ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...
कंकड़ : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट
(अनुवाद : मनोज पटेल)
कंकड़
एक पूर्ण प्राणी है
अपने बराबर
अपनी सीमाओं के प्रति सचेत
पूरा भरा हुआ
एक कंकड़ीले अर्थ से
एक ऐसी गंध से भरा जो किसी को कुछ भी याद नहीं दिलाती
वह किसी को डराकर नहीं भगाता और न कोई इच्छा ही जगाता है
उसका उत्साह और ठंडापन
सच्चे और गरिमा से भरे हैं
मैं भारी पछतावे से भर उठता हूँ
जब उसे पकड़ता हूँ अपने हाथों में
और उसका शानदार शरीर
झूठी गर्माहट से ओत-प्रोत हो जाता है
-- कंकड़ों को वश में नहीं किया जा सकता
अंत तक वे देखते रहेंगे हमारी तरफ
शांत और बिल्कुल साफ़ नज़र से
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बहुत खूब ...वाह ,कविता और अनुवाद दोनों सुंदर
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना,आभार.
ReplyDeleteकंकड को भावनाओं से ओत प्रोत करती बिलकुल नए अंदाज की कविता.वैसे कुछ लोग कंकड होते हैं.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता..कंकड़ पर...
ReplyDeleteवाह मनोज भाई- एक और मोती खोज लाये-
ReplyDeleteककंड सर्वहारा का प्रतीक लगता है पूर्णतः उपेक्षित मगर आशावान.
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