Thursday, February 21, 2013

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक कविता

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद की एक और कविता...   

एक ज़बान से मुताल्लिक़ इब्तिदाई ख़ाका : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यान्तरण : मनोज पटेल) 

तुम्हारी ज़बान हर सतर में मुख़ालिफ़ सिम्त से शुरू होती है. लफ़्जों का तलफ़्फ़ुज दिन से रात में मुख्तलिफ़ हो जाता है और उनके इमला मौसमों के साथ तब्दील हो जाते हैं. किसी ख़ास दिन कोई नया हर्फ़ दाख़िल होता है और किसी दिन कोई मानूस हर्फ़ ख़ारिज हो जाता है. अब्जद की शक़्ल तुम्हारे लिबास के साथ बदल जाती है. तुम उन लफ़्जों को जोड़ने की कोशिश नहीं करतीं जो तुम्हारी बेएहतियाती से तुम्हारे क़दमों के नीचे आकर टूट गए क्योंकि तुम्हारी ज़बान दुनिया की सबसे ज़्यादा पुरमाया है. तुम्हारे पास पहले, दूसरे और किसी भी बोसे के लिए अलग-अलग लफ़्ज मौजूद हैं. अगर तुम किसी बात पर रो पड़ो तो दुनिया भर में तुम्हारी ज़बान में लिखी हुई किताबें भीग जाती हैं. 
                                                                   :: :: :: 

सतर  :  पंक्ति 
मुख़ालिफ़  :  प्रतिकूल 
सिम्त  :  दिशा, छोर 
तलफ़्फ़ुज  :  उच्चारण 
मुख्तलिफ़  :  अलग, पृथक 
इमला  :  अक्षर विन्यास 
हर्फ़  :  अक्षर 
मानूस  :  हिला-मिला, अंतरंग  
अब्जद  :  वर्णमाला 
पुरमाया  :  समृद्ध 

8 comments:

  1. बहुत ही सुन्दरतम प्रस्तुति.

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  2. किसी को कविता में या कविता को किसी में देखती है यह कविता !
    बहुत सुन्दर पेशकश ! बधाई मनोज जी !

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  3. बेहद खूबसूरत...

    अनु

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  4. कुछ भावों और क्रियाकलापों के लिए कोई भी शब्द उपयुक्त नहीं.प्रेम में उतार चढाव को व्यक्त किया जाना कठिन है.

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