जर्मन कवि माइकल आगस्तीन (1953) की 'कविताओं के बारे में कुछ सवाल' की पहली क़िस्त आप यहाँ पढ़ चुके हैं. उसकी अगली क़िस्त के पहले उनकी यह युद्ध विरोधी कविता...
बूट स्ट्रेचर : माइकल आगस्तीन
(अनुवाद : मनोज पटेल)
और वह जूता, जिसे फैलाया गया था एक सांचे से?
क्या हुआ उसके साथ?
अच्छा, वह पड़ा हुआ है आवश्तेथ की
समर भूमि पर, वहीं पड़ा हुआ है वह
आवश्तेथ में.
और वह पैर, जो अटका हुआ था उस जूते में,
जिसे फैलाया गया था एक सांचे से,
कहाँ है वह पैर?
अभी तक अटका हुआ उसी जूते में
जो पड़ा हुआ है आवश्तेथ की समर भूमि पर,
वहीं अटका हुआ है वह पैर.
और वह इंसान कहाँ है
जिसका पैर अटका हुआ है उस जूते में
जिसे फैलाया गया था एक सांचे से,
और जो अब भी पड़ा हुआ है
आवश्तेथ की समर भूमि पर?
वह धरती के नीचे है
जहाँ पास में ही पैदा होते हैं शलजम.
वहां अटका हुआ है वह इंसान!
(और वह सिर्फ एक जूता पहने हुए है.)
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बूट स्ट्रेचर : जूतों को सही आकार में रखने या उन्हें फैलाने के लिए उनके अंदर रखा जाने वाला एक उपकरण.
ReplyDeleteप्रभावशाली कविता ...सुन्दर अनुवाद !
हिन्दी में साहित्यिक चोरी का विवाद अभी थमा भी नहीं था की अनुबादकों में विदेशी कवियों को लेकर छिना झपटी भी देखने में आ रही है। ठीक है की तुमने बहुत विदेशी कवियों से हिन्दी जगत को परिचित कराया है लेकिन यह मत समझना की माइकल अगस्टिन को हम लोग जानते ही नहीं थे। तुम्हारी जानकारी के लिये आगस्टिन फेसबुक पर हैं और रति सक्सेना उनकी मित्र भी हैं। यह जरूर है की सबसे पहले हिंदी अनुबाद तुम्हीं ने किया है।
ReplyDeleteजिस तरीके से रीनू तलवाड़ ने श्रेय लूटने की कोशिश करी है वो भी हास्यास्पद है। जिस दिन तुमने आगस्टिन की पहली पोस्ट लगायी उसी दिन दो घंटे के भीतर बेसब्र अनुवादिका ने गूगल करके उनकी कवितायें अंग्रेजी में ही फेसबुक पर कापी-पेस्ट कर डाला, बिना तुम्हें श्रेय दिये। लेकिन उन्हें शायद यह नहीं ज्ञात की Electronic Footprint वो नहीं मिटा सकती और यह प्रूव हो जायेगा की उनकी पोस्ट्स बाद की है। ये छिना झपटी देख मजा आ रहा है। अब तुम लोग पोस्ट के साथ नक्कालों से सावधान चेतावनी भी लिखना शुरू कर दो।