Friday, March 22, 2013

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की कविताएँ

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की दो गद्य कविताएँ... 
ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की दो गद्य कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

चाँद 
मैं समझ नहीं पाता कि तुम चाँद के बारे में कविताएँ कैसे लिख लेते हो. वह मोटा और फूहड़ है. वह चिमनियों की नाक खोदता रहता है. उसका पसंदीदा काम है पलंग के नीचे घुसकर तुम्हारे जूते सूँघना. 
                                                            :: :: :: 

दीवार 
हम दीवार के सामने खड़े हैं. हमारी जवानी किसी मुजरिम की कमीज़ की तरह हमसे छीन ली गई है. हम इंतज़ार करते हैं. स्थूलकाय गोली के हमारी गर्दन में पैबस्त होने के पहले दस या बीस साल गुजर जाते हैं. दीवार ऊंची और मजबूत है. दीवार के पीछे एक पेड़ और एक सितारा है. पेड़ अपनी जड़ों से दीवार को खोद रहा है. सितारा किसी चूहे की तरह पत्थर को कुतर रहा है. सौ-दो सौ सालों में वहां एक छोटी सी खिड़की बन जाएगी. 
                                                            :: :: ::

13 comments:

  1. बेहतरीन है दोनों ही.

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  2. वाह....
    बेहतरीन....

    अनु

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  3. दोनों ही रचना मेजिक रियालिज़म का डरावना पहलु बता रही है -

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  4. आह क्या उदासी भरा व्यंग्य है ...बहुत अच्छी कवितायेँ, अच्छा अनुवाद ।

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  5. आह क्या उदासी भरा व्यंग्य है ...बहुत अच्छी कवितायेँ, अच्छा अनुवाद ।

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  6. मनोज जी.....बहुत अच्छी कविताएं ... दोनों ही...यक़ीनन सौ-दो सौ साल में बनेगी खिड़की...

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  7. मनोज जी.....बहुत अच्छी कविताएं ... दोनों ही...यक़ीनन सौ-दो सौ साल में बनेगी खिड़की...

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  8. बहुत सुन्दर ...
    पधारें "चाँद से करती हूँ बातें "

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  9. vaah....ab chaand par likhi kisi bhi kavita ko padh kar Herbert ki ye kavitaa jaroor yaad aayegi. Mujarim ki Kameez vala bimb bhi jordar hai.....nahi kya?

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  10. Bhai vaah....Chand par likhi ab koi kavita padh kar is polish kavi ki kavita jaroor yaad aayegi.

    Aur ye Mujarim ki kameej vaala bimb bhi jabardast hai....nahi kya???

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  11. दोनों ही बेहतरीन कवितायेँ......आभार मनोज जी

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