ...    


अनकिया : लारा गैरिसन 
मेरे सास-ससुर आ रहे थे और मुर्गा पकाते हुए मैंने उसे जला डाला था. अब यह पता लगाने का समय आ गया था कि इतना महँगा अवन किसी काम का था या नहीं. मैंने "रिवर्स" वाली बटन दबा दिया. कांच में से मैं देखती रही कि काला धुंआ गायब हो गया और जली हुई चमड़ी पहले सुनहरी और फिर थोड़ा गुलाबी लिए हुए सफ़ेद हो गई. मृत शरीर में पंख उग आए, सर और पैर फिर से निकल आए, और फिर वह इतनी तेजी से सिकुड़ने लगा कि जब तक मैं उस झबरे मुर्गे के चेहरे पर मौजूद सकपकाए हाव-भाव को समझ पाती वह जालीदार रैक पर रखे एक भूरे अंडे में बदल चुका था. मेरी सास खुश तो नहीं ही होने वाली थीं. 
                                                  :: :: :: 

ज़रा सी बातचीत : जीना कार्दारेली 
रोज सुबह वह मुस्कराते हुए पूछा करती, "कैसी हो?" सच्चाई बताने की अनिच्छुक लड़की वही रस्मी सा जवाब दोहरा देती. उसे लगता कि स्त्री की तरफ से यह औपचारिक बातचीत ही है और उसके पास उसकी निजी समस्याएँ सुनने का समय कहाँ होगा. औरत पछताती है कि काश उसने पहले ही यह समझ लिया होता. वह सोचती है कि काश उसने थोड़ा गहराई से उससे पूछताछ की होती, कुछ और कुरेदा होता, कुछ किया होता. वह पछताती है कि काश काले कपड़ों की भीड़ में खड़ी वह इस वक़्त एक बक्से पर भुरभुरी मिट्टी न डाल रही होती. 
                                                  :: :: ::  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

8 comments:

  1. "मेरी सास खुश तो नहीं ही होने वाली थी" सारी फ़ंतासी का केन्द्रीय वाक्य बन गया है. "काश!" तो काश ही है, सब कुछ बिगड जाए तो यही एक मात्र शब्द है जो बचाव की मुद्रा में आ खड़ा होता है.
    अनुवाद बहुत सहज है. बधाई.

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  2. अच्छी कहानियां ,मनोज जी बधाई ! पहली मजेदार है लेकिन मैं इसे थोड़ा और आगे ले जाता --कि यदि वह थोड़ा और रिवर्स करती तो ओवन में एक मुर्गे की जगह एक जोड़ा होता !

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  3. पहली के लिए वाह...दूसरी के लिए आह..

    आभार मनोज जी.
    अनु

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  4. waah,kyaa baat hai,pehli ka anuwad shayad lekhak ki andazebayaN se bhee aage hai.shukriya.

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  5. जरा सी बात ने बहुत प्रभवित किया

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  6. बहुत गहरी, मार्मिक मितकथन की बड़ी कहानियाँ हैं. इन्हें लघु कथाएं कैसे कहूँ...?

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  7. लघुकथा बहुत ही ट्रिकी माध्यम है.बहुत कम बार सटीक रचना पढ़ने मिलती है. यह दोनों ही रचना बाहर अच्छी है --- बहुत बहुत बधाई.

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  8. मनोजजी शकाहारी हूँ.मुर्गी अंडा वाली लघुकथा ज्यादा ही हिंसक लगी मगर दूसरी समाज के दिखावटी स्वाभाव पर तीखा व्यंग्य है.

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