अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...
(लिप्यान्तरण : मनोज पटेल)
वह ज़िंदगी को डराते हैं
मौत को रिश्वत देते हैं
और उसकी आँख पर पट्टी बाँध देते हैं
वह हमें तोहफ़े में ख़ंजर भेजते हैं
और उम्मीद रखते हैं
हम ख़ुद को हलाक कर लेंगे
वह चिड़ियाघर में
शेर के पिंजरे की जाली को कमज़ोर रखते हैं
और जब हम वहां सैर करने जाते हैं
उस दिन वह शेर का रातिब बंद कर देते हैं
जब चाँद टूटा-फूटा नहीं होता
वह हमें एक जज़ीरे की सैर को बुलाते हैं
जहाँ न मारे जाने की ज़मानत का कागज़
वह कश्ती में इधर-उधर कर देते हैं
अगर उन्हें मालूम हो जाए
वह अच्छे क़ातिल नहीं
तो वह कांपने लगें
और उनकी नौकरियाँ छिन जाएं
वह हमारे मारे जाने का ख़्वाब देखते हैं
और ताबीर की किताबों को जला देते हैं
वह हमारे नाम की कब्र खोदते हैं
और उसमें लूट का माल छिपा देते हैं
अगर उन्हें मालूम भी हो जाए
कि हमें कैसे मारा जा सकता है
फिर भी वह हमें नहीं मार सकते
:: :: ::
Afzal Ahmed Syed (افضال احمد سيد)
रातिब : प्रतिदिन की ख़ुराक
जज़ीरा : द्वीप, टापू
ताबीर : ख़्वाब का मतलब
अति वास्तविक. किंतु अनन्य ढंग से आशावादी.
ReplyDeleteअमन की आशा या अमन का तमाशा - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteमारने वालों की जिंदगी की निरर्थकता दर्शाती विचारपरक कविता जिसमें एब्सर्ड उभरता है.
ReplyDelete