इस ब्लॉग पर आप महमूद दरवेश की कविताएँ पढ़ते रहे हैं. ईराक में जन्में सादी यूसुफ़ का जीवन भी उन्हीं की तरह निर्वासन में बीता है और वे भी निर्वासन संबंधी कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं. 1934 में बसरा में जन्म, किन्तु 1979 में सद्दाम हुसैन के सत्ता में आने के बाद से वे सीरिया, लेबनान, ट्यूनीशिया, यमन, साइप्रस, यूगोस्लाविया, फ्रांस और जार्डन से होते हुए फिलहाल लन्दन में रह रहे हैं. कविताओं की तीस और गद्य की सात किताबें प्रकाशित. बहुत सा अनुवाद कार्य भी.
कविता : सादी यूसुफ़
किसने तोड़ दिया इन आईनों को
और फेंक दिया उन्हें
किरच दर किरच
टहनियों के बीच ?
और अब...
क्या हमें अल अख्दर से कहना चाहिए कि वह आकर देखे इसे ?
रंग सारे छितरा गए हैं इधर-उधर
अक्स अटक कर रह गया है उनमें
और आँखों में हो रही है जलन.
अल अख्दर को बटोरना ही होगा इन आईनों को
अपनी हथेली पर
मिलाना होगा इन टुकड़ों को एक-दूसरे से
जिस भी तरह वह चाहे
और बचानी ही होगी
टहनियों की स्मृति.
बतना, 26/03/1980
(अनुवाद : मनोज पटेल)
سعدي يوسف
अल अख्दर को बटोरना ही होगा इन आईनों को
ReplyDeleteअपनी हथेली पर
मिलाना होगा इन टुकड़ों को एक-दूसरे से
जिस भी तरह वह चाहे
और बचानी ही होगी
टहनियों की स्मृति.
saadi yusuf ko pahali baar padha. shukriya Manoj ji
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ...( मिलाना होगा इन टुकड़ों को --- बचानी ही होगी टहनियों की स्मृतियों को ) सुन्दर कविता का खूबसूरत अनुवाद
ReplyDeletevishva kavita ke hindi anuvad ka behatrin blog.
ReplyDeletecongrats and please keep it up......
अच्छी कविता ,टूटे आइनों को फिर जोड़ने की बात !
ReplyDeleteधन्यवाद मनोज जी ! अल अख्दर ?
अल अख्दर
ReplyDeleteलोक मान्यताओं में प्रचलित किरदारों के बारे में भी एक पंक्ति का परिचय मिल जाए तो विदेशी कविता का आनंद दुगुना हो जाए |
बहुत बढ़िया.... शेषनाथ...
ReplyDeleteनीरज एवं मिसिर जी,
ReplyDeleteअल अख्दर दरअसल सादी यूसुफ़ स्वयं हैं. खुद सादी यूसुफ़ के अनुसार अल अख्दर मेरा मुखौटा और मेरा ' डबल ' है. सादी यूसुफ़ ने अल अख्दर का आविष्कार अल्जीरिया में रहने के दौरान (1964 के आस-पास) किया. प्रसंगवश, अल अख्दर अल्जीरिया का बहुत प्रचलित नाम है.
कविता खूबसूरत है । अपने आपसे ही किरचें फैलाना और फिर उन्हें चुनने का आग्रह सही अर्थों में मनुष्य को मनुष्य बनाता है ।
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