महान पुर्तगाली उपन्यासकार जोसे सारामागो ने फिलिस्तीनी अवाम की आवाज़ महमूद दरवेश की प्रथम पुण्यतिथि के पूर्व, उन्हें याद करते हुए यह आत्मीय गद्य अपने ब्लॉग के लिए लिखा था. साथ में पढ़िए महमूद दरवेश की एक कविता.
महमूद दरवेश : जोसे सारामागो
आने वाली 9 अगस्त को महान फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश की प्रथम पुण्यतिथि होगी. यदि हमारी दुनिया थोड़ा और संवेदनशील और समझदार होती, और अपने द्वारा पैदा किए जाने वाले लोगों की जिंदगियों की लगभग उत्कृष्ट महत्ता के प्रति थोड़ा और जागरूक होती, तो उनका नाम उतना ही प्रसिद्द और प्रशंसित होता, जितना कि उदाहरण के लिए, अपने जीते जी पाब्लो नेरुदा का था. फिलिस्तीनी जनता के कष्ट और उनकी शाश्वत अभिलाषा से उपजी, दरवेश की कविताओं में एक सुघड़ सुन्दरता है जो अक्सर हमें चंद साधारण से शब्दों के सहारे अनिर्वचनीय गूढ़ क्षणों में ला छोडती है, ठीक किसी डायरी की तरह, जहां कोई भी व्यक्ति कदम दर कदम, आंसू की बूँद दर बूँद, ऐसे लोगों की दुर्गति का - साथ ही गहरे, किन्तु दुर्लभ खुशी के क्षणों का भी - सुराग पा सकता है जो पिछले साठ सालों से एक यंत्रणा से होकर गुजरे हैं, और जिसका अभी तक कोई अंत नजर नहीं आता. महमूद दरवेश को पढ़ना एक अविस्मर्णीय कलात्मक अनुभव के साथ-साथ, अपमान और अन्याय की टूटी-फूटी सड़कों पर होते हुए फिलिस्तीनी भू-भाग की किंचित कष्टसाध्य यात्रा के लिए निकलना भी है, जिसने इजरायल के हाथों बेरहमी से कष्ट सहा है. इजरायल यहाँ एक जल्लाद की भूमिका में है, जैसा कि इजरायली लेखक डेविड ग्रासमैन ने कहा है, निर्णायक क्षणों में किसी भी तरह की संवेदना से नितांत अजनबी.
महमूद दरवेश की पुण्यतिथि पर रामल्ला में फिल्माए जाने वाले एक वृत्तचित्र के लिए, मैनें आज पुस्तकालय में उनकी कविताएँ पढीं. मुझे वहां जाकर इन कविताओं को पढने के लिए निमंत्रित किया गया है, लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि मेरे लिए इतनी लम्बी यात्रा करना मुमकिन हो पाएगा या नहीं, ऎसी यात्रा जो निश्चित रूप से इजरायली पुलिस को पसंद नहीं आएगी. वहां पहुँचने पर मैं वे स्थान याद करूंगा जहां यह सब घटित हुआ था : वह जगह जहां सात साल पहले हमने अत्यंत आत्मीयता से एक-दूसरे को गले से लगा लिया था ; वे बातें जो हमने एक-दूसरे से कीं और जिन्हें अब हम कभी दुहरा नहीं पाएंगे. कभी-कभी ज़िंदगी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक हाथ बढ़ाती है. महमूद दरवेश के साथ मेरी मुलाक़ात में ऐसा ही कुछ था.
* * * *
कविता
रुक गई है आखिरी रेलगाड़ी : महमूद दरवेश
आख़िरी रेलगाड़ी रुक गई है आखिरी प्लेटफार्म पर. गुलाब बचाने के लिए
वहां कोई नहीं है, कोई फाख्ते नहीं लफ़्ज़ों से बनी औरत पर उतरने के लिए.
ख़त्म हो चला है वक़्त. झाग से ज्यादा मौजूं नहीं रह गई है कविता.
ज्यादा ईमान न लाओ हमारी रेलगाड़ियों पर मेरी जान. मत करो भीड़ में किसी का इंतज़ार.
आखिरी रेलगाड़ी रुक गई है आखिरी प्लेटफार्म पर. लेकिन रात के आईने में
नर्गिस की झलक कोई नहीं दिखा सकता.
कहाँ लिख सकता हूँ मैं अपनी देंह के अवतार की ताजा दास्ताँ ?
यह ख़ात्मा है उसका जिसे होना ही था ख़त्म ! कहाँ है वह जो ख़त्म हो जाता है ?
कहाँ आज़ाद कर सकता हूँ खुद को अपनी देंह में मौजूद अपने वतन से ?
ज्यादा ईमान न लाओ हमारी रेलगाड़ियों पर मेरी जान. उड़ गया है आखिरी फाख्ता भी.
आख़िरी रेलगाड़ी रुक गई है आखिरी प्लेटफार्म पर. और वहां कोई नहीं था.
(अनुवाद : मनोज पटेल)
Jose Saramago on Mahmoud Darwish
sundar rachna hai......thanx for sharing
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा पोस्ट। आपको साधुवाद।
ReplyDeleteअद्भुत कविता है मनोज भाई , उतना ही अच्छा अनुवाद , बधाई .
ReplyDelete